Vinoba Bhave ki Jivani, Indian advocate of nonviolence and human rights, Indian philosopher, Bhoodan Movement in India, Acharya Vinoba Bhave Biography in Hindi.
Vinoba Bhave
संत विनोबा बीसवीं सदी का अनोखा व्यक्तित्व
सन्त विनोबा बीसवीं शताब्दी का एक ऐसा अनोखा व्यक्तित्व है जो दिन बीतने के साथ-साथ अधिकाधिक निरखता हुआ अपनी उपादेयता तथा प्रयोजनीयता प्रमाणित करता जाएगा। ऐसे ही व्यक्तित्व सम्पन्न महापुरुषों के बारे में कवि गुरू रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है 'भगवान, तुमि युगे युगे दूत पाठायेछ बारे-बारे।"
भगवान स्वयं तो कुछ करते नहीं। मनुष्य दूत के माध्यम से ही कराते हैं। सन्त विनोबा भगवान की ओर से भेजे गये दूत ही थे. जिन्होंने अहिंसात्मक ढंग से रचनात्मक मार्ग पर चलते हुए समाज की समस्याओं के समाधान का समन्वयात्मक आदर्श प्रस्तुत किया।
इनका जन्म सन् 1895 में ग्यारह सितम्बर को महाराष्ट्र के कुलाबा जिले में गागोदे नामक गांव में हुआ था। मूल नाम था विनायक नरहरि भावे । माता प्यार से विन्या कहकर पुकारती थी। यही विन्या आगे चलकर साबरमती का आचार्य और पौनार का सन्त विनोबा के नाम से विख्यात हुआ।
विन्या के पिता नरहरि भावे वैज्ञानिक थे और बड़ौदा में नौकरी करते थे। अतः बचपन का अधिकांश भाग माता रुक्मिणी बाई के साथ ननिहाल में बीता। रूक्मिणी बाई स्नेहमयी माँ तो थी हीं, भारतीय जीवन-दर्शन की व्यावहारिक समर्थ अधिकारिणी महिला थीं। मिल-जुलकर रहने, बॉट कर खाने, विनम्र किन्तु दृढ निश्चयी बनने के साथ-साथ, संयम में सुख का अनुभव करने, पेट भर भोजन और तन पर कपड़ा से अधिक की कामना न करने आदि शिक्षाएँ वे बातों-बातों में कहानियां सुना कर ही दिया करती थीं। विन्या के विचारों को प्रोत्साहन देने में निपुण थीं। दस वर्ष आयु में विन्या ने आजीवन अविवाहित रहकर ब्रह्मचर्य पालन का विचार व्यक्त किया तो माता ने यह कहकर प्रोत्साहित किया कि विवाह करके गार्हस्थ धर्म का पालन करते हुए पितृ ऋण चुकाने से तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके चालीस पीढ़ियां का उद्धार करना कहीं अधिक उत्तम है। नाना शंभूराम प्रगतिशील धार्मिक विचार रखते थे और सामाजिक ऋण चुकाने का पाठ अपने आचरण से ही सिखाने वाले व्यक्ति थे। बाल विन्या पर नाना का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। नाना और माता के प्रभाव से अध्यात्म-चिन्तन और आत्म-साक्षात्कार की प्रवृत्ति के बीज विनोबा के बचपन में ही अंकुरित हो गए थे।
सन् 1905 में बड़ौदा में इनका नाम विद्यालय में लिखाया गया और औपचारिक शिक्षा का श्री गणेश हुआ। पिता ने प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति पर इन्हें विद्यालय से निकाल कर घर पर ही पढ़ाना शुरू किया। तीन वर्ष तक घर पर ही पढ़ने के बाद इनको दुबारा विद्यालय भेजा गया। इनकी विलक्षण प्रतिभा और स्मरण शक्ति देखकर शिक्षक वर्ग दंग रह जाता था। वैज्ञानिक पिता के संसर्ग में गणित के प्रति रुचि, अध्ययनशीलता तथा संयमित वैज्ञानिक आहार आदिकी शिक्षा तो मिली किन्तु विद्यालय की चार दीवारी की औपचारिक शिक्षा विनोबा को रास आयी। उनके अपने विचारानुसार स्कूल जाकर पढ़ना-लिखना सीखने में समय बिताना निरर्थक था। इससे आत्म साक्षात्कार के काम में बाधा ही पड़ती थी। विद्यालय की शिक्षा से मन हटाकर वे राजनीति का अध्ययन करने लगे। अहिंसा का साक्षात्कार हुआ नहीं था। अतः देश को आजाद करने के लिए बंगाल की क्रान्ति उनका आदर्श बनने लगी। बचपन के समझे अध्यात्म के चिन्तन मनन का क्रम भी अटूट था। पिता के आग्रह पर फ्रेंच और माता की प्रेरणा से संस्कृत का भी भरपूर अध्ययन किया।
धीरे-धीरे इनके मन में दो आकर्षण पनपने लगे। एक देश को आजाद कराने वाली बंगाल की क्रांति का आकर्षण और दूसरा आत्म साक्षात्कार हेतु प्रयास करने के हिमालय की शांति का आकर्षण। इस दो मुखी द्वन्द्व में अध्यात्म ही भारी पड़ा। सन् 1916 में एक दिन इन्होंने विद्यालयीन प्रशस्ति पत्रों को जला दिया और गृह-त्याग कर काशी आ गए। परन्तु विधाता ने तो कुछ दूसरा ही सोच रखा था।
काशी में हिन्दू विश्व विद्यालय का उद्घाटन हुआ। उद्घाटन कर्ता थे महात्मा गाँधी, जिनके उद्घाटन भाषण ने हिन्दुस्तान में तहलका मचा दिया। विनोबा ने अखबार में इस भाषण की रिपोट पढ़ी। काफी प्रभावित होकर एक लम्बी प्रश्नावली सहित गाँधी जी को पत्र लिख दिया। जवाब में गाँधी जी ने इन्हें चर्चा हेतु बुलाया और सात जून सन् 1916 को विनोबा सावरमती आश्रम पहुंच गए। गाँधी जी से मिलकर ये आकर्षित हुए और साबरमती आश्रम के ही होकर रह गए। उन्होने स्वीकार किया कि बापू के चरणों में उन्हें बंगाल की क्रान्ति और 'हिमालय की शांति' दोनों के दर्शन हुए और उनके बचपन की दोनों इच्छाएँ पूरी हो गई।
गाँधी जी भी विनोबा से कम प्रभावित नहीं हुए। आश्रम प्रवेश के कुछ काल बाद उन्होंने विनोबा के पिता को भेजे पत्र में लिखा था 'आपके सुपुत्र विनोबा मेरे आश्रम में है। अपनी छोटी आयु में ही इन्होंने इतना आध्यात्मिक ज्ञान और तपस्वी प्रवृत्ति अर्जित की है जिसे प्राप्त करने में मुझे वर्षों तक श्रम करना पड़ा।
विनोबा आश्रम में रम गए। उन्होंने वहाँ की सभी सेवा प्रवृत्तियों में खुलकर भाग लिया। साथ ही स्वतन्त्रता आंदोलन के सभी सत्याग्रहों में सक्रिए सहयोग करके जेल भी गए। आश्रम हो अथवा जेल, उनका अध्ययन और चिन्तन मनन अबाध चलता रहा। देशी और विदेशी कई भाषा सीखीं। भाषा के बारे में उनका मत था जिस प्रान्त का अन्न आखो उसकी भाषा भी सीखो और उन्होंने अपने जीवन में ऐसा करके भी दिखा दिया। भूदान आंदोलन के सिलसिले में जब वे असम ही सीमा में प्रवेश करने लगे तब प्रो. निर्मल को उनके पास भेजा गया ताकि असमीया न जानने के कारण उनको कोई परेशानी न हो। उन्होंने प्रो. निर्मल को यह कह कर लौटा दिया कि मुझे भाषा सीखने समझने के लिए सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती।
अपने आत्म संयम, बल, धैर्य, त्याग, अनुशासन, विद्वत्ता और प्रत्येक क्षेत्र में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने आदि गुणों के बल पर आश्रम प्रवेश के समय गाँधी जी के विनोबा, आश्रम के आचार्य विनोबा हो गए, फिर भी उने उस जीवन को मौन साधना का गुमनाम जीवन ही कहा जाएगा। सन् 1940 के पहले तक कोई उनका नाम भी नहीं जानता था। सन् 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन के प्रथम सत्याग्रही के रूप में आचार्य विनोबा भावे का नाम जनता के सामने आया। लोगों को आश्चर्य हुआ कि महात्मा गाँधी ने पं. जवाहरलाल नेहरू (जो गाँधी जी के उत्तराधिकारी माने जाते थे) को छोड़कर यह किसी व्यक्ति को चुना, जिसका राजनैतिक पटल पर कोई स्थान ही नहीं है।
गाँधी जी ने नवजीवन में एक लेख लिखकर उनको जनता के सामने खडा किया, जिसके अनुसर आचार्य विनोबा भावे संस्कृत के प्रकांड पंडित, आश्रम के सर्वप्रथम सदस्यों में से एक और आश्रम की रसोई से लेकर पाखाना सफाई तक आश्रम की सभी सेवा प्रवृत्तियों में सक्रिय भाग लेने वाले व्यक्ति थे। हथ करघे के माध्यम से शिक्षा दान की योजना, चरखे के प्रति प्रतिबद्धता, तकली की कताई में निपुणता, छुआछूत की भावना को मन से निकाल फेंकने की क्रिया, साम्प्रदायिकता, एकता के पुजारी, संकेत मात्र पर कोई भी बलिदान करने को प्रस्तुत अनुयायियों का दल तैयार करने की बेजोड़ क्षमता, भगवत गीता को माँ मानकर उसके अध्ययन और मराठी में अनुवाद, दरिद्र नारायण की सेवा, अहिंसा तथा रचनात्मक कार्यों में दृढ़ विश्वास आदि गुण ही आचार्य विनोबा भावे के प्रथम सत्याग्रही के रूप में चुनाव के कारक बने थे। उन्होंने इसके पहले के सभी सत्याग्रहों में भी सक्रिय भाग लिया था। महादेव देसाई के अनुसर अपने निश्चय पर निश्चय के क्षण से ही अमल करना, निरन्तर विकासशीलता, सत्य अहिंसा के पुजारी, कार्यरत सेवक तैयार करने में अग्रणी, 'योगः कर्मसु कौशलम्' के आधार पर सच्चा कर्म योगी, विचार-वाणी और आचार में एक रूपता और इसके फलस्वरूप एक मधुर संगीतमय जीवन का उपभोक्ता आदि आचार्य विनोबा के विशेष गुण थे, जो गाँधी जी के दूसरे शिष्यों में नहीं थे। गाँधी के अनुसार ही वे आश्रम के गिने-चुने हीरों में से एक थे जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से आश्रम को कुछ देने ही आए थे, लेने नहीं।
व्यक्तिगत सत्याग्रह और फलस्वरूप जेल यात्रा के बाद से ही आचार्य विनोबा भावे भारतीय राजनैतिक क्षितिज के एक उज्जवल नक्षत्र की भाँति चमकने लगे। परन्तु राजनैतिक मंच से दूर ही रहे। उनका विश्वास था कि सविनय आज्ञा भंग के अनुसंधान में शान्त रचनात्मक काम कहीं ज्यादा प्रभावकारी होता है, इसकी अपेक्षा कि जहां पहले से ही राजनैतिक भाषणों का अखण्ड प्रवाह चल रहा है, वहाँ जाकर भाषण दिए जाएँ।
बहुआयामी व्यक्तित्व आचार्य विनोबा एक कर्मठ स्वतन्त्रता सेनानी थे, पर स्वभावतः वे राजनीति नहीं, समाज सेवा और मानव कल्याण के पुजारी थे। वे देशी और विदेशी बहुभाषाविद्, इतिहास के निष्पक्ष विद्वान, साहित्य दर्शन के मर्मज्ञ, कर्मयोगी ऋषि स्वभाव के सन्त थे, जो सच्ची आजादी के लिए रचनात्मक कार्यों की अनिवार्यता में विश्वास रखते थे। दूसरों की अन्तरात्मा को अपनी अन्तरात्मा जितना ही सम्मान देते थे। आध्यात्मिक अधिष्ठान के आधार पर एक नवीन समाज गढ़ने की उनकी आकांक्षा। वे 'जीवन शोधनम्' के समर्थक थे और ज्ञान के साथ को समान महत्व देते थे। अपने विभिन्न ग्रन्थों में उन्होंने इन्हीं विचारों को जनता के सामने रखा है।
आत्म-साक्षात्कार की साधना और दरिद्रनारायण की सेवा की तीव्र लालसा आचार्य विनोबा भावे को खींचकर पास के ग्राम पौनार (पवनार) ले गई, जहाँ आश्रम बना कर वे 'पौनार के सन्त' के रूप में विख्यात हुए। यहीं से मानव कल्याण हेतु विनोबा के रूप में प्रेम, ज्ञान और सेवा की त्रिवेणी प्रवाहित हुई।
संसार आचार्य विनोबा को भूदान यज्ञ के प्रवर्तक के रूप में जानता है। यह यज्ञ कोई योजना बनाकर नहीं हुआ था। सन् 1951 के अप्रैल में विनोबा आंध के पोचमपल्ली गाँव में थे। कुछ गरीब हरिजनों ने बातों-बातों मैं अपनी गुजर-बसर के लिए थोड़ी सी जमीन पाने की याचना की। विनोबा जी के आह्वान पर एक उदार युवक ने सौ एकड़ जमीन दान दी। विनोबा जी ने इसे ईश्वर की मदद और निर्देश-संकेत मान लिया। विश्व में सर्वत्र लड़ाई और नरसंहार के कारणों में 'जमीन' एक महत्वपूर्ण कारण बनती आयी है। बस, भूदान यज्ञ का आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। धीरे-धीरे ग्राम-दान, और क्रमशः धनदान, समयदान, श्रमदान, सम्मतिदान, जीवनदान आदि और आयामों को जोड़ता हुआ 'सर्वोदय' और अन्त्योदय आंदोलन बन गया।
विनोबा जी की अन्य उपलब्धियाँ हैं आचार्य कुल की प्रतिष्ठा, बिहार के वैद्यानाथधाम मन्दिर में हरिजनों के साथ प्रवेश, चम्बल और यमुना डाकूग्रस्त इलाकों में भ्रमण करके डाकुओं को आत्म समर्पण के लिए प्रस्तुत करना, 'नागरी लिपि परिषद' की नींव डालना आदि।
'आचार्य कुल' विनोबा जी के स्वतन्त्र चिन्तन का परिणाम था। आचार्य कुल अर्थात् आचरण को महत्व देने वाले तपस्वी शिक्षकों का परिवार। विनोबा जी का विचार था कि विद्यार्थियों पर स्नेह रखने वाले अध्ययनशील, तंटस्थ और दलगत राजनीति से मुक्त शिक्षक ही उपयुक्त शिक्षा देकर समाज में शांति की प्रतिष्ठा में सफल हो सकते हैं।
वास्तव में विनोबा जी का समस्त चिन्तन और कार्य समन्वय और जोड़ने की भावना से ओतप्रोत हैं। जिसका स्पष्ट प्रमाण है 'नागरी लिपि परिषद्'। नागरी लिपि-ही नहीं नागरी लिपि भी सभी भाषाओं के लिए चलाकर वे न केवल भारत बल्कि समग्र विश्व के मानव समाज का एक परिवार गढ़ने के हिमायती थे।
इन सबके ऊपर विनोबा का अपना आध्यात्मिक संसार था। आध्यात्मिक चिन्तन में इन्होंने कई स्वतन्त्र विचार और साधन प्रस्तुत किए। अध्यात्मचिन्तन में इन्होंने ब्रह्मविद्या को अनुकरणीय तत्व बना कर मानव को समुन्नत तथा दीर्घायु बनाने का पथ प्रशस्त किया है। स्वयं गाँधी जी ने स्वीकार किया है अन्य क्षेत्रों में शिष्य होते हुए भी अध्यात्म के क्षेत्र में विनोबा उनसे आगे थे।
महात्मा गाँधी को जितना विनोबा ने जाना उतना अन्य कोई नहीं जान पाया। जिस प्रकार उनके कार्यों की प्रासंगिकता का मूल्यांकन उनके जाने के बाद हुआ है, उसी प्रकार विनोबा का मूल्यांकन अब हो रहा है और आगे होता रहेगा।
वस्तुतः विनोबा जी के जीवन को मानव समाज के लिए किए गये नवीन प्रयोगों की गाथा कहा जा सकता है। सन् 1950 में किया गया उनका 'कोचन मुक्ति' और 'ऋषि खेती' का प्रयोग अपने आप में अनोखा था। ये ऋषियों की परम्परा में उन व्यक्तियों में थे जो अपने जीवन काल में ही वह दृष्टान्त प्रस्तुत कर देते हैं जिस पर मानवता और मानव समाज वर्षों बाद पहुंचता है। वे हमारे बीच रह कर भी हमसे पृथक और भविष्य से सम्बद्ध थे।
सन् 1982 के नवम्बर का महीना। विनोबा जी ने कुछ कमजोरी अस्वस्थता का अनुभव किया। हृदय का हल्का दौरा भी पड़ा। उन्होंने ऋषि परम्परा का पालन करते हुए दवा लेना बन्द कर दिया। आठ नवम्बर को प्राणोत्सर्ग का निश्चय करके कुछ दूध और शहद ग्रहण किया और फिर आहार लेना बन्द कर दिया। प्रसन्न मन से राम नाम का स्मरण करते हुए स्वेच्छा मरण को वरण करने की ओर अग्रसर हुए और 15 नवम्बर को 9.30 बजे विनोबा रूपी ज्योति का अखण्ड ज्योति में विलीन कर दिया जीवन भर के भूदान यज्ञ के बाद जीवन महायज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई।
विनोबा जी को उनकी उपलब्धियों के कारण सन् 1950 में मैगसेसे पुरस्कार मिला था। भारत सरकार के कल्याण के लिए आजीवन अथक प्रयास करने वाले विनोबा को 'विश्व नागरिक' कहा जाए तो भी अत्युक्ति न होगी।
वस्तुतः सन्त विनोबा जैसा समाज को झकझोरने वाला, बहुआयामी, समन्वयकारी, अनोखा व्यक्तित्व पृथ्वी पर सालों नहीं, युगों के बाद आता है। ऐसे अनूठे व्यक्तित्व को बार-बार नमन।
-श्री दत्तात्रेय मिश्र
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