मौत के खिलाफ लगाई गई छलांग : आखिरी छलांग

Dr. Mulla Adam Ali
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Akhiri Challang Novel by Shivmurti

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शिवमूर्ति का उपन्यास आखिरी छलांग समीक्षा

मौत के खिलाफ लगाई गई छलांग

आखिरी छलांग

भारत में शहरीकरण और उदारीकरण की बदौलत एक ओर खेती की जमीन का प्रतिशत सिकुड़ता जा रहा है तो दूसरी ओर किसानों की समस्याएँ कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। बाजारवादी व्यवस्था और सरकारी नीति किसानों को धीरे-धीरे खोखला बना रही है। बाजारवादी व्यवस्था का सबसे घातक असर किसानों पर हो रहा है। कई राहत पैकेजों के बावजूद किसानों की आत्महत्याएँ हो रही हैं। इसमें संख्यात्मक कमी भले ही दिखाई गई हो लेकिन कृषि कारणों से आत्महत्याएँ हो रही हैं। किसानों के लिए आत्महत्या की जमीन तैयार हो रही है। नए आँकडों के अनुसार तो महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ हो रही हैं। भारत का कैलिफोर्निया कहलाने वाला विदर्भ अंचल इन दिनों किसानों की आत्महत्यााओं के लिए जाना जा रहा है। महाराष्ट्र के साथ ही साथ आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और अन्य राज्यों में भी किसानों की आत्महत्याएँ हो रही हैं। नई व्यवस्था में किसानों का जीवन धूसर हो रहा है। विडंबना यह है कि घोटालों और बिलों पर चर्चा हो रही है। लेकिन किसानों की दुर्दशा पर ध्यान देने के लिए किसी के पास फुर्सत नहीं है। इस पर आज बहुत कम लिखा जा रहा है। किंतु किसान जीवन की त्रासदी को आधार बनाकर लिखने का हिम्मत वाला काम शिवमूर्ति ने किया है।

शिवमूर्ति हिंदी के ख्यात ग्रामीण साहित्यकार हैं। उन्हें मूलतः कहानीकार के रूप में जाना जाता है। उन पर फणीश्वरनाथ रेणु का पर्याप्त प्रभाव रहा है। उनका 'आखिरी छलाँग' उपन्यास 'नया ज्ञानोदय' के जनवरी 2008 वाले अंक में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में शिवमूर्ति जी ने किसान जीवन की त्रासदी को मार्मिक ढंग से प्रकट किया है। यह उपन्यास किसान जीवन के मर्मांतक संघर्ष को प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में केवल यथार्थ ही नहीं है वरन् आशावाद का भी चित्रण हुआ है। बाजारवाद के दौर में जिन किसानों का जीवन नाश के कगार पर पहुँचा है उनके बारे में हिंदी के किसी महत्त्वपूर्ण लेखक ने पहली बार इतनी गंभीरता से लिखने का साहस किया है।

'आखिरी छलाँग' उपन्यास का कथानक परस्पर उलझी हुई किसान जीवन की अनेक समस्याओं का - जंजाल है। कथानक का आधार पूर्वी उत्तर प्रदेश का ग्रामांचल है। इसका चरित नायक पहलवान है। वह एक - किसान है। उसके सामने विरासत में मिली तथा नयी विकास नीतियों के कारण निर्मित अनेक समस्याएँ हैं। वह अपनी सयानी बेटी के लिए दो साल से वर खोज रहा है। लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही है। बेटे की इंजीनियरिंग की फीस का जुगाड़ नहीं हो रहा है। तीन साल हो गए फिर भी गन्ने का बकाया नहीं मिल रहा है। पहली बेटी की शादी के समय खेत रेहन पड़ा है। सोसायटी के खाद के लिए लिया गया कर्ज़ चुकता नहीं हुआ है। हर दूसरे महीने में ट्यूबवेल के बिल की तलवार सिर पर लटक जाती है। ऐसी कई समस्याओं के कारण पहलवान का मन रोज- रोज छोटा होता है। पिछले कुछ बरस से उसके मन का बोझ धीरे-धीरे बढ़ा है। इससे उसकी हँसी भी बेआवाज लग रही है। उम्र न होते हुए भी समस्याओं के बोझ से वह पुरखा बन रहा है। पहलवान महसूस करता है कि जैसे नहर के पेट के भीतर सिल्ट भर जाती है उसी तरह किसान की तकदीर में भी साल दर साल सिल्ट भरती जा रही है। अपनी किसान जीवन की समस्याओं से तंग आकर वह इस व्यवस्था से प्रश्न करता है कि "सारे हालात तो मर जाने के हैं। जिंदा कैसे रहा जाए !"¹

पहलवान के माध्यम से किसान जीवन की दुर्दशा को प्रस्तुत करते हुए उपन्यासकार शिवमूर्ति जी ने किसान जीवन से जुड़ी विविध समस्याओं को चित्रित किया है। पी. साईनाथ की रिपोर्ट के अनुसार किसान की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार स्त्रोत - "कर्ज़ तथा फ़सल का पैदा न होना, बेटी के विवाह का खर्च न उठा सकना और स्वास्थ्य का बढ़ता हुआ खर्च हैं।"² इनके साथ ही साथ जातिवाद, बाजारवाद, सरकारी नीतियों, सगाई, सहकार क्षेत्र की दुर्दशा आदि कई समस्याओं को इस उपन्यास में उठाया गया है। महंगाई भी अब किसान को परेशान कर रही है। महंगाई के कारण किसान का जीना मुश्किल बन गया है। महंगाई को देखकर पहलवान को अपने बाबा द्वारा गाए जाने वाले गीत की कड़ी याद आती है - 

"महंगाई के मारे विरह विसरिगा, भूलि गयी कजरी कवीर।

देखिके गोरिया के उपदल जोबनवा, उठे न करेजवा मा पीर।"³

पहलवान सोचता है कि जैसे गड्ढे से खोदी गई मिट्टी उसी गड्डे को भरने के लिए पूरी नहीं पडली वैसे ही खेती की आमदनी खेती-किसानी के खर्चे भर को भी नहीं अंटती। खाद, पानी और बिजली की कमी, बैलों की कम होती संख्या, बीज और दवाओं में नकल, शिक्षा क्षेत्र की महंगाई, अपनी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए कर्ज लेने की नीवत ऐसी कई समस्याएँ किसानों को परेशान कर रही हैं।

जमींदार के जमाने में किसानों का शोषण किया जाता था, उसको जेठ की धूप में मुर्गा बनाया जाता था, कोड़े से पिटवाया जाता था। वह जमींदारों का जमाना था। किंतु आज इतने दिन बाद भी किसान की जिंदगी में बहुत कुछ नहीं बदला। उसका शोषण हो रहा है। पैसे वसूलने के लिए कानून का सिर्फ किसानों, मजदूरों के लिए इस्तेमाल हो रहा है। किसानों के नए सिरे से होने वाले शोषण को अब तो पहचानना भी मुश्किल हो रहा है। इन परिस्थितियों के कारण किसानों के मन में घिरा अंधेरा बाहर के अंधेरे से भी ज्यादा घना हो रहा है। इससे तंग आकर किसन पहलवान कहता है कि "किसान के घर में जन्म लेकर न पहले कोई सुखी रहा है न आगे कोई रहेगा। इन्हीं परिस्थितियों में जिंदगी की नाव खेना है।"⁴

पहलवान अपनी दरिद्रता को भगाने के अनेक प्रयास करता है। लेकिन उसमें वह सफल नहीं हो पाता। उसे किसान की गृहस्थी पाइथागोरस के प्रमेय से भी कठिन लगती है। यह सोचता है कि किसान औरी दरिद्रता का नाता अटूट है उसे कोई कैसे तोड़ सकता है ? कभी- कभी पहलवान को बहुत गुस्सा आता है। उसे लगता है कि सबको लाठी उठाकर पीट डाले। गाँव के हिस्से की बिजली लेने वालों, मिलावटी खाद और नकली कीटकनाशक बेचने वालों तथा किसानों का शोषण करने वालों को वह पीटना चाहता है। पर उसके लिए उसकी लाठी उसे बहुत ही छोटी लगती है।

अनेक प्रयासों के बावजूद पहलवान जब अपनी समस्याओं से छुटकारा नहीं पाता तब उसे चिंता सताने लगती है। उसके सपने में आत्महत्या किए हुए किसान पांडे बाबा आकर हँसते हैं। उनके साथ अलग-अलग रस्सियों में ट्रगे अन्य लोग भी उसे व्यंग्य से हँसते हुए दिखाई देते हैं। पहलवान को किसी के सिर पर महाराष्ट्रीयन पगड़ी दिखाई देती है तो किसी के सिर पर काठियावाड़ी। कोई ओड़िया बोलता है तो कोई कत्रड़। पहलवान के पूछने पर वे बोलते हैं कि "हंस रहे है तुम्हारी इस बचकानी सोच पर कि तुम हिंदुस्तान में रह कर किसानी जीवन के दुख और दरिद्रता से मुक्ति का सपना देख रहे हो। यह सपना कभी पूरा नहीं होने वाला बच्चा । बिना मरे इस बैडंड से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिए भवसागर पार करना होगा।"⁵

पांडे बाबा आत्महत्या के लिए उकसा रहे हैं। ऐसा पहलवान सोचता है। लेकिन उसे खेलावन की बातें याद आती है कि 'जगना तो पड़ेगा। लड़ना तो पड़ेगा। जिंदा रहना है तो अपने मारने वालों के सामने डटना तो पड़ेगा। वरना जैसे हजारों जातियाँ, जन-जातियाँ, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ इस दुनिया से उच्छिन्न हो गई, वैसे ही किसान नाम की प्रजाति भी विलुप्त हो जाएगी।"⁶ सोच- विचार करने पर अनेक कठिनाइयों के बावजूद पहलवान आत्महत्या नहीं करता। वह आत्महत्या की जमीन तैयार करने वालों से दो हाथ करना चाहता है। पांडे बाबा की बरखी में भाषण सुनने से वह आत्महत्या का विचार त्याग देता है। किसान को नासमझ और दिमागी बीमारी कहने वालों को वह समझाना चाहता है। इसलिए वह अपनी पहलवानी छलांग लगाना चाहता है। छलांग लगाने पर उसे लंका के लिए छलांग लगाते हनुमान जी याद आते हैं। यह उसकी छलाँग मौत के खिलाफ़ लगाई गई छलाँग सिद्ध होती है।

किसानों की समस्याओं को अभिव्यक्त करते हुए शिवमूर्ति जी ने इतिहास और वर्तमान को सामने रखा है। वे तुलसीदास के खेती और किसान से जुडे संदर्भ प्रस्तुत करते हैं। दूसरे देशों में किसानों को दी जाने वाली रियायतों की बात को भी वे उठाते हैं। साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बीज पेटेंट कराने से निर्मित खतरा। किसानों की जमीन हड़पकर उद्योगपतियों को दिए जाने का खतरा। सड़कों का जाल बिछाकर किसान की जमीन माटी मोल कब्जा करने का खतरा। किसानों के लिए जरूरी चीजों पर सब्सिडी बढाने की बजाय घटाने का खतरा। मैक्सिमम रिटेल प्राईस की अपेक्षा मिनिमम सपोट्रिग प्राइस निर्धारित करने का खतरा आदि कई खतरों ओर समस्याओं को शिवमूर्ति जी ने प्रस्तुत किया है। शिवमूर्ति जी का यह उपन्यास मुख्य रूप से किसान जीवन की पेचीदगियों के प्रति सजग करता है। इसमें किसान जीवन से जुडे सांस्कृतिक और धार्मिक संदर्भ भी मिलते हैं। इसका आकार भले ही लघु हो लेकिन यह उपन्यास किसान जीवन की समस्याओं को व्यापकता से प्रस्तुत करता है। इसमें गीत और संस्कृति का अनूठा संयोग मिलता है। यह केवल अवध की धरती पर ही नहीं वह तो समूचे भारत में चेतना लाना चाहता है।

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि यह उपन्यास संवेदनाओं को झकझोरकर किसान जीवन पर सोचने के लिए मजबूर करता है। किसान के लिए आत्महत्या को उकसाने वाली जमीन को सामने लाने का महत्त्वूपर्ण कार्य यह उपन्यास करता है। इसमें लाभकर खेती की समस्या, कर्ज़, दहेज, बाजारवाद, सरकारी नीतियाँ, महँगाई, शोषण, आदि किसान जीवन से जुड़ी समस्याओं का चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में उपन्यासकार केवल यथार्थ को अभिव्यक्ति नहीं देता बल्कि आशावाद को भी प्रकट करता है। किसानों को आत्महत्या की ओर ले जाने वाली स्थितियों के विरोध में लड़ने के लिए यह उपन्यास सामाजिक संगठन पर बल देता है। इसमें किसान जीवन को सुधारने के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ भी दिए हैं। किसानों को अपने ऊपर मँडराते खतरे की आहट भी इसमें मिलती है। कुल मिलाकर शिवमूर्ति का यह उपन्यास समस्याओं के मकड़जाल से किसानों को बाहर निकालने की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

संदर्भ संकेत :

  1. आखिरी छलाँग - शिवमूर्ति, नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृ. 79
  2. पी. साईनाथ की लेखनमाला द हिंदू, 14 नवंबर 2007
  3. आखिरी छलाँग - शिवमूर्ति, नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृ. 78
  4. आखिरी छलाँग – शिवमूर्ति, नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृ. 83
  5. आखिरी छलाँग - शिवमूर्ति, नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृ. 102
  6. आखिरी छलाँग - शिवमूर्ति, नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृ. 91

- डॉ. सचिन गपाट

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