हिन्दी बाल उपन्यास : नाचू के रंग

Dr. Mulla Adam Ali
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Naachu Ke Rang by Govind Sharma

Naachu Ke Rang by Govind Sharma

अपनी बात

साहित्य के क्षेत्र में रचना करते हुए पचास से अधिक वर्ष बीत गए हैं। सर्वप्रथम दो बालकथाएँ लिखी थी। वे तत्काल छप गई थी। मानदेय भी अच्छा मिला था। बोहनी अच्छी हो गई थी। फिर व्यंग्य एवं लघुकथाएँ लिखने लगा। पाँच लघुकथा संग्रह और दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पर संतुष्टि बाल-साहित्य लेखन से ही हुई। अब तक बाल साहित्य की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। इनमें से लगभग बीस पुस्तकों का अन्य भारतीय भाषाओं (सर्वाधिक ओड़िया भाषा) में अनुवाद प्रकाशित हो चुका है।

कई वर्ष पहले नेशनल बुक ट्रस्ट ने एक लघु बाल उपन्यास 'डोबू और राजकुमार' प्रकाशित किया था। वह लोकप्रिय भी हुआ और अभी भी रॉयल्टी देकर खुश कर रहा है। अब प्रस्तुत है आपके सामने 'नाचू के रंग' । इसका अर्द्धांश कई साल पहले लिखा था। आगे का हिस्सा लिखने का अवसर ही नहीं मिला। अचानक इसी वर्ष अर्थात् 2024 में यह ध्यान में आ गया। पहले नाचू नामक बालक चित्रकार छोटा था। वह बड़ा होने लगा। उपन्यास भी बड़ा होता गया। पहले वह अपने रंग ब्रश से लोगों का मनोरंजन ही करता था। बाद में तो लोगों को प्रेरणा देने लगा। सफाई करवाने और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए परिश्रम करने का समर्थक बन गया। इसके लिए पौधारोपण के आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया। आंदोलन का मतलब यह नहीं कि सड़क पर जुलूस निकालने लगा, बल्कि खाली जमीन पर स्वयं पौधारोपण करवाने और करने में लग गया। इस काम के लिए एक पूरी टीम बन गई उसके दोस्तों की।

सब कुछ किया लेकिन पढ़ाई, रंग और ब्रश को नहीं छोड़ा। नाचू ने रंग ब्रश नहीं छोड़ा तो मैंने भी अपनी लीक को नहीं छोड़ा।

मतलब कि मेरी अन्य रचनाओं की तरह इस लघु उपन्यास में भी मनोरंजन है, सीख है? सीख भी हवाई नहीं, बल्कि धरातल पर है। दूसरों की सहायता की जानी चाहिए, पढ़ने की उम्र में पढ़ाई पर पूरा ध्यान देना चाहिए, आधुनिकता और परंपराओं में समन्वय रखते हुए साहित्य से सुसंस्कार ग्रहण करने चाहिए आदि- आदि। यही सब इस उपन्यास 'नाचू के रंग' में है। सहयोग है प्रकाशक श्रीमती मनीषा गुप्ता (पंचशील प्रकाशन) का और आशा है बाल साहित्य को पसंद करने वाले पाठकों से कि वे पहले की तरह मेरी इस रचना को भी भरपूर प्यार देंगे। शुभकामनाएँ।

Hindi Bal Upanyas Naachu Ke Rang

Naachu Ke Rang Children's Novel

नाचू के रंग 

नाचू। कौन हैं नाचू? वह दस वर्ष का है। भोला-सा चेहरा। चेहरे पर हर समय एक मुस्कान। कुछ लोग उसकी मुस्कान से डरते भी हैं। पता नहीं यह मुस्कान कब गायब हो जाए। उसकी जगह आ जाए गुस्सा या गंभीरता? जी नहीं, उसे किसी ने कभी गुस्से में नहीं देखा। मुँह फुलाकर बैठना तो उसे आता भी नहीं। हाँ, उसकी मंद-मंद मुस्कान कभी-कभी कहकहा बन जाती है। वह जोरों से हँसता है। वह मुस्कुराता है या फिर हँसता है।

अब तो लोग यह भी समझ गये कि उसकी मुस्कान का मतलब क्या है। उसकी हँसी का मतलब क्या है। लो, आपको भी बता देते हैं। जब वह मुस्कुराता है तो इसका मतलब है, अभी उसने कुछ नया नहीं किया है, किसी भी समय कर सकता है। हँसी का मतलब है कि वह कुछ कर चुका और उसे किसी की परवाह नहीं।

आप चाहे उसके नये काम को या उसकी हरकत को शरारत माने, वह तो उसे मजेदार बात मानता है। इसके लिए वह अपने पास गुलेल, डंडा, सुई या कोई पिस्तौल-बंदूक नहीं रखता है। उसके पास दो ही साधन होते हैं- ब्रश और रंग।

नहीं, वह बड़ा आर्टिस्ट या पेशेवर पेन्टर नहीं है। स्कूल रोज पढ़ने जाता है। हाँ, ब्रश और रंग से कई कमाल दिखा चुका है। इनमें कई तो पुरस्कार के योग्य कमाल माने गये। कई को लोगों ने बस शरारत का नाम ही दिया।

सुनिये, उसकी एक शरारत। उसके गाँव में कोई बड़ा बाजार नहीं था। गली-मोहल्लों में एक आध दुकान थी। उसकी गली में भी एक दुकान थी। उस पर चाय के विज्ञापन के लिए एक फिल्मी अभिनेता का कटआउट था। नाचू को यह कटआउट पसंद नहीं आ रहा था। वह अपने ब्रश और रंगों से इसका चेहरा बदलना चाहता था।

एक दिन उसे मौका मिल गया। वह कटआउट आँधी के कारण नीचे गिर पड़ा था। दुकानदार ने उसे दीवार के साथ खड़ा कर दिया था। फिर क्या था, नाचू ने अपना ब्रश-रंग का किट उठाया और कटआउट के रूप-स्वरूप को बदलना शुरू कर दिया। उसे गली के चौकीदार की शक्ल याद आ गई। उसने कटआउट का चेहरा बिल्कुल चौकीदार जैसा बना दिया। कटआउट के कपड़े भी नाचू के ब्रश ने चौकीदार की ड्रेस जैसे बना दिये।

अब उसने असली चौकीदार के बारे में सोचा। जब वह इसे देखेगा तो नाराज होगा। कहेगा, "मैं तो इतना लंबा, मोटा और पहलवान जैसा नहीं हूँ। इसे मेरी शक्ल क्यों दी है?" वह चिढ़ेगा तो खूब मजा आयेगा।

पर दूसरे दिन वहाँ अलग ही नजारा था। लोगों ने एक चोर को पकड़ रखा था। कई दिनों से घरों में चोरियाँ हो रही थी। चोर इतना चालाक था कि चौकीदार, पुलिस या लोग उसे पकड़ ही नहीं पाए थे। पर वह अचानक पकड़ा गया।

उसके पास चोरी का माल भी था। हुआ यह कि वह एक घर में चोरी करने घुसा। घर के लोग घोड़े बेचकर सो रहे थे। उसने रुपए, सोना-चाँदी के गहने अलमारी से निकाले, उनकी गठरी बनाई और घर से बाहर निकला।

बाहर निकलते ही उसके पाँव ठिठक गये। उसने देखा दुकान की दीवार के पास 'चौकीदार' खड़ा है। उसने सोचा, यह चौकीदार यहाँ कैसे है? अभी थोड़ी देर पहले उसने दूर जाते चौकीदार के पाँवों की आवाज सुनी थी। यह वापस कब आया? यहाँ क्यों खड़ा है? क्या उसे शक हो गया है कि इस घर में चोर है? वह मेरे इंतजार में खड़ा है?

खैर, वह कितनी देर खड़ा रहेगा? उसे दूसरी गलियों में भी तो जाना है। वह जब भी यहाँ से हिलेगा, मैं निकल जाऊँगा। यह सोचकर चोर घर के एक अँधेरे कोने में बैठ गया।

बैठे-बैठे चोर को नींद आ गई। सुबह तक उसकी आँख नहीं खुली। घर के लोग जाग गए। उन्होंने चोर को देख लिया और पकड़ लिया।

चौकीदार को बुलाया गया। चोर ने बताया कि उस दीवार के साथ काफी देर तक चौकीदार के खड़े रहने से मैं बाहर नहीं निकला और मुझे नींद आ गई। यह सुनकर चौकीदार हैरान रह गया। बोला, "उस दीवार के पास मैं तो एक मिनट भी नहीं ठहरा।" सबने उस दीवार की तरफ देखा। सब चौंक गये। क्योंकि वहाँ अब भी एक 'चौकीदार' था।

एक बोला, "यह क्या है? हमारे गाँव में एक ही शक्ल के दो चौकीदार कैसे हो गए। क्योंकि वहाँ अब भी एक चौकीदार है।"

एक और बोला, "अरे वाह, कल तक तो यहाँ चाय का विज्ञापन करने वाले एक अभिनेता का कटआउट पड़ा था। आज वह चौकीदार का कैसे बन गया? ओह, यह तो नाचू की कारस्तानी लगती है।"

नाचू को बुलाया गया। उसने हँसते-मुस्कुराते स्वीकार किया कि यहाँ उसी ने ब्रश चलाया है।

लोग बोले, "नाचू को इनाम दिया जाना चाहिए। इसके कमाल से एक चोर पकड़ा गया।"

चौकीदार जोर से बोला, "इनाम तो मुझे मिलना चाहिए। चोर, नाचू ने पकड़ा नहीं, न ही वह नाचू से डरा। चोर तो मेरे डर के कारण घर से बाहर नहीं निकला। इसलिए इनाम का हकदार मैं हूँ।"

उसकी बात सुनकर नाचू को जोर से हँसी आ गई। वह लोगों को छोड़कर वहाँ से भाग लिया। उसे इनाम मिल गया था। क्योंकि लोगों ने पहली बार उसके कमाल को शरारत नहीं माना।

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नाचू के मामा आए हुए थे। पास के गाँव में मेला लगा हुआ था। वह मेला देखने ही आए थे। नाचू को अपने साथ ले जाने के लिए इस गाँव में आए थे।

"नाचू, कल सुबह अपन दोनों मेला देखने चलेंगे। बताओ, साथ क्या लेकर चलेगे, पराँठा, बर्गर, पिज्जा या कचौरी?"

नाचू की मुसकान हँसी में बदल गई। उसने अपने ब्रश और रंगों का किट मामा के सामने लहराया। बोला, "मैं तो ब्रश और रंग लेकर जाऊँगा।"

रास्ते में मामा ने कहा, "कभी-कभी मुझे लगता है, मैं डबलरोटी लाना भूल गया हूँ। झील आने वाली है। उसके किनारे बैठकर नाश्ता करेंगे।"

वे चलते रहे। चलते-चलते नाचू ने देखा बैग में डबलरोटी तो है ही नहीं। मामा लाना भूल गये। उसने चुपचाप एक गोल पत्थर उठाया। अपना रंग-ब्रश निकाला और चलते-चलते ही पत्थर को डबलरोटी की शक्ल दे दी।

नदी किनारे बैठते ही, मामा ने उस डबलरोटी को देखा और बोले, "शुक्र है, मैं भुलक्कड़ नहीं हूँ। डबलरोटी लाया हूँ। पर नाचू, क्या तुम डबलरोटी लोगे? मुझे लगता है तुम्हें रंग-ब्रश के अलावा कुछ नहीं चाहिए।"

"हाँ, मामा, वह डबलरोटी तो बस आप ही खाएँगे।" इतना कहते ही उसकी हँसी छूट गई। मामा भी समझ गये कि दाल में कुछ काला है। नकली का पता, उन्हें तब चला, जब उन्होंने खाने के लिए डबलरोटी को उठाया।

मेले में नाचू और मामा को खूब मजा आ रहा था। एक दुकान पर गले में पहनने की चेन बिक रही थी। दुकान पर मामा को एक चेन पसंद आ गई। वह उसे खरीदना चाहते थे, पर दुकानदार बोला, "साहब, यह तो बिक गई है। आप कोई और पसंद कर लें।" मामा को दूसरी कोई चेन पसंद नहीं आई। वह थोड़ा उदास हो गये।

पर नाचू के होते कोई उदास हो, यह नाचू को पसंद नहीं। उसने अपना ब्रश उठाया, किट से सुनहरी रंग निकाला और मामा के गले पर हूबहू वैसी ही जंजीर बना दी। मामा खुश हो गये। क्योंकि सबको ऐसा लगा रहा था कि मामा ने गले में सोने की चेन पहन रखी है।

अभी वे थोड़ी ही दूर गये थे कि कोई मामा के गले पर हाथ मारकर भागा। मामा इस अचानक हमले से चौंक गये। कौन था यह? इसने मेरे गले पर हाथ क्यों मारा? मामा सावधान हो गये। थोड़ी ही देर बाद फिर उसने वैसे ही हाथ मारा। इस बार मामा चौकन्ने थे। उन्होंने गले पर हाथ मारने वाले को पकड़ लिया। दूसरे लोगों ने भी मदद की। उसे पुलिस को सौंप दिया। उसने बताया कि वह काफी समय से यह गलत काम कर रहा है यानी लोगों के गले से चेन झपटने का काम करता है। वह चेन- स्नेचर है। इस आदमी (मामा) के गले पर दो बार हाथ मारा। समझ में नहीं आया कि सोने की असली चेन मेरे हाथ में क्यों नहीं आई।

इस चेन-चोर को पकड़वाने पर पुलिस ने मामा को इनाम देने की घोषणा की। मामा ने एक बार भी नहीं कहा कि इनाम का हकदार तो नाचू है, जिसने अपने रंग-ब्रश से असली सोने जैसी चेन बनाई। पर इससे नाचू नाराज नहीं हुआ। वह हँसता रहा, मुस्कुराता रहा, अपना ब्रश चलाता रहा।

गाँव में छोटा स्कूल था। उसने गाँव के स्कूल की सब कक्षाएँ पास कर ली थी। अब वह पड़ोस के गाँव के पास बने स्कूल में पढ़ने के लिये जाने लगा। वह स्कूल वैसे तो ज्यादा दूर नहीं था। पर रास्ते में झील का एक पतला हिस्सा पड़ता है। इसलिये उसे तीन किलोमीटर लंबा चक्कर लगाकर अपने स्कूल जाना पड़ता था। शाम को वापस भी इसी रास्ते से आना पड़ता था। यदि झील के उस पतले किनारे पर पुल होता तो उसे सिर्फ आधा किलोमीटर ही चलना पड़ता। पुल बनाने के लिए धन चाहिए। इतना धन किसी भी गाँव के पास नहीं था। इसलिए लोग तीन किलोमीटर लंबा चक्कर लगाकर ही एक दूसरे के गाँव में आते जाते थे।

नाचू को तो यह रास्ता बहुत अच्छा लगता था। तीन किलोमीटर का यह टेढ़ामेढ़ा रास्ता जंगल से होकर गुजरता था। जंगल में नाचू को अलग-अलग किस्म के पेड़, पौधे, फूल और पत्ते देखने को मिलते। रंग-बिरंगे पक्षी भी देखने को मिलते। वह वैसे के वैसे फूल और पक्षी अपनी नोटबुक, खाली कागजों, दीवारों और जमीन पर बना देता। वह अपने दोस्तों की किताब- कॉपी भी नहीं छोड़ता। जहाँ भी जगह मिलती, वह अपने रंग और ब्रश का कमाल दिखा देता। उसने तो कई बार दोस्तों की पैंट कमीज पर भी अपना ब्रश चलाया है। इस सबके लिए उसे कई बार डाँट खानी पड़ती तो कई बार उसकी सराहना भी होती। दोनों हालत में वह मुस्कुराता रहता।

उसने स्कूल में भी जगह-जगह अपना ब्रश चला रखा था। एक सर को तो इतना बुरा लगा कि उन्होंने नाचू को सारा दिन क्लास में खड़े रखा। पर कुछ दूसरे सर उसे इनाम देने की सोचने लगे। उन्हें लगा कि नाचू ने इस छोटे गाँव के छोटे स्कूल को आर्ट गैलरी बना दिया।

नाचू की पढ़ाई, उसका ब्रश, जंगल के रास्ते का चक्कर सब इसी तरह चलता रहा। एक दिन नाचू अकेला ही स्कूल जा रहा था। अचानक उसके सामने एक भालू आ गया। पहले तो वह डर गया। पर जब उसने देखा कि भालू उस पर हमला नहीं कर रहा है, उसकी कुछ हिम्मत बँधी। उसने बैग से निकालकर अपना नाश्ता भालू को खिलाया, भालू पर एक-दो बार अपना ब्रश भी चलाया। अब तो वे दोनों दोस्त बन गये।

हाँ, वह भालू जंगली होता तो अवश्य ही हमला करता। पर वह तो कालू कलंदर का भालू था। कालू ने उस भालू को बचपन से पाला था। वह भालू से तमाशे, करतब करवाता था। इस तरह अपना पेट पालता था। पर लोगों ने एतराज किया और कहा कि कानून उसे जंगली जानवरों पर इस तरह जुल्म करने की आज्ञा नहीं देता है। भालू तो जंगली जानवर होता है, इसे जंगल में ही छोड़ना होगा। कालू ने भालू को जंगल में छोड़ दिया था।

जंगल में भालू का दिल नहीं लग रहा था। क्योंकि वह बचपन से आदमियों के बीच रहा था। इसलिए वह उनसे मिलकर खुश होता था। भालू को नाचू के रूप में एक दोस्त मिल गया था। नाचू को भी वह बहुत अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे वह दूसरे बच्चों से भी हिल मिल गया।

कुछ लोगों को यह बात पसंद नहीं आई। अरे, आज जंगल में भालू आ गया है तो कल शेर, हाथी, टाइगर आएँगे। अब तक तो यह जंगल सुरक्षित था, पर अब नहीं रहेगा। हमारा तो यही रास्ता है। इस भालू को पकड़कर किसी और जंगल में छोड़कर आएँगे।

इसकी भनक नाचू को लगी तो वह उदास हो गया। मेरा दोस्त चला जायेगा?

पर उसका नाम नाचू था। वह और उदासी? ना बाबा ना! उसके होठों पर मुस्कान आ गई। क्योंकि भालू को बचाने की 'शरारत' उसके दिमाग में आ गई थी। उसने एक किताब में टाइगर का चित्र देखा और हँस पड़ा।

नाचू का ब्रश भालू के पूरे शरीर पर चला। अगले दिन खबर फैल गई कि जंगल में एक टाइगर आ गया है। सब वहाँ से गुजरते डरने लगे। डरा नहीं तो बस नाचू।

एक दिन स्कूल में जल्दी छुट्टी हो गई। बच्चे घर आने के लिए जंगल से गुजरने लगे। वह समय ऐसा था जब उस जंगल में लोग कम ही जाते। नाचू के सिवा सब बच्चे थोड़ा-थोड़ा डर रहे थे। वह 'टाइगर' आ गया तो ?

अचानक एक बच्चे को 'टाइगर' दिखाई दे गया। मारे डर के उसकी घिग्घी बँध गई। नाचू ने उसे तसल्ली दी कि वह अपने को कुछ नहीं कहेगा। पर बच्चे नहीं माने। वे इधर-उधर भागे और एक बड़े पत्थर के पीछे छिपकर खड़े हो गये।

बच्चों ने देखा, घोड़ों पर सवार कुछ डरावने से आदमी वहाँ आए हैं। उनमें से एक बड़ा बच्चा बोला, "अरे ये तो डाकू हैं। मैंने इनकी तसवीरें अखबार में देखी थी। पुलिस इन्हें पकड़ना चाहती हैं।" उन्हें देखकर बच्चों के मन से टाइगर का डर निकल गया था।

"हमें देखना चाहिए कि ये लोग कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं? पर अपने आपको छिपाकर। यदि हमें उन्होंने देख लिया तो हम संकट में पड़ जायेंगे।" एक बच्चे ने कहा। बच्चे कुछ दूर रहते हुए उधर बढ़े जिधर डाकू जा रहे थे। डाकू एक बड़े पत्थर की ओट में चले गए। बच्चे आगे नहीं बढ़े। कुछ ही देर में वे डाकू फिर दिखाई दिये। इस बार उनके घोड़ों पर उनके साथ भरी हुई थैलियाँ नहीं थी। वे आपस में हँसी-मजाक भी कर रहे थे।

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वे घोड़ों सहित बच्चों के पास से गुजरे। बच्चे दुबक गए। जब घोड़ों के दौड़ने की आवाज दूर चली गई तो बच्चे खड़े हो गए।

मुस्कुराता नाचू हँस पड़ा। एक बोला, "शुक्र है, इसे अब हँसी आई है। इतनी देर तक इसने अपनी हँसी पर काबू कर हम पर अहसान ही किया है। यदि यह हँस पड़ता और इसकी हँसी उन डाकुओं को सुन जाती तो वे पता नहीं हमारी क्या हालत करते, पर यह बता नाचू कि तुम्हें हँसी क्यों आई?"

"यह तो मुझे आज तक पता नहीं चला कि मैं क्यों हँसता हूँ।"

"यह तो हमें भी पता है। स्कूल में सर डाँटते है, तुम पिटने को होते हो, तब भी तुम्हें हँसी आती है। लगता है तुम्हारे चेहरे पर तुमसे भी बड़े किसी कलाकार ने ब्रश से सदा के लिए हँसी बना दी है। पर, यह तो बताओ कि अब क्यों हँसे?'

"इसलिए कि मैंने उन सब डाकुओं की शक्ल देख ली है। गाँव जाते ही उन सबके चित्र बनाकर जगह-जगह लगा दूँगा। लोग उन्हें देखेंगे तो पकड़ लेंगे।"

"हुँह, उनकी शक्लें तो तुम्हारे से पहले कैमरे ने देख ली है। अखबार में उन सबकी फोटो छप चुकी है।"

"क्या उनके घोड़ों की फोटो भी छपी है अखबार में?"

"नहीं।"

"मैं उनके घोड़ों की तसवीर भी बना सकता हूँ।" कहते हुए नाचू बड़ी जोर से हँस पड़ा।

एक बच्चे ने सुझाव दिया। "हमें चलकर उस बड़े पत्थर के पीछे देखना चाहिए। वहाँ डाकुओं ने क्या किया होगा?"

"मैंने तो सोचा अपने कपड़े बदलने गये होंगे। पर उन्होंने ऐसा तो नहीं किया" नाचू ने कहा और हँस दिया।

सभी उधर चले। पत्थर के पीछे मिट्टी पोली थी। ऐसा लगता था कि अभी-अभी खोदकर दोबारा डाली गई है।

एक बच्चे ने वहाँ पाँव मारा तो जमीन धँस गई। एक बड़े बच्चे ने राय दी तो सभी उसे खोदने लगे। अभी थोड़ी मिट्टी ही

हटी थी कि लोहे का एक बक्स नजर आया। उसके ताला नहीं लगा था। बक्स का ढक्कन हटाया गया तो अंदर देखकर सभी की आँखें चुंधिया गई। अब से पहले किसी बच्चे ने इतना सोना एक साथ नहीं देखा था। एक-दो छोटे बच्चे तो यह भी नहीं जानते थे कि सोना क्या होता है।

सभी ने एक ही बात कही कि हमें जल्दी-जल्दी चलकर गाँव पहुँचना चाहिए और यह बताना चाहिए कि डाकू आए थे। उन्होंने अपने सोने के टुकड़े वहाँ छिपा रखे हैं।

इस पर सभी सहमत हो गए। पर नाचू को हँसी आ गई। सबने उसकी तरफ देखा तो वह बोला हमारा गाँव है कहाँ? क्या हम रास्ता भटक कर इधर नहीं आए थे?

एक बच्चा बोला-हमें घोड़ों के पैरों के निशान देखते हुए चलना चाहिए। वे निशान हमें अपने गाँव या किसी रास्ते पर पहुँचा देंगे।

"यह तो ठीक रहेगा। पर हो सकता है डाकू वापस आ जाएँ और अपना यह खजाना लेकर चलते बने। गाँव के लोग या पुलिस को लेकर यहाँ आएँगे तो यहाँ उन्हें क्या मिलेगा? इसलिए यह खजाना हम लिए चलते हैं।"

दूसरे ने कहा-अगर हम यह बक्स लेकर चलेंगे और सामने से डाकू आ गए तो? वे अपना बक्स पहचान लेंगे और छीन लेंगे। हो सकता है हमारे से मारपीट भी करें।

"हमें क्या करना चाहिए?"

"नाचू तुम चुप क्यों हो? हँसते क्यों नहीं हो?"

नाचू को हँसी आ गई। बोला, "मेरे पास रंग भी है और ब्रश भी। कहो तो इस संदूक की शक्ल ऐसी बना दूँ कि डाकू इसे पहचान ही नहीं सके।"

सभी को लगा कि नाचू ठीक कह रहा है। नाचू ने कुछ मिनटों में उस बक्स को गंगा प्रसाद से जमना प्रसाद बना दिया।

कोई नहीं पहचान पा रहा था कि यह लोहे का बक्स है या चित्रों वाला बड़ा पत्थर।

बच्चे उसे उठाकर चल पड़े। वही हुआ, जो थोड़ी देर पहले बच्चों ने सोचा था। उन्हें वापस आते डाकू मिल गए। घोड़ों से उतरकर उन डाकुओं ने बच्चों को रोका और पूछा, "क्या हैं तुम्हारे पास?"

फिर उस 'चित्रित पत्थर' को देखकर बोले "कहाँ मिला तुम्हें इतना सुंदर पत्थर?"

बच्चों ने उनके प्रश्न का उत्तर देकर पूछ लिया "आप लोग कौन हैं? आप यहाँ क्या करने आए हैं?"

"हम ..........हम ." एक डाकू ने जरा अटकते हुए कहा, "हम रास्ता भटक गए हैं। खैर, हम अपना रास्ता ढूँढ लेंगे। तुम लोग जाओ।"

इतने में एक डाकू की चीख निकल गई। बच्चे डर गये। क्या इसने पहचान लिया है कि यह पत्थर नहीं, उनका वह बक्स है, जिसमें सोना भरा है?

पर नहीं, यह बात नहीं थी। उसकी चीख निकली थी कि नाचू की कारस्तानी से। हुआ यह है कि जब डाकू घोड़ों से उतरकर बच्चों से बात कर रहे थे, तब नाचू धीरे से वहाँ से खिसक लिया था। एक घोड़े के पास जाकर उसे पटाया, फुसलाया और अपने रंग ब्रश का उस पर इस्तेमाल करने लगा। घोड़े की शक्ल बना दी गधे जैसी।

अपने घोड़े की शक्ल गधे जैसी देखकर उस डाकू की चीख निकल गई। उसने दूसरे डाकुओं से पूछा कि मेरे घोड़े को यह क्या हो गया?

किसी के समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है। डाकुओं का सरदार बोला- "लगता है यह जंगल किसी जादू के प्रभाव में है। देखो, बच्चों ने कितना सुंदर, चित्रों वाला पत्थर उठा रखा है। मैंने पहले कभी ऐसा पत्थर देखा नहीं। इस घोड़े का मुँह भी गधे के मुँह जैसा बन गया है। हमें यहाँ से जल्दी निकलना चाहिए। ऐसा न हो कि किसी जादू के प्रभाव में घोड़ों से पहले हम लोग ही गधे बन जाएँ।

सभी डाकू अपने-अपने घोड़े पर बैठकर भाग लिए। उनके जाते ही सब बच्चे, नाचू को देखकर हँसने लगे। नाचू अपने ब्रश रंग पीछे छिपाए, मंद-मंद मुस्कुरा रहा था।

बच्चे गाँव में पहुँचे। लोग चिंता कर रहे थे कि अभी तक बच्चे आए क्यों नहीं। आज तो उन्हें जल्दी आना था। बच्चों को देखकर सब खुश हो गए। उनकी बातें सुनकर तो वे और भी खुश हो गए। कुछ लोग पुलिस को बुलाने चले गए तो कुछ उनकी बातें सुनने लगे। नाचू को सबने हीरो मान लिया। नाचू वहाँ से अपने घर चला गया।

लोग नाचू के घर गए। वहाँ देखा, नाचू कुर्सी पर बैठा है। सामने मेज पर एक 'रोटी' रखी है। किसी ने पूछ लिया, "नाचू तुम इस रोटी को खाते क्यों नहीं?"

"रोटी तो तब खाऊँगा, जब माँ बनाकर लाएगी। यह तो खाली प्लेट है। मुझे जोरों से भूख लगी है। इसलिए इसे रंग- ब्रश से रोटी की शक्ल दे दी।"

यह सुनकर सबको हँसी आ गई।

पुलिस आ गई। डाकुओं का खजाना उसे सौंप दिया गया। नाचू को इनाम देने की घोषणा हुई तो उसने इनाम में माँगा रंग और ब्रश तथा जगह, जगह और जगह, जहाँ वह चित्र, चित्र और चित्र बना सके।

सरकार ने नाचू के गाँव और स्कूल के बीच पड़ने वाले झील के पतले हिस्से पर पुल बनवा दिया। अब नाचू रोज इस पुल से होकर स्कूल जाने लगा है। सबूत ? अरे भई, आप जरा उस पुल को तो देखें। कितने चित्र बने हैं इसकी दीवारों पर और सड़क के बीच में भी।

नाचू का गाँव अब शहर बनने जा रहा है। वहाँ से एक अखबार भी छपने लगा है। अखबार में रोज नई खबरें छपती हैं। उधर पुल पर रोज नाचू का एक नया चित्र होता है। जहाँ जैसी जगह मिलती है, वह चित्र बना देता है। वहाँ देखों, मछली के मुँह में मगरमच्छ है तो चूहे के पंजों में चील। हँसों, हँसों, यह आपके हँसने के लिए ही है। नाचू तो हँसता रहता है, अपने आप।

नाचू बड़ा हो रहा था। उसके रंग खिलते जा रहे थे। पर वह उसी तरह मुस्कुराता, उसी तरह हँसता। लोग भी उसे देखकर सोचते, आज यह कुछ नया जरूर करेगा। वह करता भी रहता, लोग चौंकते-हँसते। पर यह सब स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद। आज तक किसी टीचर को शिकायत नहीं हुई कि नाचू होमवर्क पूरा करके नहीं लाया है। स्कूल की साज-सज्जा में कोई कमी रह गई है-ऐसा कभी नहीं हुआ।

यही नाचू एक दिन अपने गाँव की गली से गुजर रहा था। गली में कोई अपना नया घर बना रहा था। नये घर के लिये एक जगह पत्थरों का ढेर लगा था। नाचू का ध्यान एक पत्थर की ओर चला गया। पत्थर आगे से पतला तो पीछे से कुछ मोटा था। उसे लगा, यह पत्थर उसे बुला रहा है और कह रहा है- भैया अपने रंग-ब्रश ले आओ, मुझे कुछ बना दो।

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नाचू ने जैसे उसे सुन लिया हो। उसने अपने रंग-ब्रश लिये और पहुँच गया पत्थर के पास। क्या बनाऊँ? यह समस्या कभी नाचू के सामने नहीं आई। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे नाचू के रंग-ब्रश को ही यह पता चल जाता है कि क्या बनाना है।

उस दिन नाचू ने उस पत्थर को सोनू के डॉगी जैसा बनाने की सोची। सोनू नाचू का दोस्त है। वह सोनू के घर जाता रहता है। सोनू के पास एक प्यारा-सा डॉगी है। वह नाचू को बहुत अच्छा लगता है। उसने उस पत्थर को नाचू के डॉगी जैसा बना दिया और अपने घर आ गया।

शाम के समय नाचू फिर उस गली में गया। अपने बनाए सोनू के डॉगी की तस्वीर को देखकर वह हैरान रह गया। वह तस्वीर जिन्दा थी। हिलडुल रही थी और भौंक भी रही थी।

यह कैसे हुआ? ऐसा तो आज तक नहीं हुआ। उसने तो चौकीदार, पुलिस, शेर, टाइगर बनाए, पर किसी में भी जान नहीं आई। इस डॉगी में कैसे आ गई? हो सकता है, यह सोनू की शरारत हो। वह पत्थर पर नाचू के रंग से बनी तस्वीर उठा ले गया और अपने डॉगी को यहाँ बैठा गया हो। अभी जाता हूँ, सोनू के घर और पूछता हूँ उसने ऐसा क्यों किया।

वह अभी सोनू के घर के आगे ही पहुँचा था कि उसे डॉगी के भौंकने की आवाज सुनाई दी। यह क्या है? क्या वह डॉगी मेरे से पहले यहाँ पहुँच गया?

नाचू ने घर की चारदीवारी के ऊपर से झाँका। सोनू का डॉगी घर के बरामदे में था। एक बच्चे के साथ खेल रहा था। अरे! सोनू का डॉगी तो यह रहा! फिर वह कैसे?

नाचू थोड़ा-सा डर गया। क्या उसकी बनाई तस्वीरें अब जीवित होने लगी हैं? शुक्र है उसने डॉगी बनाया। यदि डॉगी की जगह शेर या टाइगर बना देता और वह जीवित हो जाता तो पता नहीं कितने लोगों को नुकसान पहुँचाता?

यही सोचते हुए वह भागकर तस्वीर वाली जगह आया। यह देखकर हैरान रह गया कि वहाँ भी सोनू का असली डॉगी मौजूद है।

वह वहाँ से अपने घर आ गया। रंग-ब्रश एक तरफ रखकर सोचने लगा नहीं-नहीं, अब किसी की तस्वीर नहीं बनाऊँगा। यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा भी होगा। मैं तो लोगों से मजाक करने, उन्हें हँसाने, चौंकाने के लिए रंग-ब्रश का इस्तेमाल करता था। अब हो सकता है यह मेरी नई करतूत लोगों को नुकसान पहुँचा दे। नहीं-नहीं, मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता।

उसके पड़ोसी भोलू चाचा के पास एक गाय थी। वह काफी समय से गुम है। खूब तलाश की गई, पर गाय नहीं मिली। उसने सोचा उनकी गाय की तस्वीर बना देता हूँ। मेरी बनाई तस्वीर में जान तो आ ही जाती है। भोलू चाचा अपनी गाय पाकर खुश हो जायेंगे।

नहीं-नहीं, ऐसा नहीं करूँगा। यदि गाय की तस्वीर में जान नहीं आई तो सब उसकी हँसी उड़ायेंगे। अब मैं किसी की तस्वीर नहीं बनाऊँगा। अच्छा हुआ, उस दिन मेरी बनाई तस्वीर में जान नहीं आई, जिस दिन मैंने एक मोटे रस्से को अजगर बनाकर घर और गली में छोड़ दिया था।

सचमुच उस दिन के बाद नाचू ने कोई चित्र नहीं बनाया। अब मुस्कान और हँसी गायब थे। लोग उसकी इस हालत से हैरान थे। कुछ ने यही समझा कि अब वह बड़ी क्लास में पहुँच गया है, इसलिये सीरियस हो गया है।

हाँ, सोनू का उस पर विशेष ध्यान रहने लगा। वह नाचू की यह हालत देखकर मंद-मंद मुस्कुराता । जब कई दिन इस तरह के निकल गये तो एक दिन सोनू ने नाचू से बात शुरू की।

Govind Sharma ke upanyas

"नाचू, आजकल तुम कुछ गंभीर रहने लगे हो। ऐसा अच्छा नहीं लगता है। तुम....।"

"इससे तुम्हें क्या है कि मैं हँसू या न हँसू? जैसे मेरी मर्जी वैसे रहूँगा। अब यह तो होगा नहीं कि मैं गंभीर बना रहूँ और अपने ब्रश-रंग से अपने चेहरे को हँसता हुआ बनाकर दिखाऊँ।"

"यार, मैंने तो प्यार से बात शुरू की थी। तुम लड़ने के मूड़ में आ गये। लगता है तुम्हारे सामने कोई समस्या है। मैं तुम्हारा दोस्त हूँ। मुझे बताओ तुम्हारी समस्या। हल करने में तुम्हारी मदद ही करूँगा।"

नाचू को भी लगा कि यह ठीक रहेगा। इस समस्या से मुक्ति के लिये उसे मित्रों से सहयोग लेना चाहिए। वह भी तो अपने कई दोस्तों की मदद करता रहा है।

उसने सोनू को अपने पास बैठाया और समस्या बताई कि एक दिन उसके डॉगी की तस्वीर बनाई थी। कुछ देर बाद देखा कि उसमें जान आ गई है और तुम्हारे डॉगी की तरह वह 'तस्वीर' भौंक रही है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मैं तुम्हारे घर भी यह देखने गया था कि कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने पत्थर उठाकर कहीं रख दिया हो और अपने डॉगी को वहाँ बैठा दिया हो। पर उस समय तो तुम्हारा डॉगी तुम्हारे घर के बरामदे में था।

इतना सुनते ही सोनू की हँसी छूट गई। वह जोरों से हँसते हुए वहाँ से भाग छूटा।

अब तो नाचू और परेशान हो गया। उसकी बात सुनकर सोनू हँसकर क्यों भागा? इसमें कोई उसकी शरारत तो नहीं? नाचू ने सिर को झटका दिया और कहा "जो होगा, देखा जायेगा।"

अचानक उसको खयाल आया कि छोटी चिड़िया तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ती है। क्यों न किसी जगह चिड़िया बनाई जाए और देखा जाए कि वह चीं-चीं करती है क्या, यानी जीवित होती है क्या?

उसने अपने घर की दीवार पर एक सुन्दर चिड़िया बनाई। चिड़िया बनाने के बाद उसने कुछ अच्छा महसूस किया। वह अभी पढ़ ही रहा था कि उसे चीं-चीं सुनाई दी। वह हैरान होता हुआ वहाँ आया, जहाँ उसने चिड़िया बनाई थी। उसने उत्सुकता से अपनी बनाई चिड़िया की तरफ देखा। उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई। क्यों न आए? उसकी बनाई चिड़िया तो अभी तस्वीर ही थी, उसके पास एक और चिड़िया आकर चीं-चीं कर रही थी। संभव है बाहर से आई चिड़िया ने तस्वीर वाली चिड़िया को असली समझ लिया हो।

खैर, इस पर फिर विचार करूँगा, अभी तो होमवर्क करता हूँ।

अभी उसने इतना सोचा ही था कि उसने देखा, दरवाजे पर सोनू आया खड़ा है। क्यों आया है यह? उस दिन की तरह मासूम बनकर मुझसे कुछ पूछने और फिर हँसने के लिए? नहीं आज इससे कोई बात नहीं करूँगा।

नाचू अपनी कुर्सी पर बैठा रहा। बिना बुलाए ही, सोनू भीतर आ गया। वह नाचू के सामने रखी कुर्सी पर नहीं बैठा। नाचू के सामने जमीन पर बैठ गया।

बोला, "नाचू, मुझे माफ कर दो। मुझे उस दिन तुम्हारी समस्या सुनकर, हँसते हुए भागना नहीं चाहिए था। तुम्हें सच्चाई बता देनी चाहिए थी।"

"कैसी सच्चाई?"

"यही कि पत्थर पर बनी मेरे डॉगी की तस्वीर में जान कैसे आ गई। पत्थर में बनी तस्वीर में जान आने की समझ से तुम इतने दिन से परेशान हो। मुझे तुम्हारी परेशानी दूर करनी चाहिए थी।"

"तुम... तुम... कैसे दूर कर सकते हो? इस बारे में तुम क्या- क्या जानते हो?"

"नाचू, मैं सब कुछ जानता हूँ। क्योंकि तुम्हारा यह सारा झमेला मेरा ही किया-धरा है। तुम नये-नये चित्र बनाकर लोगों से मजाक करते रहे हो, उन्हें चौंकाते रहे हो। मैंने सोचा क्यों न तुमसे मजाक किया जाए, तुम्हें चौंकाया जाए।"

"उस दिन की बात है, जिस दिन तुम एक पत्थर पर मेरे डॉगी की तस्वीर बना रहे थे। मैंने तुम्हें ऐसा करते हुए देख लिया था। मैं वहाँ से चुपचाप खिसक लिया। तुम्हारे जाने के बाद मैंने वहाँ से वह तस्वीर वाला पत्थर हटा दिया और अपने डॉगी को वहाँ बैठा दिया। जब तुम वहाँ दोबारा आये तब मेरा डॉगी ही वहाँ था। तुमने उसे देखकर ही अपनी बनाई तस्वीर को जिन्दा होना मान लिया।"

"नहीं, यह कहानी तो तुम बना रहे हो। मैंने उसी समय तुम्हारे घर जाकर देखा था। वहाँ एक छोटा बच्चा तुम्हारे डॉगी के साथ खेल रहा है।"

"जरूर खेल रहा होगा। जरूर देखा होगा। पर वह मेरा डॉगी नहीं था। मेरे डॉगी के जैसा ही एक डॉगी मेरे मामा के बेटे के पास है। वह अपने डॉगी के साथ उस दिन मेरे घर आया हुआ था। इसलिये यह कहानी बन गई। वह आज भी आया हुआ है। चलो, मेरे घर तुम्हें दोनों डॉगी और पत्थर पर बनी तस्वीर भी दिखा देता हूँ। पर इस मजाक से तुम परेशान हुए उसके लिये मुझे माफ कर दो।"

नाचू मुस्कुरा दिया। बोला "अभी कुछ देर तुम इसी स्टाइल में आँखें बंद किये बैठे रहो।"

सोनू उसी तरह बैठा रहा। नाचू के कहने पर सोनू ने आँख खोली तो हैरान रह गया। सामने की दीवार पर उसका चित्र था। ऐसा लग रहा था जैसे सोनू ध्यान कर रहा है। उसे देखकर अब सोनू मुस्कुरा रहा था।

सोनू बोला, "दोस्त अच्छा लगा कि तुमने मुझे माफ कर दिया।"

"अरे सोनू, दोस्ती में कैसी सजा, कैसी माफी। यदि तुम्हें तुम्हारा यह सन्यासियों जैसे ध्यानावस्था वाला चित्र अच्छा लगा है तो इस दीवार को उठा कर अपने घर ले जाओ।"

"नाचू, दीवार उठाकर तो मैं घर नहीं ले जा सकता। हाँ, किसी दिन तुम्हें ही उठाकर अपने घर ले जाऊंगा और वहाँ किसी दीवार पर ऐसा ही चित्र बनवा लूँगा।"

दोनों दोस्त काफी देर तक हँसते रहे। यही तो खूबी है हमारे नाचू की।

अब यह तो संभव नहीं था कि हमारा नाचू हमेशा बच्चा बना रहता। वह अब बड़ा हो रहा था। उसके साथ ही उसके रंग-ब्रश बड़े हो रहे थे। नाचू के पहले अपने गाँव की, फिर पड़ोस के गाँव की सब क्लासें अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कर ली थी। अब समय आ गया था कि वह पास एक बड़े कस्बे (या कहो छोटे शहर) में किसी स्कूल में पढ़ने जाएँ। वहाँ रोज-रोज आना-जाना संभव नहीं था। इसलिये नाचू को किसी छात्रावास में या कहीं कमरा किराये पर लेकर रहना होगा।

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नाचू के पिता ने होस्टल में रखने का ही मन बनाया। पर होस्टल से पहले स्कूल में भी प्रवेश दिलवाना होगा।

लोगों से पूछताछ के आधार पर वे पिता-पुत्र एक स्कूल में पहुँचे। वे स्कूल के प्राचार्य के पास गये। प्राचार्य ने नाचू के नम्बर देखे तो दाखिला देने के लिए तैयार हो गये। फिर प्राचार्य जी बातें करने लगे।

"देखो, हमारे स्कूल के बच्चों का पढ़ाई में दिल लगाना तो जरूरी होता ही है, उसे किसी अन्य गतिविधि में भी भाग लेना जरूरी होता है। क्या तुम्हें किसी खेल में महारत हासिल है?"

"जी, महारत....? हासिल...?"

"तुम्हारी सबसे ज्यादा रुचि किस खेल में है?"

"जी, मेरी रुचि खेलों में है पर मैं किसी खेल का चैम्पियन नहीं हूँ।"

"कला? क्या तुम नाचना या गाना जानते हो? नाचना जरूर जानते होंगे, क्योंकि तुम्हारा नाम ही नाचू है।"

"जी, जब मैं दो-तीन वर्ष का था, तब नाचा करता था। तब

घर के लोगों ने मेरा नाम नाचू रख दिया। वैसे मैं अच्छा नर्तक नहीं हूँ। गाना? घर के लोग कहते हैं, जब मैं छोटा था और रोता था, तो ऐसा लगता था कि गीत गा रहे हो। इससे ज्यादा नाचना- गाना मुझे नहीं आया।"

"इसका मतलब है तुम्हारे पास कोई कला नहीं है। तुम्हें कलाकार नहीं कहा जा सकता?"

नाचू मुस्कुराते हुए बोला, "सर, आप थोड़ी देर मेरे पिताजी से बात करिए। मैं अपनी कला का नमूना आपको दिखा सकता हूँ।"

प्राचार्यजी को अपनी मेज पर रखे कुछ कागज भी देखने थे।

वे कागज देखते हुए नाचू के पिताजी से बात करने लगे। नाचू अपने काम में जुट गया।

कुछ देर बाद ही उसने प्राचार्यजी से कहा, "सर, कृपया आप अपनी साइड वाली दीवार की खाली जगह को देखिये।"

प्राचार्यजी ने उधर देखा तो हैरान रह गये। कभी वे अपना चश्मा ठीक करने लगे तो कभी आँखें मसलने लगे। फिर बोले, "अभी थोड़ी देर पहले यह जगह खाली थी। अब यहाँ मेरी फोटो का पोस्टर किसने लगा दिया?"

नाचू के होंठों पर वही चिरपरिचित मुस्कान आ गई। बोला, "सर, यह न तो कैमरे की फोटो है और न पोस्टर। सर, यह तो मेरे इन रंगों और ब्रश की कारस्तानी है। ये कहीं भी, किसी का भी हू-ब-हू चित्र बना देते हैं।"

"विश्वास नहीं हो रहा अपनी आँखों पर। किसी दिन यदि मैं कार्यालय में नहीं होऊँगा और नया आने वाला इस तस्वीर को देखेगा तो यही समझेगा कि मैं कार्यालय में हूँ। भई, गजब की है तुम्हारी कलाकारी.... अब मेरी बात। तुम्हारा दाखिला तो हमारे स्कूल में हो ही गया। आज तुम्हारे पिताजी ने जितनी फीस जमा करवा दी, वह करवा दी। अब पूरे वर्ष तुमसे कोई फीस नहीं ली जायेगी।"

"और हाँ, तुम्हारा दाखिला छात्रावास में भी पक्का। स्कूल और छात्रावास की सब दीवारों को अपनी ही समझना। उन्हें रंगने के लिए जितना रंग चाहिए, जितने ब्रश चाहिए स्कूल की तरफ से मिलेंगे।"

नाचू को छात्रावास में एक कमरे में जगह मिल गई। कमरे में दो के रहने की व्यवस्था थी। दूसरा बेड अभी खाली था। नाचू के रहते कोई जगह किसी के बिना खाली रह जाए, यह संभव नहीं था। उसने अपने घर से लाई एक सफेद चादर उस बैड पर बिछाई और कल्पना से एक चित्र उस पर बना दिया।

अब जिस छात्र को वह जगह आवंटित हुई, वह आया और बेड देखकर वापस चला गया। वह सीधा छात्रावास अधीक्षक के पास गया और बोला, "सर, आपने जिस कमरे में जो जगह मुझे दी है, वहाँ तो कोई और स्टूडेंट सोया हुआ है। पास में ही उसका सामान रखा है।"

"यह कैसे हो सकता है? वह जगह तो मैंने किसी को अलॉट की ही नहीं।"

अधीक्षक जी उस लड़के के साथ नाचू के कमरे में आए तो यह देखकर हैरान रह गये कि वहाँ कोई सोया हुआ है। पर जल्दी ही असलियत समझ गये। उन्होंने प्यार से नाचू को चपत लगाई और चादर उठा लेने के लिए कहा। नये लड़के ने उस बेड पर कब्जा कर लिया। हाँ, उसके बाद नाचू ने उस लड़के को कभी हैरान-परेशान नहीं किया। अब दोनों दोस्त बन गये। सिर्फ वह ही लड़का क्यों? छात्रावास में रहने वाला हर लड़का दोस्त बन गया था। और नाचू? होस्टल की दीवारें, कोने, इधर-उधर रखे बड़े पत्थर सब नाचू के दोस्त बन गये थे और नाचू के रंग-ब्रश का स्वाद चखने लगे। लगभग सभी जगह नाचू के रंग चमकने लगे तो लोग होस्टल देखने के लिए आने लगे। वह होस्टल जो प्रायः आधा खाली रहता था, अब पूरा भर गया। जगह न बचने के कारण कइयों को दाखिला नहीं मिला तो निराश हो गये। नाचू ने भी यह देखा। वह चाहता तो रंग ब्रश से नये कमरे बना देता पर उनमें कोई रहता कैसे?

एक दिन प्राचार्यजी को चिंता हुई। यह नाचू सदा ही रंग ब्रश से कलाकारी दिखाता रहता है। पढ़ता कब है? हाँ, उन्होंने अभी सोचा ही था। उसके कुछ समय बाद छः माही परीक्षा का परिणाम आ गया। उसमें नाचू के बहुत अच्छे अंक थे। प्राचार्यजी ने देखा तो बुलाया और कहा, "मुझे खुशी हुई कि तुम्हारे अच्छे अंक हैं। ये तुमने पढ़ाई करके लिये हैं या अध्यापकों ने तुम्हारी कला से प्रसन्न होकर दिये हैं?"

"सर, सदा से ही मेरा यह नियम रहा है कि पहले पूरी पढ़ाई, फिर कलाकारी, खेल-कूद या मनोरंजन। सर, मेरी कलाकारी से कुछ सर तो नाराज हैं। जैसे हिन्दी वाले सर, मैंने उनकी तस्वीर बना दी थी, जिसमें वे क्लास में सोये हुए थे। हिन्दी की परीक्षा में मेरे सबसे ज्यादा अंक आए हैं।"

"वाह, होस्टल तो तुमने सारा रंग दिया। अब क्या करोगे?"

"सर, अब मेरा यह स्कूल चखेगा मेरे ब्रश का स्वाद।"

"शाबाश, मैं भी यह कहने वाला था।"

नाचू का ब्रश चलता रहा। रंग खिलते रहे। पहले उसका छात्रावास देखने लोग आते थे। अब स्कूल देखने आने लगे। स्कूल में सफाई रहने लगी। सीसीटीवी न होने के बावजूद सफाई करने वाले ढंग से सफाई करने लगे। बच्चे भी कूड़ा बिखेरने से बचने लगे। इस डर से कि नाचू ने देख लिया तो हमारी सभी की तस्वीर किसी जगह बना देगा।

अब राष्ट्रीय दिवस भी खुशी-खुशी मनाये जाने लगे। गाँधीजी के जन्मदिन पर नाचू ने गाँधीजी का बहुत बड़ा पोर्ट्रेट बनाया। पन्द्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी को बड़ा तिरंगा और राष्ट्रीय नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों के चित्र भी बनाए। इन्हें देखकर स्कूल के छात्र, अध्यापक तो खुश होते ही, बाहर से भी लोग इन समारोहों में शामिल होने लगे। हर महत्त्वपूर्ण दिन गरिमामय होता गया।

एक दिन प्राचार्य ने नाचू को बुलाया और कहा, "तुमने स्कूल और होस्टल की खूब साज-सज्जा की है इसलिये तुम्हारी होस्टल की सारी फीस माफ की जाती है। यहाँ तक कि तुमसे मैस का खर्च भी नहीं लिया जायेगा।"

नाचू बोला, "नहीं सर, यह मेरे पिताजी को पसंद नहीं आयेगा। वे कहीं से भी मुफ्त में कुछ लेना नहीं चाहते। उनका कहना है कि मैं इतना कमा लेता हूँ कि परिवार का अच्छी तरह से पालन कर लेता हूँ और बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी वहन कर सकता हूँ। फिर मुफ्त क्यों? सर, यदि आप माफ करना चाहे तो मेरी क्लास के दो बच्चों की फीस माफ कर दें। वे गरीब घर से हैं।"

सर ने उन दोनों के नाम पूछे और फीस माफ करना मान लिया। नाचू खुश हो गया।

हर परीक्षा में नाचू अच्छे नम्बरों से पास होता रहा। वह दिन आ गया जब उसे उस स्कूल, होस्टल से विदा होना था। नाचू खुद भी यह जगह छूटने से उदास था। क्या कहा? उदास? नहीं- नहीं, जहाँ नाचू हो वहाँ कैसी उदासी?

नाचू स्कूल छोड़े उससे पहले एक घटना हो गई। नाचू के एक सर ने एक दिन नाचू से कहा, "अपने इस शहर में तीन प्रमुख सड़कें हैं। तीनों में से दो प्रमुख सड़क गड्ढ़ों से भरी हुई है। नगर पालिका उन्हें ठीक ही नहीं करवाती।"

नाचू ने कहा, "सर, आप मुझे दिखा दें कि वे सड़कें कौन- सी हैं। मैं कोई हल निकालने में अवश्य मदद करूँगा।"

"तुम क्या करोगे? मंत्री जी भी कुछ नहीं कर सके अभी तक।"

"मंत्री जी कौन है सर?"

"उनका गाँव पास में ही है। उनको गाँव जाने के लिए अपने यहाँ की तीन सड़कों में से किसी एक से जाना होता है। पहले वे कभी इस सड़क से तो कभी उस सड़क से जाते थे। जब से इन दो सड़कों में गड्ढे हुए हैं, उन्हें उस तीसरी सड़क से गुजारा जाता है, जिस पर अभी तक कोई गड्ढ़ा नहीं है। इसलिये उनके लिए तो सब ठीक है, मुश्किल में तो पैदल या साइकिल वाले ही ज्यादा हैं।"

"मंत्री जी अब कब आयेंगे सर?"

"सुना है परसों आने वाले हैं।"

"सर, आप मुझे वह तीसरी सड़क दिखा दें जिस पर कोई गड्ढा नहीं है।"

नाचू को सड़क दिखा दी गई। यह भी पता चल गया कि राजधानी से चलकर मंत्रीजी यहाँ रात में लगभग दो बजे पहुँचेंगे।

नाचू ने तो अपना काम रात के एक बजे ही खत्म कर दिया था। उस दिन सुबह-सुबह ही नगर पालिका के अधिकारी के पास मंत्रीजी का फोन आ गया, "तुम शहर की सड़कों की अनदेखी क्यों कर रहे हो? सड़क में इतने गड्ढे? कल रात में देखा, गड्‌ढों से बचने के लिये ड्राइवर कार को कभी इधर मोड़ता है तो कभी उधर घुमाता है। यह गलत है। जब मैं दोबारा आऊँ तब तक सड़कों पर एक भी गड्‌ढा नहीं होना चाहिए।"

यह सुनकर हैरान रह गये नगर पालिका के अधिकारी। मंत्री जी ने कहाँ देख लिये गड्ढे ? उन्हें कल रात में उस सड़क से जाना था जिस पर एक भी गड्‌ढा नहीं था।

हाँ, मंत्रीजी ने उस सही सड़क पर गड्ढे देख लिए जो एकदम सही थी। यह कमाल था नाचू के रंग और ब्रश का। किसी को इसका पता नहीं चला क्योंकि नाचू ने उस सड़क पर गड्ढे रात के अंधेरे में बनाये थे। सुबह? अरे, सुबह तो बरसात आ गई थी। नाचू के रंग-ब्रश से बने गड्‌ढे बरसात के पानी में बह गये।

इस कमाल का नतीजा यह निकला कि नगर पालिका का आलस्य छूमंतर हो गया। सभी सड़कों के गड्ढे अच्छी तरह से भरवा दिये गये।

इस सबसे खुश हो गये शहर के निवासी। सबसे ज्यादा खुश हुए वह सर, जिनकी साइकिल इन गड्ढों के कारण कई बार खराब हुई। नाचू? अरे वह तो सदा खुश रहता है। हाँ, क्या करना चाहिए, करते रहना चाहिए, इसके भी उसे कुछ नये आइडिया मिल गये।

नाचू बड़ा हो रहा है। उसके रंग-ब्रश खिलखिला रहे हैं। कई बार भिड़ंत भी हो जाती है। जैसे उस दिन हो गई थी।

जैसा कि आपको पहले से पता ही है कि नाचू के स्कूल वाले कस्बे के पस ही मंत्रीजी का गाँव है। गाँव जाने के लिए कस्बा या कहो छोटे शहर के बीच से होकर जाना होता है। मंत्रीजी जाते वक्त शहर में चारों तरफ देखते हुए जाते हैं। कई बार लोगों से बात करने के लिये रुक भी जाते हैं। ऐसे में नगर पालिका वाले विशेष ध्यान रखते हैं कि कोई कमी उन्हें नजर न आए। बस, इतना ही ध्यान रखते हैं, कमी को दूर नहीं करते हैं। जैसे, सफाई की व्यवस्था ।

नगरपलिका रोजाना सड़कों पर सफाई करवाती थी। कुछ जगह पर कूड़ा डालने के लिए कचरा पात्र भी रखवा रखे हैं पर यह इकट्ठा कूड़ा डालने की व्यवस्था ठीक नहीं थी। क्योंकि नगर पालिका के पास कूड़ा डालने की जगह ही नहीं थी। तब यह कूड़ा सड़क के किनारे, किसी कोने में या किसी के खाली प्लाट पर बिखरा रहता। कचरा पात्र भरे रहते और उसके आस-पास कचरा बिखरा रहता। लोग इससे परेशान होते रहते।

सबसे ज्यादा परेशानी तब होती जब तेज हवा या आँधी चलती। कूड़ा उड़कर इधर-उधर फैल जाता। बरसात के समय भी कठिनाई होती। कूड़ा पानी के साथ बहकर सड़कों पर फैल जाता।

तो, इस मुसीबत को मंत्री जी ने देखा नहीं था या देखकर अनदेखा कर दिया? मंत्रीजी ने नहीं देखा, देखे तो तब न जब नगर पालिका देखने दे। क्या करती है नगरपालिका ? जिस दिन मंत्रीजी आने वाले होते हैं, उस दिन मंत्री के रास्ते में आने वाले कूड़े के ढेरों को छिपा दिया जाता है। कैसे?

अनाज के खाली सफेद बोरे कूड़े के ढेरों पर बिछा दिये जाते हैं। मंत्रीजी देखते हैं और होगा कुछ, यह सोचकर निकल जाते हैं।

एक दिन किसी ने इस समस्या की जानकारी नाचू को दे दी। नाचू ने सोचा, समझा और मन ही मन एक योजना बनाने लगा। उसकी योजना बन गई। क्यों न बने, उसने ऐसा ही काम अपने होस्टल और स्कूल में किया था।

नाचू उधर निकला जिधर कूड़े के ढेर होते थे। उन्हें ध्यान से देखता रहा। उसे देखते हुए नगर पालिका के एक कर्मचारी ने देख लिया। वह नाचू के बारे में जानता था। उसने नाचू से कहा, "तुम यहाँ कोई शरारत नहीं करोगे।"

"तो, मैं शरारत कहाँ करूँ?"

"यह मुझे नहीं मालूम। पर तुम ढके हुए इन कूड़े के ढेर को नहीं छुओगे।"

"मेरे रंग-ब्रश तो छू सकते हैं?"

नगर पालिका का कर्मचारी बिना कोई जवाब दिये चला गया। नाचू भी उस वक्त बिना कुछ किये आ गया।

फिर एक दिन पता चला कि अगले दिन सुबह-सुबह मंत्री जी आ रहे हैं। नगरपालिका के सफाई के लिये अधिकारी ने वही किया जो पहले करता रहा है। रात में अनाज के खाली सफेद बोरों से कूड़े के ढेर ढकवा दिये और घर जाकर सो गया। अब बारी थी नाचू के रंग-ब्रश की। वे अपना कमाल दिखाने से कभी नहीं चूकते। अब क्यों चूके?

अगले दिन मंत्रीजी उस रास्ते से गुजरने लगे, जिस रास्ते पर तीन ढेर थे। उन्होंने देखा तो उनके माथे पर बल पड़ गये। उसी समय फोन किया, "अरे शहर के बीचों-बीच सड़क के किनारे कूड़े के इतने बड़े ढेर? क्या तुम्हारे यहाँ सफाई कर्मचारियों की हड़ताल चल रही है?"

"नहीं साहब, हड़ताल तो नहीं चल रही। वे तो रोजाना सफाई करते हैं। आपको कूड़े के ढेर कहाँ दिख गये?"

"जहाँ है वहीं तो दिख गये। तुम बाहर निकल कर देखो। तुम्हें भी दिख जायेंगे। मुझे फिर से ये नजर नहीं आने चाहिए। सब ढेरों को हटवाओ।"

अधिकारी जी बाहर निकले। उन्हें भी कूड़े के ढेर दिखाई दिये तो हैरान रह गये। मैंने तो इन सबको ढकवा दिया था। ये बिना ढके कैसे रह गये? क्या कोई बोरे उठा ले गया।

कूड़े के ढेर के पास गये तो हैरान रह गये। ढेर तो सब ढके हुए हैं। बिना ढके इसलिये दिख रहे हैं किसी कलाकार ने रंग- ब्रश से उनके ऊपर कूड़े के चित्र बना दिये है। यह कलाकार कौन हो सकता है? एक ही हो सकता है। सारे शहर में नाचू के रंग-ब्रश की चर्चा चल पड़ी। मजबूर होकर कूड़े के ढेर नगर पालिका को वहाँ से हटवाने पड़े। साथ ही यह भी किया कि अब वहाँ कभी ढेर न लगाने की सोच ली। समय पर कचरा पात्र भी खाली होने लगे।

नगर पालिका वाले नाचू से नाराज रहने लगे। नाचू से नाराज तो नाचू के स्कूल से भी नाराज। पर वे अपनी नाराजी कह भी नहीं सके। क्योंकि नाचू ने कोई गलत तो नहीं किया था। सारा शहर नाचू से खुश था। ऐसे में कौन दिखाता अपनी नाराजगी ?

शहर में सफाई रहने लगी। अगली बार जब मंत्री आये तो उन्होंने बड़े ध्यान से देखा। उन्हें कहीं भी कूड़े का ढेर या कूड़ा नजर नहीं आया। बड़े खुश हुए, यह समझ कर उन्हीं के कारण सफाई हुई है। नाचू के रंग-ब्रश के नाच के बारे में उन्हें कोई पता नहीं चला। ना चले किसी को पता। नाचू का रंग में भीगा ब्रश चलता रहेगा।

घर में और काम रोज हो न हो, झाडू से सफाई रोज की जाती है। यह कूड़ा होता ही ऐसा है, इन्सानों का पीछा नहीं छोड़ता। नाचू भी तो इंसान है। फिर उसका पीछा क्यों छूटे कूड़े से?

वह एक दिन घूमने निकला। उस दिशा में पहले वह कभी नहीं आया था। उसने देखा, एक तरफ कितनी ही खाली जगह हैं। वहाँ जंगली झाड़ियाँ भी है। जंगली झाड़ियों के बीच-बीच में खाली जगह पर कूड़े के ढेर हैं, पहाड़ हैं। शहर में तो सड़क के किनारे तो दो-चार ही थे, यहाँ इतने?

पूछने पर पता चला कि यह रेलवे की खाली जमीन है। इस जमीन का रेलवे के लिए अभी कोई उपयोग नहीं है। हाँ, भविष्य में विकास के लिये इस जमीन का उपयोग होगा ही। रेलवे प्लेटफार्म पर तो रोज सफाई होती है। पर इधर कोई रेलवे कर्मचारी झाँकता भी नहीं। इसलिये लोगों ने इस जगह को कचरा घर बना दिया है। घर तो घर, नगर पालिका भी शहर से कूड़ा इकट्ठा कर यहाँ डालने लगी। थोड़ी दूरी पर ही लोगों के घर दुकानें थी। पर किसी ने इसकी परवाह नहीं की। जबकि इन कूड़ों के ढेरों से परेशान थे। कई बार आँधियाँ यह कूड़ा घरों में पहुँचा देती थी।

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पर नाचू इन मुसीबतों की परवाह न करे, यह कैसे हो सकता है? उसने रेलवे स्टेशन पर अधिकारियों से बात की। उन्होंने यह कहकर हाथ खड़े कर दिये कि हमारे पास इतना स्टाफ नहीं है कि हम वहाँ चौकीदारी करवा सकें। फिर लोगों की आदत ही ऐसी होती है कि जिस बात से खुद परेशान होते हैं, उससे दूसरों को परेशान करने से चूकते नहीं हैं।

नाचू ने अपने अध्यापकों से बात की। पर कोई भी इस तरह की सफाई में सहयोग देने के लिए तैयार नहीं हुआ। कुछ और से बात की। कुछ ने एक ही बात कही, "तुम क्यों पड़ते हो इस लफड़े में?" जबकि कुछ ने कहा, "करो, करो यह जनसेवा है।"

वह नगरपालिका के कार्यालय में भी गया। पर वे लोग तो पहले ही नाचू से नाराज थे। इस मामले में भी ज्यादा कूड़ा तो रेलवे की जमीन पर नगर पालिका वालों द्वारा डाला जाता रहा है।

खैर, नाचू इन बातों से घबराने वाला नहीं था। रेलवे की इस जमीन के आस-पास की दीवारें नाचू के रंग-ब्रश का स्वाद चखने लगी। मतलब उसके रंग-ब्रश दीवारों पर उभरने लगे। उस पर कार्टून बनने लगे। जैसे-

एक दीवार पर नाचू ने दो चित्र बनाए। एक साफ सुथरी जगह का तो दूसरा कूड़ाघर बनाई जगह का। नीचे प्रश्न लिखा- बताओ, कौनसी जगह सुन्दर लगती है?

एक दो सज्जन कूड़ा डालने आए, उस चित्र को देखकर बिना कूड़ा डाले ही वापस चले गये और कूड़ा नगर पालिका के कचरा पात्र में डालकर आये।

एक दिन नाचू ने कार्टून बनाया कूड़े का ढेर लगा है। वहाँ दो आदमी कूड़ा फेंकने आते हैं। एक आदमी कहता है "देखो, कितना गंदा है तुम्हारा कूड़ा।"

"नहीं, नहीं हमारे घर का कूड़ा तो बहुत सुन्दर होता है।"

"फिर तो तुम उसे अपने घर में ही रखो। यहाँ क्यों लाए हो?"

अब दोनों आदमी एक-दूसरे को देखते हुए कूड़ा वापस ले जाते दिखते हैं।

नाचू के रंग-ब्रश से बने कार्टूनों का असर दिखाई देने लगा। सब तो नहीं, पर कुछ लोगों ने वहाँ कूड़ा फेंकना बंद कर दिया। पर बड़ी समस्या तो कूड़े के वे ढेर थे जो नगर पालिका लगाती थी।

पर यह समस्या नहीं रही क्योंकि नाचू के रंग-ब्रश अपना कमाल दिखा रहे थे और आस-पास के लोग भी जाग गये थे। नगर पालिका वाले भी जाग गये। क्योंकि वे लोगों को नाराज नहीं करना चाहते थे। नगर पालिका ने वहाँ कूड़ा डालना बंद कर दिया। एक-दो संस्थाओं ने वहाँ सफाई भी करवा दी।

अब कुछ लोगों ने सलाह की, 'हम चंदा करके रंग और ब्रश खरीद कर नाचू को देते हैं और रेलवे की इस जगह पर चित्र ही चित्र बनवा देते हैं। उन्हें देखने के लिये लोग आया करेंगे। लोग खुश भी रहेंगे और सफाई भी रहेगी।"

कुछ लोगों ने प्राचार्य जी के द्वारा नाचू से सम्पर्क किया और अपनी योजना नाचू को बताई।

नाचू ने अपने रंग-ब्रश से वहाँ चित्र ही चित्र बनाने से इन्कार कर दिया।

प्राचार्य जी सहित सभी के लिये यह आश्चर्यजनक था। "क्या बात है नाचू? तुम किससे नाराज हो? अपने रंग-ब्रश से या हमारे से?"

"सर, न तो कभी मैं अपने रंग-ब्रश से नाराज होता हूँ, न वे मेरे से नाराज होते हैं। सर, जब भी मुझे जगह मिलेगी, अवसर होगा तो मैं अवश्य चित्र बनाऊँगा। सर, मैं आपका सम्मान करता हूँ। आपने सदा ही मेरे चित्रों की कद्र की है। मुझे कितनी रियायतें दी हैं, स्नेह दिया है। सर, मैं आपसे कभी नाराज नहीं होऊँगा।"

"फिर तुमने वहाँ अपने रंग-ब्रश का चमत्कार दिखाने से क्यों इंकार किया।"

"सर, मेरे विचार में वहाँ चित्रों की नहीं, हरियाली की जरूरत है। सर, वहाँ पौधारोपण होना चाहिए। वहाँ वृक्षों की छाया होनी चाहिए। कुछ जगह वहाँ पथरीली जरूर है। उस जगह मेरे रंग- ब्रश अपनी बगिया महकाएँगे।"

यह आइडिया सभी को पसंद आया। कुछ ने नाचू की पीठ थपथपाई तो कुछ ने सिर हिला कर सहमति जताई।

कार्यक्रम बन गया। पौधारोपण शुरू हो गया। स्कूल का स्टाफ और छात्र यह करने के लिये बारी-बारी से जाने लगे। उसके साथ नाचू भी होता। वह कुछ पौधे रोपता तो बीच-बीच में आदत से मजबूर यहाँ वहाँ अपने रंग-ब्रश भी चलाता।

देखते-देखते वहाँ सुन्दर परिसर बन गया। अब एक चौकीदार की जरूरत महसूस हुई। वहाँ एक झोंपड़ी बना दी गई। लोग सहयोग दे रहे थे। फिर भी धन की कमी थी। थोड़ी सी तनख्वाह पर कोई भी चौकीदारी करने के लिये आने को तैयार नहीं हुआ।

अचानक एक ताऊ मिल गये। वे इधर-उधर से माँग कर खाना खाते थे तथा फुटपाथ पर सर्दी-गर्मी की रात बिताते थे।

उन्हें चौकीदारी करने के लिए कहा गया, तनख्वाह भी बताई गई। खाना भी स्कूल के होस्टल से देने की बात कही गई। वे भी इन्कार कर गये। पर बड़ी मुश्किल से मनाया गया। यह कहकर कि एक बार काम देख तो लो।

ताऊ आये। जगह देखी, काम देखा और उन्हें वह झोंपड़ी दिखाई गई जो उन्हें रहने को दी जानी थी।

झोंपड़ी देखकर ताऊ हैरान रह गये। इतनी सुन्दर? इतना सुन्दर तो किसी का घर भी नहीं होगा। उसे रहने के लिए यह घर मिलेगा।

ताऊ ने खुश होते हुए कहा, "मैंने पहले ऐसा घर कभी नहीं देखा, रहना तो दूर की बात है। मुझे इस घर में रहने दोगे तो मैं चौकीदारी करने के लिये तैयार हूँ। इस घर के लिये तो मैं बिना वेतन के भी काम करने के लिए तैयार हूँ।"

ताऊ बन गये उस बगिया के चौकीदार, पर उस घर यानी झोंपड़ी में ऐसा क्या था, जिसके लिये ताऊ तैयार हो गये।

उस झोंपड़ी में था नाचू के रंग-ब्रश का चमत्कार। नाचू ने झोंपड़ी की दीवारों को बाहर भीतर से, फर्श को और छत को अपने रंग-ब्रश से ऐसा सजाया कि देखते ही बनता था।

लोग उस बगिया को देखने आने लगे। जो बगिया के हरे- भरे पौधों को देखने आते, वे झोंपड़ी की दीवारों पर बना नाचू के रंग-ब्रश का कमाल जरूर देखते।

नाचू के रंग-ब्रश इसी तरह खिलखिलाते रहे। एक दिन एक नई बात हो गई। यहाँ भी नाचू की हिम्मत और रंग-ब्रश ने अपना कमाल दिखाया।

एक दिन गजब हो गया। नाचू को प्राचार्य जी के कार्यालय में बुलाया गया। नाचू चल पड़ा कार्यालय की तरफ। उसने सोचा प्राचार्यजी यह पूछेंगे कि पढ़ाई कैसी चल रही है? यह भी हो सकता है कि वे किसी विशेष स्थान पर कोई विशेष चित्र बनवाना चाहते होंगे। पर उसने देखा कार्यालय के बाहर बड़ी-सी कार खड़ी है। कार के पास ही वर्दीधारी ड्राइवर है।

आज तो कोई विशेष बात है। कार्यालय में कोई बड़ा आदमी आया है। उसकी शिकायत तो नहीं हो गई? नहीं, इन दिनों तो वह अपनी पढ़ाई या पौधारोपण में व्यस्त रहा है। फिर क्यों बुलाया है.... चलो, चल कर देखते हैं।

वह कार्यालय में गया तो देखा एक बड़े डीलडौल का, रेशमी खादी पहने, काला चश्मा लगाए अनजान व्यक्ति बैठा है। सब बड़े ध्यान से उसे सुन रहे हैं।

नाचू को देखकर प्राचार्यजी खुश होते हुए बोले, "आओ नाचू, इनसे मिलो। ये है श्री धमाल, समाज सेवक जी। इनकी समाज सेवाओं की चर्चा हर जगह होती रहती है। वैसे ही, जैसे तुम्हारे रंग-ब्रश के कमाल की होती है। क्या तुम इन्हें जानते हो?"

"नहीं सर, आज पहली बार मिल रहा हूँ", कहते हुए नाचू आगे बढ़ा और श्री धमाल समाज सेवक के चरण स्पर्श किये।

"नाचू, ये साहब एक विशेष काम से तुम्हारे पास आये हैं। इन्होंने अपना वह काम अभी तक हमें नहीं बताया है। कहते हैं, यह काम नाचू ही कर सकता है इसलिये तुम्हें ही बताएँगे।"

नाचू ने समाज सेवक जी की तरफ देखा और बोला,

"कहिए, सर मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?"

समाज सेवक जी हँसते हुए बोले, "देखो नाचू, मैंने तुम्हारी बहुत तारीफ सुनी है। कुछ तुम्हारे चित्र देखे भी हैं। बहुत अच्छे बनाते हो। अब तुम्हें अपने रंग-ब्रश का कमाल दिखाते हुए हमें एक अनचाही मुसीबत से छुटकारा दिलाना है।"

"हुआ यह था कि अभी दो वर्ष पहले हमने, हमारी संस्थान ने हरियाली लाने के लिए जनता से चंदा लिया था। आम जनता के अलावा, कुछ खास लोगों और संस्थाओं से भी चंदा आ गया था। अब एक संस्था से संदेश आया है कि वह एक प्रतिनिधि मण्डल भेज रही हैं जो आपके द्वारा करवाए गए वृक्षारोपण का अवलोकन करेगा।"

"सर, यह तो बड़ी अच्छी बात है। आपके पौधे देखकर वह प्रतिनिधि मण्डल खुश ही होगा।"

"खाक खुश होगा। हम जनसेवा के दूसरे कामों में व्यस्त हो गये। पौधारोपण हुआ ही नहीं। वह राशि भी इधर-उधर खर्च हो गई। प्रतिनिधि मण्डल को हम क्या दिखायेंगे?"

"सर, यह तो बुरा हुआ।"

"हाँ, इसे तुम्हारे से अच्छा करवाना है।"

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं सर। आप जमीन दिखाइये, जहाँ पौधारोपण करना है। पौधे भी दिलवाइये। मैं और मेरे साथी जल्दी ही यह काम कर देंगे।"

"बिना जमीन, बिना पौधे तुम एक काम करोगे। जमीन लेना, उसे समतल करना, पौधे लगाना, उनका पालन-पोषण, बड़ा लफड़ा है इसमें। इतना वक्त भी नहीं है।"

"फिर यह कैसे होगा?"

"तुम करने के लिए तैयार हो जाओ। रास्ता मैंने सोच लिया है। हमारे गाँव के पास कुछ खाली जमीन है। हम मजदूरों से उस खाली जमीन में यहाँ वहाँ सूखी लकड़ियाँ गड़वा देंगे। तुम अपने रंग-ब्रश के द्वारा उन सूखी लकड़ियों को पौधे बना देना। तुम्हारे चित्र तो गजब के होते हैं। प्रतिनिधि मण्डल उन्हें देखेगा तो यही समझेगा कि पौधे उगे हुए हैं।"

"सर, मैंने अब तक पत्थर को शेर या कुत्ता, घोड़े को गधा या रस्से को अजगर बना कर लोगों से मजाक किया है। पर जो काम आप बता रहे हैं, वह मैंने कभी नहीं किया। आप जो कह रहे हैं वह करना तो पाप है, अपराध है सर। वह मैं नहीं कर सकूँगा। हाँ सचमुच का पौधारोपण मैं और मेरे साथी कर सकते हैं।"

यह सुनकर समाज सेवक जी नाराज हो गये। उन्हें लगा प्राचार्यजी और अध्यापकों के सामने नाचू ने उनका अपमान कर दिया।

बोले, "नाचू, तुम नहीं जानते मैं कितना पावरफुल हूँ। तुम्हारे स्कूल की प्रबन्ध समिति के सब सदस्यों को मैं जानता हूँ। यदि तुम मेरा कहा नहीं मानोगे तो मैं तुम्हें स्कूल से निकलवा दूँगा।"

नाचू इस धमकी से घबराया नहीं। बोला, "मुझे निकलवाने से पहले इस बात का किसी को पता न चले। वरना मेरे रंग- ब्रश के कारण दूसरे स्कूल वाले मुझे अपने स्कूल में लेने के लिए दरवाजे पर भीड़ कर देंगे।"

प्राचार्यजी यह धमकी सुनकर सन्न रह गये। फिर बोले, "सर, मैं कभी नहीं चाहूँगा कि मेरे स्कूल से नाचू को इस तरह निकाला जाए। फिर भी, आप ऐसा करें तो मुझे पहले ही बता देना ताकि मैं भी इस्तीफा देकर यह स्कूल छोड़ दूँ।"

अब तो समाज सेवक जी घबरा गये, फँस गये। बोले, "नहीं- नहीं, मैंने तो मजाक किया था। मैं वही तरीका अपनाऊँगा जो नाचू ने बताया है। गाँव के पास कुछ खाली जमीन दिलवा दूँगा और पौधे भी। नाचू और उसके साथी वहाँ पौधारोपण करेंगे। और कुछ चाहिए?"

"नहीं सर, हम जब भी समाज सेवा करने जाते हैं, खाना होस्टल से खाकर जाते हैं। पीने का पानी मिल जाये, बस यही चाह है।"

"नहीं, चाय-नाश्ता भी मिलेगा। मैंने और मेरी संस्था ने जो चंदा लोगों से लिया था वह और उस पर ब्याज भी पौधारोपण पर खर्च करेंगे। हाँ, नाचू तुम्हारे रंग-ब्रश ने नहीं, तुम्हारी हिम्मत ने मेरे मन, मेरी नीयत को बदल दिया है। भविष्य में किसी चंदा दाता को कोई शिकायत नहीं होने दूंगा। काम भी समय पर होंगे।"

यह सुनकर प्राचार्यजी सहित अध्यापकों ने भी तालियाँ बजा दी। नाचू ने भी आगे बढ़कर धमाल समाज सेवकजी के चरणों में नमन किया।

वही हुआ। नाचू और उसकी टीम (बच्चों की और रंग-ब्रश की भी) एक दिन गाँव की जमीन पर पहुँच गई। देखा, नाचू आदि के वहाँ पहुँचने से पहले ही ट्रेक्टर ने उबड़-खाबड़ जमीन।को समतल कर दिया। रही-सही कसर नाचू की टीम ने पूरी कर दी। जमीन की सिंचाई भी कर दी गई।

यह काम करके नाचू टीम तो अपने स्कूल-होस्टल में आ गई। पर कई गाँव वालों को मुश्किल आ गई। वे पहचान नहीं पा रहे थे कि क्या उनके घर का दरवाजा है? कोई अपनी दीवार को घूर रहा था। सोच रहा था-यह क्या तमाशा है। मैं इस दीवार को तोड़कर नई बनाने वाला था। अब तो इसे बिल्कुल नहीं तोडूंगा। यदि जरूरत हुई तो इसके पास ही नई दीवार बना दूँगा।

यह सब क्यों? क्योंकि कुछ घरों के दरवाजे, कुछ दीवारें नाचू के रंग-ब्रश का स्वाद चख चुके थे। गाँव के दूसरे लोग भी इन दरवाजों, दीवारों को देखने के लिए आने लगे।

दो-चार दिन बाद पौधारोपण भी हो गया। पौधों की रखवाली का इन्तजाम समाज सेवक जी ने अपने जिम्मे ले लिया।

दो दिन बाद नाचू को समाचार मिला। समाचार समाज सेवक जी की तरफ से आया था- 'नाचू, तुमने तो यहाँ झगड़ा करवा दिया। जो मजदूरी हम दे रहे थे, वह लोगों को बहुत कम लग रही थी। इसलिये कोई चौकीदारी का काम लेने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था, पर जब लोगों ने चौकीदार की झोंपड़ी पर तुम्हारे रंग-ब्रश का कमाल देखा तो झगड़ने लगे। झगड़ा इस बात का कि यहाँ चौकीदार मैं बनूँगा... तुम नहीं मैं बनूँगा। देखते हैं किसकी लॉटरी खुलती है।"

इस पर नाचू मुस्कुरा कर रह गया। हाँ, नाचू बड़ा हो रहा था इसलिये उसमें कुछ गंभीरता आ गई। बस, थोड़ीसी ही, बाकी उसकी मस्ती, हँसी और दूसरों की मदद करने, अपनी पढ़ाई, आगे से आगे करने की आदत मौजूद है.... फुल बटा फुल।

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