धमाका : बाल निर्माण की हिंदी नैतिक कहानियाँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Story Collection Book for Childrens Nanha krantikari by Parshuram Shukla, Kids Moral Stories, Prerak Bal Kahaniyan.

Dhamaka Bal Kahani in Hindi

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बाल कहानी धमाका : बाल कहानियां पहले भी उपयोगी थी, आज भी और भविष्य में भी उपयोगी रहेगी, बच्चे आज भी अपने बुजुर्गों से कहानियां सुनना पसंद करते है, लेकिन बुजुर्ग अपनी बचपन की कहानियां भूल चुके हैं और नई कहानियां उन्हें मिल नहीं पा रही हैं, इसलिए आज लेकर आए है बच्चों की प्रेरक बालकथा धमाका। इस कहानी को बच्चे स्वयं भी पढ़ सकते हैं और परिवार के बुजुर्ग स्वयं पढ़कर बच्चों को सुना भी सकते हैं ये रोचक बाल कहानी धमाका।

Dhamaka Hindi Children's Story

धमाका

नई कलेक्टर नमिता शर्मा जब से आयी थी, पूरे जिले में तूफान सा आ गया था। सभी के मुँह पर एक ही नाम था - नमिता शर्मा। नमिता शर्मा के ज्वाइन करते ही शासकीय कार्यालयों में कर्मचारी समय से आने लगे थे तथा गुण्डे-बदमाश शहर छोकर भाग गये थे या अण्डरग्राउण्ड हो गये थे। बहुत दिनों के बाद शहर के नेक और ईमानदार लोगों ने चैन की साँस ली थी।

नमिता शर्मा अभी नयी-नयी कलेक्टर बनी थी। लेकिन उसने दो बातें चार्ज सम्हालते ही तय कर ली थी। पहली - वह समाज को दिखा देगी कि स्त्रियाँ किसी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं हैं तथा दूसरी वह अपने जिले को स्वच्छ प्रशासन देगी, चाहे इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े।

सर्वप्रथम उसने जिले के अधिकारियों का बुलाया और उन्हें नेकी, ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा पर एक गम्भीर लेक्चर दे डाला। इसके साथ ही उसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वालों को अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी भी दे दी।

अधिकांश अधिकारियों ने भाषण को नेताओं के भाषण के समान सुना और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया लेकिन दूसरे दिन ही उनके कान खड़े हो गये। नई कलेक्टर ने एक क्लर्क को जनता के शिकायती पत्र लेने के लिये नियुक्त कर दिया तथा प्रतिदिन दो बजे से चार बजे तक का समय जनता को देने का निर्णय किया।

स्थानीय समाचार-पत्रों ने इस बात को बहुत महत्वपूर्ण माना तथा विस्तार से मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित किया।

नमिता शर्मा के आदेश को समाचार-पत्रों के प्रचार से बल मिला और कुछ ही दिनों में दूर-दराज के गाँवों से लोग अपनी शिकायतें लेकर आने लगे। उनकी शिकायतें कभी पुलिसके विरुद्ध होतीं, तो कभी अधिकारियों के । कभी शिक्षकों की शिकायतें होतीं, कभी डॉक्टरों की।

शिकायती प्रार्थनापत्र लेने वाला क्लर्क परेशान था। प्रतिदिन सौ से अधिक शिकायतें आती थीं। वह प्रत्येक से प्रार्थनापत्र लेकर रसीद दे देता और प्रतिदिन शाम को छः बजे पूरी फाइल नमिता शर्मा के निवास पर पहुँचा देता। नमिता शर्मा ने बंगले पर भी छोटा सा ऑफिस बना लिया था। वह रात को सोने के पूर्व एक-एक शिकायती पत्र को ध्यान से पढ़ती। कुछ ही दिनों में उसे पूरे जिले के भ्रष्टाचारी तंत्र का पता लग गया। इस तंत्र में शासकीय कर्मचारी, नेता, व्यापारी तथा गुण्डे भी थे।

अगले दिन नमिता शर्मा ने कार्यालय पहुँचते ही पुलिस अधीक्षक को बुलाया और उनसे इस भ्रष्टाचारी तंत्र के विषय में विस्तार से चर्च की। अधीक्षक महोदय अनुभव थे, अतः उन्होंने नमिता शर्मा को समाज के इस सशक्त वर्ग के विरुद्ध कठोर कदम उठाने से उत्पन्न समस्याओं के प्रति सावधान किया। किन्तु नमिता शर्मा तो दृढ़ संकल्प कर चुकी थी, अतः उन्हें नमिता शर्मा की बातें माननी पड़ीं और वह भी जोखिम उठाने के लिए तैयार हो गये।

इसके बाद नमिता शर्मा और पुलिस अधीक्षक ने मिलकर एक ऐसा तूफानी अभियान आरम्भ किया कि पूरे जिले का भ्रष्टाचारी तंत्र अस्त-व्यस्त हो गया। इस अभियान में अनेक थानेदार, तहसीलदार, पटवारी आदि घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़े गये, काला बाजारी करने वाले सेठों को जेल भेज दिया गया और गुण्डों के हाथ-पाँव तोड़ दिये गये। जिले के अनेक नेताओं ने, जो असामाजिक तत्वों से मिले थे; उन्हें बचाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु असफल रहे।

धीरे-धीरे सब शान्त हो गये। पूरे जनपद की जनता ने पहली बार इतनी अच्छी प्रशासनिक व्यवस्था देखी थी। वह नमिता शर्मा और पुलिस अधीक्षक की प्रशंसा करते नहीं थकती थी।

एक महीना बीत गया। नमिता शर्मा अभी भी प्रतिदिन दो से चार बजे तक सामान्य जनता से मिलती थी। अब शिकायती पत्र बहुत कम आते थे । लेकिन जिला चिकित्सालय की अव्यवस्था के सम्बन्ध में अभी भी शिकायतें आ रही थीं।

एक दिन प्रातः नौ बजे एक साधारण सी महिला काला बुर्का पहने पैदल जिला चिकित्सालय पहुँची। तीस-चालीस मरीज परची बनवाने के लिए लाइन लगाये खड़े थे, किन्तु पर्चे बनाने वाले का कहीं पता नहीं था। महिला ने इधर-उधर देखा, डॉक्टर अभी तक नहीं आये थे। उनके कमरे के सामने बैठा एक चपरासी बीड़ी पी रहा था। दूसरे कमरे में चार-पाँच नर्से एक-दूसरे के साथ हँसी-मजाक कर रही थीं।

महिला अपनी बगल में एक छोटा सा बैग दबाये, पर्ची बनवाने वालों की लाइन में खड़ी हो गयी।

आधे घंटे बाद पर्चा बनाने वाला बाबू आया और आते ही बिना बात के मरीजों पर बिगड़ने लगा। बेचारे मरीज सहम कर रह गये। पर्चा बाबू ने पाँच-सात पर्चे बनाये और पान खाने चला गया। वह आधे घंटे बाद लौटा और पास खड़ी नर्सों से हंसी-मजाक करने लगा। मरीज दो घंटे से लाइन में खड़े थे। एक-दो लोगों ने लाइन से पर्चा बाबू को आवाजें भी दीं।

तभी डाक्टर साहब आ गये। उनके साथ आठ-दस व्यक्ति थे, जो देखने से अच्छे स्तर के मालूम पड़ रहे थे।

"अरे साहब ! ये सब पैसे वाले हैं। डॉक्टर साहब को फीस देकर घर दिखाकर आ रहे हैं। पर्चा बनवाने वाली लाइन का एक आदमी ठंडी साँस लेकर बोला।

महिला ने अपनी घड़ी देखी। सवा दस बज चुके थे। डॉक्टर को आठ बजे आना चाहिए था। अभी वह कुछ सोच ही रही थी कि उसका नम्बर आ गया।

"ए बुरके वाली, सो रही है क्या?" महिला के कानों में पर्चा बाबू के शब्द टकराये ।

"ठीक से बात करो बाबूजी। क्या स्त्रियों से इस तरह बात की जाती है?" महिला नम्रता से बोली। उसके चेहरे पर अभी भी नकाब पड़ा था।

"अरे बड़ी बक-बक कर रही है। मुझे बात करना सिखाती है ? अपना नाम बता,पर्चा बनवा और आगे चल।" पर्चा बाबू ने झिड़क दिया।

"नमित शर्मा, कलेक्टर।" महिला ने अपने चेहरे की नकाब उलट दी। एक धमाका हुआ। सबकी आँखें खुली की खुली रह गयीं। सभी की जुबान पर एक ही नाम था - नई क्लेक्टर। गांव के लोग एड़ियों के बल उचक-उचक कर नई कलेक्टर को देख रहे थे।

पर्चा बाबू ने उठने की कोशिश की, लेकिन घबराहट में सम्हल नहीं पाया और कुर्सी सहित लुढ़क गया।

सभी लोग खिलखिलाकर हँसने लगे।

एक चपरासी तुरन्त डाक्टर के पास भागता हुआ पहुँचा और नमिता शर्मा के आने की खबर दी। डॉक्टर तुरन्त कुर्सी छोड़कर बाहर आया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। नमिता शर्मा जा चुकी थी।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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