वीरांगना कनकलता बरुआ : Kanaklata Barua

Dr. Mulla Adam Ali
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वीरांगना कनकलता बरुआ: छोटी सी उम्र में शहीद होनेवाली भारतीय क्रांतिकारी कनकलता बरुआ, जिन्होंने तिरंगे के लिए अपना प्राण त्याग दिया है। कनकलता बरुआ जीवनी, भारत की महान महिला स्वतंत्रता सेनानी, आजादी का अमृत महोत्सव, भारतीय वीरांगनाएं।

Kanaklata Barua : Youngest Activist in India

वीरांगना कनकलता

अंग्रेजी शासन के अत्याचारों और शोषण ने भारत में विरोध की एक आग सी फूंक दी। बंगाल, बिहार उत्तरप्रदेश, पंजाब आदि सभी राज्यों में अंग्रेजों के विरुद्ध बहुत बड़े स्तर पर प्रदर्शन होने लगे। इन प्रदर्शनों में स्त्री-पुरुष, युवक, वृद्ध सभी थे। स्कूल और कालेज के छात्र-छात्राएँ भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध खुल कर भाग ले रहे थे। विरोध की यह ज्वाला पूर्वोत्तर तक पहुँच चुकी थी और आसाम, मिजोरम, त्रिपुरा आदि में अंग्रेजों का विरोध आरम्भ हो गया था। आसाम में मुकुन्द काकोती, हेमकान्त बरुआ, खगेश्वर बरुआ शुलेश्वर राजखोआ, भोला बार दोलाई आदि स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गाँधी के सिद्धांतों पर चलते हुए अंग्रेजों के खिलाफ सभाएँ कर रहे थे। रैलियाँ निकाल रहे थे और इसी प्रकार के अन्य तरीकों से अहिंसक प्रदर्शन कर रहे थे। इन्हीं क्रान्तिकारियों में एक थी-कनकलता।

कनकलता का पूरा नाम कनकलता बरुआ था। उसका जन्म आसाम के बारंगबारी ग्राम के एक साधारण परिवार में हुआ था। कनकलता के पिता श्री कृष्णकान्त बरुआ और माता श्रीमती कर्णेश्वरी देवी थीं। दोनों ही बड़े प्रगतिशील विचारों के थे और अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाना चाहते थे। किंतु कनकलता अभी कक्षा पाँच में ही थी कि उसकी माता कर्णेश्वरी देवी का देहांत हो गया।

माता कर्णेश्वरी देवी की असामयिक मृत्यु से कनकलता को बड़ा आघात लगा। किंतु पिता श्री कृष्णकांत ने उसे बड़ी सान्त्वना दी और उसकी पढ़ाई जारी रखी। इतना ही नहीं, कनकलता को घर के कामकाज से बचाने के लिए उन्होंने दूसरा विवाह भी कर लिया। कनकलता की पढ़ाई पुनः ठीक से चलने लगी, किंतु दुर्भाग्य तो कनकलता के पीछे पड़ा था। अभी कनकलता चौदह वर्ष की ही थी कि उसके पिता भी चल बसे। इससे बालिका कनकलता के कंधों पर पूरे परिवार का बोझ आ पड़ा। परिवार में उसके दादा-दादी तथा भाई-बहन सभी थे। कनकलता ने इस विषम परिस्थिति में बड़े धैर्य और साहस से कार्य किया और पूरे घर-परिवार को संभालने के साथ ही पढ़ाई भी करती रही।

कनकलत्ता के मामा श्री देवेन्द्रनाथ महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे और अपना सब कुछ छोड़कर भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े थे। कनकलता देवेन्द्र नाथ को अपना आदर्श मानती थी और वह भी उन्हीं के समान देश के लिए कुछ करना चाहती थी। अतः बहुत छोटी आयु से ही वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सभाओं में भाग लेने लगी।

एक बार मई, 1939 में विख्यात कवि एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ज्योति प्रसाद अग्रवाल की अध्यक्षता में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का एक अधिवेशन हुआ, जिसमें अनके असमिया स्वतंत्रता सेनानी भी सम्मिलित हुए। इनमें कनकलता भी थी।

अंग्रेज सरकार ने इस अधिवेशन और इसमें पास होने वाले प्रस्तावों को बड़ी गंभीरता से लिया और अधिवेशन में भाग लेने वाले सभी प्रमुख नेताओं को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इसका पूरे आसाम पर प्रभाव पड़ा और पूर्वोत्तर की जनता भड़क उठी तथा पूरे आसाम में अंगेजी शासन के विरोध में प्रदर्शन होने लगे।

3 अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में महात्मा गाँधी का भारत छोड़ो प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। इससे पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध रैलियाँ, सभाएँ और जनआंदोलन आरम्भ हो गये। आसाम के गाँधीवादी नेता गोपीनाथ बारदोलाई, सिद्धनाथ शर्मा, विष्णुराम मेघी, मौलाना तैयबुल्ला आदि बंबई से आसाम लौटते समय रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिए गये।

अंग्रेज सरकार समझती थी कि कांग्रेस के नेताओं को जेल में ठूंस कर वह भारत छोड़ो आंदोलन को कुचल देगी, किंतु यह उसकी भूल थी। अंग्रेजों ने आंदोलन को कुचलने का जितना ही प्रयास किया, आंदोलन उतना ही और तेजी से भड़का। आसाम में इस समय नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की सेना आगे बढ़ रही थी। इससे आसाम की जनता का मनोबल बढ़ा और आसाम के लोग ज्योतिप्रसाद अग्रवाल के नेतृत्व में संगठित होने लगे।

ज्योतिप्रसाद अग्रवाल एक समर्पित गाँधीवादी नेता थे। उन्होंने अपने क्षेत्र के कुशल कार्यकर्ताओं को चुना और उनकी एक गुप्त सभा की। इस गुप्त सभा में यह निर्णय लिया गया कि 20 सितंबर, 1942 को तेजपुर उप संभाग की सभी पुलिस चौकियों तथा 21 सितंबर को तेजपुर के न्यायालय एवं कचहरी पर तिरंगा फहराया जाएगा। ज्योतिप्रसाद अग्रवाल द्वारा आमंत्रित कार्यकर्ताओं में कनकलता भी थी।

कनकलता के दादा-दादी उसके विवाह के लिए चिंतित थे। उन्हें युवा कनकलता का इस प्रकार की सभाओं में जाना अच्छा नहीं लगता था। किंतु कनकलता के हृदय में तो देश की आजादी की ज्वाला धधक रही थी, अतः उसने दादा-दादी की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

अगले दिन से ही तेजपुर के गाँधीवादी कार्यकर्ता लोगों से व्यक्तिगत सम्पर्क करने लगे। वे लोगों के घरों में जाते और स्त्री-पुरुष सभी से मिलते तथा उन्हें 20 सितंबर के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए प्रेरित करते। गाँधीवादी कार्यकर्ताओं के प्रयास का तेजपुर की जनता पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा तथा लोग बहुत बड़ी संख्या में जुलूस में सम्मिलित होने के लिए तैयार होने लगे।

20 सितंबर, 1942।

तेजपुर उपसम्भाग में हजारों की भीड़ एकत्रित हो गयी। इस भीड़ में तेजपुर की सामान्य जनता के साथ ही कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता भी थे तथा इन सबका नेतृत्व कर रही थी-कनकलता।

कनकलता सबसे आगे थी। उसके हाथों में तिरंगा था। यह तिरंगा उसे गोहपुर पुलिस चौकी पर फहराना था। तिरंगा फहराने के लिए गोहपुर पुलिस चौकी का चयन बहुत सोच-विचार के बाद किया गया था। गोहपुर की विशाल चौकी चार इमारतों में फैली हुई थी। इसके पास ही लोकनिर्माण विभाग, वनविभाग तथा सब डिवीजनल अधिकारी आदि के कार्यालय थे।

पूर्व निश्चित योजना के अनुसार जुलूस में सम्मिलित होने वाले सभी लोग कनकलता के पैतृक गाँव बारंगवारी में एकत्रित हुए और कुछ ही समय में एक विशाल जनसमूह गोहपुर के लिए चल पड़ा। जुलूस के लोग 'भारत माता की जय हो' महात्मा गाँधी जिन्दाबाद अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे।

कनकलता को बारंगबारी से गोहपुर तक आने में किसी प्रकार के अवरोध का सामना नहीं करना पड़ा। इसी समय आन्दोलनकारियों का दूसरा दल भी कालाबारी होते हुए गोहपुर आ पहुँचा। निर्णय की घड़ी आ गयी।

विशाल जनसमूह का नेतृत्व करती, अपने हाथों में तिंरगा थामे हुए कनकलता गोहपुर पुलिस चौकी की ओर आगे बढ़ी। इसी समय अपने पुलिस बल के साथ चौकी प्रभारी श्री आर. एम. सोम सामने आ गये और उन्होंने जुलूस को रोकने का प्रयास किया।

कनकलता ने बुद्धि और साहस से काम लिया। हिंसा उसके सिद्धांतों के विरुद्ध थी। वह चाहती तो हिंसक ढंग से आगे बढ़कर गोहपुर की चौकी पर तिरंगा फहरा सकती थी, किंतु उसने ऐसा नहीं किया। उसने चौकी प्रभारी सोम को ऊपर से नीचे तक देखा फिर बड़ी विनम्रता से बोली- "भाई ! हमारी आपसे कोई शत्रुता नहीं है। हम अंग्रेजों के प्रति अपना विरोध प्रकट करना चाहते हैं। अतः आप हमारे रास्ते से हट जाइए और हमें अपना काम करने दीजिए। हम अपना काम करके शांतिपूर्वक लौट जाएंगे।

चौकी प्रभारी सोम भी एक कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी था। उसने कनकलता और उसके साथियों को आगे न बढ़ने की चेतावनी दी और चेतावनी पर ध्यान न देने पर गोली चलाने की धमकी दी।

इसी समय सोम के पास खड़े बोगाई कचाई नामक एक गद्दार ने अवसर देख कर कनकलता पर गोली चला दी। कचाई अंग्रेजों का मुखबिर था तथा कनकलता को अपना शत्रु मानता था। इस घटना के बाद शीघ्र ही कचाई पागल हो गया और उसने कुएँ में कूद कर आत्महत्या कर ली।

कनकलता के सीने पर गोली लगी थी। अतः वह तुरंत जमीन पर गिर पड़ी। कनकलता के गिरते ही श्री मुकुंदकाकोती ने उसके हाथों से तिरंगा ले लिया और आगे बढ़े।

आंदोलनकारियों को आगे बढ़ते देखकर चौकी प्रभारी सोम भी अधिक समय तक शांत नहीं रह सका। उसने भी निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया।

बड़ा हृदय विदारक रोमांचक दृश्य था। एक ओर पुलिस निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ बरसा रही थी और दूसरी ओर आंदोलनकारी महात्मा गाँधी की जय बोलते हुए आगे बढ़ रहे थे।

अचानक पुलिस की एक गोली मुकुन्द काकोती के सीने में लगी और वह भी जमीन पर गिर पड़े। मुकुन्द काकोती के गिरते ही रामपति राजखोआ आगे बढ़े और उन्होंने तिरंगा अपने हाथों में ले लिया।

गोहपुर की पुलिस चौकी अब सामने ही थी। कनकलता के साथी आंदोलनकारी अब चौकी तक पहुँच ही चुके थे।

अचानक रामपति राजखोआ तेजी से आगे बढ़े और उन्होंने ऊपर की मंजिल पर जाकर गोहपुर पुलिस चौकी पर तिरंगा फहरा दिया।

अपना कार्य पूरा करने के बाद सभी आंदोलनकारी कनकलता का मृत शरीर लेकर बारंगबारी लौट आये। उन्होंने एक क्रान्तिकारी की तरह सम्मानपूर्ण ढंग से कनकलंता का दाह संस्कार किया।

भारत की आजादी के बाद कनकलता की स्मृति में बारंगबारी में कनकलता मॉडल हाईस्कूल का निर्माण किया गया। यह स्कूल उसी स्थान पर बनाया गया है, जहाँ कनकलता का अन्तिम संस्कार किया गया था।

आज कनकलता नहीं है किंतु उसने साहस और बहादुरी की एक ऐसी मिसाल कायम की है, जिसे भारतवासी कभी नहीं भूल सकते। आज भी आसाम ही नहीं, संपूर्ण भारत के लोग जब कभी बारंगबारी पहुँचते हैं, तो उनके सर कनकलता के त्याग और बलिदान के सम्मुख श्रद्धा से झुक जाते हैं।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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