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Bharati Ki Mahan Virangana
वीरांगना विजयकुँवरि : महारानी विजयकुँवरि क्षत्राणी थीं। उन्होंने अपने पिता के घर घुड़सवारी और तलवार बाजी की पूरी शिक्षा ली थी। महारानी विजयकुँवरि वीर और साहसी महिला होने के साथ ही सैन्य संचालन में भी प्रवीण थीं। उनके पहुँचते ही सैनिकों में जोश आ गया और वे अपनी महारानी के निर्देशन में दलेल खाँ के सैनिकों पर टूट पड़े। पढ़िए पूरी कहानी किस्से क्रांतिकारियों के हिन्दी में।
Vijay Kunwari Story in Hindi
महारानी विजयकुँवरि
भारत के मुगलकालीन इतिहास में हिन्दू राजाओं में छत्रपति शिवाजी के बाद सर्वाधिक ख्याति महाराज छत्रसाल को मिली।
छत्रसाल ने अपना जीवन एक साधारण सैनिक के रूप में आरम्भ किया था। सन् 1762 में वह दतिया के राजा शुभकरण के दरबार में सेवक थे। सन् 1767 में बीजापुर में उनकी भेंट छत्रपति शिवाजी से हुई। शिवाजी छत्रसाल से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने छत्रसाल को एक तलवार भेंट की।
अब छत्रसाल ने अपना विजय अभियान आरम्भ किया। उन्होंने एक वर्ष के भीतर ही सर्वप्रथम औरंगाबाद, चन्देरी और धसान के पूर्वी भाग पर विजय प्राप्त कर अपना राज्य स्थापित किया और इसके बाद सन 1772 में कोटा का किला फतह किया। शीघ्र ही उनके राज्य की सीमाएँ पूर्व में टोंस नदी तक (कालिंजर, चित्रकूट आदि), पश्चिम में चम्बल नदी तक (कालपी, जालौन, कौंच, एरच, झांसी) दक्षिण में नर्मदा तक (सिमौन, गुना, धमौनी, गढ़ाकोट, सागर आदि) तथा उत्तर में जमुना तक फैल गयी। इस तरह छत्रसाल एक साधारण सैनिक से महाराज छत्रसाल बन गये।
महाराज छत्रसाल की राजधानी पन्ना थी। उन्होंने उन्नीस विवाह किये, जिनसे बावन पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें से चालीस पुत्र युद्ध में मारे गये।
अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व महाराज छत्रसाल ने अपने राज्य के तीन भाग कर दिए। उन्होंने राज्य का एक भाग महारानी कमलावती के बेटे हृदयशाह को, दूसरा जगतराज को तथा तीसरा भाग अपने दत्तक पुत्र बाजीराव पेशवा को दे दिया।
12 मई, 1831 को महाराज छत्रसाल का देहांत हो गया।
महाराज छत्रसाल एक विशाल हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहते थे, अतः उन्हें आजीवन मुगल शासकों से युद्ध करना पड़ा।
छत्रसाल की मृत्यु के बाद उनके सबसे प्रबल शत्रु अवध के नवाब ने बुन्देलखण्ड को कमजोर समझ कर जैतपुर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया और इसके लिए उसने प्रधान सेनापति दलेल खाँ जो एक बड़ी सेना के साथ भेजा।
जैतपुर उस समय छत्रसाल महाराज के बेटे राजा जगतराज के पास था।
राजा जगतराज न तो अपने पिता के समान बहादुर योद्धा था और न ही कुशल सेनापति। एक स्वतंत्र राज्य का स्वामी बनते ही उसने अपने पिता के जीवनकाल में ही विलासितापूर्ण जीवन आरम्भ कर दिया था।
दलेल खाँ की विशाल सेना हमीरपुर के पास तक आ गयी। वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था।
राजा जगतराज को जब इसका पता चला तो उन्होंने बाजीराव पेशवा से सहायता माँगी, किंतु पेशवा ने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।
राजा जगतराज को मजबूर होकर अकेले ही अपनी सेना लेकर मैदान में उतरना पड़ा।
दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ।
सेनापति दलेल खाँ कुशल योद्धा और सेना नायक था, अतः राजा जगतराज उसके सम्मुख अधिक समय तक न टिक सका और घायल हो गया।
राजा जगतराज के घायल होते ही उसकी सेना में भगदड़ मच गयी।
यह बात जब जगतराज की पत्नी महारानी विजयकुँवरि को मालूम हुई तो उन्हें भारी आघात पहुँचा।
महारानी विजयकुँवरि क्षत्राणी थीं। उन्होंने अपने पिता के घर घुड़सवारी और तलवार बाजी की पूरी शिक्षा ली थी। विजयकुँवरि ने सोच-विचार करने के स्थान पर एक साहसिक निर्णय लिया। उन्होंने तुरंत मर्दाना पोशाक धारण की और घोड़े पर सवार हो कर रणभूमि की ओर चल पड़ी।
महारानी विजयकुँवरि वीर और साहसी महिला होने के साथ ही सैन्य संचालन में भी प्रवीण थीं। उनके पहुँचते ही सैनिकों में जोश आ गया और वे अपनी महारानी के निर्देशन में दलेल खाँ के सैनिकों पर टूट पड़े।
दलेल खाँ अपने सैनिकों के साथ विजय का आनंद मनाने की तैयारी कर रहा था। अचानक हुए इस आक्रमण से उसके सैनिक घबरा उठे। महारानी विजय कुँवरि इस समय साक्षात रणचण्डी बनी हुई थीं। वह दलेल खाँ के सैनिकों को गाजर-मूली की तरह काट रही थीं।
कुछ ही देर में दलेल खाँ को बाजी हाथ से जाती हुई दिखायी देने लगी। उसने अपने सैनिकों को जोश दिलाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे महारानी विजय कुँवरि और उनके सैनिकों के सामने न टिक सके।
अंत में मजबूर होकर दलेल खाँ को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा। इस प्रकार महारानी विजयकुँवरि की विजय हुई और वह अपने घायल पति जगतराज के साथ राजमहल लौट आयीं।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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