Bangladeshi writer, feminist, physician, secular humanist, and activist Taslima Nasrin Novel Lajja Review in Hindi, Best Seller Books, Famous Novels, Books in Hindi.
Lajja Novel by Taslima Nasrin
लज्जा उपन्यास: लज्जा उपन्यास बाँग्ला भाषा में विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीन द्वारा लिखा गया है। यह उपन्यास Lajja (meaning 'shame') पहली बार १९९३ प्रकाशित हुआ, बंगला सरकार ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध लगाया था मुसलमानों के विरोध पर ,परंतु छह महीने में इस उपन्यास की पचास हजार से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी थी। दुनियाभर में सबसे ज्यादा बिकने वाले किताबों में तसलीमा नसरीन का उपन्यास लज्जा (best seller novel) भी एक है।
Taslima Nasrin Ka Upanyas : Lajja
यह इस लेख का दूसरा भाग है, पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें मानवतावादी संघर्ष की कथा : लज्जा
तसलीमा नसरीन का उपन्यास लज्जा : मानवतावादी संघर्ष की कथा
सरकार की इन नीतियों और मानवतावादियों की निष्क्रीयता ने राष्ट्र को अमानवी खाईयों में ढकेल दिया और किसी भी राष्ट्र के लिए यह लज्जास्पद है। यही बात तसलीमा जी इस उपन्यास के माध्यम से कहना चाहती है।
मानवतावादी शक्तियों की तटस्थता और सरकार की नीतियों के कारण बांग्लादेश में सांप्रदायिक शक्तियों की हिम्मत बढी और दंगे निरंतर होने लगे। यह बात 1992 से भी पहले की है। लेखिका ने दंगे की व्याख्या बड़े ही सटीक शब्दों में की है। वे लिखती हैं, "दंगा तो बाढ़ नहीं है कि पानी से उठाकर लाते ही खतरा टल गया। फिर चिउडां-मूढ़ी कुछ भी जुगाड़ कर पाने से ही फिलहाल की समस्या हट गयी। दंगा तो आग का लगना नहीं कि पानी डाल कर बुझा देने से ही छुटकारा मिल जायेगा। दंगे में आदमी अपनी आदमीयत को भी स्थगित रखता है। दंगे में आदमी के मन का जहर बाहर निकल आता है। दंगा कोई प्राकृतिक घटना नहीं है, कोई दुर्घटना नहीं है, दंगा मनुष्यत्व का विकार है।"¹
बांग्लादेश में यह विकार बढने लगा। 1947 में सुधामय के पिता को उनके रिश्तेदारों ने देश छाड़ने के लिए कहा था। वे अपना देश छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। 1971 के बाद भी सुधामय की पत्नी ने और रिश्तेदारों ने उन्हें भारत जाने का आग्रह किया। सुधामय ने उन्हें 'कावर्ड' कहा। वे अपने बांग्लादेश की मिट्टी को छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन दंगाईयों के कारण उन्हें अपना गाँव मयमनसिंह छोड़ना पड़ा। वे अपना भरा पूरा परिवार लेकर ढ़ाका आए।
सुधामय चाहते थे कि ढाका में तो भी वह मानवता, या देश की एकता का, देश का प्रेम भाव मिलेगा। सुधामय ने अपने संस्कार बेटे को दिए। सुरंजन के दोस्तों में मुसलमानों की ही संख्या अधिक थी। वैसे वे मुस्लिम दोस्त भी धर्म को अधिक महत्त्व नहीं देते थे।
वे भी समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। सन् 1992 के पहले दंगे में तो कमाल सुरंजन और उसके परिवार को खुद आकर अपने घर ले गया था। सुरंजन को धीरे धीरे इन बातों से घृणा होने लगी। अपने ही देश में इस तरह छिपकर रहना उसे अखरने लगा।
सन् 1992 में भारत देश में बाबरी मस्जिद गिरायी गयी। एक हैवानियत का उत्तर दूसरी हैवानियत देने लगी। बांग्लादेश में दंगे आरंभ हुए। लेकिन इस बार सुरंजन ने तय किया कि वह कहीं नहीं जाएगा। सुरंजन की बहन माया ने अपने भाई को कई बार कहा कि कहीं छिपने की व्यवस्था करे। सुरंजन जब नहीं माना तो वह अकेली अपनी सहेली पारुल के घर गयी। सुरंजन दंगों में बाहर घूमने लगा। उस दंगे में उसने अपने अस्तित्व को अलग पाया। कितना भी निरीश्वरवादी, मानवतावादी, राष्ट्रीयता का पक्षधर, देशप्रेमी हो लेकिन दंगा करनेवाले लोग उसे हिंदू ही मानते थे।
Taslima Nasrin Quotes in Hindi (Lajja Novel) |
सुरंजन के नजदीकी मित्र, चर्चाओं में हमेशा साथ रहनेवाले यहाँ तक कि उसके एहसान मंद भी उसे घर पर छिपे रहने की सलाह देने लगे। लेखिका ने उस घटना का वर्णन किया है, 'सुरंजन ने पाया कि आज लुत्फर की बातों और कहने के अंदाज में एक तरह का अभिभावक जैसा भाव झलक रहा है। यह लड़का हमेशा से जरा शर्मीले स्वभाव का था। उसकी नज़र से नज़र मिलाकर कभी बात नहीं की। इतना विनयी, शर्मीला और भद्र लड़का। इस लड़के को सुरंजन ने ही 'एकता' अखबार के संपादक से बात करके वहाँ नौकरी दिलायी थी।"²
सभी मित्र पहचानवाले घर पर रहने की सलाह देने लगे। दंगा करनेवालों को वे किसी दूसरे ग्रह के लोगों जैसा बताकर, स्वयं का उनसे किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं है ऐसा दिखाने लगे, लेकिन कोई भी कड़े शब्दों में उनकी निंदा करता हुआ या उनके खिलाफ खड़े होने की भाषा में बात करता हुआ दिखाई न दिया। सुरंजन ने अपने दोस्तों से इस संदर्भ में एक जगह यहाँ तक कह दिया, "तुम्हीं लोग मारोगे और तुम्हीं लोग दया भी करोगे, यह कैसी बात है। इससे तो अच्छा है कि तुम लोग सारे हिन्दुओं को इकट्ठा करके एक फायरिंग स्क्वाड में ले जाओ और गोली से उड़ा दो। सब मर जायेंगे तो झमेला ही खत्म हो जाएगा।"³
सुरंजन की यह बात बेहद निराशा से भरी बात है। आखिर एक व्यक्ति को एक मानव के रुप में खुलकर बोलने का, किसी गतिविधि में सम्मिलित होने का अधिकार है या नहीं ? क्या एक समाज केवल दूसरों की दया पर जीएगा ? क्या फिर उस राष्ट्र को एक जनतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र या मानवतावादी समाज कहा जाएगा ? इन सब के उत्तर ना है और संवेदनशील व्यक्ति को अपने समाज पर लज्जा अनुभव होनी चाहिए जो सुरंजन को होती है। सुरंजन की लज्जा लेखिका ने इन शब्दों में व्यक्त की है। "सुरंजन ने कोई जवाब नहीं दिया। वह बडा लज्जित महसूस कर रहा था। उसका नाम सुरंजन दत्त है इसलिए उसे घर पर बैठे रहना होगा और केसर, लतीफ, बेलाल, शाहीन ये सब बाहर निकलकर कहाँ क्या हो रहा है, इसकी चर्चा करेंगे। सांप्रदायिकता के विरोध में जुलूस भी निकालेंगे और सुरंजन से कहेंगे तुम घर चले जाओ। यह कैसी बात है ? क्या सुरंजन उनकी तरह विवेकपूर्ण, मुक्त विचारधारा तर्कवादी मन का व्यक्ति नहीं है।"⁴ वह शक्ति, वह विचार जो सुरंजन को घर जाने के लिए, छिपकर रहने के लिए कहता है वह दंगे के वक्त तटस्थ रहता है। इस तरह वर्तन करता है, मानो इस घटना से अपना कोई लेना देना नहीं। वास्तव में उनका यह वर्तन ही साम्प्रदायिक दंगाईयों के लिए समर्थन है। बांग्लादेश में यह हुआ। बांग्ला मुक्ति के लिए जिन विचारधाराओं ने प्रयास किया वे भी बदल गए। सांप्रदायिक शक्तियों की ताकत जैसे ही बढ़ गयी उन्होंने कम्युनिस्टों को भी नहीं छोड़ा। तसलीमा नसरीन ने लिखा है। "कम्युनिस्ट अपनी स्ट्रेटिजी बदल कर अल्लाह खुदा का नाम ले रहे हैं। फिर भी कठमुल्लावादी आग से उन्हें रिहाई नहीं मिली। कामरेड फरहाद के मरने पर बड़ा जनाजा निकाला गया, मिलाद भी हुआ फिर भी सांप्रदायिकता की आग में कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर जलाया गया।"⁵
जो लोग अपनी विचारधारा बदलते रहते हैं उनमें कई बातों को लेकर विभ्रम की स्थिति होती है। फिर कम्युनिस्टों जैसे विद्वतजन अगर हो तो वे गुनाह का भी वैचारिक समर्थन करते दिखाई देते हैं। यहाँ तक तो ठीक है कि किसी चोरी जैसे जुर्म का आर्थिक कारणों को लेकर समर्थन हो, लेकिन किसी लड़की के अपहरण को लेकर भी अगर आर्थिक कारणों से समर्थन करे तो वह दलील बहुत ही घिनौनी दलील बन जाती है।
सुरंजन के मित्र बेलाल के मुँह से यह घिनौनी दलील दी जाती है। सुरंजन की बहन माया का अपहरण होता है। दिन दहाड़े कुछ लड़के घर में घुसकर माया का अपहरण करते हैं। बिमार पिता और लाचार माँ कुछ नहीं कर पाते। माँ पागलों की तरह पीछा करती है। पड़ोसियों से मदद माँगती है, लेकिन फिर वही भाव, 'हम क्या कर सकते हैं ?' लोगों की यह दिखावे की असाहयता सांप्रदायिक शक्तियों का समर्थन ही होता है। सुरंजन के मित्र ढूँढने की कोशिश करते हैं। सांत्वना देने आया बेलाल ऐसे वक्त जो कहता है, वह मात्र भयावह है। वह कहता है, "उधर की खबरें सुनकर इनका भी माथा ठीक नहीं है। किसे दोष दें। वहाँ हमें मार रहे हैं तो यहाँ तुम लोगों को। क्या जरुरत थी मस्जिद तोड़ने की। इतने बरसों की पुरानी मस्जिद। महाकाव्य के चरित्र से राम की जन्मभूमि खोजने के लिए मस्जिद को खोद रहे हैं इंडियन लोग कुछ दिनों बाद कहेंगे ताजमहल में हनुमान का जन्म हुआ था, इसलिए ताजमहल तोड़ो। बस तोड़ देंगे। भारत में कहते हैं सेकुलरिज्म की चर्चा होती है। माया को आज क्यों उठा ले गये ? मुख्य नायक तो अडवाणी और जोशी हैं।"⁶
Lajja Novel Quotes in English (Taslima Nasrin) |
आखिर अचेतना में दबी हुई बात जुबान पर आ ही जाती है। विचारों की साधना केवल जुबानी नहीं हो सकती। अगर मन से व्यक्ति विचारों से न जुड़ी हुई हो तो पोल खुल ही जाती है। अडवाणी और जोशी के कारण तथा बाबरी मस्जिद के कारण किसी लड़की के अपहरण का समर्थन कैसे हो सकता है ? यह तो आदिम विचार हो गए। अपने घिनौने चेहरे को छिपाने के लिए बेलाल अति आधुनिक तर्क देता है, "जरूर गांजा हेरोईन लेता होगा, मुहल्ले का ही कोई होगा। लड़की पर नजर थी ही। मौका पाते ही उठा ले गया। अच्छे आदमी क्या यह सब करते हैं? आजकल के शोहदे क्या घिनौनी हरकत कर रहे हैं। इसका मूल कारण आर्थिक अनिश्चतता है, समझे।"⁷
मूल समस्याओं को नजर अंदाज करके केवल बौद्धिक खेल करते रहना किस तरह कुतर्क बनकर घिनौना चेहरा सामने ला सकता है, इसका यह अच्छा उदाहरण है। बाईस साल की नौजवान लड़की माया का अपहरण होने के बाद कई दिन पता नहीं चलता। सुरंजन इन दिनों पूरी तरह टूट जाता है। सुधामय भी अपने जीवन के बारे में सोचते हैं जो किया उसका क्या फल मिला ? यही विचार और पछतावा उनके मन में होता है। वास्तव में सुधामय के मन में यह भावना बहुत पहले से आ रही थी। बदलते परिवेश को देखकर उनके मन में विचार आता है। "देश-देश करके देश का क्या हुआ ? कितना कल्याण हुआ ? पचहत्तर के बाद से यह देश सांप्रदायिक कट्टरपंथियों की मुट्ठी में चला जा रहा है। सब कुछ जान बुझकर भी लोग अचेतन स्थिर हैं। क्या ये जन्म से चेतनहीन हैं ? इनके शरीर में क्या वह खून नहीं बह रहा है जो 1952 में बांग्ला राष्ट्रभाषा की माँग को लेकर रास्ते में उतरा, 1969 में जनोत्थान का खून, 1971 में 30 लाख लोगों का खून ? वह गर्मजोशी कहाँ ? जिसकी उत्तेजना से अभिभूत होकर सुधामय आंदोलन में कूद पड़े थे? कहाँ है अब वे खौलते हुए रक्तवाले लड़के ? क्यों वे अब साँप की तरह शीतल है ? क्यों धर्मनिरपेक्ष देश में सांप्रदायिक कट्टरपंथी अपना खूँटा गाड़े हुए है ? क्या कोई नहीं समझ पा रहा है कि कितना भयंकर समय आ रहा है?"⁸ लेखिका ने सुधामय के मन की स्थिति चित्रित की है। कई वर्षों बाद सुरंजन के मन में वही भाव है, वही स्थिति है। "आज सुरंजन को महसूस हो रहा है, कि क्या फायदा हुआ जीवन देकर ? क्या फायदा हुआ जन्म से मनुष्य का भला चाहकर ? कृषि श्रमिकों का आंदोलन, प्रलेतारियेत उत्त्थान, समाजतंत्र का विकास इन बातों को सोचने से क्या फायदा। आखिरकार समाजतंत्र का पतन हो ही गया। रस्सी बांधकर लेनिन को उतार ही दिया गया। अंततः हार तो हुई ही, जो लड़के मानवता का गीत गाते फिरते थे, उन्हीं के घर पर ज्यादा अमानवीय हमला हुआ।"⁹
दंगा रोकने के लिए कई दिनों के बाद फिर जुलूस, आरंभ होने लगे। फिर से वही पुराने नारे, फिर वही भाषण लेखिका का निरीक्षण और निष्कर्ष बड़ा ही यथार्थवादी है, "छियालीस में सुधामय नारा लगाते थे-'हिंदू- मुस्लिम भाई-भाई।' ऐसा नारा आज भी लगाया जाता है। इस नारे को इतने बरसों से क्यों दोहराना पड़ रहा है? इस उपमहादेश में इस नारे को और कितनी शताब्दियों तक दोहराना पड़ेगा। अब भी आह्वान की आवश्यकता खत्म नहीं हुई है। क्या इस नारे से विवेकहीन आदमी जागता भी है ? आदमी यदि भीतर से असांप्रदायिक न हो तो इस नारे से चाहे और कुछ भले ही हो, सांप्रदायिकता खत्म नहीं होगी।"¹⁰
उपन्यास के अंत में माया का पता नहीं चलता। आखिर खबर आती है माया जैसी लड़की की लाश देखी गयी। स्पष्ट है उसके जैसी नहीं उसकी ही। उस घर में माया को जीवन की सबसे अधिक ललक थी। उसकी ही शारीरिक यातनाओं के बाद हत्या हो गयी। दंगों के सबसे बुरे परिणाम स्त्रियों को भुगतने पड़े। करीब तीन हजार से भी अधिक स्त्रियों पर बलात्कार का चित्रण इस उपन्यास में है। इतनी अधिक मात्रा में इस अत्याचार का चित्रण करनेवाला यह उपन्यास चुनिंदा उपन्यासों में होगा। सुरंजन उपन्यास के आरंभ में उदास है। उसकी निराशा उपन्यास के विकास के साथ साथ बढ़ती जाती है। उपन्यास के मध्य के आगे वह पूरी तरह टूट जाता है। माया को भगाकर ले जाने बाद एक भाई और एक पुरुष के नाते स्वयं को बड़ा ही असमर्थ पाता है। घर में बिमार पिता की चिंता नहीं करता। घर में ही सिगरेट पिता है। शराब पीता है। मुसलमानों के विरोध में हिंदू सांप्रदायिक संगठन बनाने के बारे में सोचता है। केवल यही नहीं एक जमाने का यह संवेदनशील युवक अपने स्तर से गिरा हुआ भी दिखाया गया है। जब वह शमीमा नामक मुस्लिम वेश्या पर बड़ी ही क्रूरता से बलात्कार करता है। उसके गाल, और स्तनों को काटता है, उदर, नितंब जांघो को तेज नाखून से नोचता है। एक मुसलमान से इस तरह बदला लेने की पाशवी क्षुधा शांत होने के बाद उसमें का मानव सोचता है कि 'काश, वह जाने से पहले उस लडकी के गर्दन से खून पोंछता। कभी मिलेगी तो माफी माँग लेगा। लेकिन वह नहीं कर पाता। यहाँ भी एक स्त्री पर हुए अत्याचार का चित्रण है। सुरंजन की यह करतूत उसके धैर्य और उदात्तता को खो देती है।'
सुधामय का परिवार जो आजादी के पहले से भारत जानेवाले को कावर्ड कहते आ रहा था, बांग्लादेश जो उनका देश था। उसे मानव बनाने के प्रयासों में योगदान दे रहा था, अपने देश पर जी जान से प्रेम करता था, धर्मनिरपेक्ष था, भारत में जाना उन्हें अपने जड़ों से कटना लगता था, आखिर मजबूर होकर भारत आने का निर्णय करता है। एक देश के लिए यह बडा ही लज्जास्पद है। तसलीमा नसरीन ने इस लज्जा के कारण दिए है। इन्हीं कारणों से यह उपन्यास एक श्रेष्ठ उपन्यास है।
संदर्भ संकेत:
1. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 135
2. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.28
3. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.24
4. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.27
5. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.25
6. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 140
7. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 141
8. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 102
9. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 144
10. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 137
- गोविंद बुरसे
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