हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग : भक्तिकाल

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Sahitya Ka Swarn Yug : Bhaktikal

Hindi Sahitya Ka Swarn Yug Bhaktikal

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हिन्दी काव्य का स्वर्ण युग : भक्तिकाल

स्वर्ण संसार का सर्वाधिक मूल्यवान है। किसी वस्तु का अधिकतम मूल्य व्यक्त करने के लिए प्रायः स्वर्ण विशेषण लगाया जाता है। हिन्दी साहित्य का जीवन लगभग एक सहस्र वर्षों का हो चुका है। इस अवधि में हिन्दी काव्यधारा के प्रवाह में अनेक मोड, चढ़ाव तथा क्रिया-प्रतिक्रिया का समय आया और गया। यह कहना कठिन है कि हिन्दी काव्य का सर्वोत्तम काल अथवा स्वर्ण-युग कौन-सा है। प्रत्येक युग का अपना-अपना महत्व है। उनकी अपनी विशेषता है, उसका अपना स्थान है। इस समस्या के समाधान के लिए सिद्धान्त बनाना आवश्यक है। भारतीय आचार्यों ने काव्य के चार उद्देश्य बताये हैं, यश-प्राप्ति, अर्थ-प्राप्ति, व्यवहार-कुशलता तथा अनिष्ट में रक्षा। इन उद्देश्यों की पूर्ति जिस युग का काव्य करता है वही स्वर्ण युग कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के हित की भावना जिस युग के काव्य में अधिक है और जिस युग के काव्य में रस की सरसरि प्रवाहित होती है, उस युग को स्वर्ण युग माना जाएगा।

हमारे हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल एक ऐसा काल है जिसमें भारतीय समाज की अन्तश्चेतना का पूर्ण विकास हुआ है। इहलोक और परलोक दोनों को सुखमय बनाने की भावना काव्य में व्यक्त किया गया है। हिन्दी काव्य का क्रमिक विकास उस युग में हर दृष्टि से हुआ। अतः निर्विवाद रूप से "भक्तिकाल" ही हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाता है। जो युग हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के नाम से माना जाता है उसे "स्वर्ण युग" भी कहा जाता है। यह युग संवत् 1375 से लेकर संवत् 1700 तक चलता रहा। इस काल में काव्यगत तत्वों का चरम उत्कर्ष हुआ और भाषा की गक्ति में अपार वृद्धि हुई। मानव प्रकृति और साहित्य पर प्रकाश डालते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि "मानव प्रकृति के जेतने अधिक रूपों के साथ गोस्वामी जी के हृदय का रागात्मक मंजस्य देखते हैं, उतना अधिक हिन्दी भाषा के ओर किसी कवि हृदय का नहीं।"

इस काल में अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं की विताएँ हुई। अवधी भाषा में "मानस" तथा "प‌द्मावत"" हाकाव्यों की रचना हुई। गीत शैली तथा अन्य छन्दों की रचनाएँ जभाषा में की गई। ब्रजभाषा की रचनाओं में तुलसी, सूर, दनदास की कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। भाषा साहित्यिक थी। विशेष न में श्रृंगार रस की प्रधानता होते हुए भी मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया गया। शुक्ल जी के कथानुसार "आत्म-पक्ष और क-पक्ष से उदासीन नहीं थे। शुक्ल जी के मानव-जीवन का चरम क्ष्य मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया। छन्द अलंकार, रस-भाव, चरित्र-चित्रण आदि सभी काव्यांगों का पूर्ण विकास इस काल में ही हुआ।

भक्तिकाल के कवियों ने लोक-पक्ष के व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक का रूप ही रखे। समाज में व्याप्त बुराइयों की निन्दा की। वे ईश्वर के विषय में अनेक भ्रम उत्पन्न करते थे। कबीर ने साधारण जनता के व्यवहार योग्य सिद्धांतों का प्रचार किया और मानव मात्र की एकता का पाठ पढ़ाया। जीवात्मा को इन्होंने ईश्वर अंश मानकर अवतारवाद भी मानने से इन्कार कर दिया। फिर राम की व्यवस्था की। फिर भी ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश इन्होंने अपने ढंग से दिया। ईश्वर की शक्ति को सर्वव्यापी सिद्ध किया। कबीर तथा अन्य संत कवि फक्कड़ साधु थे। कबीर के काव्यों में अर्थ साक्षी अथवा गुरु के उपदेशों का प्रत्यक्ष रूप है। उनकी रचनाओं में नाम-स्मरण वैष्णव मत से भी प्रभावित हैं। जाति-पाँति का निषेध करते हुए वे समता के भाव पर बराबर बल देते रहे। मुसलमानों और उनके उपयोगी मत व्यक्त किया। भक्ति काल में रस का सागर उद्वेलित हुआ जिसने सभी रसिकों को अपने में निमज्जित कर लिया। सूरदास ने "वात्सल्य रस" का चित्रण इस प्रकार किया है।

"मैया कबहि बढ़ेगी चोटी ।

कि ती बार मोही दूध पिवत भई, यह अजहूँ है छोटी।

तू तो कहति बलि की बेनी ज्यों, होहि है लांबी मोटी।

काढ़त गृहत न्हावत पोंछत, नागिन सी भँईं लोटी ।।"

सूर की भावुक भक्ति-धारा में यद्यपि लोक-पक्ष का विवेचन कम है फिर भी वात्सल्य, प्रेम, श्रृंगार आदि मानव- प्रकृतिगत भावनाओं का स्वाभाविक तथा मनोवैज्ञानिक चित्रण है। माता-पुत्र का सम्बन्ध प्रेममय बाल-मण्डली के कार्यकलाप तथा खेल, प्रेमियों की आकुलता, विरहियों का उद्वेग और उपालम्भ आदि में लोक-पक्ष की अनुभूतियाँ भरी पड़ी हैं। संक्षेप में भक्तिकाल में लोक पक्ष का सुन्दर चित्र सामने आता है।

भक्तिकाल की सबसे बड़ी देन है सूरदास के कृष्ण की बाल-लीलाओं का वात्सल्य-पूर्ण वर्णन। उनके वात्सल्य रस प्रदान पदों से बाल-मनोविज्ञान का भी गहरा परिचय पाठक को प्राप्त होता है। तुलसीदास ने अपनी कृतियों से हिन्दी साहित्य की अपार कमी को पूरा किया और आज भी यह "मानस" मानव का पथ-प्रदर्शक है। कबीर की वाणी की सच्चाई अपना मूल्य कभी खो नहीं सकती। ऐसे महान भक्त कवियों के कारण भक्ति काल हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है।

- वी. कृष्ण

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