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हिन्दी हास्य व्यंग्य
महिला महाविद्यालय में पुरुष प्राध्यापक : 33% प्रतिशत आरक्षण तो बनता है
बी.एल. आच्छा
ट्रांसफर होकर पहली बार वे किसी बड़े से महिला महाविद्यालय में पहुँचे। घुसते ही थोड़ा संकोच और सिमटन का सा अनुभव होने लगा। पहली बार खालिस लड़कियों की क्लास ली। अटेंडेंस के नाम पुकारे। एकाएक लड़की बोल गई-' यस मैडम'। पूरी क्लास खिल्ला गई। लगा कि दाढ़ी बनवाते समय अनजाने में ही मूंछ के किसी कोने पर हथियार चला दिया गया हो। यों कभी कोई लड़का जोर से भी बोल जाता-' यस्स सर' ,तो उनके घूरने से ही क्लास सन्न रह जाती थी। पर तभी उन्हें कुछ लड़कों का हिदायत सा मशविरा याद आया-" सर ,अकेले में चाहे जितना डांट लेना, मगर लड़कियों के सामने कतई नहीं।" बिना घूरे ही वे मुस्कुराते से आगे बढ़ लिए।
यों लोग जानते हैं कि जिस दिन घर में बीसी होती है, पति सीसी में होता है।महिला महाविद्यालय में तलब हुई कि कोई साथी प्राध्यापक खाली मिल जाए। तब उन्हें ख्याल नहीं आया कि बॉयज या को-एज्यूकेशन कॉलेज में प्राध्यापिकाएँ कैसे वक्त गुजारती होंगी? पर तभी एक खुराफात सूझी। यही कि महिला महा-विद्यालय में पुरुष प्राध्यापकों का भी 33% आरक्षण होना चाहिए।
कितना मुश्किल था स्टाफ रूम के किसी कोने में अकेले बैठना। उस दिन उनकी अल्पसंख्यक उपस्थिति से बेखबर प्राध्यापिकाएँ किसी मैडम की खूबसूरत साड़ी की तारीफ किए जा रही थीं। उनके जन्मदिन पर। मैचिंग के कसीदे पढ़े जा रहे थे। वे किसी मित्र की चौकड़ी वाली ब्रांडेड शर्ट पर कसीदे पढ़ने में चूकते नहीं थे। पर आज संकोच के ताले जबान पर। तभी एक मैडम ने कहा- "देखो न, सर कितने मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं।" तब जाकर जबान खुली। झुकी- सी नजरों के साथ वे बोले- "मैडम, मैं भी वही कह रहा हूँ, जो ये सभी मैडम्स कह रही हैं। खिल-खिलखिलाहट से सारा स्टाफ किलक गया। तब जाकर समझ में आया कि बॉयज कॉलेज का डायरेक्ट स्पीच महिला महाविद्यालय में इनडायरेक्ट स्पीच में क्यों बदल जाता है!
उनमें परिवर्तन के संकेत नजर आने लगे। संस्करण में अंतर। कितने ठहाकों से कैंपस गूँज जाया करता था। कितने हंसी-ठिठोली और आक्रामक तेवर। अब ठहाके गले में अटक कर हँसी बन गए हैं। हँसी मुस्कान में सिकुड़ गई है। और मुस्कुराहट मंद स्मित में। अब तो वे किसी प्राध्यापक साथी के सामने से गुजरते हैं, तो विश भी आँखों में ही हो जाती है । लड़कों के कॉलेज में किसी पार्टी के लिए चंदा माँगने पर वे सत्रह सवाल करते भिनभिना जाते थे। अब सभी मैडम्स के पर्स उदारता से खुल रहे हैं, तो वे भी कसकते दिल के बावजूद मुस्कुराहट से पाँच सौ का नोट थमा रहे हैं।
उस दिन अजूबा सा लगा। किसी मुद्दे पर सभी प्राध्यापक सख्त- सी प्रिंसिपल मैडम से मिलना चाहते थे। सात आठ इकट्ठे भी हुए। प्रतिक्रिया थी, मगर घंटी कौन बजाए? एक दूजे को ठेलते हुए। सभी एक दूसरे को कनखियों से देख रहे थे, बात छेड़ने के लिए। आखिर मैडम ही बोली- "कहिए कैसे आए हैं आप ? "बड़ी मुश्किल से बात कही। कहाँ तो लड़कों के कालेज में बिन लागलपेट के कहकहों और उत्तेजनाओं के बीच वे अपनी बात कह जाते थे। और कहाँ अब 'कामायनी' की लज्जा की तरह संकोच बढ़ता जा रहा था।
यों उनका सौंदर्यीकरण भी कम नहीं हुआ है। जैसे मीटरगेज का परिवर्तन ब्रॉडगेज में होता है, वैसे उनकी आत्मा सुसज्जित वस्त्रों के बगैर बीमार पड़ जाती है। मैचिंग उनकी आत्मा को विटामिन दे जाता है। मगर औरों को चार पहिए से उतरते देख उनकी दुपहिया विवशता उन्हें उदास कर देती है।
मैंने महिला महाविद्यालय में उनकी बदलती जीवनी प्रस्तुत की है। पर बकौल अज्ञेय, हिंदी वाले मान बैठते हैं कि यह जीवनी उनकी खुद आत्मकथा है। सो मैं लाख में कहूँ कि" वे", "वे" ही हैं, "मैं नहीं"। पर हिंदी वाले इस "वे "को "मैं "में तब्दील करने में देर नहीं करेंगे।
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