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Bharat Ki Mahan Virangana
वीरांगना रत्नावती : जैसलमेर वीर बाला रत्नावती की सच्ची कहानी पढ़िए, भारतीय वीरांगनाएं में राजकुमारी रत्नावती का इतिहास आपके समक्ष प्रस्तुत है। वीर राजपूत कन्या रत्नावती की शौर्यगाथा। भारत की महान वीरांगना की शौर्य गाथाएं।
Rajkumari Ratnawati
Indian Brave Women Warrior
राजपूताने का इतिहास वीरबालाओं की गौरवपूर्ण गाथाओं से भरा पड़ा है। राजपूत वीरांगनाओं ने अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिये कभी पद्मिनी के समान जौहर किया तो कभी कृष्णा के समान आत्मबलि देकर अपनी मातृभूमि की रक्षा की। किन्तु रत्नावती एक ऐसी वीर बाला थी, जिसने अपने अद्भुत शौर्य और पराक्रम से दुश्मन को केवल पराजित ही नहीं किया, बल्कि अपने मानवतापूर्ण व्यवहार से उसके अहम को चूर-चूर कर दिया।
रत्नावती जैसलमेर के राजा महारावल रत्नसिंह की पुत्री थी। एक बार महारावल रत्नसिंह एक लम्बे समय के लिये कहीं बाहर गये थे। किले में रत्नावती अकेली थी। किसी तरह यह बात अलाउद्दीन को मालूम हो गयी। अलाउद्दीन बड़ा क्रूर और निर्दयी शासक था। उसने इस अवसर का लाभ उठाने का निश्चय किया और तुरंत अपने दुस्साहसी सेनापति मलिक काफूर को एक बड़ी सेना के साथ जैसलमेर पर आक्रमण करने के लिये भेज दिया।
मलिक काफूर आंधी-तूफान की तरह आगे बढ़ा और शीघ्र ही उसने जैसलमेर का किला चारों ओर से घेर लिया।
रत्नावती को जब यह समाचार मिला तो वह तनिक भी विचलित नहीं हुई । उसने एक कुशल सेनापति के समान किले की रक्षा का भार संभाला और सैनिक वेशभूषा में घोड़े पर सवार पूरे किले का सैन्य संचालन करने लगी। उसका सैन्य संचालन इतना अच्छा था कि दुश्मन की सेना ने किले में प्रवेश करने के अनेक उपाय किये, किन्तु हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी।
एक बार अर्धरात्रि के समय दुश्मन भारी सैन्यबल के साथ किले पर चढ़ आया। उसके सैनिक किले की दीवारों पर चढ़ने लगे। रत्नावती सब देख रही थी। उसकी आँखों में दूर-दूर तक नींद का पता न था। दुश्मनों के सैनिकों को किले की दीवार पर चढ़ते देखकर वह विनाशकारी अनिष्ट की आशंका से कांप उठी, किन्तु उसने धैर्य नहीं छोड़ा।
उसका मस्तिष्क बड़ी तेजी से सोच रहा था। अचानक उसकी आँखों में चमक आ गयी। उसने अपने सैनिकों को तेल गरम करने का आदेश दिया। इसके साथ ही उसने धनुर्धारी योद्धाओं को किले की बुर्जियों पर चौकस कर दिया। दुश्मन के सैनिक अभी किले की आधी दीवार पर चढ़ पाये थे कि उन पर ऊपर से खौलता हुआ तेल पड़ा और बाणों की वर्षा होने लगी।
इस प्रकार शत्रु के आधे सैनिक समाप्त हो गये। जब मलिक काफूर ने देखा कि वह बहादुरी से लड़कर किले को नहीं जीत सकता तो उसने छल-बल का सहारा लिया और किले के एक वृद्धद्वार रक्षक को सोने की एक ईंट देकर रात्रि के समय किले का द्वार खोलने के लिये तैयार किया। द्वार रक्षक राजपूत था। उसने अपने स्वामी का नमक खाया था। वह सीधा रत्नावती के पास पहुँचा तथा सब कुछ विस्तार से कह सुनाया।
रत्नावती के लिये परीक्षा की घड़ी थी। वह अच्छी तरह जानती थी कि किले की खाद्य सामग्री शीघ्र ही समाप्त होने वाली है और बिना भोजन के कितने दिन तक युद्ध किया जा सकता है? बहुत सोच-विचार करने के बाद उसने कायरों के समान मरने की अपेक्षा वीरों के समान युद्ध करते हुए शहीद होने का निश्चय किया।
रत्नावती का निर्णय बहुत भयानक था। उसने वृद्ध द्वारपाल को किले का द्वार खोलने का आदेश दिया और अपने सैनिकों को अंतिम युद्ध के लिये तैयार करने में जुट गयी।
रात्रि के ठीक बारह बजे मलिक काफूर ने सैनिकों के साथ किले में प्रवेश किया। वृद्ध द्वारपाल ने चुपचाप किले का मुख्यद्वार खोल दिया था और भीतर के आड़े-तिरछे रास्तों पर दुश्मन की सेना का मार्गदर्शन कर रहा था।
अचानक द्वारपाल टेढ़े-मेढ़े रास्तों में गुम हो गया। दुश्मन की सेना ने पीछे मुड़कर देखा तो चकित रह गयी। किले का मुख्य द्वार बंद हो चुका था।
इस समय मलिक काफूर के सैनिकों की स्थिति चूहेदानी में फंसे हुए चूहों के समान थी।
तभी उन पर बाणों की तेज बौछार होने लगी। रत्नावती के सैनिकों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था। दुश्मन के सिपाही मैदान में थे और रत्नावती के सैनिक किले की मोटी-मोटी दीवारों की आड़ में। मलिक काफूर ने स्थिति को बिगड़ता हुआ देखकर आत्मसमपर्ण कर दिया। उसके सभी सैनिक कैद कर लिये गये।
रत्नावती वीरता की नहीं, मानवता की भी देवी थी। किले के भण्डारगृह का अनाज समाप्त हो रहा था, अतः उसने अपने सैनिकों के साथ एक समय का उपवास आरम्भ कर दिया, किन्तु मलिक काफूर व उसके सैनिकों को दोनों समय भोजन देने की व्यवस्था की।
अलाउद्दीन मलिक काफूर के लिये बहुत चिन्तित था। जब उसे मालूम हुआ कि उसका सेनापति जैसलमेर के किले में बंदी बना लिया गया है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधिपत्र के साथ अपने दूत भेजे।
बादशाह की आज्ञा पाते ही किले के चारों ओर लगे हुए दुश्मनों के तम्बू उखड़ने लगे। रत्नावती ने अपने किले की सबसे ऊंची बुर्ज पर चढ़कर देखा तो गर्व से उसका मस्तक तन गया। दुश्मन की सेना वापस जा रही थी और उसके पिता महारावल राजपूत सेना के साथ किले की ओर बढ़ रहे थे।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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