भारतीय वीरांगनाएँ : वीर बालिका ताजकुँवरि

Dr. Mulla Adam Ali
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Bharat Ki Mahan Virangana

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Veer Balikayein : भारत वीर बालिकाएँ जो अपने देश के लिए प्राणों का बलिदान दिया है उनमें से एक वीर बालिका ताजकुँवरि के बारे में यहां पर बताया गया है। राजकुमारी ताजकुँवरि बुद्धिमान और सहाय ही नहीं सम्पूर्ण उत्तर भारत में रूपवती है, आइए जानते हैं तेरहवीं शताब्दी की ये सच्ची कहानी, वीर बालिकाओं की गाथाएं, भारत की महान वीरांगना ताजकुँवरि की शौर्य गाथाएं।

Veer Balika Taj Kuwari

भारत की महान वीर बालिका ताजकुंवरि

तेरहवीं सदी की बात है। उत्तर भारत में किसोरा नामक एक छोटा सा राज्य था। किसोरा का राजा सज्जन सिंह अत्यंत वीर और साहसी था। उसने अपनी दोनों सन्तानों को बचपन से ही तीरन्दाजी, घुड़सवारी और तलवारबाजी का प्रशिक्षण दिलाया था। सज्जनसिंह का बेटा लक्ष्मणसिंह बड़ा होकर अत्यंत शूरवीर राजकुमार निकला, किन्तु उसकी पुत्री ताजकुँवरि तलवार चलाने की कला में अपने भाई लक्ष्मणसिंह से भी दो हाथ आगे थी।

राजकुमारी ताजकुँवरि बुद्धिमान और साहसी होने के साथ ही अत्यंत रूपवान भी थी। सम्पूर्ण उत्तर भारत में उसके सौन्दर्य के चर्चे थे। एक बार राजकुमारी ताजकुँवरि अपने भाई के साथ शिकार खेलने जंगल गयी। वहां उन दोनों को एक हिरण का पीछा करते-करते बहुत देर हो गयी।

अंधेरा हो रहा था। राजकुमारी ताजकुँवरि बहुत थक गयी थी। उसे जोर से प्यास भी लग रही थी। अतः उसने अपने घोड़े को एक पेड़ से बांधा और विशाल शिला पर आराम करने लगी। उसका भाई लक्ष्मणसिंह पानी की तलाश में कुछ दूर निकल गया।

उसी जंगल में पन्द्रह-बीस तुर्क सैनिक छुट्टियाँ बिताकर लौट रहे थे। अचानक उनकी दृष्टि शिला पर विश्राम करती राजकुमारी ताजकुँवरि पर पड़ी। वीरान जंगल में एक अनिंद्य सुंदरी को अकेला पाकर सभी के मन में पाप आ गया।

तुर्क सैनिकों के नायक ने तुरंत अपने साथियों को राजकुमारी को पकड़ कर लाने का हुक्म दिया और एक पेड़ के नीचे खड़ा हो गया।

राजकुमारी ताजकुँवरि शिला पर आँखें बंद किये पड़ी थी। अचानक बहुत से घोड़ों की टापों की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ी। सामने पन्द्रह-बीस सैनिक खड़े उसे गिद्ध दृष्टि से घूर रहे थे।

दूसरे ही क्षण राजकुमारी ताजकुँवरि के हाथों में तलवार आ गयी। उसने शिला पर से ही एक लम्बी छलांग लगायी और अपने घोड़े पर आ गयी। तलवार के एक ही वार में पेड़ से बँधा घोड़ा स्वतंत्र हो गया।

राजकुमारी ताजकुँवरि चाहती तो सैनिकों से बचकर भाग सकती थी, किन्तु वह उन दुष्टों को सबक सिखाना चाहती थी।

तुर्क सैनिक राजकुमारी की चुस्ती और फुर्ती देख कर हैरान थे। वे जिसे साधारण नारी समझ रहे थे, वही सामने साक्षात रणचण्डी के समान खड़ी उन्हें ललकार रही थी।

तुर्क सैनिकों ने भी अपनी तलवारें निकाल लीं और उसे चारों ओर से घेर लिया। राजकुमारी ताजकुँवरि एक क्षण के लिये घबरायी। किन्तु शीघ्र ही उसने अपने पर नियंत्रण पा लिया और तुर्क सैनिकों पर टूट पड़ी। राजकुमारी ताजकुँवरि के एक वार में एक दुश्मन का सिर कट जाता। पन्द्रह-बीस तुर्क सैनिकों पर एक भारतीय नारी भारी पड़ रही थी। अचानक एक सैनिक ने पीछे से राजकुमारी ताजकुँवरि के घोड़े पर तलवार का भरपूर वार किया।

घोड़े के साथ ही राजकुमारी भी गिर पड़ी।

तुर्क सैनिकों के चेहरे खिल उठे।

तभी उन पर लक्ष्मणसिंह बाज की तरह टूट पड़ा। राजकुमारी ताजकुँवरि ने जैसे ही भाई को देखा तो वह उठकर खड़ी हो गयी। उसने एक तुर्क सैनिक को घोड़े से खींचकर गिराया और उसके घोड़े पर सवार हो कर स्वयं तलवार चलाने लगी।

कुछ ही देर में चारों ओर लाशों के ढेर लग गये। सभी तुर्क सैनिक मारे गये, केवल दो सैनिक चुपचाप बच कर निकल भागे थे।

राजकुमारी ताजकुँवरि ने अपने भाई की ओर विजय पूर्ण मुस्कान के साथ देखा और दोनों राजमहल की तरफ चल पड़े।

भागे हुए दोनों सैनिक सीधे दिल्ली दरबार पहुँचे। उस समय दिल्ली का बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक था।

दोनों तुर्क सैनिकों ने बादशाह से राजकुमारी के रूप और सौन्दर्य की खूब बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा की। बादशाह उनके बहकावे में आ गया और राजकुमारी ताजकुँवरि को अपनी बेगम बनाने के लिए बेचैन हो उठा।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने शीघ्र ही एक दूत को बुलाया और किसोरा नरेश सज्जनसिंह के पास विवाह का पैगाम भेज दिया।

कुतुबुद्दीन ऐबक समझता था कि किसोरा छोटा सा राज्य है। उसका शासक सज्जनसिंह डर जायेगा और शीघ्र ही अपनी बेटी के विवाह के लिये तैयार हो जायेगा, लेकिन यह उसकी भूल थी।

तीसरे दिन दूत वापस आ गया। उसका चेहरा उदास था। सज्जनसिंह ने उसे अपमानित कर बादशाह के मुँह पर तमाचा मारा था।

कुतुबुद्दीन इस अपमान को सहन न कर सका और उसने एक बड़ी सेना लेकर किसोरा पर आक्रमण कर दिया।

किसोरा का छोटा सा किला विशाल शाही सेना के समाने चुनौती बना खड़ा था।

राजा सज्जनसिंह जानते थे कि उनकी छोटी सी राजपूत सेना दुश्मन का मुकाबला अधिक समय तक नहीं कर सकती। अतः उन्होंने सभी को किले के भीतर मोर्चा संभालने का आदेश दिया।

राजकुमारी ताजकुँवरि को जब यह मालूम पड़ा तो उसे बहुत बुरा लगा। वह सैनिक वेश में अपने पिता के पास पहुँची और ऊंची आवाज में बोली- "पिताजी ! हम राजपूत हैं, किले के भीतर कुछ ही दिनों में खाद्य सामग्री समाप्त हो जायेगी और हम सभी भूख से बिलख-बिलख कर मर जायेंगे। इस तरह चूहेदानी में बंद चूहे की तरह मरने से तो अच्छा है कि युद्ध भूमि में लड़ते हुए वीरों की तरह शहीद हो जायें।"

राजा सज्जनसिंह को राजकुमारी की बात ठीक लगी। राजकुमार लक्ष्मणसिंह और सभी राजपूत सैनिक भी राजकुमारी ताजकुँवरि के साथ थे।

कुतुबुद्दीन की विशाल सेना किले के चारों ओर घेरा डाले खड़ी थी। अचानक सैकड़ों की संख्या में राजपूत सैनिक केशरिया बाना पहने, हाथों में तलवारें चमकाते हुए निकले और उन पर टूट पड़े।

भीषण युद्ध आरम्भ हो गया।

राजा सज्जनसिंह बड़ी वीरता से लड़ रहे थे, किन्तु सबसे पहले वह ही मारे गये। उनके बाद राजकुमारी ताजकुँवरि और राजकुमार लक्ष्मणसिंह ने सेना का संचालन अपने हाथों में ले लिया। भाई-बहन दोनों बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। वे जिधर निकल जाते, दुश्मनों की लाशें बिछ जाती।

बादशाह कुतुबुद्दीन दूर खड़ा युद्ध का दृश्य देख रहा था। उसकी दृष्टि राजकुमारी पर थी। वह राजकुमारी के रूप के साथ ही उसकी वीरता पर भी मुग्ध था।

अचानक उसने घोषणा की कि जो भी सैनिक राजकुमारी को जीवित पकड़ लेगा, उसे बहुत बड़ा पुरस्कार दिया जायेगा।

बादशाह की घोषणा सुनते ही सैनिकों की भीड़ राजकुमारी की तरफ बढ़ी।

राजकुमारी ताजकुँवरि अचानक आयी इस मुसीबत से घबरा उठी। उसे लगा कि अब वह अधिक समय तक अपनी रक्षा नहीं कर सकेगी। उसने असहाय दृष्टि से इधर-उधर देखा। निकट ही लक्ष्मणसिंह दुश्मनों की सेना को गाजर-मूली की तरह काट रहा था। "भैया।" राजकुमारी चीखी।

राजकुमारी ताजकुँवरि की आवाज सुनकर राजकुमार दुश्मनों की भीड़ चीरता हुआ उसकी ओर बढ़ा।

“भैया बचाओ ! मेरे शरीर को ये हत्यारे पापी न छू सकें।" राजकुमारी ताजकुँवरि एक विशेष संकेत करते हुए भाई की ओर बढ़ी। लक्ष्मणसिंह सब समझ गया। उसके चेहरे पर विषाद के चिह्न उभर आये। एक क्षण के लिये उसने कुछ सोचा फिर अपने कुलदेवता का स्मरण करते हुए उसने तलवार के एक ही झटके में राजकुमारी ताजकुँवरि का सर धड़ से अलग कर दिया।

लक्ष्मणसिंह इसके बाद साक्षात् काल बन गया। उसने अकेले ही भयंकर युद्ध किया, किन्तु दुश्मन की विशाल सेना के समक्ष अधिक देर तक न टिक सका।

इस युद्ध में कुतुबुद्दीन की विजय हुई। किन्तु दिल्ली वापस लौटते हुए वह स्वयं को हारा हुआ अनुभव कर रहा था।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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