इक्कीसवीं सदी का कहानी साहित्य जनधर्मी कहानीकार : संजीव

Dr. Mulla Adam Ali
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Twenty-first century story literature, public-spirited story writer: Sanjeev, Kathakar SANJEEV, Hindi Kahaniyan, Stories in Hindi.

साहित्यकार संजीव की कहानियां

Kathakar Sanjeev Ka Kahani Sahitya

Kathakar Sanjeev Ka Kahani Sahitya

इक्कीसवीं सदी का कहानी साहित्य जनधर्मी कहानीकार : संजीव

इक्कीसवीं सदी के इस वर्तमान दौर में जिन हिन्दी कथाकारों ने हिन्दी साहित्याकाश में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया है, उससे एक तेजस्वी नक्षत्र के समान अपनी प्रतिभा से हिन्दी कथा साहित्य को आलोकित करने का कार्य संजीदा रचनाधर्मी संजीव बड़ी लगन और मेहनत से कर रहे हैं। उनके कथा साहित्य का मूलमंत्र एक अन्वेषक की भाँति परिश्रम और लीक से हटकर विषय, पात्र, परिस्थिति और परिवेश का सृजन करना रहा है। संजीव अपनी रचना के लिए तथ्यपरक आधार सामग्री जुटाने अत्याधिक परिश्रम करते हैं, जिस विषय को वे चुनते हैं, उसमें स्वानुभूति, संवेदना और यथार्थ को पूरी ईमानदारी से प्रस्तुत करने के लिए वे उस परिवेश वातावरण, भूगोल, संस्कृति की गहरी छान-बीन करने उस माहौल में बार-बार जाकर स्वयं उसे अनुभूत करके ही उसकी अभिव्यक्ति अपने कथा साहित्य में करते हैं। इस संदर्भ में वे कहते हैं- "बिना शोध और संधान के मैं लिख नहीं पाऊंगा..... रचनात्मक सरोकार ने ही मुझे खोजी बनाया है।" अतः उनका हर उपन्यास हो या कहानी उसके पीछे उनका कठिन परिश्रम और अन्वेषक दृष्टि रही है।

गत तीस सालों से लेखनरत संजीव 21वीं सदी के एक प्रतिभासंपन्न और सशक्त रचनाकार हैं। जिनके अब तक आठ उपन्यास और ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके उपन्यासों में किशनगढ़ के अहेरी, सर्कस, सावधान ! नीचे आग है, धार, पाँव तले की दूब, जंगल जहाँ शुरु होता है, सूत्रधार और रह गयी दिशाएँ इसी पार आदि है, तो कहानी संग्रह में तीस साल का सफरनामा, आप यहाँ है, भूमिका और अन्य कहानियाँ, दुनिया की सबसे हसीन औरत, प्रेरणास्त्रोत और अन्य कहानियाँ, प्रेतमुक्ति, ब्लैक होल, डायन और अन्य कहानियाँ, खोज, गति का पहला सिध्दांत और गुफा का आदमी आदि का समावेश है।

संजीव का कथा साहित्य दलित, आदिवासी, उपेक्षित और वंचितों के जीवन संघर्ष की गाथा है। इक्कीसवीं सदी के हिन्दी साहित्यकारों में संजीव की मूल पहचान एक कहानीकार और उपन्यासकार के रुप में है। उनकी 'अपराध' कहानी ने उन्हें समकालीन हिन्दी के वरिष्ठ और विशिष्ट कथाकारों के बीच स्थापित ही नहीं किया बल्कि उनका हिन्दी कथा साहित्यकारों में एक अलग स्थान भी निर्धारित किया है।

प्रस्तुत लेख इक्कीसवीं सदी का जनधर्मी रचनाकार : संजीव में उनके तीन चर्चित कहानी संग्रह खोज (2002) गति का पहला सिध्दांत (2004) और गुफा का आदमी (2006) का विवेचन करने का प्रयास किया है। जिनकी अधिकांश कहानियों में संजीव ने इक्कीसवीं सदी में जी रहे भारतीय समाज के दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर, स्त्री आदि के दर्दनाक • जीवन से पाठकों को रूबरू किया है। इन कहानियों में उन्होंने निम्नवर्ग से जुड़ी समस्याओं को बार-बार उठाया है, जिसमें जातिवाद, सामंतवाद, पूँजीवाद और बाजारवाद से इस सदी में भारतीय समाज व्यवस्था को बैठे धक्के और उससे उत्पन्न समस्याएँ प्रमुख है। संजीव अपनी कहानियों में जहाँ एक ओर भारतीय ग्रामीण जनजीवन का यथार्थ चित्र हमारे समक्ष उपस्थित करते हैं तो वहीं दूसरी ओर मजदूर वर्ग उनकी यूनियनों तथा कल-कारखानों के परिवेश में रहने वाले आम व्यक्ति के सुख, दुःख, शोषण, निराशा और असहायता से हमारा सीधा साक्षात्कार कराते हैं। संजीव का खोज कहानी संग्रह 2002 में दिशा प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। जिसमें कुछ नौ लम्बी कहानियाँ संग्रहित है। जिसकी प्रथम कहानी 'लिटरेचर'- में एक सुविख्यात आदिवासी साहित्यकार दीपक को दवा कंपनी का मीडिया एक्सपर्ट कहता है कि वह अपने साहित्य द्वारा समाज में ऐसे काल्पनिक रोग की दहशत निर्माण करें, जिसकी दवा कंपनी ने पहले से निर्माण किया है। इस कहानी के द्वारा संजीव ने बड़े-बड़े दावें करनेवाले और नकली दवा बेचनेवाले तथा अपने स्वार्थ के लिए साहित्य का दुरुपयोग करनेवाले, भयानक षडयंत्र रचकर जनता की लूट करनेवाले दवा कंपनियों के मालिकों की पोल खोल दी है।

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'मानपत्र'- मानपत्र पत्र शैली में लिखी कहानी है, जो मानपत्र न होकर नायिका वीणा ने अपने बेईमान पति को लिखा अभियोग पत्र है। जिसमें कहानीकार ने स्वार्थ लोलुप, अवसरवादी और संगीत (कला) को व्यवसाय बनाकर प्रसिद्धि बटोरने वाली पुरुष मानसिकता पर कथा नायक दीपंकर के द्वारा करारा व्यंग्य किया है, जो अपने स्वार्थ के लिए गुरु-शिष्य परंपरा और पति-पत्नी का पवित्र रिश्ता ताक पर रखकर अपनी पत्नी का उपयोग एक पायदान की तरह कर सफलता प्राप्त कर उसका सर्वस्व छीनते हुए उसे अकेला छोड देता है। 'मदद' - इस कहानी में नंदनपुर गाँव में हिंदू और मुस्लिम संप्रदाय की दो नारियाँ पुरुष प्रधान संस्कृति के खिलाफ प्रतिरोध करती हैं। संजीव ने इस कहानी में सनातन सांप्रदायिक मानसिकतावाला समाज आज भी किस प्रकार नारी शोषण कर रहा है इसे उजागर किया है। कोई नारी जब अपने अन्यायी पति को तलाक देती है तो उसे धर्म के खिलाफ किस प्रकार माना जाता है, इस सामाजिक समस्या पर प्रकाश डाला है। 'पूत-पूत ! पूत- पूत !!' यह पैंतीस पृष्ठों की लंबी कहानी संजीव की चर्चित कहानियों में से एक है। जो नक्सलवाडी आन्दोलन पर आधारित है। जिस पूँजीवादी व्यवस्था को नष्ट करने हेतु इस आन्दोलन ने जन्म लिया उसी पूँजीवादी ताकत से वह किस प्रकार तहस-नहस हो गया और अपने उद्देश्य से भटक गया इस स्थिति और स्वरुप को संजीव ने बड़ी बेबाकी के साथ उद्घाटित किया है। इसी प्रकार 'अवसाद' कहानी भी नक्सलवादी आन्दोलन की वर्तमान स्थिति पर विचार करने को हमें बाध्य करती है। इन दोनों कहानियों में वर्तमान बिहार के जंगलतंत्र को अंकित करने का सफल प्रयास संजीव ने किया है। 'हलफनामा' इस कहानी में कहानीकार ने कंपनी मालिक के शोषण षड़यंत्र में फँसे मजदूर की व्यथा का हलफनामा प्रस्तुत किया है। गरीब मज़दूर की पत्नी पर मालिक की कुदृष्टि पड़ने से मज़दूर की पूरी जिंदगी बरबाद होती है। जिससे अपमानित, असहाय मज़दूर अपनी जिंदगी का बयान शपथपत्र में करता है।

'जीवन के पार' में रचनाकार ने दिन-ब-दिन संवेदनहीन होते जा रहे मानवीय रिश्तों पर 'हो' जनजाति के नायक मानसिंह सुंडी और नायिका बामई तिर्की के विरह प्रेम कथा के द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस में आदिवासी प्रेम गीतों का भी सुंदर प्रयोग हुआ है। 'माँ' कहानी में संजीव ने आज हर परिवार में 'माँ' की हो रही उपेक्षा, छटपटाहट और प्रताड़ना का चित्र प्रस्तुत किया है। 'खोज' इस संग्रह की अंतिम तथा पच्चीस पृष्ठों की फंतासी परख कहानी है। इस में इंद्रवंश के राजा कौशलेन्द्र द्वारा गाड़े गए खजाने की सगुनियों द्वारा की जानेवाली खोज है। अंत में खजाना भाप बनकर उड़ जाता है। इसके माध्यम से संजीव ने वर्तमान सत्ता और व्यवस्था का यथार्थ अंकन किया है। आज अपने स्वार्थ से बर्बर लोग धर्म, धन और प्रेम की खोज में पागल कुत्ते से दौड़ रहे हैं, जिसका अंतिम फल दुःख ही है यह बताने का प्रयास संजीव ने किया है तो दूसरी ओर सत्ता और व्यवस्था में पनपते भ्रष्टाचार पर भी व्यंग्य किया है।

'गति का पहला सिद्धांत' यह कहानी संग्रह 2004 में मेधा बुक्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है। प्रथम कहानी 'उष्मा' में जमींदार के घर पर चाकरी करनेवाले बरसाती और उसकी पत्नी अपने शोषण के विरुद्ध जमींदार के खिलाफ़ विद्रोह करते हैं। लेखक ने बंधुआ मज़दूर की तरह रहनेवालों में भ्रष्ट जमींदार वर्ग के खिलाफ़ प्रतिरोध की भावना निर्माण करने का कार्य किया है। 'मरज़ाद' कहानी में गाँव का प्रधान पिछड़ी जाति का धनपतराय है जो गाँव के उच्चवर्गीय महाराज और मिसिर जी के इशारे पर चलता है। उसके इस बर्ताव से तंग आकर उसकी पत्नी शांता समाज-सेवा करते- करते गाँव के प्रधान के चुनाव में स्वयं ही अपने पति तथा महाराज के मर्जी के खिलाफ़ खड़ी होकर विद्रोह करती है और चुन के आती है और गाँव के परंपरागत रीति, रिवाज और मर्यादा को तोड़ डालती है।

'कचरा' रिश्ते-नाते से ज्यादा जीवन में धन और संपत्ति को महत्व देनेवाले स्वार्थी हर्ष की कहानी है। तो 'हत्यारे' कहानी में लेखक ने बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने स्वार्थ के लिए तेल प्राप्त करने की होड़ में हरे भरे द्वीप को किस प्रकार कब्रिस्तान में तब्दील कर देते हैं और वहाँ के जनजीवन तथा प्राकृतिक संपदा का दोहन कर उसकी बेशुमार हानि करते हैं। इस का यथार्थ समाज के सामने लाने का स्तुत्य प्रयास कर वर्तमान बाजारवाद में पनप रहे हत्यारों का नकाब उतारा है।

'गति का पहला सिध्दांत'- एक लंबी कहानी है जिसमें सिद्धांतकार के चेलों द्वारा उपाध्या जी के खेत में नीलगाय और बंदरों को हाँककर उनकी ऐंठ निकाली गई है। उपाध्या जी हनुमान के परम भक्त होने के नाते खेत से बंदरों को हाँक नहीं सकते उस पर उन्हें सिद्धांतकार सलाह देते हैं कि बंदर, गाय को मारना पाप है, जिससे देवी- देवता का कोप हो जाएगा और इसी ड़र से उपाध्या जी निष्क्रिय हो जाते हैं। 'बीहड़' इस कहानी में संजीव ने साक्षात्कार शैली का आधार लेकर चंबल (मध्यप्रदेश) की डाकू फूलनदेवी के जीवन का यथार्थ चित्रण नायिका सितबादेवी के द्वारा पाठकों के सामने खोलकर रखा है। सितबादेवी स्वयं पर हुए अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न का जो बदला लेती है वह उचित है या अनुचित का फैसला करने पर बाध्य करनेवाली यह मर्मस्पर्शी कहानी है। 'जे येहि पद का अरथ लगावे' इस कहानी में कथाकार ने गणेशसिंघ के बेटे घनेश्वर तथा अधकारी गाँव के लोगों के माध्यम से यह साबित करने का प्रयास किया है कि आज का मनुष्य निरंतर जात, पात और घात में लगा है, परंतु उसका अंत कितना भयानक होता है। 'डेढ़ सौ सालों की तनहाई' में भारत से गिरमिटिया मज़दूर बनकर काम धंधे के लिए विदेश (मॉरीशस) में जाकर बसनेवाले लोगों की बेचैनी और छटपटाहट को अभिव्यक्त किया है। ऐसे लोग न किसी एक देश, धर्म, जात के रहते है, वे अपने देश में भी पराये और परदेश में भी पराये समझे जाते है। इसी कारण वे अपने आप को हर जगह उखड़े हुए महसूस करते हमेशा तड़पते रहते हैं। इसका प्रमाणिक विवेचन संजीव ने इस कहानी में किया है। इस प्रकार तनहाई में जीवन जीनेवाले आदिवासी भारतीयों की व्यथा से यह कहानी हमें रुबरु करती है।

'गुफा का आदमी' संजीव का यह कहानी संग्रह सन् 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है, जिसमें दस कहानियाँ संग्रहित है। प्रथम कहानी 'ज्वार' में लेखक ने देशविभाजन की त्रासदी को शिखा और आणिमा दो मौसेरी बहनों के माध्यम से उभारा है। देश के बँटवारे के समय बिछड़े अपने मौसेरे भाई नीहारसिंह और बहन आणिमा को शिखा वर्तमान बांग्लादेश के बर्द्धमान में पाती है लेकिन वहाँ जाने पर उसे पता चलता है कि गाँव में एक भी हिंदू परिवार नहीं है, आणिमा ने भी अपनी जान और इज्जत बचाने के लिए इस्लाम कबूल किया है और वह उसके सामने होकर भी उसे पहचानने से इन्कार करती है। इस प्रकार संजीव ने प्रस्तुत कहानी में देश विभाजन के समय सामान्य लोगों को कितनी यातनाएँ और संत्रास भुगतना पड़ा इस का यथार्थस्पर्शी चित्रण किया है।

'योद्धा' कहानी में संजीव ने मंझल काका के द्वारा गाँव के उच्चवर्णीय द्वारा हमेशा अपमानित, प्रताडित और उपेक्षित निम्नवर्ग को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध उठ कर संघर्ष करने का एलान किया है। इस कहानी का योद्धा वर्तमान व्यवस्था का अंग बनने के बजाए उसे बदलने की लड़ाई लड़ता है, उसके लिए वह जिस रणनीति को अपनाता है वह वर्गवादी व्यवस्था को ही हिला देती है। 'बुद्धपथ' में शीलभद्र बौद्ध पुजारी हर समस्याओं का समाधान बुद्धपथ में ही देखता है लेकिन वह स्वयं के जीवन में कहीं भी इस पथ पर चलता नहीं। लेखक ने इस कहानी में यह बताया है कि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारे से उपजे विवाद से देश की एकता को खतरा पैदा हुआ है, सांप्रदायिक हिंसा से हजारों निष्पाप लोग मारे जाते हैं, पीढ़ियाँ बरबाद हो रही है। जिस भगवान ने खुद राजमहल को त्याग दिया उसे ही आज के लोग खुद के स्वार्थ के लिए महलों में कैद करने लगे हैं।

'खयाल उत्तर आधुनिकी' - में स्वतंत्रता के नाम पर स्वैराचार करनेवाली वर्तमान युवा पीढ़ी पर संजीव ने करारा व्यंग्य किया है। आज प्रदीप और प्रतीक्षा जैसे प्रेमी युगुल नीति, नियम, सिद्धांत आदि को ताक पर रखकर एक दूसरे से प्रेम तो करते हैं परंतु इनके प्रेम में आत्मसमर्पण की भावना नहीं है, ये दोनों प्रेम करने के बावजूद भी अपनी स्वतंत्रता खोना नहीं चाहते और न ही एक दूसरे के प्रति वफादारी निभाते हैं। इस बढ़ती नयी सामाजिक समस्या का रेखांकन इस कहानी में किया गया है। 'दस्तूर' कहानी में ऊँचे खानदान, राजघरानों में झूठी शानोशौकत और संपत्ति को लेकर होनेवाले संघर्ष का वास्तविक शब्दांकन संजीव ने किया है। राजघरानों में राजा कई रखेले रख सकता है पर सौत नहीं। जब राजा दूसरी सौत ले आता है तब रानी कहती है- "मैं हजार रखेल बर्दाश्त कर सकती हूँ लेकिन एक सौत नहीं।" यही रानी जब राजा और उसके राजघराने की इस रखेल परंपरा के खिलाफ विद्रोह करती है, तब उसका वही हश्र होता है जो राजघरानों से प्रतिरोध करनेवाले का होता है और यही ऊँचे राजघराने का दस्तूर होता है।

'राख' कहानी में परंपरा से चले आ रहे नारी 'शोषण, अत्याचार और समस्याओं के विभिन्न पहलूओं को संजीव जी ने जोखनबहू के चरित्र के द्वारा बारीकी से उद्घाटित किया है। स्त्री देह लेकर जन्मी औरत की समस्याएँ उसके उस देह को जलकर राख होने तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। इस दर्दनाक सत्य का ज्वलंत उदाहरण जोखनबहू का चरित्र है। 'राख' जोखनबहू की उपेक्षित, अपमानित और शोषित जीवन की करुण गाथा है। जोखनबहू कुरुप और बाँझ होने के कारण सारा गाँव उसे अपसगुनी मानता है। गाँव की औरतें और पुरुष भी बार- बार उस पर ताने कसकर अपमानित ही नहीं करते तो अस्पृश्य और अपसगुनी मानकर दोनों पति-पत्नी को कोई काम भी नहीं देते, परिणामतः भूखा-प्यासा काम की खोज में लगा जोखन मर जाता है और जोखनबहू जीवन से तंग आकर सती हो जाती है। तब यही सनातनवादी गाँव-वाले उसकी चिता की जगह पर सती का चौरा बांधकर उसकी नित्य पूजा कर प्राप्त धन और अनाज भरपेट खाते हैं। अतः जीवन भर अपसगुनी जोखनबहू मरने के बाद पुजारीयों के उदरभरण का साधन बन जाती है। 'अविष्कार' कहानी में संजीव जी ने बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति पर करारी चोट की है। कहानीकार ने इस कहानी में हजारों मज़दूरों का पेट भरनेवाला तथा उनके हाथों को काम देनेवाला लौह उत्पादक कारखाना तोड़कर वहाँ पर स्टुडियों कॉम्पलेक्स का अविष्कार करनेवाले पूँजीपतियों के षड़यंत्र का पर्दाफाश किया है। कारखाना बंद कर उसे गिराकर अपनी मुँह की रोटी छिन लेनेवाले पूँजीपतियों से संघर्ष करने की हिम्मत मज़दूरों में न होना इस कहानी की मूल संवेदना है। 'धक्का'- कहानी में संजीव ने मास्टर - कृष्णमोहन सहाय और उनके छात्रों के माध्यम से सहाय जी जैसे अध्यापक के विचार, आचार और सिद्धांत पर प्रकाश डाला है। कथानायक मैं को कॉलेज जीवन से सहाय सर के विचार और चरित्र प्रभावित करता रहा है। सहाय जी एक आशावादी अध्यापक है जो अपने छात्रों द्वारा समाज में नयी क्रांति लाना चाहते हैं किन्तु उनके सपने पूरे नहीं होते अंत में वे कहते हैं- 'अपने सपने नहीं सजा सका, दूसरों को आकार देने का मुगालता नहीं पालना चाहिए।'

इस कहानी संग्रह की अंतिम कहानी 'गुफा का आदमी' है। जिसमें बोंड़ा आदिवासी युवती सोमा की प्रेम, व्यथा का हृदयस्पर्शी चित्रण संजीव ने किया है। यह कहानी गुफा की तरह सन्नाटा भरा जीवन जीनेवाले तैयबचा का बच्चा है, शुकरा उसको स्वीकार भी करता है लेकिन एक दिन शुकरा और पुतोह के अनैतिक संबंध सोमा देखती है और उससे क्रुद्ध होकर अपने पति शुकरा की हत्या कर जेल जाती है। अंत में सोमा तैयबचा से कहती है- 'तुम बहोत चाहते थे न कि बेटा पढ़ लिख जाए, गाँव में स्कूल कहाँ था? जेल में है। अब जेल में पढ़ लिखकर निकलेगा। डरने की कोई बात नहीं है, हाकिम, हिफाजत के लिए मैं भी तो यही हूँ न ।' इस प्रकार सोमा - और तैयबचा के विरह प्रेम की टीस का सूक्ष्म अंकन इस कहानी में दृष्टिगोचर होता है।

सारांश रुप में कहा जा सकता है कि जनधर्मी कथाकार संजीव ने अपनी कहानियों में दलित, आदिवासी सदियों से प्रताड़ित और उपेक्षित निम्नवर्ग को अपनी कहानी के केंद्र में रखा है जो खास कर पहाड़ी गाँवों तथा जंगलों में बस्ती बनाकर रहते हैं ऐसे एक बड़े जनसमुदाय के दर्दनाक जीवन संघर्ष और समस्याओं से हिन्दी के तमाम पाठक वर्ग को अवगत कराने तथा इन पिछड़ी जनजातियों के मूक वाणी को आवाज देने का महत्ती कार्य अपने कथा साहित्य के द्वारा किया है। संजीव की सभी कहानियाँ सामाजिक, नैतिकतावादी आग्रहों से परिचालित है। इसी कारण जहाँ वे उपभोक्तावाद का विरोध करते हैं, वहीं व्यापक जनसमुदाय की समस्याओं और जरुरतों की अनदेखी करनेवाली सरकारी विकास की नीतियों का खुलकर विरोध करते हैं। संजीव के कहानी साहित्य के संदर्भ में डॉ. रविभूषण कहते हैं- 'संजीव की कहानियों का फलक व्यापक है। प्रेमचंद और यशपाल को छोड़कर इतने बड़े कथा-फलक का अन्य कोई कथाकार हिन्दी में नहीं है।'

इक्कीसवीं सदी के हिन्दी कहानीकारों में संजीव अपने कहानी के विषय वैविध्य, व्यापक कथा-फलक और नूतन शैली और अक्स, बक्स और रक्स के कारण चर्चित रहे हैं। संजीव की कहानियाँ हमें प्रेमचंद की याद दिलाती है, जिसमें हर वर्ग, धर्म, जाति और आवस्था के चरित्र अपनी संपूर्ण जीवंतता के साथ पाठकों के सामने साकार होते हैं। 'खोज' कहानी संग्रह में संजीव ने नक्सलबाड़ी आन्दोलन उसके अन्तर्विरोध, बाजारवादी और पूँजीवादी संस्कृति के सामाजिक दुष्परिणाम तथा नैतिक और सांस्कृतिक मानवीय मूल्यों की विसंगति की अभिव्यक्ति सशक्त रुप में किया है। 'गति का पहला सिद्धांत' में उच्च वर्ग द्वारा निम्न वर्ग के शोषण का यथार्थ चित्रांकन किया है, तो 'गुफा का आदमी' कहानी संग्रह में युगों-युगों से अपमानित, उपेक्षित तथा जातिवाद का शिकार हुए आम जन की करुण व्यथा को बुलंद आवाज दिया है।

संदर्भ :

1. खोज - संजीव

2. गति का पहला सिध्दांत - संजीव

3. गुफा का आदमी - संजीव

4. कथाकार संजीव - सं. डा. गिरीश काशिद

5. सामाजिक यथार्थ और कथाकार संजीव - डॉ. शहाजहान मणेर

- प्रा. कदम भगवान रामकिशनराव

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