50+ Short Stories in Hindi : लघुकथा संग्रह ठूँठ की लघुकहानियां

Dr. Mulla Adam Ali
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Thunth : 50+ Short Stories in Hindi 

50+ hindi short story collection

50+ लघुकथाएं : गोविंद शर्मा जी का लघुकथा संग्रह ठूँठ से 50 से अधिक लघुकथाएं आपके लिए प्रस्तुत है 1. चादर 2. भूत 3. रिक्शा 4. खुराक 5. अच्छी बातों की रोशनी 6. घाव 7. श्रेय 8. दुश्मन 9. बोझ 10. अनावश्यक 11. रंग बदलू 12. जूतों का मजा 13. बहाना 14. रक्षक 15. चिड़िया उदास 16. थकान 17. विकास 18. शहीद 19. दयाशील 20. मूर्तिकार 21. प्रशिक्षित 22. प्रवक्ता 23. ज्ञापनबाजी 24. भूख 25. अपनी बात भी नहीं सुनी 26. ओवरटाइम 27. चलन जलन 28. घुसपैठ 29. खुशबू 30. जिन्ना 31. दयालु 32. सोच का वक्त 33. ऐसी बनी बात 34. हल 35. मुखौटा 36. शुरुआत नई कहानी की 37. सजा 38. अभिशाप 39. सच 40. छाया कट गई 41. अच्छी बातें 42. अपराध बोध 43. रैंप 44. अपना अपना दुख 45. पानी की बूंदे 46. खटकू 47. नामकरण 48. वृक्षारोपण 49. आज के बंदर 50. खतरा 51. महक 52. घोषणा पत्र 53. ईमानदार 54. सौतेला 55. उच्चस्तरीय जांच। पढ़िए रोचक, ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद, नैतिक लघुकथाएं और प्रतिक्रिया दीजिए।

ठूँठ लघुकथा संग्रह की लघुकथाएं

ठूँठ लघु-कहानियां

46. चादर

"अरे मिरकू क्या हाल है। तुम्हारा

वैसा ही है साहब जैसा होना चाहिए।"

"आजकल तो लॉकडाउन है। घर में रहते हो?"

हाँ, साहब।

"कैसा महसूस करते हो?"

- कुछ अच्छा नहीं साहब। पहले सप्ताह में छह दिन बाहर रहता था। एक दिन रविवार को घर मे रहकर उसे देखता था। अब उसे रोज सारा दिन देखता हूँ।

"किसे?"

- घर में बिछी अभावों की चादर को।


47. भूत

एक स्टेशन के प्लेटफार्म पर जैसा कि होता है, किस्म किस्म के लोग बैठे थे। कुछ लड़के भी थे, पढ़े-लिखे, खाते-पीते घर के। पास में ही एक वृद्ध, जो गाँव का लगता था। उसका शरीर, कपड़े सब कह रहे थे, बिना खाते-पीते घर का है। लड़कों ने नमकीन के पाऊच खोल रखे थे और हँसते हुए, बातें करते हुए खा रहे थे। वह बड़ी हसरत से उन्हें देख रहा था। एक ने पूछ लिया- तुम भी खाओगे ?

"हाँ"

भूख है?

हाँ, मुझे...।

इसके आगे जो कहा, उसे सुनकर लड़कों की हँसी छूट गई। एक ने पूछ लिया- लगता है तुम्हारे मुँह में एक भी दाँत नहीं है। नकली दाँतों का सेट क्यों नहीं लगवाते ?

क्या काम आयेंगे वे दाँत ?

खाने के काम आयेंगे।

खाना कहाँ है?

चलो छोड़ो, मुँह में दाँत होंगे तो मुँह से आवाज सही निकलेगी। अभी तुमने कहा था- भूख है। मुँह से निकला भूत है।

लड़के एक बार फिर हँसे।

वह बोला- तो क्या गलत निकला। जाने कब से भूख भी भूत की तरह मुझसे चिपकी हुई है। इससे पीछा छूट ही नहीं रहा।

ट्रेन आ गई थी। लड़के उस 'प्रगति एक्सप्रेस' में चढ़कर चले गये ? वह अब भी वहीं खड़ा था।


48. रिक्शा

सामुदायिक भवन में आज जलसा था। इसमें समाज सेवक जी जनसहयोग से रिक्शा खरीद कर विकलांगों में वितरित करने वाले थे। वे जैसे ही घर से चलकर सामुदायिक भवन के मुख्य द्वारा पर आए तो चौंक गए। वहाँ एक साफ-सुथरा रिक्शा खड़ा था। उन्हें याद आ गया कि इस रंग के रिक्शे पिछले साल विकलांगों में उन्होंने वितरित किये थे। अब वह फिर नया रिक्शा लेने आ गया, वाह।

अभी वे यह सोच ही रहे थे कि एक विकलांग व्यक्ति सीढ़ियों पर बैठा नजर आया। उस विकलांग ने हँसते हुए नमस्ते की और बोला- सर जी। पिछले साल आपने ही मुझे यह रिक्शा दिया था...।

तो, इस साल फिर नया रिक्शा लेने आ गये ? हर साल मुफ्त का रिक्शा नहीं मिलता है। फिर यह रिक्शा तो बिल्कुल सही सलामत दिख रहा है। तुम्हें नया रिक्शा देकर दूसरों का हक नहीं छीनूँगा।

नहीं - नहीं सर जी मैं नया रिक्शा लेने नहीं आया हूँ। आपने पिछले साल मुझे यह रिक्शा दिया था तो मैं इस पर बैठकर घर से दूर एक वर्कशाप में जाने लगा। मोटरों को ठीक करने का काम सीखने लगा। क्योंकि मेरे सिर्फ पैर खराब हैं, हाथ तो बिल्कुल सही है। मैं मैकेनिक का काम सीख गया। मुझे आनदनी भी होने लगी है। उस वर्कशाप के कबाड़ में पड़े सामान से मैंने स्वयं अपने लिये एक रिक्शा बना लिया है। वह देखिये, उधर खड़ा है। अब मैं उसका ही इस्तेमाल करता हूँ। यह तो मैं इसलिये अपने साथ लगा हूँ कि आपको वापस कर दूँ ताकि आप किसी और जरूरतमंद को दे सकें।

मंच से लंबे-लंबे भाषण देने वाले समाज सेवक जी अब कुछ बोल नहीं सके। वे कभी उस व्यक्ति को कभी नये को तो कभी पुराने रिक्शा को देखते रहे।


49. खुराक

वे अभी घर से निकल कर चौराहे तक पहुँचे थे एक सिपाही ने रोक लिया ऐ, ठहरो, तुम्हें पता नहीं लॉकडाउन लगा हुआ है? ऐसे में बाहर निकलना मना है।

वे बोले- थोड़ी सी खुराक के लिए बाहर निकला हूँ।

खुराक ? वह अब कहाँ मिलेगी ? शराब, सिगरेट की दुकानें बंद है। होटल रेस्टोरेंट भी बंद है।

तुम्हें कोरोना से डर नहीं लगता ?

"नहीं मुझे इन चीजों की आवश्यकता नहीं है। मुझे वह चाहिए, जो मुझे घर में नहीं मिलती है - इज्जत ।

बाहर कोई परिचित मिल जाएगा, भला होगा तो थोड़ी सी इज्जत दे देगा। मेरा गुजारा चल जाएगा। मैं साहित्यकार हूँ।"

"माफ करना, मास्क के कारण मैं आपको पहचान नहीं सका। आप तो प्रसिद्ध लेखक हैं, कागजी मंचीय कवि हैं। आपका जीवित रहना आपके घर के लोगों के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। अतः आप वापस...।"

"धन्यवाद-धन्यवाद", आज की खुराक तो मिल गई। अब मैं घर वापस जा रहा हूँ।


50. अच्छी बातों की रोशनी

वे प्रवचन दे रहे थे। सब उन्हें महाराज जी कहते हैं। वे अभी कुछ ही अच्छी बातें श्रोताओं को बता पाए थे कि एक श्रोता खड़ा हो गया। बोला- महाराज जी आप बहुत ही अच्छी-अच्छी बातें बता रहे हैं। मेरा प्रश्न है, इनमें से कितनी बातें ऐसी हैं, जिन्हें आपने अपनाया है? क्या सबको ? महाराज जी बोले- नहीं, सब तो नहीं, पर...

महाराज जी, सब मुझे कुतर्की कहते है। मैं चुप नहीं रह सकता। इसलिये कह रहा हूँ कि जब इन बातों को आप अपने जीवन में अपना नहीं सके तो हमें अपनाने के लिये क्यों कह रहे हैं?

इसलिये कि हो सकता है, आपमें मुझसे ज्यादा समझ हो और आप अपना लो। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। एक नेत्रहीन व्यक्ति जब भी रात में कहीं बाहर जाता अपने साथ जलती हुई लालटेन लेकर जाता। किसी एक ने पूछ लिया- सूरदासजी, जब आपको दिन में सूरज की रोशनी में भी कुछ दिखाई नहीं देता तो आपको रात में लालटेन की रोशनी में क्या दिखाई देगा ?

उस नेत्रहीन ने जवाब दिया- यह लालटेन तो आप लोगों के लिये है, ताकि आप अंधेरे के कारण मुझ से न टकरा जाओ।

तब से मैं सदा ही दूसरों को अच्छी बातें बताता रहता हूँ। हो सकता है कोई उनका अनुसरण कर ले...

पर महाराज जी, उस सूरदास के सामने कोई सूरदास ही आ जाता तो लालटेन किसी काम नहीं आती और उनमें टक्कर हो ही जाती।

हाँ, ऐसा हो सकता था। जैसा कि अब हो रहा है। तुम मुझ से टकरा रहे हो। लालटेन यानी अच्छी बातों की रोशनी तुम्हारे किसी काम नहीं आ रही है। बस, उसके बाद महाराज जी ही बोले, वह श्रोता चुप ही रहा।


51. घाव

तुम घायल नजर आ रहे हो, फिर भी खुश हो। क्या हो गया?

मेरा मेरे एक मित्र से झगड़ा हो गया। उसने मुझे खंजर मारे। जवाब मैंने उसे 'शब्द'। मुझे खुशी है कि घाव उसे ज्यादा हुए।


52. श्रेय

शहर में रहते हुए गाँव आधारित राजनीति में भाग लेकर आपने खूब तरक्की की है। वाह, आपके समाजवाद को ? इसका श्रेय किसे जाता हैं? आपके पूँजीवाद या

दोनों को ही नहीं। श्रेय तो मेरे 'अवसरवाद' को जाता है।


53. दुश्मन

उसे खुद की ओर आता साँप दिखाई दिया। उसे मारने के लिये लाठी उठाई। साँप भी चौकन्ना था। उस आदमी से दूर खड़ा रह कर बोला- मुझे क्यों मार रहे हो ? मैं तुम्हारा ही काम करके आया हूँ। अभी-अभी मैं तुम्हारे सबसे बड़े दुश्मन को डस पर आया हूँ।

आदमी खुश हो गया पर अपनी खुशी प्रकट नहीं की। वह लाठी मारता रहा। साँप पर नहीं, साँप के आसपास की जमीन पर। भीतर की खुशी के कारण वह असावधान हो गया और उसी साँप ने उसे डस लिया।


54. बोझ

रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म। मुन्ना अपने सामान के साथ एक बैंच पर गाड़ी के इंतजार में बैठा था। उसने देखा, एक कुली काफी सामान उठाए आ रहा है। सामान उससे संभल नहीं रहा है। रुक-रुककर वह कभी इस थैले को ठीक से उठाता तो कभी उसको। मुन्ना के पास आते आते तो बुरी तरह परेशान हो गया। सामान उतार कर जमीन पर रख दिया और कुछ सोचते हुए वहाँ खड़ा हो गया।

मुन्ना बोला- काश, तुम कभी मेरे स्कूल में पढ़े होते। वहाँ स्कूल जाते समय काफी भारी बस्ता उठाना पड़ता है। तुमने वह बस्ता उठाया होता तो आज तुम भारी सामान उठाकर ले जाना सीख जाते, जैसे मैं सीख गया हूँ।

कुली ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा- अच्छा ? अब तक मैं तो यह मानता रहा हूँ कि यदि बचपन में बस्ते का बोझ उठाया होता तो आज मुझे दूसरों का बोझ नहीं उठाना पड़ता। मैं कुछ और बन गया होता... ।

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55. अनावश्यक

गाय का वह बछड़ा तड़ातड़ डंडे खाकर बाहर निकला और भागकर अपनी बूढ़ी माँ के पास खड़ा हो गया।

गाय बोली- मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है कि इस दरवाजे से भीतर मत जाना। गया तो खाने को डंडे मिलेंगे।

बछड़ा बोला - लेकिन इसमें जाने वाली महिलाएँ खाद्य पदार्थ लेकर अंदर जा रही थी। मैं उनकी खुशबू के पीछे-पीछे चला गया। अंदर देखा, पत्थर की एक मूर्ति है, बिल्कुल तुम्हारे जैसी। सब उसे फल फूल चढ़ा रहे थे। कुछ खाद्य पदार्थ भी उसे दे रहे थे। मैंने सोचा जब मेरी माँ जैसी मूर्ति को यह सब मिल रहा है तो मुझे क्यों नहीं खिलायेंगे ? मैं उनके पास तक चला गया। मुझे अपने निकट देखकर कुछ महिलाएँ डर गई और चीखने लगी। यह देखकर एक आदमी आया और अपने हाथों में पकड़े डंडे से मुझे.....।

बेटा, ये लोग यहाँ हमारी मूर्ति की पूजा करने आते हैं। हम जीवित की पूजा नहीं की जाती, हमसे काम लिया जाता है। यदि हम काम के लायक नहीं रहते तो अनावश्यक हो जाते हैं। जैसे मैं अब काम के लायक नहीं रही और तुम अभी काम के बने नहीं हो। अनावश्यक को डंडों का ही प्रसाद मिलता है यहाँ।

56. रंग बदलू

पिछले महीने गिरगिटों की सभा थी। एक गिरगिट को देखकर बाकी सभी हैरान हो रहे थे। वह अपने रंग नहीं बदल रहा था। उससे पूछा तो जवाब मिला कि अभी कुछ महीने पहले मेरा एक्सीडेंट हो गया था। तब से रंग बदलने की मेरी क्षमता समाप्त हो गई। बहुत कोशिश की रंग बदलना सीखने की, पर सफलता नहीं मिली। समझ में नहीं आ रहा क्या करूँ।

सभी चुप हो गये। सभा के बाद एक गिरगिट उसे अलग ले गया और अपना अनुभव सुनाया।

इस महीने की सभा में वही गिरगिट फिर आया। उसे रंग बदलते देखकर सभी हैरान हो रहे थे। उससे कइयों ने पूछा तो उसने बताया- एक मित्र की सलाह मानकर रहने के लिए आदमियों की बस्ती में चला गया था। आदमियों को देख-देखकर मैं भी रंग बदलना सीख गया।


57. जूतों का मजा

वह अमीरजादा था। दूसरों को परेशान देखने में ही उसे ज्यादा मजा आता था। मजे का वह इच्छुक मंदिर चला गया। उसने देखा, मंदिर के बाहर भक्तों के अनगिनत जूते हैं। उसे शरारत सूझी। उसने जूतों को गौर से देखा तो एक जोड़ी जूतों को देखकर सोचने लगा, इतने फटे पुराने जूते भी कोई पहनता हैं? जिसके भी ये हैं, वह कितना गरीब होगा। उसे शरारत सूझी। इन जूतों को छिपा देता हूँ। वह निहायत ही गरीब होगा। अपने जूते न पाकर परेशान होगा। उसकी परेशानी देखकर खूब मजा आयेगा।

यही हुआ। कुछ ही देर बाद एक भक्त बाहर आया और अपने वही जूते ढूँढने लगा। अमीरजादा वहीं बैठा था। वह समझ गया कि वे जूते इसी के थे। क्योंकि उसके पहने कपड़े भी कई जगह से फटे और मरम्मत किये हुए। उसकी परेशानी देखकर अमीरजादे को मजा आने लगा। पर कुछ ही देर में वह भक्त सामान्य हो गया। उस अमरीजादे के पास बैठकर मंदिर की तरफ हाथ जोड़ते हुए बोला- भगवान, तेरी लीला न्यारी है। दुनिया में मुझसे ज्यादा गरीब भी हैं, जिनके लिये मेरे फटे पुराने जूते नियामत है। एक प्रार्थना है भगवान, मैं तो नंगे पाँव घर चला जाऊँगा, मुझे कोई शर्म नहीं आयेगी। पर जिसने भी मेरे वे जूते लिये हैं, उसे कुछ ढंग के जूते दिलवा देना, ताकि बेचारा जूते पहनकर बाहर निकल सके।

मजा ? अब अमीरजादे के पैर में पहने महँगे विदेशी जूते उसे चुभने लगे थे।


58. बहाना

नगर निगम के वे सदस्य एक जगह बैठे थे, चिंतित थे। एक बोला- इस अध्यक्ष ने तो जीना हराम कर दिया है। इतनी जगह शहर में सड़कें बन रही हैं। किसी भी ठेकेदार से न खुद कमीशन लेता है, न मुझे लेने देता है।

मुफ्त में बाँटे जाने वाले राशन से हमारे घर में रोटी बनती थी। इसने ऐसी व्यवस्था कर दी कि अब हम जैसे बीच में राशन खा ही नहीं सकते। घर के गेंहू की रोटी जरा भी स्वाद नहीं बन रही है। एक दूसरे सदस्य ने कहा।

सभी अपना-अपना रोना रो रहे थे। तब वह उठा और बोला- आओ हम सब मिलकर उसका दल छोड़ कर दूसरे दल में चले जाते हैं। यह रही रेटलिस्ट सभी नकद भुगतान करेंगे।

पर यह दल छोड़कर दूसरे दल में जाने का जनता को क्या बहाना बताएँगे ?

वह भी मैंने सोच लिया है। अध्यक्ष पर खूब कमीशन खाने का आरोप लगाएँगे। कहेंगे कि अध्यक्ष के भ्रष्ट आचरण से दुखी होकर दल छोड़ रहे हैं।

उस पर भ्रष्टाचार का आरोप ? क्या सुबूत देंगे ?

भ्रष्टाचार का आरोप लगाते समय कोई सुबूत नहीं दिया जाता है। यदि कोई सुबूत हो तो उसे सुबूत नहीं माना जाता है।


59. रक्षक

आदमी बाहर आया। एक कुर्सी को खिसका कर खिड़की के पास लाया और बैठने से पहले खिड़की को खोल दिया। जैसे ही खिड़की खुली बदबू का एक झोंका कमरे में आ गया। आदमी ने नाक भौं सिकोड़ा और गली में झांका। वहाँ इधर उधर गंदगी बिखरी पड़ी थी। आदमी ने सोचा, अभी थोड़ी देर पहले वह स्कूल के बच्चों को भाषण में कहकर आया है कि अपने आस-पास सफाई करना हमारा अपना दायित्व है। मैं गली में जाकर उसे साफ कर देता हूँ ताकि बदबू से बच सकूँ। फिर सोचा। क्यों ? गंदगी तो दूसरे फैलाएँ और मैं साफ करूँ ? क्यों करूँ में ऐसा ? यही सोच उस पर हावी हो गई। उसने फटाक से खिड़की बंद कर दी।

खिड़की का एक किवाड़ गुस्से में चीखा। वह चीख किसी को सुनाई नहीं दी, सिवा दूसरे किवाड़ के। चीख थी, कितना खुदगर्ज है यह आदमी। खुद तो हमारी ओट में बैठ गया और हमें बदबू से परेशान होने के लिये छोड़ दिया। मेरे वश में हो तो सारी बदबू इस आदमी की नाक तक पहुँचा दूँ। दूसरा किवाड़ बोला- अरे, हम रक्षक है। आदमी कैसा ही हो, रक्षक को भक्षक नहीं होना चाहिए। अब दोनों किवाड़ चुप थे। चुप थे या बोल रहे थे- आदमी अपने सिवा किसी की सुनता ही नहीं।


60. चिड़िया उदास

सुबह-सुबह एक चिड़िया चीं चीं करने के बजाय उदास बैठी थी। दूसरी चिड़िया उसके पास आई और बोली क्या तुम्हारी तबीयत खराब है? सामने दाने बिखरे हुए हैं तुम चुग नहीं रही हो? पहले वाली बोली- तबियत खराब नहीं है, मन से उदास हूँ। भूख कहीं भाग गई है।

क्यों, क्या हुआ ? तुम्हारा अंडा या बच्चा...

नहीं, नीचे झाँको। इस झोंपड़ी में रहने वाला पूरा परिवार उदास है।

हुआ क्या है?

कल शाम को मैंने देखा, वह माँ अपने डिब्बे थैले संभाल रही है। सब खाली ही मिल रहे थे। एक में एक मुट्ठी अनाज निकला। माँ ने कुछ देर उस मुट्ठी भर अनाज को देखा। फिर मेरी तरफ फेंक दिया। मैं कुछ ही दाने खा सकी। क्योंकि पेट भरा हुआ था और दिन भी छिप गया था। बाद में मैंने देखा आज उनका चूल्हा नहीं जला है। बाबू और माँ बच्चे भी भूखे ही रात को सो गए थे। सोने से पहले कई देर तक बच्चे रोते रहे थे। बाबू ने माँ को कहा था, बच्चों को चुप कराओ।

उम्मीद है कल काम मिल जाएगा। कल खाना जरूर मिलेगा। माँ बच्चों को तसल्ली देती रही। पर तसल्ली से उनके पेट में कुछ नहीं गया। नींद ने ही भूख को भुलाया।

ओह, यह बात है। बता हम इसमें क्या कर सकते हैं? हम इंसान होते तो काम पाने में इसकी जरूर मदद करते। बस उम्मीद ही कर सकते हैं कि कल इतने आदमियों में कोई इंसान इसे जरूर मिलेगा, जो काम पाने में मदद करेगा। चल उठ बिखरे दाने चुगते हैं। पर पहले वाली चिड़िया उदास ही रही।


61. थकान

मेरे पापा, रोज शाम को दफ्तर से घर आते हैं। खुश-खुश । तुम्हारे ? मेरे पापा मजदूर हैं। वे भी शाम को घर आते हैं। बुरी तरह थके हुए।

यह तो अच्छी बात है कि उन्हें रोज काम मिल जाता हैं। उनकी थकान कैसी होती है ?

जिस दिन काम करके थक कर आते हैं, उस थकान की परवाह नहीं करते हैं, खुश दिखाई देते हैं। जिस दिन काम की तलाश करते हैं, काम नहीं मिलता है, उस दिन की थकान उन्हें भीतर ही भीतर काटती सी लगती है।


62. विकास

कोई दस साल पहले उस कस्बे में मित्र के पास गया था। तब देखा उसकी गली में एक दुकान है। शाम को गली में घूमते हुए उस दुकान वाले के बारे में वहाँ से गुजरने वाले एक दो से सुना कि कैसा बुद्ध है। गली में दुकान खोली है। दुकान तो बाजार में होनी चाहिए। हो सकता है दुकान पर ऐसे वैसे लोग कुछ खरीदने के बहाने आए और शरारत करें। इससे गली वालों को परेशानी ही होगी।

अभी पिछले हफ्ते फिर मैं उस दोस्त के पास गया था। मेरी शाम को घूमने की आदत है। बाहर गली में घूमा तो देखा एक मेरे दोस्त के अलावा सब घरों में एक या दो दुकानें खुल गई हैं। मैं दोस्त के घर के आगे खड़ा था। वहाँ से निकलते एक दो लोगों की टिप्पणी- इस घरवाला भी कैसा बुद्ध है। अभी तक घर को घर बनाए बैठा है। बैठक को दुकान बना देता और किराया कमाता ।

बाद में मैंने यह बात अपने दोस्त को बताई तो वह हँसा और बोला- भैया इसी को विकास कहते हैं। लोगों का विकास हो रहा है। कुछ मेरे जैसे पिछड़ भी रहे हैं। इतना कहकर वह फिर हँसा। मैं हँसी में उसका साथ नहीं दे सका।


63. शहीद

अध्यापक जी आज फुर्सत में थे। पढ़ाने की बजाय बच्चों से बातें करने लगे। पूछा- क्या इस कक्षा में कोई किसी शहीद का बेटा या पोता है?

तीन लड़कों ने हाथ खड़े किए। एक ने बताया वह स्वतंत्रता सेनानी शहीद का पोता है। एक दूसरे ने बताया कि उसके पिता फौज में थे। सरहद पर देश की रक्षा के लिए दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। तीसरे ने बताया उसके माता-पिता आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोट में शहीद हो गए थे।

इस पर अध्यापक जी कुछ बोलते उससे पहले ही एक उसने भी हाथ खड़ा कर दिया। यह देख कर कक्षा के कुछ लड़के हँस पड़े। यह कब से शहीद का बेटा हो गया ? इसका पिता तो पत्थरों की खदान में मजदूरी करते हुए एक बड़े पत्थर के नीचे दब कर मरा था।

उससे पूछा गया तो बोला- भूख रूपी दुश्मन से खुद को और परिवार को बचाने के लिए मेरे पिता ने पत्थरों की खतरनाक खदान में मौत को गले लगाया था।

कक्षा के सब बच्चे अब चुप थे। अध्यापक जी भी यह सुनकर स्तब्ध रह गए। पर उन्होंने उसके पिता को शहीद माना नहीं। क्योंकि किसी किताब में इस तरह मरने वाले को शहीद नहीं बताया गया।


64. दयाशील

चींटी ने मेरे पैर पर काट लिया। थोड़ी सी मात्रा में दर्द हुआ। पर गुस्से की मात्रा ज्यादा हो गई। मैंने चींटी को पकड़ा और मसल दिया।

मुझे काटती है ? पता नहीं मैं कौन हूँ? मुझ में गुस्से और घमंड की मात्रा बढ़ने लगी। मुझ पर कोई हमला करे तो उसे मैं मसल कर रख देता हूँ।

इसी घमंड अकड़ के साथ सड़क पर आ गया। एक जगह दो मिनट के लिये खड़ा हो गया। पता नहीं कहाँ से एक सांड आया और मुझे सींगों से उछाल कर गिरा दिया। टूटी तो नहीं पर हड्डियाँ चरमरा गई।

आप पर हमला, आपको खूब गुस्सा आया होगा ? क्या किया, फिर आपने उस सांड के साथ ?

मैं भी इंसान हूँ। मुझ में दया भाव है। मैंने इसे सांड की मूर्खता मान कर उसे माफ कर दिया।

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65. मूर्तिकार

वह सड़क किनारे खड़ा था। एक स्कूटर सवार उसके पास आकर रुका और बोला- यहाँ क्यों खड़े हो ? क्या काम करते हो?

मैं मूर्तिकार हूँ। पत्थरों से मूर्तियाँ बनाता हूँ।

तुम निराश हो। तुम्हारी कला से तुम्हें कुछ नहीं मिल रहा है, न ढंग की आमदनी हो रही है और न कला की प्रशंसा हो रही है। समाज और सरकार दोनों से तुम्हें उपेक्षा मिल रही है। तुम्हें बदला लेना चाहिए।

कैसे ?

अभी बताता हूँ। स्कूटर सवार ने अपने पास के थैले से एक बड़ा पत्थर निकाल कर मूर्तिकार को देते हुए कहा इसे अपने हाथ में पकड़ो। अभी कुछ ही देर में एक सरकारी नेता यहाँ से गुजरेगा। उसके वाहन पर खींच कर मारना, तब सब का ध्यान तुम्हारे और तुम्हारी कला की तरफ चला जायेगा। कुछ दिन की पुलिस कार्यवाही, अदालती कार्यवाही के बाद तुम्हें बहुत कुछ हासिल होगा।

इतना कह कर वह स्कूटर सवार चला गया। मूर्तिकार ने भी पत्थर को देखा और उसे लेकर तेज कदमों से अपने घर की तरफ चल पड़ा।

अगले दिन वह मूर्तिकार सड़क किनारे वहीं खड़ा था। उसके हाथ में एक थैला था। वही स्कूटर सवार आ गया। बोला- तुमने एक पत्थर जाया कर दिया। किसी भी अखबार में तुम्हारे द्वारा पत्थर फेंकने और तुम्हें पकड़े जाने की खबर नहीं है। क्या किया तुमने उस पत्थर का ? कहीं इधर-उधर फेंक दिया क्या ?

मूर्तिकार ने थैले में से वही पत्थर निकाला। पर अब वह पत्थर नहीं था। एक मूर्ति थी- पत्थर फेंकते एक नवयुवक की।

स्कूटर सवार पहले तो भौंचक देखता रहा, फिर बुदबुदाया- ओह, तुम तो कलाकार हो।

66. प्रशिक्षित

कई महीने से उसके पिता बीमार थे। वह उनकी सेवा टहल करता था। इसलिये कि घर में वे दो ही प्राणी थे, पिता-पुत्र। पिता की पेंशन आती थी। उसी से गुजारा चल रहा था इसलिये भी।

वह जी लगाकर सेवा करता। कभी-कभी पिता उस पर नाराज हो जाते। कभी भी यह नहीं कहते कि तू मेरी अच्छी सेवा कर रहा है। पहले वह भी गुस्सा करता था। पिता से बहस करने लगता। पर अब नहीं। वह बीमार की नाराजगी को सहना सीख गया था, इसलिये जी लगाकर सेवा करता रहा।

एक दिन पिता का देहांत हो गया। अब वह अकेला था। पेंशन बंद हो गई थी। कोई काम नहीं मिला। क्योंकि वह किसी काम के बारे में जानता ही नहीं था। एक दिन काम ढूँढने शहर चला गया। वहाँ भी कहीं काम नहीं मिला। कभी किसी मंदिर के सामने बैठकर श्रद्धालुओं द्वारा बाँटा गया भोजन खाता तो कभी किसी और तरीके से अपने लिये चुग्गा-पानी की तलाश करता। एक दिन वह एक बड़े अस्पताल के सामने खड़ा था। भीतर से निकले एक आदमी ने उससे पूछा काम करना चाहते हो ?

उसने हाँ में सिर हिलाया तो उसे भीतर बुला लिया गया। उसे कहा गया- अस्पताल के मैस से तुम्हें दो वक्त खाना मिलेगा। मरीजों की हर तरह की सेवा करनी है। साफ-सफाई यानी शौच, मूत्र सब साफ करना होगा। यदि छह महीने तक तुम्हारी सेवाएँ संतोषजनक रही तो तुम्हें स्थाई कर दिया जायेगा और वेतन भी दिया जायेगा। रोटी के पुख्ता इंतजाम ने उससे हाँ भरवा दी।

एक दिन, दो महीने बाद उसे बड़े साहब ने अपने दफ्तर में बुलाया और कहा- पहले तुमने झूठ बोला था कि तुमने सेवा का प्रशिक्षण नहीं लिया है। मैंने छिप कर तुम्हारा काम देखा है। ऐसा काम कोई अच्छे प्रशिक्षण केन्द्र से प्रशिक्षित ही कर सकता है। यह समझ लो कि तुम्हारे छह महीने पूरे हो गये। आज से तुम इस अस्पताल के वेतनभोगी कर्मचारी हो। तुम्हें रहने के लिये अस्पताल के पीछे पुराने आवास गृहों में एक कमरा भी दे दिया जायेगा। इसी तरह काम करते रहना।

सेवा का प्रशिक्षण? अब उसे अपने मृत पिता की याद आ रही थी।

Hindi Short Stories : Laghukatha in Hindi

Hindi Laghukatha by Govind Sharma

67. प्रवक्ता

वह सूटबूट धारी पेड़ की जिस डाल पर बैठा था, उसी को कुल्हाड़ी से काट रहा था। दूर से आए, नीचे खड़े एक आदमी से नहीं रहा गया, बोला - अरे तुम मूर्ख हो क्या जो उस डाल को काट रहे हो, जिस पर तुम बैठे हो?

डाल पर बैठे ने कुल्हाड़ा चलाना बंद किया और बोला- मैं क्यों मूर्ख हूँ? तुम चाहते हो मैं इस डाल को न काटकर उस सामने वाली डाल को कादूँ। क्यों? पता नहीं वह किसकी है। मैं किसी दूसरे की डाल को काट कर ले जाऊँगा तो यह चोरी नहीं होगी? यह डाका डालने जैसा अपराध नहीं होगा ? मैं अपराध क्यों करूँ? मैं झूठ नहीं बोलने वाला, कानून का ज्ञाता हूँ। कानून का सम्मान करता हूँ।

यह सुनकर नीचे खड़ा आदमी एक बार तो चुप हो गया। फिर बोला, मैं यह करारनामा तुम्हारी तरफ फेंक रहा हूँ। इस पर हस्ताक्षर कर दो। मुझे अपनी पार्टी के लिए ऐसे ही प्रवक्ता की तलाश थी।

ऊपर क्यों फेंक रहे हो मैं नीचे आकर साइन कर दूँगा।

तब तक दूसरी पार्टियों वाले आ जाएँगे। उनमें से कोई पार्टी तुम्हें लपक लेगी। सबको तुम्हारे जैसा दलीलबाज प्रवक्ता ही चाहिए जो दिन को रात और रात को दिन साबित करने की क्षमता रखता हो। मुझे तुम में इन गुणों का भंडार दिख रहा है।


68. ज्ञापनबाजी

कमाल हैं इन दिनों तो तुमने ज्ञापनों की झड़ी लगा दी। कभी किसी समस्या को लेकर तो कभी किसी को लेकर ज्ञापन पर ज्ञापन दे रहे हो। अभी तो कार्यकर्ता ही हो, नेता नहीं बने हो। फिर इतनी ज्ञापन बाजी क्यों?

सर, आप कहते हैं। अभी मैं कार्यकर्ता और नेता के बीच लटक रहा हूँ। नेता बनने के लिए जिस रास्ते पर चलना होता है, उस पर ज्ञापनों की वैशाखियाँ बहुत काम आती है।

मान गए कि ज्ञापन, ज्ञापन ही नहीं, तुम्हारे विज्ञापन भी हैं। पर हम लोग तुम्हारी ज्ञापनबाजी से तंग आ गए हैं। इन्हें बंद करने की कीमत क्या चाहिए तुम्हें ?

कहीं से एक आवाज आती है। वह सुन ली जाती है, मान ली जाती है। ज्ञापनों का आना बंद हो जाता है।

वाह! ऐसा क्या था उस आवाज में? कितने शब्दों की आवाज थी ? सिर्फ एक शब्द - कुर्सी...


69. भूख

वे पिता पुत्र मेला देखने गये। पुत्र अभी छोटा ही था। इसलिये पेट की भूख को भूलकर खिलौने, गुब्बारे आदि की तरफ ललचाई नजरों से देख रहा था। पिता उसका ध्यान दूसरी तरफ लगाने की कोशिश कर रहे थे। जब एक के बाद एक खिलौने-गुब्बारे वाले स्टाल ही आने लगे तो पिता को गुस्सा आ गया। यह मेला है? बच्चों ही बच्चों की चीजें ? मेरे जैसे बड़े यहाँ क्या करेंगे, क्या देखेंगे। चल वापस चलते हैं।

मेला-मैदान से बाहर निकलते, वही बच्चा जो थोड़ी देर पहले गुब्बारों

को ललचाई नजरों से देख चुका था। उसे भूख ने बड़ा कर दिया था, पिता से कहा- मुझे अफसोस है कि आज मेले में आपको मजा नहीं आया। पर माँ ने कहा था कि मेले में कुछ खा पी लेना। आज घर में चुटकी भर आटा भी नहीं है।

पिता ने कुछ मायूसी से कहा- मुझे पता है। यदि मेरी जेब में कुछ रुपये होते तो मैं तुम्हें मेले में लाने की बजाय उन रुपयों से आटा खरीद लाता।

पिता जी फिर घर जा कर भी क्या करेंगे। यहीं कहीं बैठ जाते हैं। मां भी घर पर भूखी ही होगी।

पिता ने धीरे से कहा- हाँ, पर तेरी माँ ने मेरे साथ बहुत भूख दिवस बिताये हैं। उसे आज अकेले में क्यों छोड़ें। जल्दी घर चल। अब भूख दूसरी भूख से मिलने तेजी से जा रही थी। पुत्र को भूख ने परेशान कर रखा था, पर पिता को नहीं, उसने ऐसी कई भूख देख रखी थी।


70. अपनी बात भी नहीं सुनी

शादी की दावत में हाथ में खाने की थाली लिए वे इधर-उधर घूम रह थे। थाली आधी से ज्यादा भरी हुई थी मुझसे रहा नहीं गया, उनसे पूछा- क्या समस्या है बोले- यार थाली में कुछ ज्यादा ही पकवान ले लिए, इतने नहीं खाए जा रहे।

फिर समस्या क्या है? फेंक दो थाली को किसी डस्टबिन में।

यही तो करना चाहता हूँ पर लोग बहुत हैं। किसी ने देख लिया तो किरकिरी हो जायेगी।

बहुत लोग थाली में जूठन छोड़ते हैं। तुम भी....

मेरे साथ एक प्रॉब्लम है। दावत शुरू होने से पहले मैंने भाषण दिया था। कई लोगों से व्यक्तिगत रूप से निवेदन किया था कि कृपया थाली में जूठन न छोड़ें। थाली में उतना ही खाद्य पदार्थ लें जितना आप खा सकें। जूठन छोड़कर, डस्टबिन में डाल कर राष्ट्रीय क्षति न करें।

कमाल है। मैं इस दावत में काफी देर से हूँ। मैंने एक भी शख्स को जूठन छोड़ने और डस्टबिन में फेंकते नहीं देखा। लगता है आपके भाषण और आपकी समझायश का यह असर है। हैरत यही है कि आपने अपने मुँह से निकली बात भी नहीं सुनी।


71. ओवरटाइम

मैं अपने रास्ते पर ही था। जाम के कारण रुकना पड़ा। जहाँ रुका, वहाँ वह बैठा था और हर आने-जाने वाले से खाना खाने के लिए पैसे माँग रहा था। मैं रुका तो मेरे पीछे लग गया बाबूजी दस रुपए दे दो... कल से भूखा हूँ। मुझे न देता देख बोला... पाँच रुपए....... दो रुपए एक रुपया ही दे दो। लेकिन मैंने इस छूट का कोई लाभ नहीं उठाया। जाम खुल गया और मैं बाइक स्टार्ट कर चला गया।

सारा दिन ऑफिस में व्यस्त रहा। आज ओवर टाइम करना पड़ा। उससे मुझे अच्छी अतिरिक्त कमाई हो गई। मैं खुशी-खुशी घर के लिए रवाना हो गया। फिर जाम, वहीं रुकना पड़ा, जो उस सुबह वाले का ठिकाना था। वह शांत बैठा था। मेरे भीतर अतिरिक्त कमाई की खुशी फूट रही थी। मैंने जेब से दस रुपए निकाले और उसे देने के लिए इशारे से बुलाया। वह आया पर रुपए लेने से इंकार कर दिया। मुझे हैरान देखकर बोला- मैंने अपनी दुकान बंद कर दी है। मैं ओवरटाइम करने का लालची नहीं हूँ। इसलिए यह भीख नहीं लूँगा... हाँ आपको मुझ पर ज्यादा ही रहम आ रहा है तो मुझे आगे शराब की दुकान तक लिफ्ट दे देवें अपनी फटफटिया पर। बड़ी तलब लगी है।

यह सुनकर मैं तो सन्न रह गया। होश तब आया जब जाम खुलने के कारण होर्न बजाते वाहनों का कारवाँ चल पड़ा। उसे भी लिफ्ट देने वाला रहमदिल मिल गया था।


72. चलन-जलन

पापा-पापा, आप ऑफिस में क्या करते हैं ?

बेटे, कागज काले करता हूँ।

नहीं पापा, रिंपू के पापा तो कुछ और ही कह रहे थे।

क्या कह रहा था वह ?

कह रहे थे कि आप अपने हाथ काले करते हैं।

हा-हा-हा... उसे अभी तक मौका नहीं मिला है। इसलिए जलते हुए कह रहा है। मौका मिलता तो वह भी वही करता जो मैं कर रहा हूँ। तब मेरे जैसे उसके लिए वही कहते, जो वह अब मेरे लिए वह कह रहा है।


73. घुसपैठ

जंगल से शहर चले गए बंदर को वापस जंगल में देखकर उसके परिचित बंदर मिलने आ गये। एक ने उसकी वापसी की मजाक उड़ाते हुए कहा- आ गए वापस शहर से ? हमने तो तुम्हें जाने से खूब रोका था। तुम नहीं माने, चले गए। हम में से कोई नहीं गया शहर...।

शहर से आया बंदर बोला- हाँ तुम नहीं गए। लेकिन कुछ ही दिनों में शहर तुम्हारे यहाँ आ जाएगा।

क्यों ? कैसे ?

वहाँ चुनाव की घोषणा हो गई है। सभी पार्टियों के नेता लोगों से वादा कर रहे हैं, आश्वासन दे रहे हैं कि बेघरों के लिए पास के जंगल में नया और आधुनिक शहर बसाया जाएगा।

यह सुनकर सभी चिंतित हो गए। एक बूढ़ा बंदर बोला- इन नये बसते शहरों के कारण हम बंदर अब से पहले तीन जंगलों से भगाये जा चुके हैं। अब चौथे से पता नहीं हमें कहाँ भगाया जाएगा। दिन-ब-दिन आदमी की घुसपैठ बढ़ती जा रही है।

शहर से आया बंदर बोला- नहीं चाचा, घुसपैठ कहने से आदमी नाराज हो जायेगा।

वह इसे विकास कहता है।

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74. खुशबू

बस स्टेंड पर 10-12 वर्ष का वह बालक पीछे ही लग गया अंकल जी ये अगर बत्तियाँ ले लो। घर में भगवान के आगे जलाओगे तो भगवान खुश हो जायेंगे। जब वह टला ही नहीं तो मैंने कहा- इन्हें तुम अपने घर में क्यों नहीं जलाते ? भगवान खुश हो जायेंगे तो तुम्हें कुछ जरूर देंगे।

बोला, अंकल हमारा घर यानी झोंपड़ा गंदे नाले के ठीक पास में है। वहाँ ऐसी हजार अगरबत्तियाँ जलेगी तो भी खुशबू नहीं होगी।

नहीं, ऐसी बात नहीं है। सबके भीतर भगवान होता है। तुम्हारे भीतर भी है। वह सूँघ लेगा।

नहीं अंकल, मेरे भीतर के भगवान को अगरबत्तियों की नहीं, रोटी की खुशबू चाहिए।

लगा, बालक ने जिंदगी को सूँघ लिया है।

75. जिन्न

मिसेज पाल उस दिन एक साहित्य प्रेमी सहेली के पास बैठी थी। दोनों में बहस छिड़ गई कि कहानी 'अलादीन का चिराग' झूठी है। ऐसा कोई दीपक, चिराग या बर्तन हो ही नहीं सकता कि उसे रगड़ो तो जिन्न बाहर आ जाएगा। उससे कुछ भी माँग लो, मिल जाएगा। उसे किसी काम के लिए कहो, कर देगा। बहस लंबी हो गई तो मिसेज पाल ने किचन में बर्तन साफ कर रही कामवाली से पूछा- बताओ, ऐसा कोई बर्तन होता है जिसे रगड़ने से जिन्न बाहर आ जाता है?

थकी सी आवाज में कामवाली बोली- मैडम जी, मैं तो दस घरों के बर्तन रगड़ती हूँ तब वह जिन्न बाहर आता है और मेरे और मेरे परिवार के लिए रोटी का इंतजाम करता है।

कौन सा जिन्न ? मिसेज पाल आश्चर्य से बोली।

वही, जिसे आप लोगों के हाथ का मैल कहा जाता है- रुपैया।


76. दयालु

कई बार यात्री भी ऐसे अजीब सवाल कर बैठते हैं। उस देश में आए एक पर्यटक ने स्थानीय से कहा- तुम्हारे देश के लोग इतने हिंसक क्यों है? वे कभी भी किसी भी इंसान को अकारण मार देते हैं। तुम्हारे यहाँ तो अहिंसा का उपदेश देने वाले कई महापुरुष हुए हैं। फिर भी तुम्हारे लोग दयालु क्यों नहीं है? क्या कह रहे हो तुम ? हमारे लोग किसी की मामूली तकलीफ भी नहीं देख सकते। उदाहरण स्वरूप अभी कुछ दिन पहले हमारे यहाँ चुनाव हुए थे। लोगों ने देखा कि कुर्सी पर बैठे लोग बदहजमी के शिकार हो गए हैं। इस तकलीफ के कारण हिलडुल ही नहीं रहे हैं। मुँह से अनाप-शनाप निकल रहा है। उधर दूसरी पार्टी वाले कुर्सी कुर्सी चिल्ला रहे हैं। लोगों ने फौरन बदहजमी वालों को पचाने के लिए पाँच साल का समय दे दिया और दूसरों को खाने का। तुम चाहे इसे खाओ बचाओ कह लो, वास्तव में यह जनता की दया भावना है।


77. सोच का वक्त

मुझे टाइम मशीन मिल गई। एक दिन कपड़े उतार कर मैंने तौलिये की जगह भेड़ की खाल पहन ली और मशीन के सामने खड़ा हो गया। मशीन ने मुझे हजारों वर्ष पूर्व के युग में पहुँचा दिया। मैंने देखा, जंगल के बीच दूर-दूर बनी कुछ झोंपड़ियाँ हैं। एक मजबूत बनी झोंपड़ी को उखाड़ने में कुछ लोग लगे हुए थे। मैंने पूछ लिया-इतने मजबूत घर को क्यों तोड़ रहे हो ?

इसलिये कि पास के एक पेड़ की एक शाखा इधर बढ़ रही है। उसे बढ़ने के लिये जगह चाहिए। पेड़ तो हट नहीं सकता। हम ही अपना घर दूसरी जगह बना लेंगे।

कमाल है। मैं जहाँ से आया हूँ, वहाँ किसी पेड़ की शाखा हमारे घर, दुकान, धर्मशाला, मंदिर या सड़क की तरफ बढ़े तो हम पूरा पेड़ उखाड़कर फेंक देते हैं। तुम ऐसा क्यों नहीं करते ?

वे बोले नहीं, पर अजीब सी नजरों से मुझे देखते रहे। उनके यहाँ तब पागलखाने नहीं होते थे। पर मुझे लगा जैसे उन्होंने यही समझा है कि मैं किसी पागलखाने से भागकर आया हूँ।

टाइम मशीन से वापस आकर, आधुनिक पैंट शर्ट पहनकर मैंने यही सोचा यदि उस युग में हमारी जैसी सोच वाले लोग होते तो आज हमें पेड़ देखने के लिये म्यूजियम में जाना पड़ता।


78. ऐसे बनी बात

नये मंत्री ने तो आते ही गजब ढा दिया। अपने दफ्तर के सब कर्मचारियों अधिकारियों को साफ-साफ कह दिया कि कोई भी एक पैसा भी रिश्वत नहीं लेगा। लेकिन मेरे जनकल्याणकारी कामों के लिए आपके द्वारा आने वाला दान मान आता रहे। पूरे दफ्तर में हड़कंप मच गया। दफ्तर ऐसा था, जहाँ डब्लू, बबलू, जगनू से लेकर फोर्ब्स सूची वाले अमीरों तक सबको काम से वहाँ आना होता था।

कुठाराघात का मुकाबला करने के लिए कर्मचारी हड़ताल पर उतर आए। कर्मचारी नेता अनशन पर बैठ गया। सरकार पंगु हो गई। समझौता वार्ता शुरू हो गई। जैसा कि प्रायः हर हड़ताल के साथ होता है। कुछ जिद्द यह पक्ष छोड़ता है तो कुछ वह। मंत्री जी ने भी अपने आदेश का पूर्वार्द्ध रद्द कर दिया। कर्मचारियों ने मारे खुशी के पटाखे चलाने शुरू कर दिये। हड़ताल के लिए एक हुए उनके गुट बिखर गए। हर गुट अपनी पसंद के फल का रस लेकर अनशन खुलवाने पहुँच गया। अनशनी ने सभी का जूस पी लिया। खाना भी खा लिया। पर अनशन तोड़ने की घोषणा नहीं की।

अब चिंता हुई इनका अनशन कैसे तुड़वाया जाए एक सेवानिवृत्त अनुभवी को बुलाकर पूछा गया। उसने काम कर देने के बदले सबसे सौ सौ रुपए लिए। ये सारे रुपए अपनी अंटी में खोंसे।

एक सौ का नोट लेकर अनशनी के पास पहुँचा। उसकी मुट्ठी में सौ का नोट दबाते हुए कहा- लो भैया, खालो और अनशन तोड़ दो। 'खाते ही अनशन टूट गया।'


79. हल

भीड़ ने नेताजी को घेर लिया। भीड़ चिल्लाई हम इस महँगाई से मरे जा रहे हैं। हर वस्तु के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। खाने-पीने के सामान की कीमतें तो आकाश को छूने लगी हैं।

नेताजी को ऐसे चक्रव्यूहों से निकलना आता था। हाथ जोड़कर बोले- मैं अपना हर वादा पूरा करूँगा। कीमतों को आकाश छूने से रोक दूँगा। भीड़ एकदम शांत हो गई। वे बोले- मैं और मेरे साथी आज ही समयबद्ध कार्रवाई शुरू कर देंगे। हम आकाश को इतना ऊँचा कर देंगे कि कीमतें तो क्या कीमतों का बाप भी उसे नहीं छू सकेगा... आप तो मेरे संग गाइए... आकाश ऊँचा रहे हमारा... और वह चलते बने।


80. मुखौटा

सफेद झक वस्त्र पहन कर नेताजी बाहर आए और सचिव वगैरह से कहा- जल्दी करो, हमें देर हो रही है। राष्ट्रीय आपदा में मरे लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए हमारा इंतजार हो रहा है।

सभी उछले और चल पड़े। अचानक नेता जी के मोबाइल पर नए फिल्मी गाने की धुन बज उठी। नंबर देख कर नेताजी चहके - अरे यह तो नृत्यांगना रूविका का है। उधर से आवाज आई- सर, आपसे एक मिनट बात करना है। उसके बाद वह तो सिर्फ एक मिनट ही बोली, पर नेताजी की जबान पर दुनिया भर का शहद जमा हो गया और वह दस मिनट तक बोलते रहे। मिलने का वायदा मिलने पर ही बात पूरी हुई। नेताजी के चेहरे पर खुशी फूट रही थी चहकते हुए बोले जल्दी चलो, हमें देर हो रही है।

'सर बदल लीजिए सचिव ने कहा।'

'अरे अभी पंद्रह मिनट पहले तो कपड़े बदल कर आया हूँ। अब क्या रह गया बदलने को ?'

'सर मुखौटा। आप श्रद्धांजलि देने, संवेदना व्यक्त करने जा रहे हैं।'


81. शुरुआत नई कहानी की

सब बच्चे मेरे पास आ बैठे कहानी सुनने के लिए। मुझे कोई कहानी नहीं सूझी तो मैंने एक लोककथा जो बचपन में सुनी थी, उन बच्चों को सुना दी। कहानी सुनकर पप्पू उछल पड़ा यह कहानी तो मेरी नानी की है। उन्होंने इसे मुझे कई बार सुनाया है।

झूठ, यह कहानी मेरी दादी की है। मुझे उन्होंने इसे कई बार सुनाया है, बबलू ने कहा।

मेरी नानी की है...

नहीं नहीं, मेरी दादी की है...

जब झगड़ा होता है तो आवाज तेज हो जाती है। बच्चों का शोर सुनकर रंजना वहाँ आ गई। उसने झगड़े की वजह जानी और डांट कर बच्चों को चुप करा दिया। बच्चे तो चुप हो गए। झगड़े को भूल कर अपने दूसरे खेलों में व्यस्त हो गए।

पर रंजना को उस झगड़े की वजह ने परेशान कर दिया। उसे लगा, उससे तो यह कहानी अच्छी है, जिसके लिए बच्चे झगड़ते हैं कि यह मेरी नानी की है, मेरी दादी की है। खुद मैं किसकी हूँ? मुझे तो प्यार से मेरी सास कभी नहीं कहती यह मेरी बहू बेटी है। ससुराल में होते झगड़ों की खबर उसकी माँ तक पहुँचती रही है। अब उसकी खुद की माँ भी उससे नाराज रहती है। कभी गर्व से या प्यार से नहीं कहती कि यह मेरी बेटी है।

उसने सोचा, खूब सोचा। फिर एक नई सोच के साथ खड़ी हो गई कि वह अपने स्वभाव में ऐसा बदलाव लाएगी कि उसकी माँ कहेगी, यह मेरी बेटी है। जवाब में सास कहेगी, नहीं नहीं, यह मेरी बेटी है। अब मैं ऐसी ही एक नई कहानी बनूँगी...। नई कहानी की शुरुआत उसी समय हो गई।


82. सजा

मंत्री जी आप पर जितने आरोप लग रहे हैं इतने किसी अन्य मंत्री पर नहीं। मुख्यमंत्री जी आपके खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं कर रहे ? आपको तो सजा होनी चाहिए।

कर रहे हैं... कर रहे हैं। मुख्यमंत्री जी मेरे खिलाफ तगड़ा एक्शन लेने वाले हैं।

क्या आपको मंत्रिमंडल से बाहर निकाल देंगे ?

नहीं-नहीं, अभी मैंने इतना खाया ही कहाँ है जो उसे पचाने के लिए बाहर जाना पड़े। मुख्यमंत्री जी एक नया मंत्रालय 'भ्रष्टाचार निरोधक मंत्रालय' बनाने जा रहे हैं और मुझे उसका मंत्री बनाने की सोच रहे हैं।


83. अभिशाप

घने जंगल के बीचो बीच पक्की सड़क बन गई। वाहन आने-जाने लगे। सड़क पार करते वक्त जानवर चोटिल होने लगे। आज जंगल के सर्वप्रिय खरगोश एक वाहन की चपेट में आ गए और घायल हो गए जानवरों का कोई अस्पताल तो था नहीं, जहाँ ले जाया जाता। घायल खरगोश को एक बड़े पेड़ के नीचे लिटा दिया गया। कई जानवर उसे घेरकर बैठ गए।

एक बोला- यह सड़क तो हमारे लिए अभिशाप है। दूसरा बोला- बिल्कुल। यह आदमी द्वारा दी गई मुसीबत है। आओ, सब मिलकर दुआ करते हैं कि अभिशाप हमारे सिर से उतर कर आदमी के सिर पर जा चढ़े।

सभी तैयार हो गए। अचानक लोमड़ी बोली- मेरे पास सारी दुनिया की खबर रहती है। इस दुआ से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि आदमी को तो सदियों पहले सड़क बनाने के साथ ही अभिशाप मिल गया था। दुनिया के किसी भी देश में ऐसी कोई सड़क नहीं है जो आदमी के खून से लाल नहीं हुई हो। सड़क दुर्घटनाओं में आदमी के मरने के आंकड़े हमारी सड़क मौतों से भी अधिक भयानक हैं। फिर भी आदमी मानता है- सड़क का मतलब विकास होता है।


84. सच

"मैं बोर हो गया हूँ। राजनीति से उकता गया हूँ। मैं राजनीति से बाहर आना चाहता हूँ। बहुत कोशिश पर चुका, इससे पीछा नहीं छूट रहा। तुम कोई रास्ता बताओ।"

"एक काम करो, आज से ही लोगों से सच बोलना शुरू कर दो। सच बताना शुरू कर दो। कुछ ही दिनों में राजनीति से बाहर फेंक दिये जाओगे।"

कुछ दिन बाद।

"बाहर आए राजनीति से ?"

"कहाँ यार, सच बोलने से पत्नी रूठकर मायके चली गई। सच बताने से मित्र संबंधी नाराज हो गए हैं। पर राजनीति ने मुझे नहीं छोड़ा है। सच बोलने में ताकत भी खूब खर्च हो रही है। एक सच को सच साबित करने के लिये सौ झूठ बोलने पड़ रहे हैं।"

"लगता है तुम दूसरों के बारे में सच बोलने, बताने लगे हो। खुद के बारे में सच बताया करो।"

पागल हो गये हो क्या? अपने बारे में सच बताकर वर्षों से जनता में बनी अपनी छवि ध्वस्त कर दूँ? जाओ जाओ, मुझे नहीं छोड़नी इस तरह राजनीति ।

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85. छाया कट गई

पिता पुत्र की जोड़ी खेत से आ रही थी। पिता के हाथ में कुल्हाड़ा था। पिता अपने बेटे को नई-नई बातें बता रहे थे। कुछ धूप थी, इसलिये दोनों की परछाई भी उनके साथ चल रही थी। पिता को एक नई बात सूझी। उन्होंने अपने पुत्र की परछाई पर कुल्हाड़ा चलाया और कहा- देखा, बेटा, यह कुल्हाड़ा बड़ी और मजबूत लकड़ी को काट सकता है, पर छाया को नहीं। इधर देखो कहते हुए पिता ने अपने पैर की छाया पर भी कुल्हाड़ा चलाया और कहा-

यह कुल्हाड़ा मेरा पैर तो काट सकता है, पर पैर की परछाई को नहीं। पुत्र ने इस बात को याद कर लिया। अगले दिन पिता सुबह ही खेत चले गये। पुत्र कुछ देर बाद उनका भोजन लेकर खेत में गया तो देखा, खेत के मध्य में खड़े एक बड़े वृक्ष का एक बड़ा डाल कटा पड़ा है। पिता के हाथ में कुल्हाड़ा है और माथे पर पसीना। पुत्र हैरानी से इस दृश्य को देखता रहा। फिर मायूस स्वर में बोला-

पिताजी, आप द्वारा कल बताई गई, एक बात आज झूठ सिद्ध हो गई।

नहीं ऐसा नहीं हो सकता। मैं तुम्हें कभी गलत या झूठी बात नहीं बताता। अब तक मैं भी यही मान रहा था। कल आपने मुझे बताया था कि मजबूत से मजबूत चीज को कुल्हाड़ा काट सकता है, पर छाया को नहीं काट सकता। यह आपने मुझे झूठ कहा था।

नहीं, यह झूठ नहीं है। लो, कुल्हाड़ा किसी छाया को काट कर दिखाओ।

पिता जी, यह तो आपने ही दिखा दिया। मैं तो अपने छुटपन से इस बड़े वृक्ष की इस डाल की छाया में खेलता रहा हूँ। बाकी की छाया में तो सामान पड़ा रहता है या अपनी गाय बँधी रहती है। आप ही देख लो, मेरे हिस्से की छाया कट गई है। कहाँ है मेरी वह छाया ?

पिता एक मुस्कान के साथ बोले- तुम ठीक कहते हो बेटे, पर अब मैं तुम्हें मेरी बात ठीक करके दिखाऊँगा। पिता ने वृक्ष को कभी न काटने का निर्णय करते हुए उसके पास ही वैसे ही पेड़ का पौधा भी लगा दिया।

86. अच्छी बातें

उसके पास महँगी छतरी थी। इसलिये वह धूप से परेशान नहीं था। धूप की तेजी से तो वे श्रमिक परेशान थे जो मुंबई से पैदल ही चल पड़े थे, अपने घर जाने के लिये। धूप ने उन्हें मजबूर कर दिया कि इस उस पेड़ की छाया में बैठे। वह अपनी छतरी के नीचे कभी मजदूरों की इस टोली के पास तो कभी उसके पास जाकर सहानुभूमि जता रहा था। कभी इस प्रदेश के तो कभी उस प्रदेश के प्रशासन को बुरा भला कह रहा था। कई नेताओं, कई देशों को इस कोरोना संकट के लिये दोषी बता रहा था। श्रमिक उसकी बात समझें बिना, जब उसकी तरफ देखते तो वह यही सोचता- सब उसकी छतरी को देख रहे हैं और चाहते हैं कि ऐसी छतरी उनके पास हो तो वे रुकने की बजाय पैदल मार्च करते। उसे अपनी छतरी पर गर्व होने लगा।

अचानक मौसम बदल गया। घूप गायब हो गई और धूल भरी तेज आंधी चलने लगी। उसकी छतरी उसके हाथ में छूट कर उड़ गई। सारे श्रमिक खुश हो गये। एक बोला- अरे, जल्दी जल्दी चलो जब तक आंधी चल रही हैं. हम दूर निकल जाएँ ताकि धूप की जलन से बचते रहे। सामान सहित सभी श्रमिक उनके बीवी बच्चे तेजी से चल पड़े। पर वह एक तरफ खड़ा सोच रहा था- यह प्रकृति भी हम जैसों के लिये किसी कोरोना से कम नहीं।

काश! धूप की तेजी बरकरार रहती और उसकी अच्छी बातें लोगों को सुनने को मिलती रहती।


87. अपराध बोध

बस एक स्टॉप पर रुकी तो एक नेत्रहीन व्यक्ति बस में चढ़ा। बैठने के लिये दिव्यांगों के लिये आरक्षित सीट के पास गया तो जाना कि कोई वहाँ पहले से ही बैठा है। पता नहीं कौन है, फिर भी नेत्रहीन ने उससे कह दिया-

यह सीट तो हम लोगों के लिये आरक्षित है। मुझे बैठने दीजिए। वह व्यक्ति कड़क कर बोला- दिख नहीं रहा क्या? मेरी एक टाँग है ही नहीं। नेत्रहीन ने नम्रता से कहा- माफ करें, मुझे दिखता नहीं है। आपकी एक टाँग नहीं है तो आप बस में खड़े नहीं रह सकते। मैं खड़ा रह सकता हूँ। मेरे आँखें ही नहीं है, बाकी शरीर तो सही-सलामत है। आप बैठे रहें।

नेत्रहीन दूर खिसक कर खड़ा हो गया। पर जो व्यक्ति सीट पर बैठा था, उसकी हालत अजीब हो गई। उसे लगने लगा, जैसे उसकी एक टाँग सुन्न हो रही है। उसने टाँग पर कई बार चिकोटी काटी, वह ठीक थी। फिर भी अपनी एक टाँग को लेकर वह ज्यादा परेशान होने लगा। एक बार उसे लगा, जैसे पैर में लकवा आने वाला है। क्या करूँ - क्या करूँ सोचते - सोचते वह खड़ा हो गया और जहाँ उसे उतरना था, वहाँ से एक दो स्टाप पहले ही उतर गया।


88. रैम्प

उसने इस गली में मकान खरीदा। उसकी कुछ मरम्मत करवाई और घर के आगे रैम्प बनवाने लगा। सामने वाले पड़ोसी ने इस पर एतराज जता दिया। दूसरे पड़ोसियों को अपने साथ मिलाने के लिये उस पड़ोसी ने कहा- यह नया बाशिंदा अपनी गाड़ी का रौब दिखाने लिये रैम्प बनवा रहा है। हम क्यों बनवाने दें। चलो उसे रोकते हैं।

उसने कहा- क्या आप लोग चाहते हैं। मैं इस घर में अपने पिता के साथ रहूँ। यदि हाँ तो मुझे रैम्प बनाने दें।

वाह! अपनी ही नहीं, पिता की गाड़ी का भी रौब ? खैर बनाने दो एक दिन तुड़वा ही देंगे।

रैम्प बन गया। मुहूर्त का दिन आ गया। वह उसकी पत्नी बच्चे सब आ गये। घर के बाहर खड़े रहे तो एक ने पूछ लिया कि घर के भीतर क्यों नहीं जा रहे ?

पहले मेरे पिता प्रवेश करेंगे। वे पीछे गाड़ी में आ रहे हैं।

गाड़ी वाले तो हर कहीं पहले पहुँचते हैं। वे कहाँ अटक गये ?

वे अपनी गाड़ी खुद चलाते हैं। किसी की मदद नहीं लेते।

अचानक लोगों ने देखा एक प्रौढ़ अपनी दिव्यांगों वाली ट्राईसाइकिल में बैठे उसे खुद चलाते हुए वहाँ आये हैं। उन्होंने खुद ही उसे चलाते हुए रैम्प पर चढ़ाया और घर के भीतर प्रवेश किया, फिर सब घर में गये। रैम्प विरोधी अब चुप थे। उनमें से कुछ ने अपने वृद्ध माता-पिता की तरफ देखना शुरू कर दिया था।


89. अपना-अपना दुःख

बहुत दिनों से वर्षा नहीं हुई। फसलें सूखने लगी। गाँव के लोग दुखी हो गये। मंदिर के पुजारी ने सलाह दी - भगवान की नाराजगी दूर करो। मंदिर प्रांगण में अखंड जागरण करो। भगवान राजी हो जायेंगे बरसात होगी।

गाँव के सब लोग इसके लिये तैयार हो गये। जागरण में इतना जोर से गायन हुआ कि आवाज भगवान तक पहुंच गई। भगवान प्रकट हुए और बोले- तुम्हारी मांग मंजूर है। अगले मंगलवार को इतनी बरसात होगी कि तुम्हारा तालाब लबालब हो जायेगा। खेत हरे भरे हो जायेंगे। तुम लोग तौबा तौबा करने लगोगे।

इतनी सुनते ही एक को छोड़कर सब लोग खुश हो गये। मारे खुशी के नाचने लगे। जो गुमसुम, उदास मायूस बैठा था, वह मंदिर का पुजारी था। मंगलवार को ही ज्यादा भक्त आते हैं मंदिर में। नकदी चढाते हैं और खाने का सामान भी चढ़ाते हैं। उससे अगले सात दिन बड़े मजे से कटते हैं। उस दिन तेज बरसात होगी तो कोई भक्त मंदिर तक नहीं आ सकेगा। तब मजबूरन अगले मंगल तक अधपेटा रहना होगा।


90. पानी की बूँदें

रेल लाइन के साथ-साथ चलकर घर आना, बाजार जाना, ऑफिस जाना मेरा रोज का काम है। कई गाड़ियाँ गुजरती हैं इस रूट से अक्सर यात्री खाने के खाली डिब्बे, पानी की खाली, अधभरी बोतलें बाहर फेंकते हैं। मैं रोज देखता हूँ, कचरा बीनने वाले लड़के आते हैं और खाने के डिब्बे से बचा खाना ले जाते हैं, फेंकी गई बोतलें ले जाते हैं। पर आज तो यह देखकर हैरान रह गया था कि साफ धुली हुई पेंट-शर्ट पहने एक महाशय मेरे आगे-आगे जा रहे हैं। उनके हाथ में एक थैला भी है। अचानक उन्होंने फेंकी हुई पानी की बोतलें उठाना शुरू कर दिया। उनमें कोई आधी भरी थी तो कोई चौथाई। वे बोतल उठाते और उसे अपने थैले में रख लेते। वाह! मैंने तो कुछ और समझा था, पर यह तो कचरा बीनने वाला निकला। मैं उसके पीछे-पीछे चलता रहा। उस दिन रास्ते में दस के करीब बोतलें मिल गई। आगे एक तिकोनी खाली जगह आई। इसे लोगों ने पौधे लगाकर पार्कनुमा बना दिया था। उस महाशय ने उसी पार्क में प्रवेश किया। मैं उसे देखने के लिये उत्सुकतावश वहीं खड़ा रहा। महाशय ने उन बोतलों के पानी से कभी किसी पौधे की सिंचाई की तो कभी किसी की।

देखते-देखते आधी भरी या चौथाई भरी बोतलें उन्होंने खाली कर दी। अब बोतलों में एक बूँद भी नहीं थी। फिर सबको थैले में भरा ओर उस पार्क के पास रखे एक कचरा पात्र में सब फेंक दी। अब थैले में एक किताब बची थी। उन्होंने किताब को निकाला, पास ही पड़े एक बड़े पत्थर पर वह थैला बिछाया। उस पर बैठकर पढ़ने लगे। मैंने उन्हें क्या समझा और वे क्या निकले।

खैर, अब मेरे पैर के अग्रभाग में थोड़ा दर्द होने लगा। क्योंकि मैं रोजाना ऐसी बोतलों को फुटबाल की तरह ठोकर मार कर वहाँ से निकलता रहा हूँ।


91. खटकू

साहब, सुना है वह खटकू अपनी पार्टी में शामिल होगा।

हाँ।

उसे पार्टी में लेना हितकर नहीं होगा। वह एक नम्बर का गपोड़ी, झूठा, शेखीखोर तथा तोताचश्म है। जब उसे कोई काम होगा, वह आपकी चिरौरी कर लेगा और बाद में आपसे मुँह फेर लेगा। वादे करना और फिर पूरे न करना उसकी आदत है।

हमें ऐसे ही शख्स की जरूरत है। उसके लिये हमारे पास एक विशेष काम है।

वह पार्टी में आकर क्या विशेष काम करेगा ?

उसे घोषणा पत्र तैयार करने का काम देंगे। घोषणा पत्र में उसका खुद का चरित्र झलकेगा तो मजा आ जायेगा...।


92. नामकरण

जिस थड़ी पर हम प्रायः चाय मजमा लगाते रहे हैं, उस पर काम करने वाले बच्चे से पूछा तो उसने बताया- उसका खुद का नाम कचरू है। उसके भाई-बहन के नाम पिंडिया, कीडी, पिरब्बी, काकी आदि है।

यह सुनकर पहले तो हम खूब हँसे, फिर गंभीर होकर पूछा- क्या सोच कर तुम्हारे माता-पिता ने ये नाम दिये हैं? उनका दिमाग है या कचरा पात्र ?

साहब, माता-पिता ने तो हमें जगदीश, दिलजीत, रामस्नेही, जैसे नाम दिए थे। ये नाम तो आप जैसे बाबू लोगों ने या नौकरी देने वाले चाय थड़ी मालिकों ने दिये है... अब तो ये ही पक गए हैं।


93. वृक्षारोपण

बच्चे, क्या इस बार भी तुम्हारे स्कूल में वृक्षारोपण हुआ था ?

हाँ, हुआ था। दस नए पौधे नजर आ रहे हैं। क्या नाम है उन पौधों के?

जैन सर, गुप्ता सर, शर्मा सर, जामवंत सर... देवी मैम, कली मैम...।

अरे, मैंने पौधों के नाम पूछे हैं। उन्हें लगाने वाले अध्यापक-अध्यापिकाओं के नाम नहीं।

सब अखबारों में हमारे स्कूल के वृक्षारोपण की फोटो सहित खबर छपी थी। सबमें एक भी पौधे का अपना नाम नहीं था। हम दोस्त भी उन पौधों का यही नाम जानते हैं।

कभी कोई किसी पौधे की तरफ उँगली करके उसके बारे में जानना चाहता है तो दूसरे के मुँह से यही निकलता है। जामवंत सर या गुप्ता सर का कोई पौधा सूख जाएगा तो यहीं कहेंगे- जामवंत सर तो गए काम से। यह भी कई बार मुँह से निकलेगा कि कली मैम तो खिल रही है। शर्मा सर तो न तीन में है न तेरह में। हाँ, पंद्रह अगस्त को हमारे इन सर, मैम को प्रशस्ति पत्र पत्र मिल जायेंगे। उसके बाद पौधे रलदू माली के हवाले हो जायेंगे।


94. आज के बंदर

वह आदमी गाँव-गाँव जाकर कुर्सी बेचा करता था। एक बार वह कुछ कुर्सियाँ सिर पर उठाकर एक दूर के गाँव जा रहा था। रास्ते में थकान हुई तो एक बड़े से पेड़ के नीचे सिर का बोझ उतार कर रख दिया। एक कुर्सी पर वह खुद बैठ गया। पेड़ की ठंडी छाँव, थकान ने उसे नींद में सुला दिया। काफी देर बाद जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा, सब कुर्सियाँ गायब है। केवल एक कुर्सी जिस पर वह बैठा था, बची थी। पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई कुर्सियाँ चुरा लें जायें। आज क्यों हुआ ? अचानक उसका ध्यान पेड़ की तरफ चला गया। उसकी अलग-अलग डाल पर बंदर थे और उनके पास थी उसकी कुर्सियाँ। उन्हें लेने के लिये उसने बंदरों को अपने थैले से केले निकालकर दिखाएँ। बंदर नहीं पसीजे। उसने बंदरों को डराने के लिये पत्थर भी फेंके। पत्थरों से बचने के लिये बंदरों ने कई बार डाल बदली, पर किसी ने भी कुर्सी नहीं छोड़ी।

आदमी परेशान हो गया। अचानक उसे ध्यान आया कि एक बार बंदरों ने एक आदमी की टोपियाँ चुरा ली थी। जब उस आदमी ने कोशिश की और बंदरों ने टोपियाँ वापस नहीं की तो उसे गुस्सा आ गया और उसने अपने सिर की टोपी उतार कर जमीन पर पटकते हुए कहा- जब सब टोपी चली गई तो तू भी जा। यह देखकर बंदरों ने भी अपने सिर से टोपी उतार कर जमीन पर फेंक दी। टोपी वाले आदमी को सब टोपियाँ वापस मिल गई। इस आदमी ने सोचा, यह नुस्खा आजमाकर मैं भी अपनी कुर्सी वापस ले लेता हूँ। आदमी ने ऐसा ही किया। उसने अपनी कुर्सी को दूर फेंक दिया। फिर बंदरों की तरफ देखने लगा। अचानक एक बंदर पेड़ से नीचे उतरा और वह कुर्सी उठाकर तेजी से पेड़ पर चला गया। किसी भी बंदर ने कुर्सी को नहीं फेंका।

आदमी को लगा, जैसे बंदर उस पर हँस रहे हैं और कह रहे हैं- हम टोपी फेंक सकते हैं, टोपी बदल सकते हैं, किसी की टोपी उछाल सकते हैं। पर कुर्सी नहीं छोड़ते। हम तुम आदमियों की राजनीति के पड़ोस में ही रहते हैं।


95. खतरा

जंगल का राजा शेर एक जगह लेटा हुआ था। एक चूहा आया और उसके शरीर पर उछल-कूद करने लगा। शेर की नींद टूट गई। उसने मारने के लिए चूहे को पंजे में दबोच लिया।

चूहा चिंचियाया। मेरी गलती हो गई हुजूर। मुझे मत मारिए। मैं किसी दिन आपके काम आऊँगा।

शेर ने उसे छोड़ दिया।

एक दिन वही शेर एक शिकारी के जाल में फँस गया। वही चूहा वहाँ आया और उसने अपने दाँतों से जाल को कुतरकर शेर को आजाद कर दिया। इनाम की आशा में चूहा वहीं खड़ा रहा। शेर ने एक मिनट सोचा और फिर चूहे को मसल कर मार दिया। शेर बड़बड़ाया- ऐसे लोग व्यवस्था के लिए खतरा होते हैं कल को मैं अपने किसी विरोधी को जेल में डाल दूँ और ऐसा मूर्ख उसे आजाद करवा दे तो ?


96. महक

वह अपनी गर्लफ्रेंड से मिलने जा रहा था। फूल बेचने वाले ने उसकी चाल से ही पहचान लिया। बोला- साहब, आप गर्लफ्रेंड से मिलने जा रहे है। उसके लिये ये फूल लेते जाएँ, बहुत प्यारी महक हैं इनमें। वह सूंघ कर खुश हो जायेगी।

कितने का है यह गुलदस्ता ?

साहब, सिर्फ एक सौ रुपये का।

'अच्छा लाओ' कहते हुए उसने अपनी जेब से पर्स निकाला, उसमें झाँका। पैसे निकालने को हुआ, फिर वापस पर्स को अपनी जेब में रख लिया।

हैरान फूल वाला बोला- क्या हुआ साहब, क्या पर्स में एक सौ रुपये नहीं है?

सौ-सौ के कई नोट हैं।

फिर आप महक का यह तोहफा खरीद क्यों नहीं रहे है?

मुझे याद आ गया। उसे फूलों से ज्यादा नोटों की महक प्यारी लगती हैं।

फूल वाला कह नहीं सका कि मुझे भी वह महक चाहिए।


97. घोषणा पत्र

लेखक महाशय को पुरस्कार पाने की खुजली उठी। अपनी नई किताब लेकर पहुँच गये नेताजी के पास बोले- सर इस वर्ष प्रकाशित मेरी यह नई किताब है। हर साल मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हो जाती है।

अच्छा ? पिछली किताबों का क्या होता है?

कुछ नहीं, पड़ी रहती है।

अरे वाह, तुम यह बात जनता को समझाते, सिखाते क्यों नहीं ? पाँच साल पहले मैंने एक घोषणा पत्र जारी किया था। जनता अभी तक उसे उठाये घूम रही है। जबकि नया घोषणा पत्र जारी करने का वक्त आ गया है...।


98. ईमानदार

मेरे दोस्त को सड़क पर पड़ा पचास रुपए का नोट मिल गया। उसने नोट के मालिक की बड़ी मशक्कत से तलाश की। मालिक मिल गया और उसे वह नोट दे दिया गया। बड़ी तारीफ हुई दोस्त की। इससे मुझे कुछ ज्यादा ही ईर्ष्या हो गई।

मन ही मन रोज प्रार्थना करने लगा कि मुझे भी कहीं से पचास का नोट मिल जाए। उसके मालिक को वापस कर अपनी ईमानदारी का झंडा गाड़ दूँ।

एक दिन सुन ली गई मेरी प्रार्थना। एक दिन सड़क पर मुझे पचास, सौ, पाँच सौ का नहीं, दो हजार का नोट मिल गया। थोड़ी दूरी पर ही उसे वह ढूँढ भी रहा था, जिसका गिरा था। मैंने नोट को चुपके से जेब में डाल लिया। नोट पचास सौ का नहीं, दो हजार का है भाई, क्या करें, ये बड़े नोट तो किसी को ईमानदार रहने ही नहीं देते।


99. सौतेला

वह पार्क में एक बेंच पर उदास बैठा था। मैं उसके पास जा बैठा। आदत के अनुसार उसे छेड़ने लगा- उदास क्यों हो ? प्रेमिका से या पत्नी से अनबन हो गई ? नौकरी नहीं मिली ? मिल गई तो क्या मालिक ने डाँट दिया?

एक उदास मुस्कान के साथ उसने कहा- ऐसा कुछ नहीं है। कारण बताऊँगा तो तुम समझोगे नहीं।

चलो, मेरी समझ की परीक्षा हो जाए।

मैं अपने घर में सौतेला हूँ। तुम समझ सकते हो माँ का यानी पिता की दूसरी पत्नी का मेरे साथ कैसा व्यवहार होगा ?

मैं हो हो कर हँस पड़ा। इसमें समझने वाली क्या बात है। मैं भी कई साल सौतेला रहा हूँ।

कई साल से क्या मतलब है तुम्हारा ? क्या तुम्हारे पिता ने तुम्हारी सौतेली माँ को घर से...

अरे नहीं, घर में मेरे सगे माता-पिता हैं। एक बड़ा भाई है। हुआ यह कि मेरे बड़े भाई ने किशोर होते ही नौकरी करना शुरू कर दिया था। वह घर का लाड़ला, कमाऊ पूत बन गया। मैं वर्षों तक बेरोजगार ही रहा। उस दौरान मेरे साथ घर में सब सौतेला व्यवहार करते थे। तीस वर्ष का होने पर मुझे एक अच्छी नौकरी मिली है। अब मैं सगा बेटा बन गया हूँ। अब तो घर में मेरी शादी की बात भी चलने लगी है।


100. उच्चस्तरीय जाँच

शहर में बनी नई सड़क पर बने गड्ढे के कारण हादसा हुआ और तीन जिंदगियाँ समाप्त हो गई।

लोगों ने देखा इस भयंकर हादसे की जाँच एक कांस्टेबल कर रहा है तो रोष फैल गया। नेताजी का द्वार खटखटाया गया। उन्होंने आश्वासन दिया कि जाँच उच्च स्तर पर करवाई जायेगी।

उन्होंने अगले ही दिन अपना वादा पूरा करके दिखा दिया। जाँच तो अब भी वही कांस्टेबल कर रहा था, पर शहर की सबसे ऊँची इमारत की सबसे ऊँची अर्थात् सातवीं मंजिल की छत पर बैठकर...।

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