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Sufi Sahitya Mein Prem Bhavana
सूफी काव्य की विशेषताएँ : सूफ़ी साहित्य (Sufi Literature) में प्रेम एक प्रमुख विषय है. सूफ़ीवाद (Sufi songs Kavya) में प्रेम को इस तरह से देखा जाता है। हिन्दी साहित्य का अधिकांश भाग सूफी मत से ओतप्रोत है। दक्खिनी हिन्दी के वरिष्ठ सूफ़ी साधकों, धर्मप्रचारकों एवं कवियों ने अपने सिद्धांतों का स्पष्ट रूप से विवेचन किया है। मेरे विचार में सूफ़ी साधक कट्टर नहीं थे।
Sufi Literature: Symbol of Love
सूफ़ी साहित्य : प्रेम का प्रतीक
हिन्दी साहित्य का अधिकांश भाग सूफी मत से ओतप्रोत है। दक्खिनी हिन्दी के वरिष्ठ सूफ़ी साधकों, धर्मप्रचारकों एवं कवियों ने अपने सिद्धांतों का स्पष्ट रूप से विवेचन किया है। मेरे विचार में सूफ़ी साधक कट्टर नहीं थे। वे विशाल हृदयवाले थे। अतः वे अपने समय के विविध जीवन दर्शन से अपने को अलग नहीं कर सके। सूफ़ी धर्म प्रचारकों या संतों का एक ही लक्ष्य था मानवप्रेम की स्थापना करना। इसका सुपरिणाम यह हुआ कि सूफियों ने जन सामान्य में प्रचलित परम्परा को ग्रहण करते हुए अपने सिद्धांतों में ढ़ालने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
मौलवी अब्दुलहक ने अपने छोटे से ग्रंथ में 'उर्दू की इब्तिदाई नशोनुमा में सूफ़िया-ए-कराम का काम' में सूफी का परिचय इस प्रकार दिया है-
"धर्म और आचरण के क्षेत्र में सूफी अपना विशिष्ट स्थान रखता है वह देश वर्ष से परे है। प्रत्येक धर्म और वर्ग में उसका अस्तित्व है। बाहय आचरण को स्थान न देकर वह आन्तरिक शुद्धि पर ध्यान देता है।"
अललामा लुत्फी जुमा अपने पुस्तक 'तारीख-ए-फल सफ़ए इस्लाम' में लिखते है- "यूनानी शब्द 'थियोसोफिया' से सूफी शब्द उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है 'ईश्वरीय दर्शन' अर्थात् ईश्वरीय दर्शन की खोज करनेवाले हैं 'सूफ़ी'।"
'A Literary History of the Arabs'
पुस्तक में- "सूफ़ी शब्द का प्रयोग जामी के अनुसार कुफ़ा के अबू हाशिम के लिए प्रयोग किया गया जो ई. 800 से पूर्व रहा।" भारत में सर्व प्रथम 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में 'सूफीमत' का विकास हुआ। दक्खिन में ख्वाजा बन्देनवाज गेसद्राज ने 15 वीं शताब्दी के प्रारंभ में सूफ़ी परंपरा की नीव डाली। यहीं से शह मींराजी, शम्सुल श्शाक़, शाह बुरहानुद्दिन जानम, यह अमीनुद्दीन आला, शह सदरुददीन आदि सूफियों को देखते हैं।
सूफ़ी साधकों ने अपने साहित्यिक एवं सैन्दांतिक कृतियों से सूफी विचारधारा को आगे बढ़ाया और आगे चलकर यहीं सूफीयों की विचारधारा एकात्मकता का प्रतीक बन गई है। संप्रदायों को लेगे तो भारत में विशेषतः सूफियों के चार संप्रदाय मिलते है- चिश्तिया संप्रदाय, सुहर्वर्दिया, क़ादरिया, नक़्शबन्दिया। इन चारों संप्रदायों के साहित्य में एकात्मकता का परिचय मिलता है। दक्षिण में प्रवाहित हिन्दी सूफी काव्य धारा की विशेषता है कि वह भारत की सामाजिक संस्कृति का वहन करता रहा है। सूफी मत का मूल स्वर प्रेम-भावना है। हिन्दी का मध्ययुगीन साहित्य हमारी महान परंपरा की अक्षय निधि है। इस काल का साहित्य की सूफी काव्यधारा का महत्वपूर्ण रूप है।
सूफी काव्य परंपरा के अध्ययन से हम मानने को बाध्य हो जाते हैं कि राजनैतिक दृष्टि से अनेक टुकड़ों में बाँटे हमारे देश को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य सूफी कवियों ने किया। सांस्कृतिक समन्वय ही सूफी काव्य का मुख्य स्वर रहा है। सूफीयों के इन विचारों से मुसलमान मात्र नहीं हिन्दु भी आकृष्ट हुए। इस्लामी चिंतन पद्धति को भारतीय वेदांत और दर्शन से समन्वित कर इन सूफी महात्माओं ने एक ऐसा विचार प्रस्तुत किया, जो हिन्दु-मुस्लिम भेदभाव को मान्यता न देकर मनुष्य मात्र को महत्व देनेवाला था। दक्खिनी हिन्दी में सूफी विचारधारा के द्वारा हिन्दु-मुस्लिम ऐक्य को सुदृढ़ बनानेवाले निम्न सूफी संत थे-
1) ख्वाजा बन्देनवाज
ख्वाजा बन्देनवाज सबसे प्रमुख माने जाते हैं उनके उक्त विचार इस प्रकार है- "देखो वाजिब तन की चक्की, पीरु चातर हौके सक्की, सोकन इब्लिस खिंचाखिंच थक्की, के या बिस्मिल्ला हो अल्ला।"
2) बुरहानुद्दीन जानम -
"सोलह सहस गोपिन कान्हा बाल बिरहम तो चारी, यो देख भोग अभोगी होना लाडे ग्यान बिचारी।"
3) अमीनुद्दीन अली-आला
"उस बिरहनी के दुख सूं कीता फिराक़ जीव है, ग़म मिट सू तन मिट्टी कर जोगी जंगम सू पीव, आदम हुआ सू पारबती उत्तम नारी पक सती।"
4) वजही-
"न मस्जिद न बुतखाने का फाम है कै परवाने कूँ शमअ सूँ काम है न बूझे भली होर बूरी ठार कूँ शमअ हुई तो बस उस जलनहार कूं।"
इस प्रकार इन सूफी साधकों ने अरबी और फारसी के प्रकाण्ड पंडित होने पर भी जन मानस को हिन्दी भाषा को अपनाकर भाषा प्रेम का बिज बोने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। यह समय भी हिन्दी भाषा के लिए विरोधी था फिर भी बन्देनवाज, मीराँजी और जानम ने हिन्दी को अपनी वाणी का वाहक बनाया ।
सूफी साधकों ने हिन्दू एवं मुसलमानों में व्याप्त कट्टरवादीता तथा संकुचित मनोवृत्तियों का जोरदार से खंडन किया। सूफी कवियों ने बाहरी आचरण तथा कर्मकांड पर न ध्यान देते हुए सृष्टिमात्र के कण-कण में व्याप्त प्रेमामृत को जनमानस में प्रवाहित करने का कार्य किया जिसमें भारतीय जनमानस प्रेम के सुनहले सूत्र में डूब गये। सूफीयों में ऊंच-नीच का भेद भाव नहीं था। उनके अनुसार परमप्रेम की भावना ही उच्चतम का प्रतीक है। मनुष्य वस्तुतः तात्विक रुप में समान है। वे उस परमतत्व की ही विभिन्न रुपों में अभिव्यक्ति है। इस संदर्भ में क़ाजी महमूद बहरी ने अपने विचारों को व्यक्त किया है-
"ए रूप तेरा रत्ती रत्ती है
पर्वत पर्वत पत्ती पत्ती है
पर्वत में अदिक न कम पत्ती में
भकसा रहे दास होर रत्ती में।"
इस प्रकार मानव मानव में ही नहीं सृष्टि-जगत के चेतन- अचेतन सभी में परमतत्व की झलक देखनेवाले दक्खिनी हिन्दी के सूफ़ी कवि भावात्मक एकता के या प्रेम के प्रतीक थे।
- नामदेव एम. गौडा
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