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Bharati Ki Mahan Virangana
वीरांगना मातंगिनी हाज़रा : महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़नेवाली सेनानी मातंगिनी हाज़रा की कहानी, महान क्रांतिकारी वीरांगना मातंगिनी हाजरा, story of veerangana matangini hazra, मातंगिनी हाजरा के बलिदान की कहानी, भारतीय महान वीरांगनाएं।
Contribution of Matangini Hazra in Indian freedom
मातंगिनी हाजरा
भारत की आजादी की लड़ाई में बंगाल का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यहाँ के स्वतंत्रता प्रेमियों ने एक ओर महात्मा गाँधी के अहिंसक आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तो दूसरी ओर क्रान्तिकारियों के साथ मिल कर गोलियों और बमों के ऐसे धमाके किए कि अंग्रेज सरकार काँप उठी। इन आंदोलनों में लाखों की संख्या में लोग शहीद हुए। भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वालों में महिलाएँ भी पीछे नहीं थी। बंगाल की जिन महिलाओं ने देश की स्वतंत्रता के लिए आगे बढ़कर अपने प्राणों का उत्सर्ग किया, उनमें वीरांगना मातंगिनी का नाम अग्रणी है।
वीरांगना मातंगिनी का पूरा नाम मातंगिनी हाजरा था। उसका जन्म सन 1870 में मेदिनीपुर जिले के हांगला नामक ग्राम में एक निर्धन परिवार में हुआ था। उसके पिता ठाकुरदास माइती एक गरीब किसान थे, फिर भी उन्होंने मातंगिनी को पढ़ाने का निश्चय किया।
उस समय बंगाल में बेमेल विवाह बहुत होते थे तथा प्रायः लड़कियों का विवाह बहुत छोटी आयु में कर दिया जाता था। मातंगिनी अभी बारह वर्ष की थी और गाँव की प्राथमिक पाठशाला में अध्ययन कर रही थी कि पास के आलिनान गाँव के त्रिलोचन हाजरा ने विवाह के लिए रिश्ता भेजा। त्रिलोचन हाजरा एक संपन्न किसान था। उसकी पहली पत्नी मर चुकी थी और उसके बच्चे भी थे। त्रिलोचन हाजरा की आयु पचास को पार कर चुकी थी। फिर भी कुलीन परिवार होने के कारण मातंगिनी का विवाह त्रिलोचन के साथ कर दिया गया।
मातंगिनी के जीवन में विवाह का सुख नहीं था। अभी वह अट्ठारह वर्ष की भी नहीं हुई थी कि त्रिलोचन का देहांत हो गया। त्रिलोचन के मरते ही मातंगिनी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। मातंगिनी के कोई संतान नहीं थी, दूसरी तरफ त्रिलोचन की पहली पत्नी का बेटा बड़ा दुष्ट था तथा वह युवा हो चुका था। उसने मातंगिनी को इतने दुख दिए कि मातंगिनी ने अपने पति का आलीशान भवन छोड़ दिया और एक झोपड़ी बनाकर रहने लगी।
मातंगिनी बड़ी स्वाभिमानी थी। उसने अपने पति की सम्पत्ति से एक फूटी कौड़ी भी नहीं ली और मेहनत-मजदूरी करके अपने दिन व्यतीत करने लगी। वह लोगों के धान कूट कर चावल निकालती, गायों का दूध निकालती, गोबर के कंडे तैयार करती तथा इसी प्रकार के मेहनत मजदूरी के काम करके अपना खर्च चलाती ।
धीरे-धीरे चालीस वर्ष हो गये। अब मातंगिनी साठ वर्षों की हो रही थी। इस मध्य उसने व्रत-पूजा, ईश्वर-भजन आदि को ही अपना जीवन बना लिया था। वह प्रतिदिन रामचरित मानस और महाभारत का पाठ करती थी तथा दीन दुखियों की सेवा करती थी। उसके आसपास के लोगों में उसके प्रति बड़ी श्रद्धा और सम्मान था।
इस समय महात्मा गाँधी कांग्रेस के एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके थे तथा उनके नमक आंदोलन का प्रचार-प्रसार पूरे देश में फैल रहा था। सन 1932 में बंगाल में कांग्रेस के नेतृत्व में करबन्दी आंदोलन आरम्भ हुआ और शीघ्र ही पूरे बंगाल में फैल गया। इन दोनों आंदोलनों का मातंगिनी पर बहुत प्रभाव पड़ा और वह साठ वर्ष की आयु पार करने के बाद राजनीति में कूद पड़ी। मातंगिनी महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थी। अतः उसने महात्मा गाँधी की शिक्षाओं के अनुरूप सादे, सरल स्वदेशी जीवन को आदर्श बना लिया। मातंगिनी जनता में लोकप्रिय तो थी ही अतः कांग्रेस की सदस्या बनने के कुछ ही समय बाद वह कांग्रेसी नेताओं में भी लोकप्रिय हो गयी। मातंगिनी कांग्रेस में कैसे आयी? इसकी भी एक रोचक कहानी है।
26 जनवरी, 1932 को कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा की तरह जगह-जगह पर तिरंगा फहराने का कार्यक्रम बनाया। आलिनान में भी कांग्रेस के श्री गुणधर भौमिक के नेतृत्व में भारी संख्या में स्त्रियों और पुरुषों की भीड़ एकत्रित हुई और सभी एक जुलूस बनाकर कृष्णगंज बाजार की ओर चल पड़े। इसी स्थान पर ध्वजारोहण और इसके बाद जनसभा करने का निर्णय लिया गया था। यह जुलूस बड़े शानदार ढंग से 'भारत माता की जय' महात्मा गाँधी की जय जैसे नारे लगाता हुआ आगे बढ़ रहा था। मातंगिनी इस समय अपने झोपड़े में बैठी रामायण पढ़ रही थी। अचानक उसकी आत्मा से एक आवाज निकली और उसने पूजा का शंख उठाया तथा शंख नाद करती हुई जुलूस में सम्मिलित हो गयी।
मातंगिनी पूरे समय जुलूस के साथ रही। उसने कृष्णगंज आकर कांग्रेस के गाँधीवादी नेताओं के भाषण सुने और उनसे इतना प्रभावित हुई कि उसने उसी क्षण देश के लिए जीवन समर्पित करने की शपथ ले ली। मातंगिनी का किसी राजनैतिक आंदोलन में यह पहला योगदान था।
मातंगिनी का जीवन पहले से ही बड़ा सरल और सात्विक था। महात्मा गाँधी के सिद्धांतों से परिचित होने के बाद वह पूरी तरह गाँधी जी के रंग में रंग गयी। उसने चरखा चलाना और सूत कातना आरम्भ कर दिया तथा कांग्रेस के अजयकुमार मुखोपाध्याय (यह आगे चलकर पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री बने) गुणधर भौमिक और रमेश बाबू के निर्देशानुसार आंदोलनों में भाग लेने लगी। मातंगिनी ने अपने आपको महात्मा गाँधी के रंग में इतना अधिक रंग लिया कि लोग उसे 'गाँधी बूढ़ी' कहने लगे।
कांग्रेस द्वारा आयोजित टैक्स बन्द आंदोलन बंगाल में बड़ी तेजी से जोर पकड़ता जा रहा था। बहुत बड़ी संख्या में लोग इसका समर्थन कर रहे थे और जगह-जगह पर प्रदर्शन एवं आंदोलन कर रहे थे। इसी मध्य मेदिनीपुर जिले में कुछ क्रान्तिकारियों ने दो अंग्रेजों की हत्या कर दी। इससे अंग्रेज सरकार भड़क उठी और उसने 17 जनवरी, 1933 को बंगाल के गवर्नर एंडरसन को तमलूक भेजा। एंडरसन के साथ बहुत बड़ी संख्या में अन्य अधिकारी और पुलिस थी।
मातंगिनी और उसके साथियों ने काले झंडे दिखाकर एंडरसन का विरोध करने का निश्चय किया। इस कार्य में उन्हें सहयोग देने के लिए कांग्रेस के कुछ अन्य नेता भी आ गये थे। मातंगिनी का राजनैतिक जीवन अभी मात्र एक वर्ष का ही था, किंतु इतने कम समय में ही वह गाँधीवादी आदर्शों में इतना ढल चुकी थी कि सभी ने मिलकर उसी को नेतृत्व सौंप दिया।
17 जनवरी, 1933 को पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के अनुसार मातंगिनी विशाल जनसमूह के साथ एंडरसन के शिविर की ओर बढ़ी। उसके साथ शैलमाला बर्मन, कामिनी बर्मन, बसन्ती देवी, मोक्षदामठ मुक्त केशी सामन्त आदि महिला नेत्रियाँ भी थीं। चारों ओर पुलिस ही पुलिस थी, फिर भी मातंगिनी के नेतृत्व में 'गो बैक' एन्डरसन के नारों के साथ जनसमूह आगे बढ़ रहा था।
जैसे ही जनसमूह एंडरसन के शिविर के निकट पहुँचा, पुलिस सक्रिय हो उठी। उसने मातगिनी और उसके साथियों से काले झंडे छीन लिए और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस मामले में मातंगिनी को छः माह की सजा सुनायी गयी तथा मुर्शिदाबाद जिले की बहरपुर जेल भेज दिया गया, किंतु किन्हीं कारणों से उसे शीघ्र ही जेल से रिहा कर दिया गया।
मार्तगिनी एक राष्ट्रभक्त, गाँधीवादी आन्दोलनकारी होने के साथ ही प्रखर समाजसेवी भी थी। सन 1935 की भीषण बाढ़ के समय उसने तमलूक के लोगों की जी जान से सेवा की। इसी तरह चेचक और हैजा के प्रकोप के समय भी उसने अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों को बचाया।
अगस्त, 1942 को महात्मा गाँधी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया। इसका पूरे देश पर प्रभाव पड़ा और संपूर्ण भारत की जनता अंग्रेजों का विरोध करने के लिए सड़कों पर आ गयी। अंग्रेज भी कब चुप रहने वाले थे। उन्होंने भी अपना दमन चक्र आरम्भ कर दिया। निहत्थे लोगों पर लाठियाँ बरसायीं और कांग्रेसी आंदोलनकारियों को पकड़ पकड़ कर जेल में ठूंस दिया। जो नेता बचे वे भूमिगत हो गये।
मातंगिनी ने भी इस अवसर पर कुछ करने का निश्चय किया। वह कांग्रेस के भूमिगत नेताओं से मिली और उनसे इस संबंध में विचार-विमर्श किया। कांग्रेसी नेताओं ने मागिनी को भी भूमिगत होने का सुझाव दिया। किंतु मागिनी ने ऐसा करने से मना कर दिया। अंत में सभी ने मिलकर 29 सितंबर, 1942 को एक जोरदार अहिंसक आंदोलन करने का निश्चय किया। इस आंदोलन में आंदोलन कारियों को कचहरी, न्यायालय, डाकघर, पुलिस थाने सहित सभी सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने और आजादी की घोषणा करने का निर्देश दिया गया था।
29 सितंबर, 1942 पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लोगों का एक विशाल समूह मार्तगिनी के निवास के सामने एकत्रित हुआ और 'भारत माता की जय', 'महात्मागाँधी की जय', 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के गगनभेदी नारे लगाता हुआ सरकारी डाक बंगले की ओर एक जुलूस के रूप में चल पड़ा। इस जुलूस में मातगिनी तिरंगा लिए हुए सबसे आगे चल रही थी।
अहिंसक आंदोलनकारियों का यह जुलूस अभी डाकबंगले से काफी दूर ही था कि अचानक अनिल कुमार भट्टाचार्य के नेतृत्व में पुलिस की बंदूकें गरज उठीं। तीन लोग उसी समय मारे गये और कई घायल हो गये। जुलूस में भगदड़ मच गयी और लोग इधर-उधर भागने लगे।
ऐसे समय में मातंगिनी ने बड़े धैर्य और विवेक से काम लिया और हाथों में तिरंगा लिए एक ऊँचे स्थान पर आकर खड़ी हो गयी। उसने लगभग पाँच मिनट तक बड़ा जोशीला भाषण दिया, जिसका लोगों पर भारी प्रभाव पड़ा और वे पुनः मातंगिनी के झंडे के नीचे एकत्रित हो गये। मातंगिनी में गजब का साहस था। उसने एक बार पुनः भारत माता
की जय का उद्घोष किया और जुलूस के साथ आगे बढ़ी। इसी समय पुलिस अधिकारी अनिल भट्टाचार्य ने उसे पुनः चेतावनी दी और आगे बढ़ने से रोका।
मातंगिनी में मानो कोई दैवी शक्ति समा गयी थी। उसका चेहरा अलौकिक आभा से चमक रहा था। उसने अनिल भट्टाचार्य की चेतावनी की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ी।
इसी समय पुलिस की एक गोली उसके दाहिने हाथ में लगी। मातंगिनी का साहस इस समय देखने योग्य था। उसने तिरंगा अपने बायें हाथ में ले लिया और भारत माता की जय बोलती हुई पुनः आगे बढ़ी।
तभी पुलिस की दूसरी गोली उसके बायें हाथ में लगी। मातंगिनी के दोनों हाथ बेकार हो चुके थे। फिर भी उसने तिरंगा नहीं छोड़ा और अपने दोनों घायल हाथों से तिरंगा अपने सीने से चिपका कर लोगों का आह्वान किया।
अब जुलूस में भारत माता की जय, महात्मा गाँधी की जय के साथ ही मातेंगिनी हाजरा की जय के नारे भी गूंजने लगे।
अचानक पुलिस की एक गोली मातंगिनी के मस्तक पर लगी। मातगिनी वहीं भूमि पर गिर पड़ी और कुछ ही क्षणों में उसके प्राण पखेरू उड़ गये। इस समय भी तिरंगा मातंगिनी के सीने से लगा हुआ था, मानो वह आततायी अंग्रेजों का उपहास उड़ा रही हो।
भारत की आजादी के बाद 17 दिसंबर, 1974 को प्रधानमंत्री इंदिरागाँधी मानवता की इस देवी की कर्मस्थली के दर्शनार्थ पहुँचीं। उन्होंने वीरांगना मातंगिनी की मूर्ति का अनावरण किया और फूलों की माला पहना कर उसे भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की।
आज वीरांगना मातंगिनी नहीं है, किंतु उसकी यशोगाथा अमर है। आज भी जब कभी भारतवासी वीरांगना मातंगिनी के अमर बलिदान की याद करते हैं तो उनका सर श्रद्धा से इस वीरांगना के प्रति झुक जाता है।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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