सीख सुहानी बचपन से : हिन्दी बाल कहानी

Dr. Mulla Adam Ali
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Motivational Kahni : Seekh Suhani Bachpan Se

Seekh Suhani Bachpan Se Kahani

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सीख सुहानी बचपन से

सर को जब भी वक्त मिलता वे हम बच्चों के बीच आ बैठते। कोई ऐसी कहानी सुनाते कि हमें लगता, सर ने ये कहानी हम पर ही बनाई है। उनकी कहानी में सीख होती, मनोरंजन होता।

आज भी ऐसा हुआ। सर ने अभी बात शुरू नहीं की थी, राजू बोल पड़ा- "सर, आपके पास बहुत अच्छी अच्छी बाते हैं। लगता है, जिस स्कूल में आप पढ़ते थे, उसमें सभी अध्यापक अच्छे गुरु थे। उन्होंने आपको यह सब सिखाया, या सर, ये अच्छी बातें आपने अपने घर पर सीखीं?"

सर हँसते हुए बोले- "ऐसी कोई जगह नहीं होती, जहाँ से कुछ सीखने को ना मिले। घर, पड़ोस, दोस्त, स्कूल, पुस्तक, पत्रिका से और यहाँ तक कि बस, ट्रेन में सफर करते समय भी कुछ-न-कुछ सीखने को मिल जाता है। मैं तो तुम बच्चों से भी बहुत कुछ सीखता हूँ।"

"सर आप मजाक कर रहे हैं। हम आपको क्या सिखायेंगे ? सीख तो अपने से बड़े से ही मिलती है।"

"नहीं-नहीं, बचपन से भी सीख सुहानी मिल जाती है। चलो, आज मैं तुम्हें अपने इसी शहर की एक सच्ची बात बताता हूँ।"

"बच्चो ! तुम सेठ दयाराम को जानते हो?"

"सर, उन्हें कौन नहीं जानता। सारा शहर उनकी ईमानदारी का प्रशंसक है। लोग उनकी बात पर, उनके हिसाब-किताब पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं।"

सर बोले- "पर वे सदा से ऐसे नहीं थे। जब मैं यहाँ आया था तब दैनिक समाचारपत्र कुछ दुकानों पर ही आते थे। घर में बहुत कम लोग मँगवाते थे। मैं भी अखबार पढ़ने सेठ दयाराम की दुकान पर जाता था। एक दिन बातों-बातों में मैंने उनसे कहा-सेठजी! आपकी ईमानदारी की हर कोई चर्चा करता है। कहां से सीखा आपने ईमानदार बनना, बने रहना...?"

उस दिन दुकान के बाहर कुर्सियों पर धूप में हम दोनों ही बैठे थे। सेठजी बोले- "आपको विश्वास नहीं होगा, पर सच्चाई यह है कि ईमानदारी का यह पाठ मुझे बारह साल के एक बच्चे ने पढ़ाया था।"

मुझे विश्वास नहीं हुआ। सेठजी ने अपनी पूरी कहानी सुनाई। उन दिनों मेरी यह दुकान बहुत छोटी होती थी। मैं अकेला ही दुकान चलाता था। ग्राहक भी बहुत कम आते थे। एक दिन काफी देर से मैं खाली बैठा परेशान हो रहा था। क्योंकि कोई ग्राहक ही नहीं आया था। बोहनी भी नहीं हुई थी। अचानक एक बूढ़े बाबा आ गये। उन्होंने मुझसे कई तरह का सामान लिया और पूछा- "कितने पैसे दूँ। मैंने जोड़ लगाकर कहा तीन सौ पैंतालीस रुपये। बिना कोई हिसाब लगाये मुझे तीन सौ पैंतालीस रुपये पकड़ा दिये। उनके जाने के बाद मैंने पुनः जोड़ लगाया। अरे यह क्या ? मेरा पहला जोड़ गलत था। मैंने पूरे एक सौ रुपये ज्यादा ले लिये। मैं खुश हो गया। चलो, सुबह से खाली बैठा था। कमी-पूर्ति हो गई। मुफ्त में ही वारे न्यारे हो गये। ज्यादा आये रुपये भी मैंने गल्ले में रख दिये। सोचने लगा, अब चाहे कोई ग्राहक न आये। यदि आया तो वह आज की अतिरिक्त कमाई होगी।

इतने में दस बारह वर्ष का एक बालक आया। उसने भी कई तरह के सामान की सूची मुझे थमा दी। मैंने उसका सारा सामान बाँधा और दो सौ रुपए माँगे। उसने दो सौ रुपये दिये, सामान और बिल लिया और चलता बना। पर पाँच मिनट बाद ही वापस आ गया। आते ही बोला- अंकल, लगता है आपने पढ़ाई ठीक से नहीं की। जोड़ना तो सबसे पहले सिखाया जाता है। आपको यह भी नहीं आता। मैंने सोचा, इससे भी ज्यादा रुपये ले लिये। पर उसने अपनी जेब से रुपये निकालकर देते हुए कहा- आपके जोड़ में पूरे पच्चीस रुपये की गलती है। इस तरह सौदा बेचोगे तो कितने दिन चलेगी दुकान।"

मुझे आश्चर्य तो हुआ, पर मैंने कहा- "छोटे बच्चे ईमानदार होते हैं। यदि तुम अपने घर पहुँच जाते तो...... "

तो बड़ी मुश्किल होती अंकल ! यूँ तो मेरी माँ मुझे धूप में घर से बाहर निकलने देती, पर ये रुपये वापस करने के लिए जरूर भगाती। अंकल, हमें स्कूल में बताया गया है कि सीखने-पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है। आप भी इस उम्र में पढ़ना- लिखना सीख सकते हैं। कम-से-कम जोड़-घटाव तो सीख ही लें।"

उसकी इस सीख से मेरा मन बदल गया। मैंने दुकान को बंद किया और बसअड्डे की तरफचल पड़ा, क्योंकि बुजुर्ग किसी गाँव के लिए बस पकड़ने की बात कर रहे थे।

मैंने देखा बसअड्डे पर चाय की दुकान पर वही बुजुर्ग बैठे हैं। मैंने जब उनसे कहा कि आपके साथ हिसाब करने में भूल हो गई है तो बोले- "तुम अपनी दुकान छोड़कर मेरे पीछे आये हो, इसका मतलब है तुम्हारे कुछ रुपये मेरी तरफ रह गये। पर सच्चाई यह है कि इस समय मेरी जेब में बस किराये जितने ही रुपये है। मैं अगले चक्कर में तुम्हारे बाकी के रुपये दे दूँगा। यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो इस सामान में से कुछ वापस ले लो।"

मैंने कहा- "हिसाब में गलती तो है, पर रुपये मेरे नहीं, आपके निकलते हैं। यह पकड़ें सौ रुपये।"

उन बुजुर्ग की आँखें विस्मय से फैल गई। उनके मुँह से इतना ही निकला- "ऐसे लोग भी हैं दुनिया में अभी...। मास्टरजी, वह दिन है और आज का दिन है। मैंने कभी भी ईमानदारी का पल्ला नहीं छोड़ा, न ही कभी छोडूंगा।"

"बच्चो, मैं भी तुम लोगों से कुछ-न-कुछ सीखता रहता हूँ। बताऊँ क्या-क्या सीखा है?"

"नहीं सर, वरना हमारे में किसी को यह घमंड हो जायेगा कि वह गुरु है। हमें तो आप शिष्य ही रहने दें।"

इस पर सबकी हँसी गूंज उठी।

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