हिंदी और दक्षिण कोरियाई भाषाओं में अनुवाद की दशा और संभावना

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi-teaching, promotion and acceptance, and the status and possibility of translation between Hindi and South Korean languages.

Hindi and South Korean languages

Hindi and South Korean languages

हिंदी-अध्यापन, प्रचार-प्रसार और उसकी स्वीकृति तथा हिंदी और दक्षिण कोरियाई भाषाओं में अनुवाद की दशा और संभावना

- डॉ. दिविक रमेश

सबसे पहले मैं अपने बंगाल की भूमि को नमन करता हूं जिसने हमें ही नहीं बल्कि कोरिया सहित पूरे विश्व को साहित्य, संस्कृति और विचार के क्षेत्र में, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के रूप में, एक सदाबहार महत्त्व का नायाब प्रेरणादायी उपहार दिया है। इस कथन को मैं कोरिया के संदर्भ में विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूं।

वस्तुतः कोरिया में भारत की विशिष्ट पहचान प्रायः बुद्ध, गाँधी और टैगोर के देश के रूप में होती आई है। बौद्ध धर्म तो एक समय में कोरिया का राजधर्म भी रहा है। 1929 में, अर्थात जापान के पराधीन कोरिया के समय में टैगोर द्वारा लिखित कुछ कवितानुमा पंक्तियाँ ‘पूर्व का दीप’ कोरिया के बच्चे-बच्चे की जबान पर है जिन्हें उन्होंने जापान में रह रहे अपने देश के लिए स्वतंत्रता के इच्छुक युवा कोरियाई के अनुरोध पर अपने हस्ताक्षर के साथ लिखा था। नोबल पुरस्कार को एशिया के कोरियाई लोगों ने एशिया के पहले साहित्यकार को मिले पुरस्कार के रूप में अपनाया था। खैर। ये पंक्तियां मूलत: अंगेजी में लिखी गई थीं जिनका लगभग 62 वर्ष बाद पहली बार मुझे ही, अपने दक्षिण कोरिया-प्रवास के समय, हिन्दी-अनुवाद करने का मौका मिला । यह अनुवाद, टैगोर सोसायटी ऑफ कोरिया की संस्थापक-सदस्या पद्मश्री सम्मान से विभूषित पहली और अब तक अकेली कोरियाई तथा साहित्य अकादमी का फैलो के रूप में सर्वोच्च सम्मान भी प्राप्त करने वाली वरिष्ठ कवयित्री किम यांग शिक के आग्रह पर किया गया था जिसे वे अपने द्वारा संपादित पत्रिका कोरियन इंडियन कल्चर के पिछले पृष्ठ पर कोरियाई अनुवाद और अंग्रेजी मूल के साथ प्रकाशित करती हैं। अनुवाद में पंक्तियां हैं:

ऐशिया के स्वर्णिम युग में

रहा कोरिया एक दीप वाहकों में

और कर रहा फिर प्रतीक्षा

वही दीप होने को ज्योतित

करने को फिर से आलोकित

  पूरब का प्रांगण यह सारा

मूल अंग्रेजी पाठ इस प्रकार है:

In the golden age of Asia

Korea was one of its lamp-bearers,

And that lamp is waiting

To be lighted once again

For the illumination of the East.

जान कर अचरज नहीं होना चाहिए कि इन पंक्तियों ने उस समय तो कोरिया को एक नया उत्साह और ऊर्जा दी ही थी लेकिन 1945 में स्वतंत्र होने के बाद भी इनका महत्त्व नहीं घटा। इनका कोरियाई अनुवाद स्कूल स्तर पर पाठ्यक्रम में लगा कर टैगोर (जिसका उच्चारण वे ठागोर करते हैं‌) और भारत को सम्मान दिया। सच तो यह है कि टैगोर के लेखन और विचारों ने कोरिया के अनेक साहित्यकारों को प्रभावित किया है जिनमें सर्वोपरि नाम हान योंग उन का है जो मानहे के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस संदर्भ में विस्तार से अंग्रेजी में लिखे मेरे एक लेख ‘ टैगोर: ए सांग ऑफ होप इन डिस्पेयर (Tagore: A Song of Hope in Despair ) जो साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की अंग्रेजी पत्रिका ‘ इंडियन लिटरेचर’ के मई-जून, 2012 अंक में प्रकाशित हुआ था को पढ़ा जा सकता है।

मूल विषय पर आने से पहले, कोरिया और भारत को मजबूती से जोड़ने वाले प्रमुख सूत्रों में दो और का जिक्र संक्षेप में करना चाहता हूं। एक है बौद्ध धर्म और दूसरा है अयोध्या की राजकुमारी का कोरियाई राजा से विवाह। सब जानते हैं कि बौद्ध धर्म चीन से कोरिया होते हुए जापान गया था। बौद्ध धर्म की वैचारिकी ने कोरियाई साहित्य को भी प्रभावित किया है।    

पहली शताब्दी के 48वेँ साल में अयोध्या की राजकुमारी हो (हॉ) हवांग ओक और (किमहे) गाया राज्य के राजा किम सूरो ( जिनका जन्म अंडे से माना जाता है) के विवाह की कथा (समगुक यूसा, 1986, पृ0 158) में आती है। इस कथा को किवंदन्ती अथवा मिथक भी मान लिया जाए तो भी कोरियाई लोगों की भारत के साथ अपने सांस्कृतिक संबंध जोड़ने की ललक की पुष्टि तो यह कथा भी कर ही देती है।

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अतः भारत और कोरिया में एक दूसरे के प्रति भारतीय और कोरियाई लोगों की बढ़ती हुई दिलचस्पी के उपर्युक्त ये सांस्कृतिक, पारम्परिक एवं महत्वपूर्ण कारण तो हैं ही, इधर पिछले कुछ वर्षों में कोरियाई कम्पनियों की भारत में होती गई प्रभावशाली उपस्थिति ने व्यावहारिक जरूरत के तौर पर भी भारत और हिन्दी को कोरियाई लोगों के करीब ला दिया है। विशेष रूप से कोरिया की नई पीढ़ी में भारत और हिन्दी का महत्त्व सहज ही बढ़ भी रहा है। मीडिया ने इस कार्य को सुगमता भी प्रदान की है।

उत्सुकता हो सकती है कि कोरियाई नई पीढ़ी में हिन्दी सीखने के लिए दिलचस्पी बढ़ने के मुख्य कारण जाने जाएँ। बातचीत के आधार पर ही कह सकता हूँ कि सर्वप्रमुख कारण तो भारत की संस्कृति, जीवन और दर्शन की गहरी जानकारी लेना है। वस्तुतः आज भारत के अनेक पक्षों को उजागर करने वाली सामग्री कोरियाई भाषा में उपलब्ध है। उनकी जानकारी ने कोरियाई नई पीढ़ी को भारत के सम्बन्ध में विस्तार और गहरे से जानने का इच्छुक बना दिया। और इस तरह वे हिन्दी के अध्ययन की ओर झुके। कोरियाई अपनी भाषा को बहुत महत्त्व देते हैं। अतः भारत की भाषा हिन्दी के प्रति, भारत को जानने की दृष्टि से, उनका झुकाव स्वाभाविक ही माना जाएगा। यह भ्रम भी काफी हद तक टूटा है कि भारत को अंग्रेजी के माध्यम से पूरी तरह जाना जा सकता है और यह भी कि अंग्रेजी जानकर भारत में पूरी तरह काम चलाया जा सकता है। व्यवसायियों ने तो इस तथ्य को और अच्छे ढंग से समझ लिया है। वे अपने प्रबंधकों को भारत भेजने से पहले काम चलाऊ हिन्दी सीखने की सलाह देते हैं। 

भारतीय अर्थव्यवस्था में जो बदलाव आए हैं और जिस प्रकार वह विश्व के लिए खुलती गई है, उस कारण से भी कोरियाई नई पीढ़ी भारत और भारत की कोरिया में उपलब्ध भाषा हिन्दी की ओर उत्सुक हुई है।

एक और दिलचस्प कारण की जानकारी चौंका सकती है। कोरिया में एक विशेष धर्म के लोग हैं। वे अपने धर्म को ‘यो हो वा ज्युन इन’ कहते हैं। वे इसका प्रचार कोरिया के बाहर भारत में भी करना चाहते हैं। अतः हिन्दी सीखने वाले कुछ ऐसे कोरियाई विद्यार्थी भी हैं जो अपने धर्म के सार्थक एवं व्यापक प्रचार के लिए हिन्दी सीखते हैं। इसका प्रभाव यूं अभी कम ही देखने को मिल रहा है।

हिन्दी सीखने वाले विद्यार्थियों को तीन समूहों में बांटा जा सकता है। एक वर्ग है जो कोरिया में औपचारिक रूप से हिन्दी सीखता है, उपाधि प्राप्त करता है। दूसरा समूह ऐसा है जो अपने आप हिन्दी सीखता है और तीसरा वह है जो भारत जाकर हिन्दी सीखता है। 

 हां कोरियाई भाषा के सीखने-सिखाने के अवसरों और साहित्य आदि की उपस्थिति भारत में भी बढ़ी है। दिल्ली, हैदराबाद, नालंदा आदि स्थानों पर तो विशेष रूप से विश्वविद्यालयी स्तर पर पढ़ाई जा रही है।

जहाँ तक हिन्दी का विशिष्ट कोरियाई संदर्भ है, बखूबी एवं विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि वह अपने वर्तमान रूप में तो उत्साहवर्द्धक है ही, साथ ही प्रभावशाली संभावनाओं से भी लहलहा रहा है। और यह बात मैं अपने 1994 से 1997 तक आई.सी.सी.आर. की ओर से दक्षिण कोरिया में अपने अध्यापन से जुड़े प्रवास के अनुभव, बाद की देश में रहते मिलती रही जानकारी और अप्रैल 2007 में, अपनी दस दिवसीय दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल की यात्रा से उपजे अनुभव के आधार पर पूरे आत्मविश्वास से दोहरा सकता हूं। कोरिया में हिन्दी की स्थिति को लेकर मेरा एक लेख ‘कोरिया और भारत: संदर्भ संस्कृति और भाषा’ (भाषा, जुलाई-अगस्त, 1998) और दक्षिण कोरिया के हांगुक विश्वविद्यालय, सोल में हिन्दी विभाग के वरिष्ठ आचार्य और सुविख्यात भारत एवं भाषाविद् `डाo. ली.जंग हो’ से मेरी भेंटवार्ता (गगनांचल, जन-मार्च, 1996) को भी देखा जा सकता है।

दक्षिण कोरिया में सोल स्थित हांगुक विश्वविद्यालय और बूसान स्थित पूसान विश्वविद्यालय भारत और हिन्दी के पठन-पाठन के गढ़ हैं। हांगुक विश्विद्यालय के एक कैम्पस इमुन में हिन्दी विभाग सन् 1972 में खुल गया था। दूसरे कैम्पस योंगिन में 1984 में खुला। इस विभाग के अन्तर्गत हिन्दी भाषा सीखने के साथ-साथ, व्याकरण, हिन्दी साहित्य, भारतीय संस्कृति, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, भूगोल(क्षेत्रीय), मल्टी मीडिया, भारतीय व्यापार आदि का भी अध्ययन किया जा सकता है। बातचीत और संरचना पर भी जोर दिया जाता है जिसका दायित्व प्राय: भारतीय प्रोफेसर पर होता है। आजकल तो उर्दू भी सीख सकते हैं। विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति भी मिलती है। कोरिया में 12वीं कक्षा के परिणाम के आधार पर विश्वविद्यालय और विषय दिया जाता है। आज हिन्दी विषय लेने वालों में खुशी से हिन्दी लेने वालों का प्रतिशत 50 से ऊपर पहुँच गया है। बहुत अच्छे अंक प्राप्त करने वाले कोरियाई छात्र भी अपनी रूचि से हिन्दी पढ़ना चाहते हैं। पहले हांगुक विश्वविद्यालय में लगभग 250 विद्यार्थियों के लिए 4 कोरियाई और एक भारतीय प्रोफेसर का प्रबन्ध था। आज तो वहाँ 5 कोरियाई और 4 भारतीय प्रोफेसर हो गए हैं।

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पूसान( बूसान) विश्वविद्यालय में भी लगभग 120-130 विद्यार्थी हिन्दी पढ़ रहे हैं। बूसान युनिवर्सिटी में हिंदी विभाग 1983 में खोला गया था। कोरिया में हिन्दी की प्रबल संभावनाओं और वहाँ की युवा पीढ़ी में ‘हिन्दी’ का अध्ययन करने और भारत के प्रति उनकी बढ़ती हुई जिज्ञासा का एक सबल प्रमाण यह भी है कि वहाँ के एक अत्यंत प्रतिष्ठित सरकारी विश्वविद्यालय - सोल नेशनल विश्वविद्यालय में भी सेमिस्टर के आधार पर हिन्दी पढ़ाने का प्रबन्ध करना पड़ा।

बूसान विश्वविद्यालय में आजकल ( नवम्बर, 2017) हिंदी पढ़ा रहे युवा भारतीय प्रोफेसर धीरज मिश्र के अनुसार विश्वविद्यालय गुणवत्ता आदि की दृष्टि से पहले से काफी बेहतर हो गया है। इस समय वहां पहले ग्रेड में 55 और दूसरे ग्रेड में 20 विद्यार्थी हैं। चौथे ग्रेड के 14 विद्यार्थी जे.एन.यू. में प्रवेश-पाठ्यक्रम में संलग्न हैं और तीसरे ग्रेड के कुछ विद्यार्थी भी भारत के कोलकोता तथा अन्य स्थानों पर शोध संबंधी परियोजनाओं से जुड़े हैं। अर्थात भारत आकर अध्ययन करना भी वहां के हिंदी के विद्यार्थियों की एक विशेषता है। कोरिया में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों के समूह हर वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय में आकर 21 दिनों तक हिन्दी सीखने के एक विशेष कार्यक्रम में हिस्सेदारी करते रहे हैं। अब अलग-अलग समूह में 4-4 महीने के लिए वर्ष भर आते हैं। पूरा खर्चा स्वयं वहन करते हैं। यही नहीं पूसान विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय के बीच भी आदान-प्रदान का एक करार हुआ था जिसके तहत वहाँ के विद्यार्थी यहाँ आकर एक महीने के लिए हिन्दी का विशेष अभ्यास और अध्ययन कर सके। और ये विद्यार्थी हिन्दी के न होकर मैंनेजमेंट के थे। हांगुक विश्वविद्यालय में भी व्यवस्थागत नया परिवर्तन हो चुका है। अपनी पिछली यात्रा में मुझे हिन्दी के विद्यार्थियों ने बताया कि फिलहाल इटेलियन, चीनी, सुहाली, स्पैनिश और जापानी भाषाओं के कुछ विद्यार्थी हिन्दी भी सीख रहे हैं। खैर। प्रोफेसर धीरज मेजर हिंदी, धर्म और भारतीय संस्कृति तो पढ़ाते ही हैं साथ ही बिजनस हिंदी भी पढ़ाते हैं जिसके अंतर्गत जैसी जरूरत हो वैसी हिंदी, साहित्य और इतिहास की पढ़ाई की जाती है। विशेष बात यह भी है कि पढ़ाते समय भाषा वैज्ञानिक औजारों का भी इस्तेमाल करना होता है। कहानी पढ़ाते हुए वाक्य, संरचना आदि की दृष्टि से भी पढ़ाया जाता है। जरूरत और सुविधा होने पर अंग्रेजी का भी सहारा ले लिया जाता है यद्यपि कोरियाई विद्यार्थी अंग्रेजी में बहुत पारंगत नहीं होते। पहले ग्रेड के बाद के विद्यार्थी हिंदी का भी प्रयोग करने लगते हैं। एक अन्य भारतीय अध्यापक जो कोरियाई भी जानते हैं विद्यार्थियों को बुनियादी व्याकरण और हिंदी बोलना सिखाते हैं। विभाग में चार वरिष्ठ अध्यापक और हैं जो कोरियाई हैं। 

 यूँ तो कोरियाई विश्वविद्यालयों में हिन्दी में बी.ए. की उपाधि के लिए ही सामान्यतः विद्यार्थी प्रवेश पाते हैं लेकिन व्यवस्था एम.ए. करने की भी है और पी-एचडी. की भी। हांगुक विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी ने पी-एचडी के लिए संस्कृत-हिन्दी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। हिन्दी साहित्य में एम.ए. के लिए भी कुछ विद्यार्थी हैं। दिलचस्प यह जानना भी होगा कि प्रायः हर विद्यार्थी अपना हिन्दी नाम भी रख लेता है। मसलन ओ मिन सॅक ने आकाश, शिन स्योल र्‌योन ने सरला, ची योंग मिन ने सीता और किम ह्यन जिन ने जीवन नाम रखा है। वैसे यह चलन चीनी विद्यार्थियों में भी देखा जा सकता है। शायद अन्य देशों के विद्यार्थियों में भी।

हिन्दी फिल्मों का पहले भी प्रभाव था लेकिन वह अब और अधिक बढ़ा है। यहाँ तक कि हिन्दी के प्रति या हिन्दी-अध्ययन को अधिक रोचक एवं दिलचस्प बनाने के लिए हिन्दी फिल्मों का सहारा लिया जाता है। हांगुक विश्वविद्यालय के योंगिन कैम्पस के हिन्दी के प्रोफेसर डा. ई उंग गू ने मल्टीमीडिया हिन्दी-1 नामक पुस्तक तैयार की है जिसमें उन्होंने एक लम्बी भूमिका तो लिखी ही है, हिन्दी फिल्मों और उनके गानों के सम्बन्ध में जानकारी भी दी गई है, साथ ही राष्ट्र गान के अतिरिक्त 37 पुराने-नए फिल्मी गानों का एक चयन भी प्रस्तुत किया है। वे इन गानों को विद्यार्थियों को सुनाते-सुनवाते हैं, गवाते हैं और फिर उनके विश्लेषण, उन पर बातचीत के आधार पर हिन्दी में बोलने और लिखने का अभ्यास भी कराते हैं। प्रो. ई उंग गू ने भारत में ही डाo रामदरश मिश्र के निदेशन में ’प्रेमचन्द एवं योम 

सेंग सोप के उपन्यासों में यथार्थ चेतना : तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पी.एचडी की उपाधि प्राप्त की थी। भारतीय संस्कृति में उनकी गहरी दिलचस्पी है और उसके ज्ञाता भी हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति संबंधी एक पुस्तक भी लिखी है -- कोरियाई भाषा में। 477 पृष्ठों का यह एक गम्भीर कार्य है।

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 हिन्दी के ही (अब सेवानिवृत) वरिष्ठ प्राचार्य प्रो. ली.जंग हो ने स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी और कोरियाई कहानी विषय पर पी-एचडी की उपाधि भी प्राप्त की है । यह ग्रंथ पराग (अभिरूचि प्रकाशन, दिल्ली ) से प्रकाशित भी हुआ था । ये हिन्दी की सेवा निरन्तर कर रहे हैं। इन्होंने ही अपने संपादन में पहला हिन्दी-कोरियाई शब्द कोश भी मेरे कोरिया में रहते( 1995 में) तैयार किया और उसे प्रकाशित भी कराया। यह कोश 67000 शब्दो से सम्पन्न है । हिंदी शब्द के साथ कोष्ठकों में अंग्रेजी में हिन्दी उच्चारण दे दिया गया है । ज़रूर रहने पर शब्द के साथ जुड़ सकने वाले अन्य शब्द/शब्दों के अर्थ भी दिए गए हैं, जैसे अंतिम और अंतिम -चेतावनी। इस कोश की भूमिका तत्कालीन भारतीय राजदूत श्री शशांक ने लिखी है। प्रोफ़ेसर ली (ई) जंग हो की ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा रचित और हांगुक विश्वविद्यालय (वे दे) से प्रकाशित ग्रंथ "हिन्दी व्याकरण" (हिन्दी मुन बाप) है । यह 381 पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ है । हांगुक विश्वविद्यालय (वे दे) की ही प्रो. किम ऊ जो ने अपनी देख-रेख में पहला कोरियाई-हिन्दी शब्द कोश तैयार करके प्रकाशित कराया है । यह कार्य 1994 में प्रारम्भ हुआ था लेकिन संपन्न 2000-08 में ही हो सका । इस 700 पृष्ठों के कोश में 50000 मुख्य और 20000 उपमुख्य प्रविष्टियां हैं। प्रोफ़ेसर किम ऊ जो की एक पुस्तक बेसिक हिन्दी भी हांगुक विश्वविद्यालय से प्रकाशित है । इसी प्रकार भारत में अतिथी आचार्य रह चुके हांगुक विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर स हे जंग ने भी मानक हिन्दी उच्चारण शिक्षण शीर्षक से एक पुस्तक की रचना की है । भाषाशस्त्री प्रोफेसर छै भी बहुत सक्रियता से हिन्दी के कोरियाई सरोकारों को निरन्तर आगे बढ़ा रहे हैं। भारत के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने हिन्दी-कोरियाई वार्तालाप (conversational ) निदेशिका (guide) तैयार की है। इसमें दो भाग हैं । पहले भाग में विभिन्न विषयों जैसे भाषा, अभिनन्दन, पर्यटन आदि पर हिन्दी-वाक्य हैं; दूसरे भाग में अकार आदि क्रम से रोज़मर्रा प्रयोग मे आने वाले शब्दों को संजोया गया है । इस 153 पृष्ठीय पुस्तक की कीमत 335 रुपए हैं और विद्यार्थियों के साथ साथ इसकी उपयोगिता पर्यटकों के लिए भी है । भारत की ही हांगुक विश्वविद्यालय में रह चुकी हिन्दी की अतिथी आचार्य प्रतिभा मुदिलियार ( मैसूर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत ) ने प्राथमिक कोरियाई विद्यार्थियों के लिए हिन्दी वार्तालाप शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की है। साथ ही सी डी भी तैयार की है।

कोरिया के मशहूर बाजार इटेवान में जाइए और बंगलादेशी द्वारा खोली गई दुकान का नज़ारा देखिए। कौन सा मसाला है, कौन सी दाल है या चाय है जो वहाँ नहीं मिलती। यहाँ तक कि बनी बनायी रोटियाँ और परांठे भी वहाँ उपलब्ध हैं। और मैगी भी। आटा भी। इन भोजनालयों और दुकानों ने कितने ही हिन्दी शब्द प्रचलित कर दिए हैं। समोसा, तंदूर, दाल आदि कितने ही शब्द आज नई पीढ़ी की जानकारी में हैं।

न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन (जुलाई, 2007) में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव महामहिम बान की मून ने, जो कोरियाई हैं, अपने भाषण में हिन्दी का उपयोग और हिन्दी की महत्ता को रेखांकित करके दक्षिण कोरिया में हिन्दी एवं भारत-प्रेम की ही स्थापना की थी।   

अनुवाद द्वारा प्रदत्त आदान-प्रदान की दिशा में बढ़ती कुछ अधिक सजगता एवं सक्रियता भी हिन्दी जानने के महत्त्व को बढ़ा रही हैं।

 जहां तक अनुवाद के परिदृश्य की बात है तो वह फिलहाल बहुत मजबूत नहीं है। नि:संदेह गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का तो भरपूर अनुवाद हुआ है लेकिन हिंदी से कोरियाई में और कोरियाई से हिंदी में जो अनुवाद हुए हैं वे अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।

पिछले वर्षों में कोरिया की कुछ साहित्यिक सामग्री हिन्दी में उपलब्ध हुई है। साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, पीताम्बर पब्लीशिंग कम्पनी, राजकमल प्रकाशन, राजपाल एंड संस आदि ने महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित की हैं। सौभाग्य से अनुवाद की अधिकांश पुस्तकों के सृजन का अवसर इस लेख के लेखक (दिविक रमेश) को ही मिला है। दिविक रमेश के द्वारा अनूदित पुस्तकें हैं : कोरियाई कविता यात्रा,( अपने ढंग की पहली पुस्तक जिसमें अविभाजित कोरिया पहली कविता से लेकर आधुनिक समय तक के प्रमुख कवियों की कविताओं के अनुवाद हैं, साहित्य अकादमी) कोरियाई बाल कविताएं (नेशनल बुक ट्रस्ट), कोरियाई लोक कथाएं (पीताम्बर पब्लिशिंग कम्पनी), जादुई बांसुरी और अन्य कोरियाई कथाएं (नेशनल बुक ट्रस्ट), तथा 2015 में राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. के द्वारा प्रकाशित ‘खलनायक’ (यी मुन यॉल के कोरियाई उपन्यास का हिन्दी अनुवाद)। इस के दो स्तर हैं: एक सीधा-सीधा और दूसरा सांकेतिक। सीधे-सीधे अर्थ के अनुसार यह कक्षा के एक ऐसे बिगड़ैल मॉनीटर की कहानी है जो अपनी ताकत और अपने साम्राज्य का झंडा बनाए रखने के लिए कितने ही तरह के हथकण्डे अपनाता है। सांकेतिक अर्थ के अनुसार यह मनुष्य के भीतर की एक ऐसी अधिनायकवादी प्रवृत्ति को सामने लाता है जो ताकतवर बनने की भरपूर कोशिश करती है। इसके लिए मनुष्य कुछ भी करता है। खुद को ताकतवर कहलाने का मनुष्य में एक अदमनीय नशा होता है। यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में है जिसका ‘खलनायक’ ‘ओम सोक दे’ है। मेरे द्वारा अनूदित और साहित्य अकादमी के द्वारा 2023 में प्रकाशित पुस्तक ‘किम सोवल की कविताएँ’ का भी उल्लेख करना चाहूँगा। किम सोवल की कविता लोकगीतों यानी पारंपरिक लोक गीतों (मिन्यो) और लोक परिदृश्य से भरपूर है, इस कारण उन्हें कोरिया के वर्ड्सवर्थ के रूप में भी जाना जाता है। प्रो. जेहियुन जे. किम के शब्दों में, '' उसके प्रति न्याय के लिए, उसे कोरिया का वर्ड्सवर्थ बनने का हक है क्योंकि उसने पहली बार संप्रेषणीयता के लिए सहज-सरल भाषा को काम में लाने और प्रकृति के चित्रण में न केवल सौंदर्य की दृष्टि से बल्कि जीवन की पहचान और सच्चाई को लाने के लिए गहरी और जागरूक रुचि विकसित की।” कुछ विद्वानों ने उनकी कविता की तुलना रॉबर्ट बर्न्स और डब्ल्यू.बी येट्स की कविता से की है- अपने कार्यों में राष्ट्रवाद और मिथक और लोककथाओं के बीच संबंध के संदर्भ में कुछ समानताओं के आधार पर। भारतीय पक्ष में, हम उनकी शैली या उनकी कविता की अभिव्यक्ति के तरीके की तुलना प्रसिद्ध हिंदी कवि त्रिलोचन से कर सकते हैं। वास्तव में, उनकी कविताओं का अर्थ केवल प्रकृति का वर्णन करने तक सीमित नहीं है। प्रतीकात्मक हुए बिना, कविताएँ उस समय के कोरिया में राष्ट्र की पहचान और राष्ट्रीय पहचान के संकट की वास्तविकता को उजागर करती हैं। कोई शक नहीं कि उनकी कविता उस शैली में मुखर या आक्रामक नहीं है, जिसे कोरियाई आर्टिसट्स प्रोलेटेरियन फेडरेशन या के ए पी एफ के कवियों ने अपनाया था जो 1925 में बनाई गई थी, लेकिन सामाजिक सामग्री के अभाव के नाम पर इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । हां, केएपीएफ (KAPF) के एक सक्रिय सदस्य किम कीजिन ने सामाजिक मुद्दों की उपेक्षा के लिए सोवल की कविता की आलोचना की है। उनके अनुसार, लोक-गीत शैली में अभिव्यक्ति के निश्चित आकर्षण के अलावा सोवल की कविता में कुछ खास ज्यादा नहीं है। Bottoअब यह एक अच्छी तरह से स्थापित तथ्य है कि ‘ लोक गीत शैली ’को किम सोवल के द्वारा जानबूझकर केवल जातीय कोरियाई पहचान को संरक्षित करने के लिए अपनाया गया था जिसे जापान के द्वारा ध्वस्त किया जा रहा था। दूसरे, जैसा कि सोवल के शिक्षक और साहित्यकार मेंटर किम ओक ने सोवल की मृत्यु या जानबूझकर की की गई आत्महत्या के बाद उल्लेख किया, यह वह समय था जब अन्य लेखक सभी नवीनतम विदेशी साहित्यिक फैशन का पीछा कर रहे थे और किम सोवल पारंपरिक कोरियाई लोक गीतों की ठेठ कोरियाई शैली की ओर गए थे।

यहां वरिष्ठ कवयित्री किम यंग शिक का नाम फिर एक बार लेना चाहूंगा जिन्होंने भारत सम्बंधी अनेक कविताएँ लिखी हैं जिनका हिंदी- अनुवाद इस लेख के लेखक ने ही किया है। कविताएँ पुस्तक रूप में ‘ द डे ब्रेक्स:ओ इंडिया’ शीर्षक से अजंता, दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हैं। सुखद समाचार यह है कि उन्होंने भारतीय वाद्य यंत्रों आदि के प्रदर्शन के लिए गैलरी बनाई है। इस संबंध में उनसे चर्चा करते हुए लगभग निश्चय हुआ कि गैलरी का नाम ओइम शांति गैलरी रखा जाए।

 इसके अतिरिक्त इसी लेखक यानी दिविक रमेश के कितने ही कोरिया संबंधी लेख (हिन्दी और अंग्रेजी में) भी उपलब्ध हैं जो ‘यादें महकी जब’ (किताबवाले, नई दिल्ली) तथा ईस्ट एशियन लिटरेचर ( East Asian Literatures, Northern Book Centre, New Delhi, ) सहित विभिन्न पुस्तकों में भी प्रकाशित हैं। दिविक रमेश अनुवाद कार्य में निरंतर संलग्न हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके अनुवाद प्रकाशित हैं। विशेष रूप से दो प्रमुख महिला कवियों- मून चुंग ही ( नया ज्ञानोदय , जुलाई. 2014) और रा हीदुक ( आधारशिला, मई-जून, 2013) के अनुवाद उल्लेखनीय हैं।   

कोरिया संबधी दो अन्य उल्लेखनीय पुस्तकों में रामदरश मिश्र की "भोर का सपना" (यात्रावृत्त) और पद्मा सचदेव की कोरियाई ‘सीजो’(एक कविता-रूप) कविताओं के अनुवादों की पुस्तक "शिशिर रात्रि का अनुराग" कही जा सकती हैं। एक पुस्तक ‘पहाड़ में फूल’ नाम से राजकमल प्रकाशन ने भी प्रकाशित की है जिसमें मेरी निगाह में अनुवाद और बेहतर हो सकते थे। कोरिया की प्रख्यात लेखिका शिन ग्योंग सूक के सुविख्यात उपन्यास का नीलाभ कृत अनुवाद ‘ माँ का ध्यान रखना”’ शीर्षक से राजपाल एण्ड संज के द्वारा प्रकाशित है। इस उपन्यास में कोरियन मां के माध्यम से रोजमर्रा की जिंदगी में परिवार के लिए खटती और समर्पित लेकिन प्राय: महत्त्वहीन और उपेक्षित समझी जाने वाली ‘मां’ के महत्त्व को स्थापित किया गया है। राजपाल के द्वारा ही चर्चित लेखिका सुन मी ह्वांग का प्रगति सक्सेना के द्वारा अनूदित उपन्यास ‘ कुत्ता जिसने सपने देखने की हिम्मत की प्रकाशित है जिसमें एक काल्पनिक कहानी के माध्यम से इंसानी रिश्तों की बनावट और संवदेनाओं को दिखाने की कोशिश की गई है। एक समझ भी दी गई है कि जीवन की सारी चीजें वैसी ही नहीं होती जैसी हम चाहते हैं। विपरीत स्थितियों का सामना करते हुए भी प्यार और अपनेपन से जीवन का आनंद लिया जा सकता है। यहाँ दो और कृतियों का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा। पहली कृति है- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित कोरिया के लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार छवे हुन इन (चोई इन हुन, Choi Hun In) (13 April 1936-23 Julu, 2018) का हिंदी में ‘रंगमंच’ (ग्वांग जंग, GwangJang, 광장) शीर्षक से अनूदित उपन्यास जिसके अनुवादक हैं- नो युंग जा और आलोक कुमार राय। इस कृति में फंतासी के माध्यम से यथार्थ को गहराई से चित्रित किया गया है। इस उपन्यास में कथानायक ली म्यंगजुन के पागलपन और समाज को अपने अनूकूल न बदल पाने की उसकी विफलता को दर्शाया गया है। कथानायक माता-पिता की छत्रछाया से वंचित रहा है। उसका व्यक्तित्व क्रांति और प्रेम से निर्मित हुआ दिखाया जाता है। वह कभी अमैत्रीपूर्ण समाज की आलोचना करता है और कभी अतीत के खुशहाल दिनों की स्मृति में घिरा नजर आता है। कथानायक दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी होने के कारण अपनी खास दृष्टि से मनुष्य और समाज का विश्लेषण करता है। वह उस दौर का साक्षी है जब कोरियाई प्रायद्वीप में अपनी अलग सरकारें स्थापित करने के लिए वामपंथी और दक्षिणपंथी एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे। वह वैभव और आदर्श से अलग होते हुए भ्रष्टाचार की कीचड़ की ओर अग्रसित होते कोरिया को देखकर हताशा से भर जाता है। वह अपने पिता की तरह भागकर उत्तर की ओर भाग जाता है जहाँ कम्युनिस्टों की दृढ़ व्यवस्था पाता है। वहाँ वह भीतरी गुप्त शत्रुता को देखकर बेचन हो उठता है। वह व्यक्ति की सोच और उसके व्यक्तित्व के सहज विकास की बाधक सीमित स्वतंत्रता का भी अनुभव करता है। कोरिया की लड़ाई के कारण उसे फिर दक्षिण कोरिया की ओर सियोल आना पड़ता है। कम्युनिस्ट दस्ते में लड़ते हुए वह गिरफ्तार हो जाता है। उसे एक बंदी शिविर में रखा जाता है। इसके बाद एक समझौते की तहत वह अपने आगे के जीवन के लिए तीस्रे और तटस्थ देश भारत को चुनता है, लेकिन यात्रा के दौरान समुद्र में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। इस उपन्यास में राष्ट्रीय विभाजन की समस्याओं को प्रखरता से चित्रित किया गया है। दूसरी कृति है- श्रेष्ठ कोरियाई कथाएँ । जून 2004 में यूनिकॉर्न बुक्स प्रा.लि., नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक के अनुवादक डॉ. जोंग सून सियो और डॉ. एम. ज्ञानम हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन कोरिया साहित्यानुवाद संस्थान के सहयोग से किया गया है।

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एक और महत्त्वपूर्ण कार्य। आठवीं शताब्दी में एक कोरियन भिक्षुक हे चो ने चीन से भारत की कठिन यात्रा की थी। इस यात्रा का वृतांत उसने डायरी के रूप में लिखा। इसके माध्यम से उस समय के भारत के उसकी निगाह से जानकारी पूर्ण दर्शन किए जा सकते हैं। इस पुस्तक का जगदीश चंद्रिकेश के द्वारा किया हिंदी में अनुवाद ‘ हे-चो का यात्रा वृतांत’ शीर्षक से नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित(प्र.संस्करण: 2011) है।

अब थोड़ा अवलोकन हिंदी से कोरियाई भाषा में अनुवाद का भी कर लिया जाए। हिन्दी के (अब सेवानिवृत) वरिष्ठ प्राचार्य प्रो. ली.जंग हो ने भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का पहले पहल अनुवाद किया था। इनके अनुसार भारतीय इतिहास, लोक जीवन, धार्मिक संबंधों को समझने के लिए यह उपन्यास बहुत ज़रूरी है। इन्होंने हिमांशु जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, अज्ञेय, काशीनाथ आदि की कहानियों के साथ साथ लोककथाओं और जयप्रकाश भारती की रचनाओं के भी अनुवाद किए हैं । एक जानकारी के अनुसार प्रो. किम ऊ जो ने कबीर, घनान्द, निराला, रघुवीर सहाय, धूमिल आदि की कविताओं तथा प्रेमचन्द, यशपाल, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, ज्ञानरंजन आदि की कहानियों के अनुवाद किए हैं पर वे प्रकाशित ( पुस्तकाकार) रूप में उपलब्ध नहीं है । प्रो. ई (ली) उंग गू ने प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास का अनुवाद किया है। वरिष्ठ कवयित्री किम यांग शिक ने दिविक रमेश की कविताओं का न केवल अनुवाद किया है बल्कि अपने ही द्वारा प्रारम्भ शांति प्रकाशन से प्रकाशित भी किया है। पुस्तक का नाम है – ‘से दल उई ग्योल हन’ अर्थात ’चिड़िया का ब्याह’ । किसी भी हिन्दी कवि की कविताओं के कोरियाई अनुवाद की यह सर्वप्रथम पुस्तक है।किम छंग योंग के द्वारा हिमांशु जोशी की कहानियों की पुस्तक सु-राज के अनुवाद की एक पुस्तक भी शांति प्रकाशन ने प्रकाशित की है। इसी प्रकार अयोध्या की राजकुमारी और कोरिया के राजा पर केंद्रित अंग्रेजी में लिखे गए कोरिया में रहे भारत के भूतपूर्व राजदूत श्री एन. पार्थासारथी के उपन्यास का अनुवाद भी किम यांग शिक ने किया है। अन्य भारतीय भाषाओं से शरतचन्द्र, करतार सिंह दुग्गल, मंटो आदि की भी रचनाओं के अनुवाद हुए हैं। इसके अलावा वेद, उपनिषद् आदि धार्मिक ग्रंथ भी जैसे-तैसे अनूदित हुए हैं। जानकारी में यह भी आया है कि तमिल भाषा से कुरल पाठ का पहला जापानी अनुवाद 1981 में शूजो मात्सुनागा ने किया था और उन्होंने ही कुराल साहित्य का कोरियाई में भी पहला अनुवाद किया। 2017 में भी तत्कालीन सरकार की प्रेरणा और आर्थिक सहयोग से कुराल पाठ का कोरियाई अनुवाद हुआ। यह जानकारी तो प्राय: सभी भारतीयों के पास है कि ‘तिरुक्कुरल’ तमिल भाषा की प्राचीन मुक्तक-काव्य रचना है जिसे नीतिशास्त्र की महान रचना का दर्जा दिया गया है। इस कृति में छोटे दोहे या कुराल सम्मलित हैं। इसके अलावा वेद, उपनिषद् आदि धार्मिक ग्रंथ भी जैसे-तैसे अनूदित हुए हैं। बाद में सीधे संस्कृत से कोरियाई भाषा में अनुवाद की स्थितियां खोजी गईं।

  एक और महत्त्वपूर्ण जानकारी। ऊपर बौद्ध धर्म की कोरिया मे महत्त्वपूर्ण उपस्थिति का संकेत दिया जा चुका है। दक्षिण कोरिया के प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर ‘ हे इन सा’ में आज भी कोरियन त्रिपिटिका अर्थात बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटिका का कोरियाई अनुवाद सुरक्षित रखा हुआ है। कोरियन त्रिपिटका का उत्कीर्ण कोरियो राज (918-1392) में दो बार हुआ था। राजा और लोगों का विश्वास था कि उसकी मौजूदगी से कोई भी आक्रमण पीछे धकेला जा सकता है और सौभाग्य बना रह सकता है। पहली बार उत्कीर्ण का कार्य 1087 में पूरा हुआ। लेकिन दुर्भाग्य से 1232 में, मंगोलों के आक्रमण में त्रिपिटका जल गई। इसके बाद 1236 में पुनः कार्य शुरू हुआ - तत्कालीन राजा गो जोंग के हुक्म से। लगभग 16 वर्षों के बाद 1251 में वर्तमान त्रिपिटका का कार्य सिद्ध हो सका। पहले इसे सोल शहर के पश्चिम में कांगहवा दो नामक द्वीप में रखा गया और बाद में 1398 में हे इन सा में लाया गया। कहना न होगा कि अनुवाद के आदान-प्रदान की इस दिशा में अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है।

आज कोरिया में हिन्दी की ओर नई पीढ़ी का इस हद तक रूझान हुआ है तो इसे भारत की ओर बढ़े रूझान के संदर्भ में ही समझा जा सकता था। जिस तरह कोरिया का भारत में - खासकर भारत के बाज़ार में - धमाकेदार प्रवेश हुआ है उसी प्रकार कोरिया में भारत की उपस्थिति बहुत दृढ़ता से देखी जा सकती है। और इसी संदर्भ से कहा जा सकता है कि कोरिया में हिन्दी की उपस्थिति भी उतनी ही दृढ़ता से अपना एहसास करा रही है। निश्चित रूप से, यदि हम भारतीयों, हमारी सरकार की ओर से भी हिन्दी की केन्द्रीय भूमिका को और अच्छे से निभाने की ओर उचित ध्यान दिया गया तो कोरिया में उसकी बढ़ती हुई प्रगति को कोई नहीं रोक सकेगा। बखूबी कहा जा सकता है आज कोरिया विश्व के उन गिने देशों में से एक है जहाँ हिन्दी का प्रभुत्व अग्रगामी है।

 अंत में इतना और कहने की अनुमति चाहता हूं कि हिन्दी के समाचार एवं अन्य कार्यक्रम दिखाने वाले टी.वी. चैनेल उपलब्ध होने से भी भारत के संबंध में जानकारी उपलब्ध होती रहती है और भारत के बारे में और अधिक जानने की स्वाभाविक रूचि कोरियाई लोगों में बढ़ती जाती है। लेकिन एक कोरियाई विद्यार्थी जिसका भारतीय नाम ‘समीर’ है, ने यह चिन्ता भी व्यक्त की कि हिन्दी को भारत की राज एवं राष्ट्रभाषा जिस रूप में बना लिया जाना चाहिए था उसमें भारतीय चूके हैं। उस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।

-प्रो. (डॉ.) दिविक रमेश 

पूर्व आचार्य (हिंदी), हांगुक विश्वविद्यालय विदेशी भाषाएं,

सोल, दक्षिण कोरिया।

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