Pritilata Waddedar : स्वाधीनता आन्दोलन की क्रान्ति ज्वाला प्रीतिलता वाद्देदार

Dr. Mulla Adam Ali
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Bharati Ki Mahan Virangana

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वीरांगना प्रीतिलता : निर्भीक लेखिका, भारतीय राष्ट्रवादी क्रांतिकारी बंगाल की महान स्वतंत्रता सेनानी वीरांगना प्रीतिलता वाद्देदार की कहानी। भारतीय वीरांगनाएं, बंगाल की पहली महिला बलिदानी प्रीतिलता वड्डेदार/वादेदार। प्रीतिलता वाद्देदार की जीवनी (biography of pritilata waddedar) महिला स्वतंत्रता सेनानी।

Indian revolutionary : Pritilata Waddedar

प्रीतिलता वाद्देदार

भारत से अंग्रेजी राज्य को समाप्त करने के लिए दो तरह के प्रयास किए गये। एक ओर महात्मा गाँधी के नेतृत्व में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अहिंसा पर आधारित आंदोलन आरम्भ हुए तो, दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने जैसे को तैसा की नीति अपनाते हुए हिंसा का मार्ग अपनाया। क्रान्तिकारियों का मानना था कि अंग्रेज बड़े धूर्त और मक्कार हैं। उन पर अहिंसक आन्दोलनों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। क्रान्तिकारी अंग्रेजों को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए हिंसात्मक क्रान्ति आवश्यक मानते थे। इसके लिए क्रान्तिकारियों ने गुप्त रूप से अनेक संगठन बनाये तथा कभी अंग्रेज अधिकारियों पर बम फेंके तो कभी उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाया।

भारतीय क्रान्तिकारियों में महिलाओं ने भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ी। महिला क्रान्तिकारियों के कारनामे पुरुष क्रांतिकारियों से कम न थे। उन्होंने अपने साहस और सूझबूझ से ऐसे काम कर डाले जिनकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इन्हीं महिला क्रान्तिकारियों में एक थी-प्रीतिलता ।

प्रीतिलता का पूरा नाम प्रीतिलता वाद्देदार था। उसका जन्म 5 मई, 1911 को चटगाँव के गोलपाड़ा नामक स्थान पर हुआ था। प्रीतिलता के पिता जगबंधु वाद्देदार एवं माता प्रतिमा वाद्देदार दोनों ही कट्टर राष्ट्रभक्त और क्रान्तिकारी विचारों के थे। क्रान्ति की पहली शिक्षा उसे अपने ही घर से मिली।

प्रीतिलता अन्य कार्यों के साथ ही पढ़ाई-लिखाई में भी बहुत तेज थी। उसने सन 1928 में ढाका के ईडन कॉलेज में प्रवेश लिया और यहीं पर वह बंगाल के क्रांतिकारी संगठन 'श्री संघ' के संपर्क में आयी। श्री संघ का संचालन विख्यात क्रान्तिकारी सूर्यसेन के हाथों में था। सूर्यसेन बड़े सरल हृदय के किंतु अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। उनके साथी उन्हें मास्टर दा के नाम से पुकारते थे। मास्टर दा संगठन में लड़कियों को सम्मिलित करने के विरोधी थे। अतः बहुत प्रयास करने पर भी प्रीतिलता को 'श्रीसंघ' की सदस्यता नहीं मिल सकी।

प्रीतिलता का ध्यान क्रान्तिकारी गतिविधियों के साथ ही अपनी पढ़ाई-लिखाई पर भी था। उसने सन 1930 में ढाका विश्वविद्यालय से इन्टरमीडिएट की परीक्षा पास की और कलकत्ता के बेथुन कालेज में बी. ए. में प्रवेश ले लिया। प्रीतिलता 'श्रीसंघ' की सदस्य बन कर सक्रिय क्रान्तिकारी के रूप में कार्य करना चाहती थी, किंतु उसे श्रीसंघ के कठोर नियमों के कारण सदस्यता नहीं मिल सकी। फिर भी वह क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में रहती थी और उनके छोटे-छोटे काम कर देती थी।

इसी समय एक ऐतिहासिक घटना घटी। इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की चटगाँव शाखा के क्रान्तिकारियों ने बड़े ही नियोजित ढंग से विद्रोह किया और जिले के सभी शस्त्रागारों पर कब्जा कर लिया। इतना ही नहीं इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के क्रान्तिकारियों ने मास्टर दा के नेतृत्व में 10 अप्रैल, 1930 को रात्रि 10 बजे अपनी सरकार की घोषणा कर दी। यह ब्रिटिश शासनकाल में बनायी गयी पहली गणतान्त्रिक सरकार थी। इस सरकार में भाग लेने तथा इसका सहयोग करने की सभी स्त्री-पुरुषों युवक-युवतियों और छात्र-छात्राओं से अपील की गयी थी। अंग्रेज हुकूमत के आतंक के बाद भी 'धन्य चटगांव' नामक राष्ट्रीय समाचार-पत्र में इस घोषणा को प्रकाशित किया गया।

अंग्रेज सरकार ने जब यह खबर सुनी तो वह बौखला उठी और उसने 22 अप्रैल, 1930 को 500 अंग्रेजों की एक फौज चटगाँव भेजी। इस समय मास्टर दा और उनके साथी क्रान्तिकारी बहुत अच्छी स्थिति में थे। उनके पास पर्याप्त गोला-बारूद भी था, अतः उन्होंने अंग्रेज सिपाहियों को लड़कर भगा दिया। इसी समय बंगाल के अनेक स्थानों पर अंग्रेजों के विरुद्ध छोटे-बड़े विद्रोह हुए। कहीं अंग्रेज अधिकारी मारे गये तो कहीं क्रान्तिकारी शहीद हुए।

अंग्रेजों की शक्ति बहुत अधिक थी, जबकि क्रान्तिकारियों की शक्ति सीमित थी, अतः मास्टर दा ने गुरिल्ला युद्ध करने का निश्चय किया। गुरिल्ला युद्ध के लिए यह आवश्यक था कि किसी तरह गुरिल्ला युद्ध करने वाले क्रान्तिकारियों तक नियमित हथियार पहुँचाये जायें। हथियारों के बिना गुरिल्ला युद्ध संभव न था। दूसरी तरफ चटगाँव में गणतान्त्रिक सरकार की घोषणा से अंग्रेज सरकार भी सावधान हो गयी थी तथा गुप्तचर विभाग की निगरानी बहुत बढ़ गयी थी। गुप्तचर विभाग वाले पुरुषों पर अधिक शक करते थे तथा लड़कियों पर कम ध्यान देते थे। अतः मास्टर दा और उनके साथियों ने अपने संगठन में लड़कियों को स्थान देने का निश्चय किया।

प्रीतिलता और उसकी एक सहेली कल्पना दत्त इसी अवसर की तलाश में थीं। वे दोनों चटगाँव के एक स्थानीय क्रान्तिकारी मनोरंजन राय से मिलीं और उन्होंने मनोरंजन राय से संगठन में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की। मनोरंजन बाबू तो ऐसी लड़कियों की तलाश में थे। उन्होंने मास्टर दा से अनुमति ली और प्रीतिलता एवं उसकी सहेली कल्पना दत्त को अपने क्रान्तिकारी संगठन में सम्मिलित कर लिया।

इसी समय प्रीतिलता बंगाल के विख्यात क्रान्तिकारी रामकृष्ण विश्वास के संपर्क में आयी। रामकृष्ण विश्वास को अलीपुर की केन्द्रीय जेल में रखा गया था एवं फाँसी की सजा सुनायी जा चुकी थी। प्रीतिलता विश्वास की छोटी बहन बनकर केन्द्रीय जेल में लगभग चालीस बार श्री विश्वास से मिली तथा उनसे कई बातें मालूम कीं। श्री विश्वास ने ही प्रीतिलता को क्रान्ति की पहली शिक्षा दी। 4 अगस्त, 1931 को अलीपुर के केद्रीय कारागार में श्रीविश्वास को फाँसी दे दी गयी।

मास्टर दा ने प्रीतिलता और रामकृष्ण विश्वास की मुलाकात को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना तथा इससे उन्हें प्रीतिलता की विलक्षण क्षमताओं और प्रखर देशभक्ति की भावना का पता चला। वह कुछ समय तक सोच-विचार करते रहे और अंत में उन्होंने प्रीतिलता से मिलने का निश्चय किया तथा उसे चटगाँव आने का निमंत्रण दिया।

प्रीतिलता इस समय कलकत्ता में थी। उसने सन 1932 में कलकत्ते के बेथुन कालेज से बी. ए. पास किया और चटगाँव आ गयी। यहाँ उसे शीघ्र ही नंदन कानन गर्ल्स हाईस्कूल में प्रधानाध्यापिका की नौकरी मिल गयी। इसी समय उसकी सहेली कल्पना दत्त भी चटगाँव आ गयी।

मास्टर दा चटगाँव के छलघाट गाँव में सावित्री मौसी के घर पर गुप्त रूप से रहते थे। सावित्री मौसी के निवास का नाम था-आश्रम । उस समय बंगाल के क्रान्तिकारी अपने गुप्त निवास को आश्रम ही कहते थे। सावित्री मौसी के आश्रम पर मास्टर दा के साथ ही अपूर्व सेन और निर्मल दा ने अपना अस्थायी अड्डा बना लिया था।

13 जून, 1932 को प्रीतिलता और मास्टर दा सावित्री मौसी के निवास पर मिले और उनके बीच काफी समय तक महत्त्वपूर्ण चर्चाएँ हुईं। इसके बाद प्रीतिलता क्रान्तिकारियों के साथ मिल कर काम करने लगी तथा उसका मास्टर दा से मिलने का क्रम आरम्भ हो गया।

मास्टर दा और उनके साथी क्रान्तिकारी प्रायः रात दस बजे के बाद आश्रम से बाहर निकलते थे और रात के अंधेरे में अपने क्रान्तिकारी कार्यों को अंजाम देते थे। किसी तरह यह बात अंग्रेज अधिकरी कैप्टन कैमारून को मालूम हो गयी।

एक दिन रात्रि के दस बजे मास्टर दा और उनके साथी आश्रम से बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे। प्रीतिलता भी उनके साथ थी। सभी क्रान्तिकारियों ने अपनी-अपनी पिस्तौलें सँभालीं और नीचे की मंजिल पर आ गये। मास्टर दा अभी ऊपर ही थे।

अचानक पुलिस की गोलियों से सारा इलाका गूंज उठा।

कैप्टन कैमारून ने आश्रम अर्थात सावित्री मौसी के घर को चारों ओर से घेर लिया था और उसी के आदेश पर पुलिस के सिपाही गोलियाँ चला रहे थे।

कुछ ही क्षणों में कैप्टन कैमारून सहित पुलिस के सिपाही आश्रम के भीतर आ गये और क्रान्तिकारियों पर गोलियाँ बरसाने लगे। क्रांतिकारियों ने भी जवाब में गोलियाँ चलायीं।

इस लड़ाई में निर्मल दा और अपूर्व सेन शहीद हो गये। किंतु मास्टर दा और प्रीतिलता किसी तरह बच गये। मास्टर दा आश्रम के पीछे के रास्ते से भाग निकले और उन्होंने प्रीतिलता को जेष्ठपुर गांव के एक आश्रम में सुरक्षित पहुँचा दिया। प्रीतिलता को रात के अंधेरे में पुलिस नहीं देख सकी थी। अतः वह चटगाँव आ गयी और पहले की तरह प्रधानाध्यापिका का कार्य करने लगी।

प्रीतिलता अध्यापन कार्य करने के साथ ही साथ क्रान्तिकारी गतिविधियों में निरंतर भाग लेती रहती थी। अतः पुलिस की नजरों से अधिक समय तक नहीं बच सकी। इसकी सूचना किसी तरह से मास्टर दा को मिल गयी। मास्टर दा ने प्रीतिलता को नौकरी छोड़ने का आदेश दिया तथा भूमिगत हो जाने की सलाह दी।

चटगाँव में अंग्रेजों का एक क्लब था-यूरोपियन क्लब । यहाँ हमेशा शाम होते ही अंग्रेज अधिकारी पहुँचने आरम्भ हो जाते। ये लोग रातभर शराब पीते, नाचते-गाते, मौजमस्ती करते और क्रान्तिकारियों को तहस-नहस करने की योजनाएँ बनाते। यूरोपियन क्लब में इतना कठोर पहरा रहता था कि कोई परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था।

मास्टर दा और उनके साथी यूरोपियन क्लब की गतिविधियों से भलीभाँति परिचित थे। एक बार उन्होंने क्लब पर हमला करने की योजना बनायी। 10 अगस्त, 1932 को क्रान्तिकारी शैलेश्वर चक्रवर्ती के नेतृत्व में पाँच क्रान्तिकारियों का एक दल यूरोपियन क्लब पहुँचा। किंतु किन्हीं कारणों से ये लोग क्लब पर आक्रमण न कर सके और वापस लौट गये। इस असफलता से शैलेश्वर चक्रवर्ती को इतनी ग्लानि हुई कि उन्होंने पोटेशियम साइनाइड खाकर आत्मोसर्ग कर लिया।

इसके बाद मास्टर दा ने यूरोपियन क्लब पर आक्रमण करने के लिए प्रीतिलता के नेतृत्व में पाँच क्रान्तिकारियों का दल बनाया। किंतु आक्रमण की पूर्व निर्धारित तिथि से मात्र एक दिन पहले 17 सितंबर 1932 को प्रीतिलता की सहेली कल्पनादत्त क्लब के पास ही पुरुष वेश में पकड़ी गयी। इससे दूसरी बार भी आक्रमण की योजना असफल हो गयी।

अब मास्टर दा ने 24 सितम्बर, 1932 को यूरोपियन क्लब पर हमला करने का निश्चय किया। इस बार भी नेतृत्व का कार्य प्रीतिलता को सौंपा गया। प्रीतिलता के साथ अन्य सात क्रान्तिकारी साथी भी थे, जो पूरी तरह मर मिटने को तैयार थे।

क्रान्तिकारियों ने यूरोपियन क्लब के एक बेयरे जयदत्त को मिला लिया था। इसी बेयरे के संकेत पर प्रीतिलता और उसके साथियों ने यूरोपियन क्लब पर रात 10 बजे धावा बोला। जम कर बमों और गोलियों की वर्षा हुई। अंग्रेज बड़ी संख्या में घायल हुए और सारा क्षेत्र उनकी चीख-पुकार से काँप उठा। इस क्रान्तिकारी अभियान में प्रीतिलता को भरपूर सफलता मिली, किंतु उसे एक फौजी अफसर की गोली लग गयी।

प्रीतिलता जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं पड़ना चाहती थी। अतः उसने अपने एक क्रान्तिकारी साथी को अपनी पिस्तौल दी और उससे पोटेशियम साइनाइड लेकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।

प्रीतिलता की लड़ाई केवल अंग्रेजों से नहीं थी। वह अपने साथियों से हमेशा कहा करती थी कि - "हमारी लड़ाई शोषण के विरुद्ध है। अंग्रेज भारत का शोषण कर रहे हैं, अतः हम अंग्रेजों से लड़ रहे हैं। भारत के आजाद होने के बाद भी हमारी लड़ाई समाप्त नहीं होगी। भारत में जब तक शोषण रहेगा, हमारी लड़ाई जारी रहेगी।"

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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