Rani of Jhansi : जानिए रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी

Dr. Mulla Adam Ali
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Bharati Ki Mahan Virangana

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Jhansi Ki Rani Laxmibai

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

भारतीय वीरांगनाओं में महारानी लक्ष्मीबाई का प्रमुख स्थान है। उनका जन्म 19 नवंबर, 1835 को वाराणसी के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका था। किंतु प्यार से सभी उसे मनु कहते थे। मनु अपनी माँ के साथ वाराणसी में अकेली रहती थी। उसके पिता श्री मोरोपंत बिठूर में बाजीराव पेशवा की सेवा में थे। अभी मनु केवल चार वर्ष की ही थी कि उसकी माता का देहान्त हो गया। अब मनु का वाराणसी में कोई न था, अतः मोरोपंत उसे अपने साथ बिठूर ले आये।

मनु बचपन से ही बहुत तेज, निडर और साहसी थी। उसे शस्त्रविद्या और घुड़सवारी आदि में गहरी रुचि थी। वह अपना अधिकांश समय बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ इन्हीं सब में व्यतीत करती थी। बारह वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते मनु तलवार चलाने और घुड़सवारी में इतनी प्रवीण हो गयी कि वह बाजीराव पेशवा के अनुभवी योद्धाओं को भी पराजित करने लगी। मनु की वीरता और साहस पर सभी को गर्व था।

अचानक एक दिन झाँसी के शासक महाराज गंगाधर राव की तरफ से मनु के लिए विवाह का प्रस्ताव आया। मनु इस समय मात्र तेरह वर्ष की थी। इस तरह मनु सन 1848 में झाँसी की महारानी बन गयी और अब उसका नाम मनु से लक्ष्मीबाई हो गया।

महाराज गंगाधर राव के कोई संतान नहीं थी। लक्ष्मीबाई से अपना दूसरा विवाह केवल संतान के लिए ही किया था। महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म भी दिया, किंतु वह तीन महीने का होकर चल बसा। महाराज गंगाधर राव को पुत्र की मृत्यु का इतना दुख हुआ कि वह गंभीर रूप से बीमार हो गये और फिर कभी नहीं उठ सके। इस मध्य उन्होंने पांच वर्ष के एक बालक दामोदर राव को गोद ले लिया था।

भारत में उस समय लॉर्ड डलहौजी गवर्नर जनरल था। उसकी हड़पनीति से संपूर्ण भारत के राजा-महाराजा परेशान थे। डलहौजी की कुदृष्टि एक लंबे समय से झाँसी पर थी। उसे जब महाराज गंगाधर राव की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को अवैध करार देते हुए झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी को बचाने का बहुत प्रयास किया। किंतु उसके सभी प्रयास व्यर्थ गये और सन 1854 में झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। इसके बाद अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई से राजमहल खाली करवा लिया तथा गुजारे के लिए पाँच हजार रुपये प्रतिमाह पेन्शन निश्चित कर दी। महलों में रहने वाली लक्ष्मीबाई अब झाँसी में ही एक छोटा-सा मकान किराये पर लेकर रहने लगी।

रानी लक्ष्मीबाई पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े, किंतु उसने हिम्मत नहीं हारी और पूरे धैर्य एवं साहस के साथ इस मुसीबत का सामना करने का निश्चय किया। रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की न्यायप्रियता के संबंध में बहुत कुछ सुना था, अतः उसने सर्वप्रथम वैधानिक तरीकों से झाँसी को पुनः प्राप्त करने का निश्चय किया। इसके लिए लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज अधिकारियों से पत्राचार किया तथा अपने दो बैरिस्टर इग्लैण्ड भेजे। किंतु इससे कोई काम नहीं बना। इंग्लैण्ड के अंग्रेज अधिकारी भारत में रहने वाले अंग्रेजों से कम धूर्त नहीं थे। अतः अब रानी ने संघर्ष द्वारा झाँसी को पुनः प्राप्त करने का निश्चय किया।

अंग्रेजों को जब लक्ष्मीबाई के इस निर्णय की सूचना मिली तो वे बौखला उठे। उन्होंने लक्ष्मीबाई की पेन्शन बंद कर दी, उसके समर्थक सैनिकों को सेना से बाहर निकाल दिया तथा रानी लक्ष्मीबाई के विश्वास पात्र लोगों को परेशान करना आरम्भ कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के वफादार लोगों को लालच देकर फूट डालने का काम भी शुरू कर दिया, किंतु लक्ष्मीबाई इन सबसे विचलित नहीं हुई। उसने अपने गहने एवं कीमती वस्तुओं को बेचकर धन एकत्रित किया और एक बड़ी सेना तैयार की।

4 जून, 1856 को झाँसी में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ और विद्रोहियों ने झाँसी का किला जीत कर रानी लक्ष्मीबाई को सौंप दिया एवं उसे अपना शासक घोषित कर दिया।

इसी समय उत्तर एवं मध्य भारत के अनेक राजा-महाराजा मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की तैयारी कर रहे थे। इस विद्रोह का सूत्रपात 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में हुआ और फिर देखते ही देखते देश के अनेक भागों में फैल गया।

झाँसी के राजसिंहासन पर बैठते ही लक्ष्मीबाई को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा। उसके पड़ोसी ओरछा के राजा के दीवान नत्थे खाँ ने एक विशाल सेना लेकर झाँसी पर आक्रमण कर दिया, किंतु लक्ष्मीबाई के बहादुर सैनिकों के समक्ष वह टिक न सका और बुरी तरह परास्त होकर अंग्रेजों की शरण में पहुँचा।

नत्थे खाँ ने अंग्रेज जनरल ह्यूरोज को समझाया कि संपूर्ण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का केन्द्र झाँसी है और रानी लक्ष्मीबाई विद्रोहियों को प्रोत्साहन एवं प्रश्रय तथा संरक्षण दे रही है। जनरल ह्यूरोज नत्थे खाँ की बातों में आ गया और उसने एक विशाल सेना के साथ आकर झाँसी को घेर लिया। ग्वालियर और टीकमगढ़ के राजा अंग्रेजों की सहायता कर रहे थे, जिससे अंग्रेजों के हौसले बुलन्द थे।

रानी लक्ष्मीबाई इस स्थिति के लिए पहले से ही तैयार थी। अंग्रेजों के पास लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपें और विशाल सेना थी तो लक्ष्मीबाई के पास गुलाम गौस खाँ और खुदाबख्श जैसे जांबाज थे। दोनों ओर से भयानक युद्ध आरम्भ हुआ। कभी रानी की स्थिति कमजोर पड़ती तो कभी अंग्रेजों के पैर उखड़ते दिखायी देते, किंतु हार-जीत का निर्णय नहीं हो पा रहा था। अंत में अंग्रेजों ने दूल्हा जू नामक एक विश्वासघाती की सहायता से किले के बारूद खाने का ठिकाना मालूम कर लिया। अब अंग्रेजों की तोपों के गोले लक्ष्मीबाई के बारूदखाने पर बरसने लगे। इससे किलेबंदी टूट गयी और अंग्रेज किले के भीतर घुस आये।

रानी लक्ष्मीबाई के पास किला छोड़ने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था। अतः उसने पीठ पर अपने दत्तक पुत्र को बाँधा और अंग्रेजी सेना को चीरते हुए कालपी की ओर चल पड़ी। एक अंग्रेज लेफ्टिनेंट वॉकर ने रानी का पीछा भी किया, किंतु रानी ने उसका काम तमाम कर दिया।

कालपी में नाना साहब के भाई राव साहब का शासन था। राव साहब ने लक्ष्मीबाई को सहयोग करने का आश्वासन दिया और आसपास के राजाओं को साथ लेकर एक बड़ी सेना संगठित करने में जुट गये। इधर जनरल ह्यूरोज तेजी से कालपी की ओर बढ़ रहा था।

झाँसी और कालपी के मध्य कोंच नामक स्थान पर राव साहब और जनरल ह्यूरोज की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध की कमान राव साहब के हाथों में थी। अतः उनकी सेनाओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा। अब लक्ष्मीबाई ने कालपी के किले में आकर शरण ली, किंतु कालपी का किला भी घिर जाने के कारण उसे झाँसी के समान कालपी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

लक्ष्मीबाई और राव साहब कालपी से भाग कर ग्वालियर पहुँचे। यहाँ आकर उन्होंने बांदा के नवाब और ग्वालियर के महाराजा सिंधिया से सहयोग माँगा, किंतु दोनों ने ही इंकार कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई के पास बहुत छोटी सेना थी। अतः अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए उसके पास किसी किले का होना आवश्यक था। अंत में बहुत सोच विचार करने के बाद उसने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। इसी समय तात्या टोपे भी अपनी सेनाओं के साथ लक्ष्मीबाई की सेना में आ मिला। इस युद्ध में महाराजा सिन्धिया की हार हुई और ग्वालियर के किले पर लक्ष्मीबाई का अधिकार हो गया।

नानासाहब पेशवा, राव साहब और उनके सैनिकों ने इस विजय को बहुत बड़ी विजय समझा व अंग्रेज जनरल ह्यूरोज से बेफिक्र होकर रास रंग में डूब गये। किंतु रानी सचेत थी।

रानी लक्ष्मीबाई को जैसी आशंका थी, वैसा ही हुआ। जनरल ह्यूरोज शांत नहीं बैठा था। वह लगातार लक्ष्मीबाई का पीछा कर रहा था और अवसर की प्रतीक्षा में था। राव साहब और नाना साहब के रास रंग में डूबे होने की खबर पाकर उसने ग्वालियर के पूर्वी प्रवेश द्वार की ओर से आक्रमण कर दिया।

जनरल ह्यूरोज की सेना बहुत बड़ी थी फिर भी लक्ष्मीबाई और उसके वफादार सैनिकों ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया। उन्होंने अपनी बहादुरी से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए। रानी लक्ष्मीबाई भी इस अंतिम युद्ध में साक्षात दुर्गा बनी अंग्रेज रूपी राक्षसों का संहार कर रही थी। दो दिन तक दोनों सेनाओं के मध्य भयानक युद्ध होता रहा, किंतु विजय किसी को भी नहीं मिल पा रही थी।

लक्ष्मीबाई के सैनिक संख्या में बहुत कम थे। उनके पास अंग्रेजों के समान भारी तोपखाना भी न था, । अतः तीसरे दिन लक्ष्मीबाई की सेना के पैर उखड़ने लगे। 17 जून, 1958 शाम का समय था। रानी लक्ष्मीबाई चारों तरफ से अंग्रेजी फौज से घिरी उससे जूझ रही थी। घोड़े की लगाम उसके मुंह में थी और वह दोनों हाथों से अंग्रेज सेना को गाजर-मूली की तरह काट रही थी। अचानक एक अंग्रेज ने उसके सर पर पीछे से वार किया, जिससे लक्ष्मीबाई की एक आँख निकल कर बाहर आ गयी। इस पर भी रानी ने हिम्मत नहीं हारी और पलट कर उस अंग्रेज को मौत के घाट उतार दिया। रानी ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया, किंतु घोड़ा नाले के पास अड़ गया। इससे रानी नाला न पार कर सकी। इसी समय उसके शरीर पर तीर और तलवारों के कई घाव लगे, जिनसे आहत होकर वह जमीन पर गिर पड़ी। रामचन्द्र राव और रानी के कुछ वफादार सैनिक उसके निकट ही थे। उन्होंने रानी को उठाकर पास बनी साधु बाबा गंगादास की कुटिया तक पहुँचाया। यहीं पर रानी ने अपने प्राण त्यागे तथा इसी स्थान पर उसका दाह संस्कार किया गया।

भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करनेवाली वीरांगना लक्ष्मीबाई मर कर भी अमर हो गयी। आज भी बुन्देलखण्ड के लोग रानी की वीरता के गीत गाते हैं और उसे बड़ी श्रद्धा एवं सम्मान से याद करते हैं।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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