The Daughter of Naiki Devi and wife of Raja Samar Sing Rawal of Chittorgarh Rani Kurma Devi, Contribution of Hindu Women Warrior, Bharat Ki Viranganayein.
Bharat Ki Mahan Virangana
वीरांगना कूर्मदेवी शौर्य गाथाएं : भारतीय वीरांगनाओं की ये शौर्य गाथाओं में इतिहासकारों द्वारा इन पर विशेष ध्यान न दिये जाने वाली भरता की महान वीरांगना चित्तौड़गढ़ की महारानी कूर्मदेवी के बारे में जानकारी पढ़िए। युद्धभूमि में शक्तिशाली शत्रुओं से टकराने वाली और शत्रुओं को धूल चटाने वाली भारतीय वीरांगना kurma devi biography in Hindi.
Great Woman Warrior Maharani Kurma Devi
वीरांगना कूर्मदेवी
युद्धभूमि में शक्तिशाली शत्रुओं से टकराने वाली और शत्रुओं को धूल चटाने वाली भारतीय वीरांगनाओं में बहुत-सी वीरांगनाएँ ऐसी हैं, जिनके विषय में अधिकांश भारतीय लोगों को कोई जानकारी नहीं है। इन वीरांगनाओं ने शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण करने पर धैर्य और बुद्धि से काम लिया, अपनी सैन्यशक्ति को संगठित किया और युद्ध के मोर्चे पर पहुँच कर दुश्मन को बुरी तरह परास्त किया। किन्तु इतिहासकारों द्वारा इन पर विशेष ध्यान न दिये जाने के कारण इनके नाम अतीत के अंधेरों में गुम हो गये। ऐसी भारतीय वीरांगनाओं में एक नाम है-वीरांगना कूर्म देवी।
वीरांगना कूर्मदेवी का जन्म पट्टन के राजपरिवार में हुआ था। वह बचपन से ही बड़ी रूपवान और बुद्धिमान थी। कूर्मदेवी को पुरुषों के समान शस्त्रविद्या में बड़ी रुचि थी। उसने बचपन से ही तलवारबाजी, धनुर्विद्या और घुड़सवारी आदि की शिक्षा ली और युवा होने के पूर्व ही एक कुशल योद्धा बन गयी। कूर्मदेवी को भाला फेंकने की कला में विशेष महारत हासिल था। उसका फेंका हुआ भाला हमेशा निशाने पर ही लगता था।
कूर्मदेवी के युवा होने पर पट्टन नरेश को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। वह अपनी बेटी के समान ही धैर्यवान, साहसी और बहादुर व्यक्ति की तलाश में थे।
इस समय चित्तौड़ में राणा समरसिंह का शासन था। राणा समरसिंह बड़े धैर्यवान और वीर पुरुष थे। उन्होंने कूर्मदेवी के गुणों के विषय में सुना तो पट्टन नरेश के पास विवाह प्रस्ताव भेजा।
पट्टन नरेश इस विवाह प्रस्ताव को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। वह अपनी बेटी कूर्मदेवी के लिए ऐसा ही वर चाहते थे। पट्टन नरेश ने राणा समरसिंह का विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और शीघ्र ही उनके साथ अपनी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से कर दिया।
भारत में उस समय मुस्लिम आक्रामकों के हमले आरम्भ हो गये थे। ये विदेशी लुटेरे आंधी तूफान की तरह भारत आते, हत्याएं और लूटमार करते और जिस तेजी से आते उसी तेजी से लौट जाते। इन आक्रामकों में शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी प्रमुख था। मुहम्मद गोरी ने भारत पर कई बार आक्रमण किये। वह भारत को बुरी तरह बर्बाद करने पर तुला था।
मुहम्मद गौरी दिल्ली पर अनेक बार आक्रमण कर चुका था तथा हर बार दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान से बुरी तरह हारा था। किन्तु मुहम्मद गौरी भी एक जिद्दी लुटेरा था। उसने मन ही मन दिल्ली फतह करने का निश्चय कर लिया था।
एक बार मुहम्मद गौरी ने एक विशाल सेना एकत्रित की और दिल्ली पर हमला किया। महाराज पृथ्वीराज इस हमले के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने सोचा था कि अनेक बार हारा हुआ लुटेरा अब आक्रमण करने का साहस कभी नहीं करेगा।
महाराज पृथ्वीराज ने अपनी सेना तैयार की और चित्तौड़ के राजा समरसिंह को युद्ध में साथ देने के लिए संदेश भेजा।
राणा समरसिंह पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र थे, अतः उन्होंने भी शीघ्र ही अपनी सेना तैयार की और युद्ध के मैदान में आ पहुँचे। दोनों पक्षों की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ, किन्तु दुर्भाग्य से इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान और राणा समरसिंह दोनों मारे गये तथा मुहम्मद गौरी की विजय हुई।
दिल्ली को जीतने के बाद मुहम्मद गौरी ने जमकर लूट-पाट आरम्भ कर दी। उसने धनाढ्य व्यक्तियों के साथ ही मंदिरों को भी लूटा। लूटमार का यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा।
दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों को लूटने के बाद मुहम्मद गौरी की सेनाएँ चित्तौड़ की ओर बढ़ीं। चित्तौड़ के शासक राणा समरसिंह ने पृथ्वीराज चौहान का साथ दिया था और गौरी के विरुद्ध युद्ध किया था, अतः उसने चित्तौड़ को अपना शत्रु मान लिया था। इधर राणा समरसिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे को राजगद्दी पर बैठा दिया गया था, किन्तु राज्य की बागडोर राणा समरसिंह की पत्नी रानी कूर्मदेवी के हाथों में थी।
कूर्मदेवी बचपन से ही बड़ी निडर, साहसी और बुद्धिमान थी। वह अपने पति राणा समरसिंह के जीवन काल में ही चित्तौड़ की प्रजा में बहुत लोकप्रिय हो गयी थी। कूर्मदेवी बड़ी न्यायप्रिय थी, अतः चित्तौड़वासी उसे बहुत पसन्द करते थे, सदैव उसका सम्मान करते थे और उसके लिए मर मिटने को तैयार रहते थे।
मुहम्मद गौरी की सेनाओं ने चित्तौड़ पहुँच कर चित्तौड़ के किले को चारों ओर से घेर लिया और अराजकता फैलाने के लिए नगर में मारकाट एवं लूटमार आरम्भ कर दी।
कूर्मदेवी मुहम्मद गौरी की शक्ति से परिचित थी। इसी मुहम्मद गौरी ने उसके पति राणा समरसिंह की हत्या की थी और उसे विधवा बनाया था, अतः वह इस दुष्ट आततायी को कभी क्षमा नहीं कर सकती थी।
कूर्मदेवी ने अपनी सेनाओं को तैयार करके किले के महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर तैनात किया और स्वयं पुरुष योद्धाओं की तरह अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर युद्ध का संचालन करने लगी।
मुहम्मद गौरी के पास विशाल सेना थी तथा उसके सैनिकों को युद्ध का काफी अनुभव था। दूसरी ओर राजपूत सैनिक संख्या में बहुत कम थे तथा उन्हें युद्ध का विशेष अनुभव नहीं था। किन्तु उनके हृदय में देशभक्ति की आग जल रही थी। वे मुहम्मद गौरी की सेना को परास्त कर अपने स्वामी राणा समरसिंह की मृत्यु का बदला लेना चाहते थे।
दोनों पक्षों में शीघ्र ही भयानक युद्ध आरम्भ हो गया। मुहम्मद गौरी के सैनिक चित्तौड़ के किले पर तोपों से गोले बरसा रहे थे और चित्तौड़ के सैनिक किले के भीतर से तुर्क सैनिकों पर बाणों की वर्षा कर रहे थे।
मुहम्मद गौरी के सैनिक खुले मैदान में थे और चित्तौड़ के सैनिक किले के भीतर। अतः मुहम्मद गौरी के सैनिक बड़ी संख्या में मारे जा रहे थे। इससे शीघ्र ही मुहम्मद गौरी की सेना के पैर उखड़ने लगे। चित्तौड़ की प्रजा भी रानी कूर्मदेवी के साथ थी, अतः मुहम्मद गौरी को कोई ऐसा भेदिया नहीं मिल रहा था जो किले के भीतर प्रवेश करने में उसकी सहायता करता।
इसके साथ ही मुहम्मद गौरी की सेना एक लम्बे समय से युद्ध कर रही थी, अतः बुरी तरह थक चुकी थी। दूसरी ओर चित्तौड़ के सैनिक अपनी वीरांगना रानी कूर्मदेवी के संरक्षण में राणा समरसिंह का बदला लेने के लिए बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। अतः शीघ्र ही मुहम्मद गौरी की सेना हताश होने लगी। मुहम्मद गौरी के कुछ सैनिक तो इतने थक चुके थे कि उन्होंने युद्ध करने से ही उन्कार कर दिया। इससे मुहम्मद गौरी की स्थिति पूरी तरह बदल गयी ।
रानी कूर्मदेवी इसी अवसर की तलाश में थी। उसे जैसे ही मुहम्मद गौरी की सेनाओं की बुरी स्थिति का समाचार मिला, वह अपने सैनिकों के साथ किले से बाहर निकली और मुहम्मद गौरी की सेना पर टूट पड़ी।
अचानक आयी इस विपत्ति से मुहम्मद गौरी के सैनिकों में भगदड़ मच गयी। बहुत से सैनिक मारे गये और जो बचे वे अपने प्राण बचाकर भागे। मुहम्मद गौरी ने अपनी सेना की यह स्थिति देखी तो वह भी सर पर पाँव रखकर भागा। रानी कूर्मदेवी और उसके सैनिकों ने मुहम्मद गौरी का पीछा किया। किन्तु वह भागने में सफल रहा। अपने शत्रु और उसके सैनिकों को बुरी तरह परास्त कर रानी कूर्मदेवी वापस किले के भीतर आ गयी।
चित्तौड़ की प्रजा ने रानी कूर्मदेवी की जीत पर खुशियाँ मनायीं और घी के दीपक जलाये। रानी कूर्मदेवी ने भी अपने सैनिकों के साथ विजयपर्व का आयोजन किया और अपने बहादुर सैनिकों को कीमती उपहार दिये।
आज रानी कूर्मदेवी नहीं है, किन्तु उसका नाम अमर है। चित्तौड़वासी आज भी अपनी वीरांगना रानी कूर्मदेवी को बड़ी श्रद्धा और सम्मान के साथ याद करते हैं।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
ये भी पढ़ें; मेवाड़ की वीरांगना का बलिदान : राजकुमारी कृष्णा