हिन्दी निबंध 250 शब्दों में विज्ञान और मानव जीवन पर कैसे लिखे, Vigyan aur Manav Kalyan Par Hindi Mein Nibandh Lekhan, Science and Technology Essay in Hindi.
Essay in Hindi on Vigyan aur Jeevan
Essay on Modern Science and Human Life in Hindi
विज्ञान और मानव-कल्याण
शास्त्र, साहित्य, कला, सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान तथा अन्य जो कुछ भी इस विश्व में अपने सूक्ष्म या स्थूल स्वरूप में विद्यमान है, उन सबका एकमात्र एवं अन्तिम लक्ष्य मानव-कल्याण या हित साधन ही है। इससे बाहर या इधर-उधर अन्य कुछ भी नहीं। इससे भटकने वाली, इधर-उधर होने वाली प्रत्येक उपलब्धि, योजना और प्रक्रिया अपने आपमें निरर्थक और इसलिए त्याज्य है। यही सृष्टि का सत्य एवं सार-तत्त्व है। सभी प्रकार की उपलब्धियों, साधनाओं, क्रियाकलापों और गतिविधियों का उद्देश्य या लक्ष्य मानव-कल्याण ही है और रहेगा। इसी मूल अवधारणा के आलोक में ही 'विज्ञान और मानव कल्याण' या इस जैसी किसी अन्य विषय-वस्तु पर विचार किया जा सकता है।
'विज्ञान' का शाब्दिक एवं वस्तुगत अर्थ है किसी विषय का विशेष और क्रियात्मक ज्ञान। क्रियात्मक ज्ञान होने के कारण ही विज्ञान अपने अन्वेषणों-आविष्कारों के रूप में मानव को कुछ दे सकता या वर्तमान में दे रहा है। विज्ञान भौतिक सुख-समृद्धियों का मूल आधार तो है, पर आध्यात्मिक सिद्धियों-समृद्धियों का विरोधी कदापि नहीं है। फिर भी कई बार क्या अक्सर विज्ञान को धर्म और अध्यात्मवाद का विरोधी समझ लिया जाता है; जबकि वस्तुसत्य यह है कि धर्म और अध्यात्म-भाव को वैज्ञानिक दृष्टि और विश्लेषण-शक्ति प्रदान कर विज्ञान मानव के हित-साधन में सहायता ही पहुँचाता है। विज्ञान ने उन अनेक अन्धरूढ़ियों और विश्वासों पर तीखे प्रहार किए हैं, जिनकी भयानक जकड़ के कारण मानव-प्रगति के द्वार अवरुद्ध हो रहे थे। चेतना कुण्ठित होकर कुछ भी कर पाने में असमर्थ हो रही थी। यह विज्ञान की ही देन है कि आज हम अनेकविध भ्रान्त धारणाओं के चक्र-जाल से छुटकारा पाकर मानव की सुख-समृद्धि के लिए अनेक नवीन प्रगतिशील क्षितिजों के उद्घाटन में समर्थ हो पाए हैं। ऊँच-नीच, जाति-पाँति, छुआछूत, अन्ध-धार्मिक धारणाओं से हमें विज्ञान ने ही मुक्ति दिलवाई है। हम आज खुले मन-मस्तिष्क से सोच-विचार सकते हैं, खुले वातावरण और वायुमण्डल में साँस लेकर जी सकते हैं। आज हमारी मानसिकता को अनेकविध व्यर्थ भय के भूत आतंकित नहीं किए रहते। हम किसी भी बात का निर्णय खुले मन-मस्तिष्क से करके अपने व्यवहार को तनुकूल बना पाने में समर्थ हैं। मानव-कल्याण के लिए इन सब बातों को हम आधुनिक विज्ञान की कल्याणकारी देन निश्चय ही मान सकते हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक युग के प्रारम्भ होने से पहले तक हमारा जीवन पूर्णतया प्रकृति और परम्परागत सीमित साधनों पर आश्रित था। अनेकविध भय के भ्रम-पूर्ण भूतों से आतंकित वह कछुए की तरह अपने ही भीतर सिकुड़ा हुआ था। उसकी विकास-गति भी कछुए की सी ही थी। पर अब विज्ञान ने मानव को प्रकृति और परम्परागत सीमित साधनों से छुटकारा दिलवाकर व्यापक क्षितिज प्रदान किया है। जीवन जीने के नए-नए उपकरण एवं संसाधन उपलब्ध कराए हैं। उनकी प्रत्येक गति-दिशा को तीव्र से तीव्रतर और तीव्रतम किया है। इस प्रकार असम्भव को भी सम्भव बना दिया है। आज प्रकृति के सभी तत्त्व मानव के दास बनकर उसकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं। जल, थल, नभ सभी जगह मानव की पहुँच हो गई है। बादल उसकी इच्छा से बरस सकते हैं, पवन देवता इच्छा से हवा देते हैं। अग्नि देवता और विद्युत्-शक्तियाँ छोटे-छोटे बटनों के संकेत पर प्रगट और तिरोहित होती हैं। दूर-दराज की घटना का घर बैठे साक्षी बना जा सकता है। इस धरती की मिट्टी के पुतले मानव के कदम अन्तरिक्ष की सभी पों को नापकर मानव-कल्याण की दिशा में अग्रसर हैं। कुछ भी तो दूर या अपहुँच की सीमा में नहीं रह गया। इस सबके भौतिक स्तर पर तो मानव का कल्याण विज्ञान द्वारा सम्भव हो हो सका है, अन्ध-धारणाओं का निराकरण हो जाने के कारण आति आध्यात्मिक स्तर पर भी निश्चय ही विज्ञान ने मानवता को अपनी कल्याणकारिता की उच्च, पावन एवं यथार्थपरक दिशा की ओर आगे बढ़ाया है।
वैज्ञानिक युग और वैज्ञानिक अन्वेषणों-आविष्कारों का मूल लक्ष्य ही वस्तुतः मानव के कल्याण का पुनीत भाव है। यदि मानव स्वयं ही अपनी उपलब्धियों का अपने ही विनाश-हित उपयोग करना चाहे, तो उसे कौन रोक सकता है। अपनी नियति का अपने कर्म-फल का विधाता मानव स्वयं है। वह विज्ञान की गाय के थनों से कोमल उँगलियों का सहारा लेकर दूध भी दुह सकता है कि जो हर हाल में पौष्टिक एवं स्वास्थ्यप्रद है, दूसरी ओर यह मानव ही विज्ञान की गाय के थनों से जोंक की तरह चिपककर उनसे रक्त चूसकर उसके साथ-साथ अपने विनाश और सर्वनाश को भी आमन्त्रित कर सकता है। उसे किसी भी दिशा में जाने से कौन रोक सकता है? हाँ, रोक सकता है, तो मात्र उसका अपना जाग्रत विवेक और तद्नुरूप सम्पादित कर्म, अन्य कोई नहीं।
ज्ञान-विज्ञान की नित नई उपलब्धियों के कारण ही आज शिक्षा का विस्तार सम्भव हो सका है। मानव को नई और सूझ-बूझपूर्ण आँख मिल सकी है। ज्ञान-विस्तार और मनोरंजन के विभिन्न क्षेत्र एवं संसाधन प्राप्त हो सके हैं। वह गाँव-सीमा से उठकर नगर, नगर-सीमा से ऊपर जिला और प्रान्त, फिर राष्ट्रीय और सबसे बढ़कर अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं तक अपना, अपने मानवीय सम्बन्धों का निरन्तर विकास कर सका है। अनेक प्रकार के संक्रामक एवं संघातक रोगों से भी मुक्ति पाने में समर्थ हो सका है। ऐसा क्या नहीं, जो विज्ञान ने मानव को अपने सुख-समृद्धि और कल्याण के लिए नहीं दिया?
यह ठीक है कि दिन के साथ जुड़ी रहने वाली रात के समान विज्ञान ने विनाश के भी अनेक संसाधन जुटा दिए हैं। मानव के हृदय पक्ष को लगभग शून्य बना उसे अधिकाधिक बुद्धिवादी बना दिया है। जिस कारण अनेकविध रसिक-रोचक वैज्ञानिक साधनों-प्रसाधनों के रहते हुए भी आज का मानव-जीवन शुष्क-नीरस होता जा रहा है। आपस में सामान्य सम्बन्धों में भी दरारें आती जा रही हैं। अशान्ति, अराजकता, शीतयुद्ध के क्षेत्र और युद्ध की सम्भावनाओं का भी आज विस्तार होता जा रहा है। परन्तु विचार का मुख्य मुद्दा यह है कि इन सबके लिए विज्ञान और उसकी उपलब्धियों को क्यों- कर और किस सीमा तक दोषी ठहराया जा सकता है? हम यह तथ्य क्यों नहीं सोचना-समझना चाहते कि अपने आपमें विज्ञान और उसकी उपलब्धियाँ जड़ और निर्जीव हैं। उसके संचालक, प्राप्तकर्ता और 'भोक्ता सभी कुछ हम हैं-हम मानव कहे जाने वाले बुद्धि और हृदयवान प्राणी। यदि हम स्वयं अपनी विचारधारा, अपने हृदय और बुद्धि, अपनी इच्छाओं और स्वार्थों को सन्तुलित रख सकें, तो कोई कारण नहीं कि विज्ञान मानवता का बाल भी बाँका कर सके। मानव-कल्याण के अपने पावन और चरम लक्ष्य से विज्ञान स्वयं नहीं भटकता, हम मनुष्य भटका करते हैं। तब उसे दोष देने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम मानव अपने मन-मस्तिष्क को विशाल, उदार और सन्तुलित बनाएँ। निहित स्वार्थों या दम्भों को, सभी प्रकार की कुण्ठाओं को भुलाकर विज्ञान की गाय के बछड़े बनकर उसका दूध पीने-दुहने का ही प्रयत्न करें, जोंक बनकर रक्त चूसने का नहीं। बस, फिर मानवता का कल्याण-ही-कल्याण है। अन्य कोई उपाय नहीं है कल्याण का।
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