बाल साहित्य: हिंदी का संदर्भ

Dr. Mulla Adam Ali
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बाल साहित्य पर विशेष हिन्दी के संदर्भ में डॉ. दिविक रमेश जी का आलेख आपके समक्ष प्रस्तुत है। Children's Literature: Hindi Reference, Hindi।Bal Sahitya.

Hindi Bal Sahitya

Children's Literature in Hindi

Children's Literature in Hindi

बाल साहित्य: हिंदी का संदर्भ

- दिविक रमेश

किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि लोकगीत और मौखिक परंपरा, जो सभी भारतीय भाषाओं के बालसाहित्य के उद्गम स्रोत माने गए हैं , के निर्माता कौन थे और वास्तव में वे कब अस्तित्व में आए, लेकिन यह निश्चित है कि भाषा कोई भी हो, हर भाषा का साहित्य एक आम संस्कृति और विरासत को सांझा करता है । शोधकर्ताओं के अनुसार, हर भारतीय भाषा में समान तरह की कविताएं, गीत, कहानियां आदि काफी संख्या में उपलब्ध हैं। भारत लगभग सभी मामलों में विविधता का देश है, लेकिन सांस्कृतिक जड़ें समान हैं।

कुल मिलाकर कहा जाए तो हिन्दी का बालसाहित्य लोरी,, पालना गीतो, प्रभाती, दोहा, गज़ल, पहेली, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, नाटक आदि अनेक रूपों और विधाओं से सम्पन्न है । आज का बाल साहित्य तो कितने ही सार्थक प्रयोगों से समृद्ध है ।हिन्दी के बालसाहित्य और उसमें भी कविता के क्षेत्र में उसकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति को रेखांकित करते हुए एक समय में प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार और नंदन के संपादक स्व० जयप्रकाश भारती ने उस समय को बाल साहित्य का ’स्वर्णिम युग’ कहा था जिसे बड़े पैमाने पर स्वीकार भी किया गया। तो भी सच यह भी है कि हिन्दी के बाल साहित्य के सही मूल्यांकन और उसके सही रेखांकन का अभाव है। जानकारियां हैं, कुछ हद तक इतिहास और शोध-कार्य भी उपलब्ध होने लगे हैं, लेकिन अपने सही अर्थों में. समीक्षात्मक एवं आलोचनात्मक साहित्य की दृष्टि से अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। फिलहाल, किसी सुदृढ़-सुचिन्तित सौन्दर्यशास्त्र और सम्यक या संतुलित दृष्टि के अभाव में आज की तथाकथित उपलब्ध आलोचना प्राय: आलोचक की पसन्द या नापसन्द पर अधिक टिकी होती है। हाँ, आज बाल साहित्य की ओर लोगों और संस्थाओं का ध्यान जरूर जा रहाहै बवजूद अनेक चुनौतियों के। विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी का बाल साहित्य अब चर्चा के योग्य मान लिया गया है। विदेश मंत्रालय की पहल पर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, भारत सरकार हिंदी के बाल साहित्य का प्रवृतिपरक (प्रवृत्तिमूलक) इतिहास लिखवाने, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कराने, बाल साहित्य का हर पत्र-पत्रिका में स्थान निर्धारित कराने और उसका वार्षिक आकलन कराने के कामों में संलग्न है। राजस्थान में बाल साहित्य अकादमी के गठन की भी सुखद सूचना है। आज हिंदी में बाल साहित्य की पुस्तकें एक बहुत बड़ी संख्या में हर वर्ष छप रही हैं। एनबीटी, प्रकाशन विभाग, साहित्य अकादेमी सहित कितने ही प्राइवेट प्रकाशक इस काम को निरंतर कर रहे हैं। सोशल मीडिया भी भरपूर सहयोग दे रहा है। लेकिन अभी बहुत बहुत अधिक आगे जाना है।

हिन्दी सहित भारतीय बाल साहित्य की बात जब भी शुरू होती है, हम पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत और पाली भाषा में लिखे हमारे महान विश्व प्रसिद्ध क्लासिक्स के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। ये सभी भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के स्रोत के रूप में माने जाते हैं । ये क्लासिक्स हैं- ‘पंचतंत्र’, 'हितोपदेश'( पंचतंत्र से थोड़े हेरफेर के साथ नारायण पंडित द्वारा लिखित), ‘कथासरित्सागर ‘ ( कश्मीर निवासी सोमदेव द्वारा रचित) संस्कृत में हैं और ‘जातक’ (बोधिसत्व के पिछले जन्मों के विषय से सम्बद्ध कहानियां ) पाली में है। इनके अतिरिक्त महाभारत और रामायण जैसे महान महाकाव्यों ने भी बाल कहानियों के बड़े स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ‘लोरी’ के प्रारम्भ के संबंध में सूकरक्षेत्र शोध संस्थान, कासगंज के निदेशक डॉ नरेशचन्द्र बंसल के इस मत पर ध्यान दिया जा सकता है -" मार्कण्डेय पुराण में साध्वी मदालसा के वत्सल हृदय से हृदयोद्दाम जो लोरी गीत अपने बालक के रंजन हेतु स्फुरित हुए, वे संभवत: पहले लिखित लोरी गीत रहे होंगे।" (लल्ला-लल्ला लोरी, डॉ. मालती शर्मा, क्षितिज प्रकाशन,16 कोहिनूर प्लाजा एलफिन्स्टन रोड, खड़की, पुणे-411003, 2016, पृ. 5)

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हिन्दी के बाल साहित्य के प्रारम्भ को लेकर थोड़ा विवाद है । बाल साहित्य की परम्परा को खोजते और सामने लाते हुए हिन्दी के सुप्रतिष्ठित बाल साहित्यकार और चिंतक निरंकारदेव सेवक, स्नेह अग्रवाल और जयप्रकाश भारती के अतिरिक्त उमेश चौहान, डॉ, दिग्विजय कुमार सहाय आदि ने इस ओर कुछ विचार किया है । इन विचारों के अनुसार हिन्दी का बाल साहित्य 14 वीं- 15वीं शताब्दी के आसपास से उपस्थित माना गया है । अर्थात अमीर खुसरो, सूरदास, जगनिक द्वारा लिखित आल्हा खंड, राजस्थानी कवि जटमल (1623) की रचना ’गोरा बादल’ आदि में बाल साहित्य की उपस्थिति मानी गई है । जहां तक बालक की पहली पुस्तक का प्रश्न है तो ’गोरा बादल’ को माना गया है जिसे एक मुकम्मल बाल काव्य के रूप में स्वीकार किया गया। मिश्र बंधुओं ने पुस्तक में खड़ी बोली का प्राधान्य माना है । यदि इस विवाद में न जाएं तो हिन्दी के बाल साहित्य का वास्तविक प्रारम्भ आधुनिक काल से अर्थात बीसवीं सदी के थोड़े पीछे-आगे से तो मानना ही होगा।

सच तो यह है कि भारत की प्रमुख भाषाओं मसलन असमी बंगाली, मराठी, तमिल, कन्नड़, हिन्दी, मलयालम, उड़िया आदि के आधुनिक बाल साहित्य के इतिहास पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि (अपने वास्तविक अर्थों में) इसका प्रारम्भ 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ था। कुछ अन्य भाषाओं में यह बाद में शुरु हुआ था। उदाहरण के लिए एक उत्तर-पूर्व की भाषा मणिपुरी में, मुद्रित रूप में बाल साहित्य की जरूरत 1940 के दशक से 1950 के दशक में महसूस होने लगी थी। 1947 के बाद बाल साहित्य की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। प्रमुख भाषाओं के मामले में, बाल साहित्य की शुरुआत के कारणों में से एक शिक्षा के लिए पाठ्य पुस्तकों की तैयारी की जरूरत था।

शास्त्रीय और पहले के बाल साहित्य के श्रेष्ठ हिस्से के प्रति बिना किसी पूर्वाग्रह के कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के बाद के भारतीय बाल साहित्य में बच्चों के अनुकूल ऐसा साहित्य लिखा गया है जो पुराने साहित्य की तरह उपदेशात्मक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें बच्चों को शास्त्रीय (classical) बाल साहित्य की जानकारी से वंचित रखना चाहिए।

बंगाली में, जोगिंद्रनाथ सरकार द्वारा 1891 में लिखित कहानियों की पुस्तक 'हाँसी और खेला’ (हँसना और खेलना) ने पहली बार कक्ष-कक्षा- परंपरा को तोड़ा और यह बच्चों के लिए पूरी तरह मनोरंजनदायक बनी। संयोग से कुछ सीख भी लेना एक अतिरिक्त लाभ था। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस किताब के बारे में, 1893 में साधना में लिखा था-" यह पुस्तक छोटे बच्चों के लिए है । बच्चों को ऐसी पुस्तकों की जरूरत है , हमारी सभी बाल पुस्तकें कक्षा में पढ़ाने के लिए होती है । उन में कोमलता या सुंदरता का कोई निशान नहीं होता...।" यह टिप्पणी भारतीय लेखकों के लिए एक नई प्रेरणा और दिशा था।

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यदि हम बच्चों के सम्पूर्ण साहित्य को देखें, तो पाएंगे कि हम इसे दो व्यापक श्रेणियों के अंतर्गत रख सकते हैं। पहली श्रेणी के तहत हम ऐसे साहित्य को रख सकते हैं जिसे बच्चों के लिए विशेष रूप से नहीं लिखा गया था भले ही कुछ संपादन के बाद उसमें बच्चों का मनोरंजन और उन्हें शिक्षित करने की क्षमता आ जाती है और इस तरह वह आज के बच्चों के लिए प्रासंगिक भी बन जाता है । दूसरी श्रेणी में वह बालसाहित्य आता है जो बच्चों के लिए विशेष रूप से लिखा गया है। आधुनिक बाल साहित्य में हम दोनों श्रेणियों का साहित्य देख सकते हैं । उदाहरण के लिए जहां एक ओर प्रमुख हिंदी कथा लेखक प्रेमचंद की कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जो हैं तो वयस्कों के लिए लेकिन जिनका आनंद बच्चे भी उठा सकते हैं , यद्यपि उनमें कुछ संपादन की आवश्यकता होगी अन्यथा मेरी राय में उन्हें बच्चों की कहानियों के रूप में नहीं माना जाना चाहिए, वहां दूसरी ओर उन्होंने बच्चों के लिए विशेष रूप से "कुत्ते की कहानी", जिसे हिन्दी का पहला बाल उपन्यास कहा जा सकता है और "जंगल की कहानियां" शीर्षक से बाल कहानियों की रचना की है। आज से पहले ही नहीं बल्कि उसकेबाद भी हिंदी के अनेक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने बड़ों के लिए महत्त्वपूर्ण रचते हुए, साथ-साथ महत्त्वपूर्ण बाल साहित्य का सृजन किया है, जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नासिरा शर्मा, चित्रा मुद्गल आदि। मैं अपना नाम भी जोड़ सकता हूँ। आज प्रवासी साहित्यकारों में भी कुछ हैं जो हिंदी में बालसाहित्य सृजन में संलग्न हैं, जैसे दिव्या माथुर, हेमराज सुंदर, कमल वर्मा आदि।

आज भी ढर्रेदार अर्थात उपदेशात्मक आदि प्रकार का बालसाहित्य कम नहीं लिखा जा रहा और उसकी विरुदावलियां गाने वाले भी काफी मिल जाएंगे लेकिन विवेचन के मूल में तो उत्कृष्ट साहित्य ही रहना चाहिए। इस दृष्टि से पहले के साहित्य को भी देखा जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि कल अर्थात आज के पहले का सारा बाल साहित्य पुरानापन लिए हुए है , अत: त्याज्य है। स्वतंत्रतापूर्व के बालसाहित्य में भी (भले ही वह काफी कम हो) बहुत उस्तादाना बालसाहित्य मिलता है जो न केवल आज के बच्चे को भी लुभा सकता है बल्कि आज के बाल साहित्यकार को भी बाल सहित्य की बुनावट, उसकी भाषा, लय आदि की प्रेरणात्मक समझ दे सकता है, उसे प्रभावित कर सकता है । उदाहरण के लिए श्रीधर पाठक की कविता ’देल छे आए’ की कुछ पंक्तियां देखी जा सकती हैं --

 बाबा आज देल छे आए,

 चिज्जी-पिज्जी कुछ ना लाए!

 बाबा, क्यों नहीं चिज्जी लाए,

 इतनी देली छे क्यों आए?

जरा ’चिज्जी-पिज्जी’ के स्थान पर ’बर्गर -पिज्जा’ और ’चिज्जी’ के स्थान पर पिज्जा करके देंखे। विद्याभूषण विभू ने झूम हाथी, झूम हाथी,, तुन तुन तुन, हिल-मिल, भाई, आँधी, खेल रेल का आदि अनेक ऐसी बाल कविताएं लिखी हैं जिनमें भाषा का सहज खेल देखते ही बनता है । उदाहरण और भी मिल जाएंगे भले ही कम।

इस बार साहित्य अकादेमी ने हिंदी में देवेंद्र मेवाड़ी जी की पुस्तक को पुरस्कृत किया है। वे साहित्य कई कलम से विज्ञान लिखते हऐं। अत: थोड़ी बात बाल विज्ञान लेखन पर भी करना चाहूँगा। आजकल बाल-विज्ञान लेखन और राजा-रानी, परी कथाओं,लोककथाओं पुराणों या इतिहास पर आधारित रचनाओं के संदर्भ में प्राया: विवादयुक्त टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलती रहती हैं। बहुत बार उनके पीछे न तो रचनाओं के आधार पर सुचिन्तित मंथन दिखता है और न ही खुला विचार। देवेंद्र मेवाड़ी के शब्दोँ में-“ विज्ञान लेखन करते समय बच्चों को मन के आँगन में बुलाना होगा और जैसे उनसे बातें करते –करते या उन्हें किस्से- कहानियाँ या गीतों की लय मेँ विज्ञान की बातें बतानी होंगी। … विज्ञान की कोई जानकारी कथा -कहानी के रूप में दी जाएगी तो उसे बच्चे मन लगा कर पढ़ेंगे । आज बच्चों को विज्ञान की तर्क संगत कहानी चाहिए जो उसे कल्पना लोक में भी ले जाए और उसे यह भी लगे कि हाँ ऐसा हो सकता है ।“ (ज्ञान- विज्ञान बुलेटिन , अल्मोड़ा, जून, 2015, पृ. 15) । बालविज्ञान- साहित्य के एक चिंतक ओमप्रकाश कश्यप का संतुलित विचार देना चाहूँगा –‘ इतना तो तय हुआ कि कल्पना और सृजनात्मकता के बीच कोई वैर नहीं है. उनमें न तो कोई स्पर्धा है और न कोई वैर. दोनों एक-दूसरे की पूरक, समानांतर और सहायक हैं. अतएव मात्र अतिकल्पनाशीलता का तर्क देकर परीकथाओं की आलोचना को नीतिसंगत नहीं ठहराया जा सकता। परीकथाएं बालक के कल्पना-सामर्थ्य को निखारकर उसे कई वैकल्पिक समाधान दे सकती हैं।

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मेरा विनम्र निवेदन है कि विज्ञान की जानकारी कहानी या कविता आदि रूपों की शर्तों पर नहीं होगी तो उसे सर्जनात्मक साहित्य की श्रेणी मेँ लेने में कठिनाई होगी, क्योंकि तब रूप मात्र साँचा भर बन कर रह जाएगा और उसे शिक्षार्थ लिखे गए उपयोगी साहित्य की ही श्रेणी में गिनने को बाध्य होना पड़ेगा । 

 वस्तुत आज वैज्ञानिक सोच या दृष्टि पर बल दिया जाता है और वह आज के हिंदी के उत्कृष्ट बालसाहित्य में बराबर मिलती है – भले ही वह राजा-रानी, परियों, पशु-पक्षियों आदि किन्हीं से भी जुड़े अनुभवों से प्रेरित क्यों न हो। मेरी दृष्टि में बालसाहित्य से तात्पर्य ऐसे साहित्य से है जो बालोपयोगी साहित्य से भिन्न रचनात्मक साहित्य होता है अर्थात जो विषय निर्धारित करके शिक्षार्थ लिखा हुआ न होकर,बड़ों के रचनात्मक साहित्य की तरह, बालकों के बीच का अनुभव आधारित रचा गया बाल साहित्य होता है । वह कविता, कहानी नाटक आदि होता है न कि कविता, कहानी, नाटक आदि के चौखटे अथवा शिल्प मे भरी हुई विषय प्रधान जानकारी, शिक्षाप्रद सामग्री होता है। वह विषय नहीं बल्कि विषय के अनुभव की कलात्मक अभिव्यक्ति होता है । दूसरे शब्दों में कलात्मक अनुभव होता है । इसीलिए वह मौलिक भी होता है । आज का श्रेष्ठ बाल साहित्यकार पहले की सोच के अनेक बाल साहित्यकारों से इस दृष्टि से भी भिन्न है। सूची तो लंबी हो सकती है लेकिन अपनी बात के समर्थन में मैं कुछ रचनाकारों और कृतियों का उल्लेख करना चाहूँगा- बाल उपन्यास रंगीली, बुलेट और वीर ( समीर गांगुली) , संजीव जायसवाल का बाल उपन्यास होगी जीत हमारी , मिश्री मौसी का मटका सुधा भार्गव) आदि। प्रदीप शुक्ल की कविताएँ, दिशा ग्रोवर कविताएँ (शब्दों की शरारत) और बाल नाटक (बाघू के किस्से) आदि का भी उल्लेख कर सकता हूँ।

कल्पना पहले के साहित्य में भी होती थी और आज के साहित्य में भी उसके बिना काम नहीं चल सकता। अंतर यह है कि आज के बालक को कल्पना विश्वसनीयता की बुनियाद पर खड़ी चाहिए। अर्थात वह ’ऐसा भी हो सकता’ है ’ अथवा’ ‘ऐसा भी हुआ होगा’के दायरे में होनी चाहिए अन्यथा वह रद्दी की टोकरी में फेंक देगा। दूसरे शब्दों आज का बालसाहित्यकार ऐसी रचनाएं नहीं देना चाहता जो अन्धविश्वास, सामन्तीय परम्पराओं, जादू -टोनोँ,अनहोनियो अथवा निष्क्रियता आदि मूल्यों की पोषक हों। आज की कहानियों में भी भूत, राजा, परी आदि हो सकते लेकिन वे अपने पारम्परिक रूप से हटकर, ऊपर संकेतित पुरानेपन से अलग तरह के होते हैं। आज की कहानी की परी ज्ञान परी हो सकती है । वह युवा लेखक पंकज चतुर्वेदी की बालवाटिका( नवम्बर, 2016) में प्रकाशित कहानी 'परी फिर आएगी’ की परी ’रिमझिम’ हो सकती है जिसका सरोकार इराक के बसरा में रहने वाली साहिबा, अफगानिस्तान की मलाला, टर्की की रेहाना और गन्दी होती धरती से है । वह बगदाद से गुजरते हुए, रोशनी, संगीत में हर समय डूबे रहनेवाले शहर को आग, धुंए, लोगों के रोने, रक्त से पटा हुआ देखकर संवेदनशील मनुष्यों की तरह डरने वाली परी है । 

हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि विविधताओं से भरे भारत के संदर्भ में यह बालक बनना क्या है । यहां आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, आयु आदि कारणों से बालक का भी विविधताभरा स्वरूप है । महानगरीय बालक का स्वरूप वही नहीं है जो कस्बाई या ग्रामीण या जंगलों में रहने वाले बच्चे का है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बच्चे की मानसिकता वही नहीं है जो गरीबी में पल रहे बच्चे की है। आज के कितने ही बच्चों के सामने इंटरनेट, फिल्म तथा अन्य मीडिया की सुविधा के चलते एक नई दुनिया और उसके नए भाषा-रूप का भी विस्फोट हो रहा है और वे उससे प्रभावित हो रहे हैं। अत: आज का बाल-साहित्यकार बालक के बारे में परम्परा भर से काम चलाते हुए अर्थात उसके विकास की उपेक्षा करते हुए, सामान्य कुछ लिखकर अपने कार्य की इति नहीं कर सकता। सामान्य रूप और दृष्टि हो सकती है, अनुभव, उसका नया बोध और उससे जन्मी नई दृष्टि नहीं। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के बाल साहित्य में जहां भाव और भावबोध की दृष्टि से बालक के नए-नए रूप उभर कर आए हैं वहीं रूप तथा भाषा-शैली में भी नए-नए अन्दाज और प्रयोग सम्मिलित हुए हैं, भले ही कुछ पहले की सोच में गिरफ्त जन उसे स्वीकार करने में कठिनाई झेल रहे हों। जब हम बालक की बात करते हैं तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में अमीरी-गरीबी, जाति-पांत, भौगोलिक तथा अन्य स्थितियों आदि के कारण बालक बंटा हुआ है। आज के कुछ साहित्यकारों का उस ओर ध्यान हैं , लेकिन कल लिखे जाने वाले साहित्य में और ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। अपने -अपने अनुभव के दायरों के बच्चों के बालमन को समझते हुए रचना होगा। ग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथा -साथ आदिवासी बच्चों तक ठीक से पहुंचना होगा।

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बहुत ही संक्षेप में एक और बिन्दु को छूना चाहूँगा। वह है पारस्परिक अनुवाद की जरूरत की अधिक से अधिक आपूर्ति। कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं में बाल-साहित्य की भी प्रकाशित सामग्री उपलब्ध है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे देश की एक बड़ी अनिवार्य जरूरत की तहत भावनात्मक एकता के स्वरूप की महत्त्वपूर्ण जानकारी और उसके सच्चे संस्कार हमारे बच्चों में सहज और पुख्ता ढ़ंग से घर कर लें तो नि:संदेह यह कार्य बाल-साहित्य के आदान-प्रदान से ही संभव हो सकता है। एक प्रस्ताव भी है। सभी भारतीय भाषाओं के बाल-साहित्य का यदि हिदी में अनुवाद उपलब्ध कराने की व्यवस्था कर ली जाए तो विदेशी भाषाओं के संदर्भ में केवल एक भारतीय भाषा ’हिन्दी’ के माध्यम से उन भाषाओं में अनुवाद के द्वारा पहुंचना बहुत सरल तो होगा ही, प्रामाणिक भी होगा क्योंकि हमारे देश का एक एक हिस्सा सांस्कृतिक दृष्टि से तो एक है ही । सच तो यह है कि जब तक स्रोत और लक्ष्य भाषाओं में सीधे-सीधे अनुवाद करने वालों का अभाव है तब तक किन्हीं भी दो भारतीय भाषाओं में भी बाल-साहित्य की सच्ची पहुंच के लिए ’हिन्दी’ का माध्यम सबसे ज़्यादा उपयुक्त होगा न कि अंग्रेजी का। कम से कम 21 वीं सदी में तो हमें इस तथ्य को स्वीकार कर ही लेना चाहिए ।

अच्छी बात यह है कि आज से आगे के बालसाहित्य को सशक्त बनाने वाली पीढ़ी हमारे सामने मजबूती से उभर रही है। । नाम गिनाना मेरा मूल उद्देश्य नही है। फिर भी मैं साहित्य अकादेमी के द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रतिनिधि बाल कविता –संचयन’ जो एक जिल्द में 2020 में और 6 खण्डों में हाल ही में प्रकाशित हुई है का उल्लेख अवश्य करना चाहूँगा। इसमें 195 कवियों की रचनाएँ हैं जिनमें नये और अद्यतन पीढ़ी के समर्थ रचनाकारों की रचनाओं का बड़ा प्रतिनिधित्व हुआ है। प्रतिष्ठित रचनाकारों की भी वे रचनाएँ ली गई हैं जो उनकी बार-बार चर्चामें रहने वाली और संकलित की जाने वाली रचनाओं से हटकर हैं लेकिन सशक्त हैं। पुस्तक के संपादकीय के अनुसार, “ मेरी निगाह में कविताएं वैज्ञानिक सोच, प्रतिकूल मूल्यों और अंधविश्वासों से मुक्त, कल्पना और जिज्ञासा को प्रेरित करने वाली लेकिन शैली में विश्वसनीयता की बुनियाद पर टिकी, नये प्रयोगों और नये ट्रीटमेंट से समृद्ध हों।कविताएं पहले की तरह सीधे-सीधे उपदेशात्मक शैली की न हों। समझ पिरोयी हुई हो सकती है।

अंत इसी पुस्तक की दो बाल कविताओं से करना चाहूँगा। कविताएँ, है-

प्रदीप शुक्ल की कविता

गुल्लू का कम्प्यूटर (डॉ. प्रदीप शुक्ल)

 गुल्लू का कम्प्यूटर आया 

 पूरा गाँव देख मुस्काया

 दादी के चेहरे पर लाली

 ले आई पूजा की थाली

 गुल्लू सबको बता रहा है 

 लाईट कनेक्शन सता रहा है

 माउस उठा कर छुटकू भागा 

 अभी अभी था नींद से जागा

 अंकल ने सब तार लगाये 

 गुल्लू को कुछ समझ न आये

 कंप्यूटर तो हो गया चालू 

 न ! स्क्रीन छुओ मत शालू

 जिसे खोजना हो अब तुमको 

 गूगल में डालो तुम उसको

 कक्का कहें चबाकर लईय्या 

 मेरी भैंस खोज दो भैय्या

 बड़े जोर का लगा ठहाका 

 खिसियाये से बैठे काका !!

और इस कविता से भी परिचित होइए: खुशी लुटाते हैं त्योहार दिविक रमेश

दिविक रमेश की बाल कविताएं

खुशी लुटाते हैं त्योहार  (दिविक रमेश)

उपहारों की खशबू लेकर

  जब तब आ जाते त्योहार

  त्योहारों का आना जैसे 

  टपटप टपटप मां का प्यार


  लेकिन सोचा तो यह जाना

  सभी मनाते हैं त्योहार

  सब को ही प्यारे लगते हैं

  मां की गोदी से त्योहार


  फसलें खूब लहकती हैं तो 

  खेत मनाते हैं त्योहार

  जब लद जाते फूल फलों से

  पेड़ मनाते हैं त्योहार


  पानी से भर जाती हैं तब

  नदियों का होता त्योहार

  ठंडी में जब धूप खिले तो

  सूरज का होता त्योहार


  जिस दिन पेड़ नहीं कटते हैं 

  जंगल का होता त्योहार

  और अगर मन अडिग रहे तो

  पर्वत का होता त्योहार


  अगर हादसा हो ना कोई

  सड़क मनाती तब त्योहार

  मार काट ना चोरी हो तो

  शहर मनाता है त्योहार


  पूरे दिल से खुशी लुटाते 

  कोई हो सब पर त्योहार

  खिलखिल हंसते, खुशियां लाते

  लेकिन लगते कम त्योहार

  

  अगर बीज इनके भी होते

  खूब उगाते हम त्योहार

  खुश होकर तब उड़ते जैसे

  पंछी उड़ते बांध कतार

Dr. Divik Ramesh

ये भी पढ़ें; हिंदी बाल कहानियों में गाँव : डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’

इक्कीसवीं सदी को हिंदी बाल साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है, आज हिन्दी में बाल साहित्य एक प्रमुख विधा बन हुआ है, आज दिविक रमेश जी के इस लेख से जानिए हिंदी में बाल साहित्य की दशा, दिशा और संभावनाएं, हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास, दिविक रमेश की कविता खुशी लुटाते हैं त्योहार, डॉ. प्रदीप शुक्ल की कविता गुल्लू का कम्प्यूटर, हिन्दी बाल कविताएं, Dr. Divik Ramesh Poetry, Dr. Pradeep Shukla Poetry in Hindi, Hindi Bal Sahitya, Children's Literature in Hindi..

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