हाशियेकृत समाज की मुक्ति का सवाल

Dr. Mulla Adam Ali
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केरल विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग की शोध छात्रा हिमा एम.एन. जी द्वारा लिखा गया लेखा हाशिए का समाज पर विशेष "हाशियेकृत समाज की मुक्ति का सवाल."

The question of liberation of marginalized society

The question of liberation of marginalized society

हाशियेकृत समाज की मुक्ति का सवाल

बीज शब्द : सबाल्टर्न अध्य्यन, हेजीमोनी, वर्चस्व, दलित, भूमंडलीकरण, संस्कृतिकरण, आदिवासी, सामाजिक स्तरीकरण, अस्मिता, स्त्रीवाद।

सारांश : समकालीन साहित्य में वर्ण, धर्म, लिंग आदि को लेकर व्यक्ति या समूह अपनी अस्मिता के साथ खड़े हुए हैं। इसलिए अस्मिता विमर्श के कई रूप उपस्थित हैं। आज जिन विमर्शों पर खूब चर्चा हो रही है उसमें स्त्री विमर्श, दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श मुख्य है। अस्मिता विमर्श का मुख्य उद्देश्य है हाशिये के वर्गों या व्यक्तियों के समस्याओं को मुख्यधारा के वर्गों या व्यक्तियों से परिचय करवाना और एक समतामूलक सामाज की परिकल्पना करना।सदियों से हाशियेकृत समाज अपने अधिकारों के लिए जद्दोजहद है। समय परिवर्तन के साथ-साथ शोषण का स्वरूप और विद्रोह का स्वर भी बदला है। अंततः इनके विद्रोह का मूल उद्देश्य 'मुक्ति' है। वर्तमान जटिल समस्याओं के संदर्भ में मुक्ति का सवाल कहाँ तक सार्थक है यह ढूंढ निकालना इस आलेख का उद्देश्य है।

प्रस्तावना : समय बदलता है तो साहित्य बदलता है ।यदि शुक्ल जी की शब्दावली का प्रयोग करें तो लोगों की चित्त वृत्तियाँ बदलती हैं। हमारे साहित्यकारों ने चीजों को देखने के प्रतिमान बनाए हैं। उन प्रतिमानों पर हमको एक बार पुनर्विचार करना होगा। प्रेमचंद उस समय ऐलान किया था कि "हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।"१ सामान्य तौर पर जब भी कोई नया साहित्य आता है, नया आंदोलन आता है तो वह नए सौन्दर्यशास्त्र की माँग करती है।क्योंकि सार्वभौमिक साहित्य के तत्त्वों में संघर्ष, यातना, और विज़न प्रमुख है। इस धारणा को राजेन्द्र यादव इस प्रकार विश्लेशित करते हैं कि "जो नया सौन्दर्यशास्त्र बनेगा, वह संघर्ष से शुरू होगा, उस यादना से शुरू होगा, चाहे वह उसका रियलाइज करने अथवा उस यातना को उसकी तकलीफ को उसके भेदक रूप को समझने के रूप में हो, और उसके बाद बदलने की मानसिकता के रूप में हो, जिसे हम संघर्ष कह सकते हैं। तीसरा एक स्वप्न के रूप में होगा, हमें करना क्या है? हमें समानांतर सौंदर्यशास्त्र देना है, वैकल्पिक समाज बनाना है, यह सारा संघर्ष साहित्य में भी है और समाज में भी।"२

 साहित्य के बारे में कहा जाता है कि साहित्य परकाय प्रवेश की साधना है, साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है,या साहित्य राजनीति और समाज को मशाल दिखाती चलने वाली सच्चाई है। इस तरह साहित्य की जो भी परिभाषाएं दी जाती है , उसका निष्कर्ष यह होता हैं कि साहित्य हमारे अनुभव संसार को विस्तार करता है। पिछले कुछ दशकों से मुक्तिकामी साहित्य या अस्मितावादी साहित्य एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभरा है।साहित्य में उसकी भूमिका बहुत बड़ा है।क्योंकि यह हमें उस दुनिया में ले जाते हैं उस दुनिया के सम्बंध में हमारी जानकारी बहुत कम है।इस दृष्टि से देखे तो भारत में सबाल्टर्न अध्ययन की अवधारणा समाज के निम्नजनों को संकेतित करने के लिए किया था।ग्राम्शी ने 'हेजीमोनी' का उल्लेख करते हुए वर्चस्व-संस्कृति को व्याख्यायित किया।ग्राम्शी के अनुसार शोषित समाज के शोषण में सामाजिक संस्थाएँ एवं सांस्कृतिक संरचनाएँ सहयोग देते हैं। समकालीन अस्मिता वादी साहित्य ग्राम्शी द्वारा प्रतिपादित 'वर्चस्व' के सिद्धांत को अपने दृष्टिकोण से विश्लेशित करते हैं। वे सामाजिक संरचना में संरचनात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं।

हाशिए के समाज पर हिंदी साहित्य के कई विचारकों ने विचार किए हैं। उमा शंकर, दिनेश कुमार, देवेंद्र चौबे आदि के मत में समाज में हाशियेकृतों की संख्या अधिक है, और वे मुख्यधारा में रह कर भी हाशिये की ज़िंदगी जीने के लिए विवश है। हाशिये का समाज का एक व्यापक स्वरूप आज विद्यमान है, जिसमें स्त्री, दलित, आदिवासी, मज़दूर, किसान, वृद्ध, एल जी बी टी क्यू, विकलांग आदि सम्मिलित है। इन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से प्रत्येक काल में अनीति का शिकार होना पड़ा है। अतः वे प्रत्येक समय में मुक्ति की अभिलाषा को लेकर जीते हैं।

दलित कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं

"वह दिन कब आयेगा

जब बामनी नहीं जनेगी बामन

चमारी नहीं जनेगी चमार

भंगिन भी नही जनेगी भंगी

तब नहीं चुभेंगे

जातीय हीनता के दंश

नहीं मारा जाएगा तपस्वी शंबूक

नही कटेगा अंगूठा एकलव्य का

कर्ण होगा नायक।"३

दलित कवि अपने मुक्ति पर्व ताक रहे हैं। सवर्ण साहित्य और दलित साहित्य का मूल अंदर उनकी यह भिन्न दृष्टिकोण है।

दरअसल हाशियेकृत समाज में चेतना का मूलाधार सामाजिक वंचना है। मूलतः सामाजिक वंचना के अंतर्गत आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है।इन्हीं कारणों से हाशियेकृतों को अपने जीवन में तिरस्कार, अपमान, लाँछन, आदि अन्यायों को झेलनी पड़ती हैं।दलित साहित्य के सन्दर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं "दलित साहित्य के मूल्यांकन से पूर्व परंपरावादी समीक्षकों को भारतीय समाज व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जातिभेद, जाति संघर्ष, विषमताओं, भेदभावों, सामंती सोच, ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण, अंतर्विरोधों, आर्थिक-सामाजिक-भारतीय मनःस्थितियों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों का विश्लेषण करना होगा, भारतीय राजनीति को समझ कर साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन करना होगा। तभी दलित साहित्य का सही और यथार्थ मूल्यांकन हो पाना सम्भव होगा।"४

भूमंडलीकरण के संदर्भ में हाशिये पर पड़े लोगों की बेबसी को कृष्णदत्त पालीवाल यूँ विश्लेशित करते हैं। "नवउदारवादी पूँजीवाद भूमंडलीकरण के उस अखाड़े के ताकतवर पहलवान है,जो नए लोकतंत्र की रूप रचना को विकृत करके उसके तहत दलितों जैसे हाशिए पर पड़े तबकों को आर्थिक सामाजिक प्रणाली से भीतर ही भीतर फाड़कर रख देगा। नई विश्व व्यवस्था में बाज़ारवाद और नस्लवाद वर्णवाद की दमनकारी संरचनाएँ अंतर्गुम्फित हैं।"५

इस संदर्भ में प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास का सांस्कृतिकरण की अवधारणा प्रासंगिक है। संस्कृतीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सांस्कृतिक रूप से प्रतिष्ठित समूह के परंपराओं का अनुकरण कर निम्न जाति या समूह अपनी सामाजिक स्थिति को उच्च बनाते हैं। हालाँकि यह प्रक्रिया पहले दलितों में हुई और अब आदिवासियों में भी हुई। इसलिए दलित या आदिवासी मुक्ति का प्रश्न आता है तब उपनिवेशवाद से पहले के स्रोत सामग्री को देखना है जहाँ उनकी निजता है।

जब आदिवासी साहित्य की बात करते है तो आदिवासियों को अपनी ज्ञान परंपरा में जो कुछ भी संरक्षणीय है वह सब पुरखों का दिया हुआ है।रमणिका गुप्ता ने दलित और आदिवासी समस्याओं का विवेचन करते हुए लिखती हैं " आदिवासियों की कई समस्याएँ दलितों से सामान होते हुए भी ,कुछ भिन्न भी थी।दलित भारतीय समाज का अंग होते हुए उनसे बहिष्कृत कर के रखे गए।वे गाँव का अभिन्न पर बहिष्कृत अंग थे।पर आदिवासी तो उस समाज और सभ्यता से ही बहिष्कृत कर मुख्य धारा से अलग - थलग कर दिये गए थे।उनके टोलों में गैर आदिवासी या हिन्दू नही रहते।उनके पास जमीन थी जो वे जंगल साह करके बनाते थे,पर अंग्रेज़ो, ज़मींदारों, महाजनों और कर्मचारियों द्वारा वे बराबर खदेड़े जाते थे-ठग लिये जाते थे।इन्हें ज़मीन के पट्टे नहीं मिलते थे।आदिवासी खदेड़े जाते रहे -विस्थापित किये जाते रहे और वे यायावरी बंजारों सी ज़िन्दगी जीने को बाद्य किये जाते रहे।इनकी ज़रूरी थी जंगल, जल, ज़मीन और महाजनों-सामंतो से मुक्ति।"६

आज आदिवासी उनपर हुए शोषण पर रचनात्मक विद्रोह करते हैं।आज़ादी के बाद हुए प्रत्येक विकास योजनाएँ उन्हें अपनी ज़मीन से उखाड़ दिया है। विस्थापन उनकी ज़िंदगी को ख़ौफ़नाक बना दिया है।सरिता सिंह बड़ाईक अपनी कविता द्वारा प्रभात की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति इस प्रकार देती है।

"अभी चाहत के प्रभात का /सूर्य उगा नहीं/अभी/मासूम कलियों के होंठ/ओस से भीगे नहीं/अभी तक रात/ओस के पानी से भीगी/उसमें हिलोरें लेती है/दर्द सनी खामोशी बन/कोयल की पहली कूक को/नहलाया है/प्रभात का संदेश आया है/"हाँ सुबह हो गई"/जागी है उधर उस ओर/मंदिर की घंटीयाँ/अल्लाह हूं अकबर/गिरिजे की घंटीयाँ/फिर भी क्या बात है /अभी चाहत के प्रभात का /सूर्य उगा नहीं!७

दलित और आदिवासियों में आज वर्गीय आधार पर जटिलता बढ़ रही है। शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, स्त्री - पुरुष, दलित- गैर दलित, आदिवासी -गैर आदिवासी, जैसे विभाजन दृष्टव्य है। इसका मूल कारण सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया है।जिसमें व्यक्तियों के समूह को उनकी प्रतिष्ठा संपत्ति और शक्ति की मात्रा के अनुसार विभिन्न श्रेणियों में उच्च निम्न रूप से स्वीकृत किया जाता है। ऐसी स्थिति में दलित या आदिवासी साहित्य की दिशायें भी अनेक कहा जा सकते हैं।क्योंकि प्रत्येक समूह की सामाजिक वातावरण भिन्न-भिन्न है।

दलित और आदिवासी मुक्ति का प्रश्न जहाँ तक प्रासंगिक है, वहीं स्त्री की मुक्ति का सवाल भी महत्वपूर्ण है।जैसे दलित विमर्श की बात ब्राह्मणवाद के आधार पर की है, वैसे स्त्री विमर्श का मूलाधार पितृसत्तात्मक समाज है। स्त्री आंदोलनों में यह बार बार रखा भी गया है। फिर भी विडंबना यह है कि स्त्री की परिभाषा 'भोग्या' और देह की सीमा तक सीमित रही है।स्त्री बनाने की प्रक्रिया घर से शुरू होती है। मदन कश्यप ने अपनी कविता 'लड़की का घर' में स्त्री अस्मिता का महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है।

"घर मे पैदा होती है लड़की

और बार बार जकड़ी जाती है

घर मे ही रहने की हिदायतों से

फिर भी घर नहीं होता लड़की का कोई

बस एक सपना होता है

की एक घर उसका भी होगा पति का घर"८

भूमंडलीकरण के दौर तक आकर स्त्री मुक्ति संबंधित काफी धारणाएँ बदली है। स्त्रीवादी साहित्य का एक लंबा दौर स्त्री की दिशा और दशा को विभिन्न पहलुओं में देखने परखने की तमाम कोशिशें की है। मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा, ममता कालिया का जो दौर था उस समय के साहित्य में पारिवारिक टूटन और स्त्री पुरुष संबधो में आये बिखराव आदि को सम्बोधित कर रही थी।सन 1967 में हिंदी में स्त्री लेखन के पितामह कृष्णा सोबती ने स्त्री पक्ष में सेक्सुअलिटी को एक समस्या के रूप में उभार दिया है।कृष्णा जी के बाद भूमंडलीकरण के प्रासंगिक दौर में चित्रा मुद्गल, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, रजनी गुप्त, गीतांजलि श्री आदि आती है। कृष्णा सोबती से लेकर गीतांजलि श्री तक आते आते आथिर्क मोर्चा, यौनिकता और लिंग संबंधित कई सवाल उठे भी है। लीलाधर मंडलोई, सुधीश पचौरी जैसे आलोचक औपनिवेशिक संस्कृति की संकीर्ण मानसिकता में उलझे देह की राजनीति को विश्लेशित करने का प्रयास किये हैं।वे भी अपने लेखों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में छिपी छल कपट के पोल खोलते हैं। मीडिया और स्त्री देह के संदर्भ में लीलाधर मंडलोई लिखते हैं "मीडिया पर वर्चस्व पुरुषों और उनकी घोषित अघोषित सत्ता का है। इस सत्ता के सूत्र पितृसत्तात्मक व्यवस्था में है। अतः इस षडयंत्र को समझे बिना स्त्री की सही मुक्ति संभव नहीं।"९

उपसंहार : हाशिये का समाज एक व्यापक अवधारणा है।इसमें दलित, स्त्री, आदिवासी साहित्य के अलावा समाज के प्रत्येक निम्न वर्ग भी शामिल हैं, जैसे एल जी बी टी क्यू, किसान, मज़दूर, प्रकृति, विकलांग, वृद्ध आदि सब आते हैं। मुक्तिकामी साहित्य इन हाशिये के समाज की मानवीय अस्मिता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। अस्मिता और आत्मसम्मान के ज़रिए समतामूलक समाज की स्थापना इनके मुख्य उद्देश्य हैं।जाती,लिंग, नस्ल, वर्ण, भाषा और वर्चस्व की राजनीति से लड़ कर और परंपरागत सौन्दर्य के मानदंडों को चुनौती दे कर वे नए प्रतिमान बनाते हैं। फिर भी मुक्ति का सवाल अपूर्ण है।वर्ण और वर्ग के बीच खड़े होकर दलित और आदिवासी साहित्यकर आशंकित है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के बदलते स्वरूप से वाकिफ़ होकर मुक्ति का नया पाठ रचने में स्त्री लेखक भी संदिग्ध हैं। फिर भी यह निर्विवाद सत्य है कि अगर हाशिये के समाज की मुक्ति पूर्ण रूप से संभव हो पाए तो वह ज़रूर विश्व के नव निर्माण का सूत्रपात करेगा।

 संदर्भ सूची;

१ प्रेमचंद: कुछ विचार - सरस्वती प्रेस बनारस, त्रितीय संस्करण १९४५,पृ.८

२ वाल्मीकि ओमप्रकाश, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,२००९,पृ.४९

३ वाल्मीकि ओमप्रकाश, बस बहुत हो चुका है,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ४६

४ वाल्मीकि ओमप्रकाश, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,२००९,पृ.४७

५ पालीवाल कृष्णदत्त, उत्तर आधुनिकतावाद और दलित साहित्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१०,पृ.२१९

६ गुप्ता रमणिका, आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१७,पृ.७

७ गुप्ता रमणिका, आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१७,पृ.३६

८ अतिथि सं. जैन अरविंद, मंडलोई लीलाधर,स्त्री मुक्ति का सपना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१८,पृ.४२७

९ अतिथि सं. जैन अरविंद, मंडलोई लीलाधर, स्त्री मुक्ति का सपना,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,२०१८,पृ.२९

- हिमा एम.एन.
शोधार्थी, केरल विश्वविद्यालय
कार्यवट्टम, तिरुवनंतपुरम

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