हिंदी दिवस विशेष - राष्ट्रभाषा हिन्दी एक सपना

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Diwas : Rashtra Bhasha Hindi

National Language Hindi

National Language Hindi

राष्ट्रभाषा हिन्दी एक सपना

सहस्राब्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में मुझे अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में लगभग तीस वर्षों तक हिन्दी-सेवा प्रदान करने के लिए एक प्रशस्ति-पत्र और स्वर्ण-पदक के द्वारा सम्मान प्रदान किया गया। सत्र की अध्यक्षता श्री एल.एम. सिंघवी कर रहे थे। केन्द्र सरकार के मंत्री श्री सत्यनारायण जेटिया उस सत्र के सम्मानित अतिथि थे। मुझसे अंडमान एवं निकोबार द्विप समूह में हिन्दी के प्रचार- प्रसार के कुछ रोचक प्रसंग सुनाने का आग्रह किया गया।

मैंने सुनाया -

एक बार भारत के प्रसिद्ध अन्तरिक्ष वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन का आगमन कार निकोबार द्वीप में होने वाला था। मैंने उनसे स्थानीय विज्ञान शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के अनुरोध पर अग्रिम सम्पर्क किया। कार निकोबार द्वीप समूह में एक अंतरिक्ष विज्ञान पर्यवेक्षण केन्द्र है। प्रो. सतीश धवन उसी के निरीक्षण के लिए आने वाले थे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन जिनका समादर वर्तमान राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे.अ. कलाम गुरु रूप में किया करते हैं, इतने सरल हृदय होंगे इसका अनुमान मैंने नहीं लगाया था। उन्होंने शिक्षकों एवं विद्यार्थियों से मिलने की स्वीकृति तत्काल दे दी।

मैंने उनका स्वागत किया। उन्होंने पूछा- "इन द्वीपों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है या हिन्दी ?"

मैंने उत्तर दिया- "माध्यम अंग्रेजी है। हिन्दी एक विषय के रूप में पढ़ते हैं। वे सब आपसे अन्तरिक्षयान के संबंध में जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।"

उन्होंने मुझसे सभा मंच पर एक श्यामपट्ट रखवाने का अनुरोध किया। विश्वविख्यात वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन ने रेखा चित्र खींच कर अन्तरिक्ष में यान भेजने की प्रक्रिया का सरल हिन्दी में इस प्रकार वर्णन किया कि सभा-भवन में बार बार करतल ध्वनि गूंजती रही। उपस्थिति ने उनकी विद्वत्ता सरलता और हिन्दी-ज्ञान की बार-बार प्रशंसा की।

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प्रो. धवन ने विज्ञान भवन का भी शिलान्यास किया। उन्होंने अपने कर-कमलों से विद्यार्थियों के लिए एक वैज्ञानिक प्रोजेक्टर भी उपहार स्वरूप प्रदान किया। उस दिन मैंने अपने कई सहयोगियों से कहा- "कौन कहता है हिन्दी में वैज्ञानिक शब्दों का अभाव है ?"

विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने एक दूसरी घटना का भी उल्लेख किया-

भारत के प्रधानमंत्री मोरारजी भाई थे। उनके मंत्री मंडल में श्री लालकृष्ण अडवाणी जी, सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। वे 'कार निकोबार' आए हुए थे। द्वीपों के उपराज्यपाल श्री सुरेन्द्र मोहन कृष्णात्री, आई.ए.एस. ने अडवाणी जी के स्वागत का दायित्व मुझे सौंपा था। मैंने अडवाणी जी का स्वागत किया। निकोबारी आदिवासी विद्यार्थियों को देखकर उन्होंने पूछा "विद्यार्थी हिन्दी लिख पढ लेते हैं ?"

मैंने उत्तर दिया- "शिक्षा का माध्यम हिन्दी भी है। बोल-चाल की हिन्दी आसानी से समझ लेते हैं।"

श्री लाल कृष्ण अडवाणी जी ने अपना सम्बोधन एक संस्कृत श्लोक से प्रारंभ किया-

कर अग्रे बसति लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती। कर मूले गोविन्दा, प्रभाते कर दर्शनम् ॥

मैंने मन ही मन कहा- "एक भी शब्द विद्यार्थियों की समझ में नहीं आएगा।"

एक मिनट बाद ही संपूर्ण सभा-कक्ष का वातावरण बदल चुका था। बार-बार करतल ध्वनि गूंज रही थी। अडवाणी जी एक के बाद एक प्रसंग सरल-सुबोध हिन्दी में सुनाते जा रहे थे। जन समुदाय मंत्रमुग्ध उन प्रसंगों का हार्दिक आनन्द ले रहा था। सरलता एवं सुबोधता ही हिन्दी भाषा की निजी विशेषता है जिसका उपयोग अडवाणी जी कुशलता पूर्वक कर रहे थे।

पिछले पचास (50) वर्ष मेरी आँखों के सामने इतिहास के पृष्ठ बनकर मूर्त हो रहे हैं। तब (स्व.) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी भारत के 'राष्ट्रपति' थे। (स्व.) श्री गोविन्दबल्लभ पन्तजी भारत सरकार के 'गृह मंत्री' थे। वैसे महानुभावनों की उदारता से ही संसद के ऊपरी सदन 'राज्यसभा' में मनोनीत सांसद के रूप में राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री रामधारी सिंह दिनकर का चयन हुआ था। लोगों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखने का उत्साह था। हिन्दी प्रेमियों में उमंग और लगन का भाव था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सन् 1962 में राष्ट्रपति पद से कार्यमुक्त हो गए। दिल्ली से पटना जाते हुए रास्ते में 'प्रयाग' पहुंचकर उन्होंने प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी एवं हिन्दी-सेवी पुरुषोत्तम दास टंडन से भेंट की। वयोवृद्ध टंडन जी का पहला प्रश्न था- 'राजेन्द्र बाबू ! राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई।'

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आँखों में आँसू छलक आए। रुंधे हुए कण्ठ से उन्होंने उत्तर दिया "राजर्षि ! आपका सपना साकार करने में मैं असफल रहा। मेरे हृदय में भी यह पीड़ा कचोट रही है।"

आने वाले छः महीने के भीतर ही दोनों ही हिन्दी पुरोधा स्वर्ग सिधार गए। राष्ट्रभाषा हिन्दी का सपना अधूरा रह गया।

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उन्हीं दिनों (स्व.) बच्चू प्रसाद सिंह (भूतपूर्व राजदूत, सूरीनाम) ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीनस्थ 'हिन्दी निदेशालय' में सरकारी सेवा में प्रवेश किया था। वे मेरे सहपाठी थे। मैंने भी साथ-साथ ही हिन्दी निदेशालय में सरकारी सेवा में प्रवेश पाया था। हम दोनों ही राष्ट्रकवि दिनकर के शिष्य थे। प्रायः उनके पास आना-जाना होता था। साथ ही दिनकर जी मेरे ही गाँव के पास के एक गाँव के रहने वाले थे। इस कारण भी उनका विशेष अनुग्रह प्राप्त था। उन्हीं के अनुग्रह से हम दोनों का परिचय डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन'जी से हुआ था। बच्चन जी उन दिनों 'भारत सरकार' के विदेश मंत्रालय में हिन्दी के विशेष सचिव के रूप में कार्यरत थे।

(स्व.) श्री गोविन्द वल्लभ पंत के प्रिय पात्र एवं भारत सरकार के कुशल प्रशासक श्री भोलानाथ माहेश्वरी, आई.ए.एस. उन दिनों अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के मुख्य प्रशासक थे। वे अनन्य हिन्दी-प्रेमी थे। द्वीपों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार उनका लक्ष्य था। गृह मंत्रालय से मेरा स्थानान्तरण "अंडमान-निकोबार' द्वीप समूह" में हो गया। उधर मेरे सहपाठी बच्चूप्रसाद सिंह का भी स्थानान्तरण 'गृह मंत्रालय' से विदेश मंत्रालय में हो गया। हम दोनों आशीर्वाद प्राप्त करने 'दिनकर जी' और 'बच्चन जी' के पास गए। बच्चन जी ने मुझसे कहा था-

"सुदूर दक्षिण द्वीपों में हिन्दी अभी गर्भावस्था में है।

हिन्दी-शिशु का पालन-पोषण माता-पिता बनकर करना होगा।"

न रहे दिनकर जी और न रहे बच्चन जी। रह गई केवल स्मृतियाँ। मेरे सहपाठी बच्चू प्रसाद सिंह भी नहीं रहे। भारत सरकार की सेवा से सेवा निवृत्त होकर आज पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो गए। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में लगभग चार सौ विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी है। जब मैंने सेवा आरंभ की थी तब कुल 27 ही विद्यालय थे और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी थी। ऐसी उपलब्धि सागर में एक बूँद के समान है।

'राष्ट्रभाषा' हिन्दी का सपना तो सपना ही रह गया न । हिन्दी तो आज 'अनुवाद' की भाषा बनकर रह गई है। आज जब कभी भी डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पंडित गोविन्द बल्लभ पंत, राजर्षि टंडन, राष्ट्रकवि गुप्त, दिनकर जी, बच्चन जी, अपने प्रिय मित्र सहपाठी सच्चू प्रसाद सिंह आदि का स्मरण करता हूँ तो लगता है कि वे सभी इतिहास के पृष्ठ बन चुके हैं। केवल एक ही सत्य बार-बार मन में उभर कर आता है कि हिन्दी को न सत्ता का सिंहासन चाहिए, न ही प्रशासन के प्रलोभन का आसन चाहिए। हिन्दी के प्रख्यात गीतकार गोपाल सिंह 'नेपाली' ने कितना सच कहा था-

श्रृंगार न होगा भाषण से, सत्कार न होगा शासन से। यह सरस्वती है जनता की. पूजो उतरों सिंहासन से ॥ बढने दो उसे सदा आगे, हिन्दी जन-जन की गंगा है। यह माध्यम उस स्वाधीन देश का. जिसकी ध्वजा तिरंगा है।

- सुरेश नंदन प्रसाद सिंह 'नीलकंठ' 

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