Novelistic perspective of society, culture and religion, Hindi Novels, Upanyas in Hindi. Samaj Sanskruti aur Dharm.
society, culture and religion
औपन्यासिक परिप्रेक्ष्य : लेखक अपने लेखन में अपनी निजी अनुभूति, निजी विचारों और निजी मानसिकता को ही विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्ति देता है। सामाजिक परिवेश के बीच ही निजी मानसिकता विकसित होती है।
समाज संस्कृति व धर्म का औपन्यासिक परिप्रेक्ष्य
देवेश ठाकुर ने साहित्य को जुझारु स्वरुप देकर उसे भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय और वैषम्य से लड़ने का हथियार बना लिया है। राजनीतिक चेतना एवं अर्थ केंद्रित मूल्यों से युक्त उसे समाज सापेक्षता प्रदान की है। देवेश ठाकुर की साहित्य सम्बंधी दृष्टि अत्यन्त ही स्पष्ट एवं वस्तुपरक है जो जीवन में मनुष्यत्व के उपकरणों का विस्तार करता हो, जिसमें व्यक्ति, राष्ट्र और समूचे मानव समाज को चिंतन की उच्चतर भूमिकाओं में उठाने और स्वस्थ्य दिशा देने की प्रेरणा निहित हो वही लेखन को देवेश ठाकुर मान्यता देते हैं।
इनकी यही दृष्टि इनके उपन्यासों में झलकती है। वस्तुतः देवेश ठाकुर की यह विशिष्टता है कि इन्होंने अपने समीक्षा-ग्रन्थों में साहित्य सम्बंधी जिस दृष्टि की प्रतिस्थापना की है, उसी दृष्टि की पुष्टि इनके उपन्यासों में भी हुई है। इसीलिए 'अपना अपना आकाश' में चन्द्रहास सही कला उसे ही मानता है जो जीवन से जुड़ी हो तथा आदमी और समाज को ऊंचा उठाने में अपना सहयोग देती हो।
उपन्यास युग तथा समाज के संदर्भ में बदलते मानव-जीवन का व्यापक चित्र प्रस्तुत करता है। हिंदी उपन्यास साहित्य की एक सुदृढ समृद्ध एवं स्वस्थ परंपरा है। हिंदी उपन्यास का आरंभ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही हो गया था। लेकिन इसका विकास 20वीं शती के आरंभ में प्रेमचंद के उदय के बाद ही हुआ। विसंगतियों एवं विषमताओं से परिपूर्ण भारतेंदु युगीन परिस्थितियों ने जीवन और युग का प्रतिनिधित्व करने वाली उपन्यास जैसी प्रमुख साहित्यिक विधा के लिए, प्रेरक शक्तियों के निर्माण द्वारा किया। उनके युग में समकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक ढाँचों में परिवर्तन हेतु अनेक आंदोलन चल रहे थे। जो अपनी प्रकृति में उदारवादी और सुधारवादी ही अधिक थे। इन्हीं आंदोलनों के बीच हिंदी उपन्यास का जन्म हुआ। यही कारण है कि इस युग के अधिकांश उपन्यास सुधारवादी प्रवृत्ति से आपूर्ण है।
आधुनिक हिंदी के प्रतिष्ठापक भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने अपने समय में हिंदी में उपन्यासों का अभाव अनुभव किया। इसीलिए उन्होंने स्वयं 'एक कहानी कुछ आप बीती, कुछ जग बीती' नामक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखना आरम्भ किया था जिसे वे संयोग से आजीवन पूरा न कर सके। किंतु दूसरे साहित्यकारों को इस दिशा में उन्होंने अवश्य प्रेरित किया। आरंभिक उपन्यास विभिन्न इतर भाषाओं के अनुवादों से प्रभावित रहे। इस युग के उपन्यासकारों ने एक तरफ प्राचीन कथा साहित्य की कत्थनात्मकता, ऐतिहासिकता एवं घटनाक्रम की चमत्कारिता को आधार बनाया तो दूसरी तरफ जीवन और युग से संबंधित कुछ ऐसे विषयों को भी अपनाया जो आगे चलकर उपन्यास विधा की पृष्ठभूमि बने। हिंदी की प्रथम उपन्यास भाग्यवती 1877 ई. ऐसी ही सामाजिक विषय वस्तु को आधार बनाकर लिखी गयी कृति है। इस युग में दो प्रकार के उपन्यास दृष्टिगत होते हैं। प्रथमतः वे उपन्यास जिनमें कल्पना की प्रधानता है तथा दूसरे वे जिनमें जीवन के यथार्थ को आधार बनाया गया है। कल्पना-प्रधान उपन्यासों में जहाँ अतीत का कल्पना युक्त चित्रण हुआ वही कल्पना पर आधारित तिलस्मी, जासूसी एवं एय्यारी उपन्यास भी लिखे गये। इन तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यासों का उद्देश्य कौतूहल एवं चमत्कार उत्पन्न करना था। इसीलिए इनका शिल्प कौतूहल वर्धक तथा विलक्षण है। इन उपन्यासों में देवकीनंदन खत्री रचित 'चन्द्रकांता' (1892) एवं 'चन्द्रकांता संतति' (1896) विशेष रुप से उल्लेखनीय कृतियाँ है।
जीवन के यथार्थ को आधार बनाकर लिखे गये उपन्यासों में समकालीन जीवन की समस्याओं के यथार्थ चित्रण का प्रयास मिलता है। इनमें स्पष्टतः नैतिकतावादी कृति, प्राचीन आदर्शों के प्रति व्यामोह एवं नयी सभ्यता की आलोचना दृष्टिगत होती है। कुछ उपन्यासों में ऐसी स्थापनाएं भी हुई है जो उस युग में भले ही महत्वहीन रही हो किंतु परवर्ती रचनाओं के लिए उन्होंने अवश्य ही प्रेरणा स्त्रोत का काम किया। पं. श्रद्धाराम फुल्लौरी कृत भाग्यवती (1877) पुरुषों की दासता से मुक्त होने के लिए विद्रोह करती नारी के माध्यम से ऐसे ही सुधारवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करती है। 'समाज परिवार से संबंधित उपन्यासों में कथा प्रायः अन्य पुरुष से आरम्भ होती है'। 'चन्द्रकला' में कथानक का विकास प्रथम पुरुष में हुआ है। इसीलिए इसे हिंदी का प्रथम आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया उपन्यास माना गया है।
किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यास अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि इन्होंने कथ्य की दृष्टि से भी उपन्यास को व्यक्ति जीवन से जोड़कर भावी उपन्यासकारों के लिए पूर्व पीठिका तैयार की। इनके सामाजिक उपन्यास 'चपला व नव्य समाज चरित्र (1903) तथा 'अंगूठी का नगीना' (1918) ने प्रेमचंद के लिए भूमिका निर्मित की।
प्रेमचंद पूर्व औपन्यासिक उपदेशात्मकता, आदर्शवादिता तथा सुधारवादी दृष्टि प्रेमचंद युगीन उपन्यासों में पूरी शिद्धत के साथ विकसित हुई। इसके साथ ही इस युग के उपन्यासकारों ने उपन्यास को कल्पना की रंगीनी से मुक्त करके जीवन के यथार्थ से भी जोड़ा। इन उपन्यासकारों का दृष्टिकोण भी परिवर्तित हुआ। उनका विषय और लक्ष्य भी बदला। प्रेमचंद ने 'सेवासदन' (1918) के प्रकाशन के साथ ही हिंदी उपन्यास साहित्य को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र' माना तथा मानव चरित्र पर प्रकाश डालना एवं उनके रहस्यों को खोलना उपन्यास का मूल तत्व है। प्रेमचंद ने जीवन की यथार्थ समस्याओं से जुड़कर समाज एवं व्यक्ति को प्रभावित करने वाले तत्वों का अन्वेषण किया। प्रेमचंद ने अपने युग को नया स्वर दिया। उन्होंने समाज के उन क्षेत्रों से अपने उपन्यासों का कथानक चुना जो तब तक अछूते थे। समाज की विभिन्न समस्याओं का चित्रण करके उनका समाधान प्रस्तुत करना ही उनका दृष्टिकोण था।
प्रेमचंद ने समाज की विभिन्न सामाजिक समस्याओं का चित्रण समाज को दृष्टि में रखकर किया। - उन्होंने व्यक्तिगत हित की अपेक्षा समाज हित को प्रमुखता दी है। उनकी विचारधारा पर सबसे अधिक प्रभाव महात्मा गांधी के विचारों का पड़ा। जीवन के - अंतिम वर्षों में वे मार्क्स से भी प्रभावित हुए थे।
प्रेमचन्द-युग के उपन्यासों का विषय भी समाज, वर्ग, परिवार, व्यक्ति और देशव्यापी समस्याओं से ही सम्बंधित था और आज भी स्त्री पुरुष के विभिन्न संबंधों - और सामाजिक-राजनीतिक विविध समस्याओं को लेकर ही उपन्यास लिखे जा रहे हैं।
देवेश ठाकुर ने अपने उपन्यासों में विसंगतिपूर्ण समाज की विविधताओं से भरी जिंदगी को सार्थक अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। देवेश ठाकुर शोषितों एवं दलितों के हितों की रक्षा के लिये, प्रतिबद्ध रचनाकार है। वे उस व्यवस्था से कभी भी सहमत नहीं हो पाते जिसमें सामान्य जनता भ्रष्ट व्यवस्था का शिकार होकर उसके आतंक से पीड़ित हो, किसी तरह मात्र सांस ले रही हो। अतः उनके उपन्यासों में ऐसी व्यवस्था के प्रति आक्रोश प्रकट होना स्वाभाविक ही है।
देवेश ठाकुर ने अपने उपन्यासों में जिस भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आक्रोश प्रकट किया है, उस व्यवस्था में सम्बंधों की गाँठ मात्र पैसे के आधार पर जुड़ती है। कोई भी चन्दन बेटा और भाई नहीं बल्कि एक मशीन बन गया है जो रुपये पैदा करे। सम्बंधों के इस कदर लिजलिजे हो जाने का ही परिणाम है कि बहिन जी कहने वाले कब बहिन जी के मर्द बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। ऐसी व्यवस्था में योग्यता और डिग्री का महत्व नहीं है। सब - स्थितियों में दाँत निपोरने का अभ्यास करना ही सफलता प्राप्त करने की योग्यता बन गई है।
पश्चिमी सभ्यता के अतिशय प्रभाव ने समाज को विसंगतियों को अत्यन्त ही सार्थक ढंग से उकेरा है। आज मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपनी आय के बत्तीस सौ रुपये में इन्श्योरेंस, फ्रीज का इंस्टालमेंट, आलमारी, टू इन वन का हिसाब लगाते-लगाते परेशान है। पैसे की कमी पड़ती है तो शरीर व्यापार भी शुरु हो जाता है। बम्बई = के 'ए' ग्रेड के रेस्तरा तो सिर्फ शराब और लड़कियों के धंधे पर खडे है। महानगरों में वेश्यावृति शिक्षितों और अभिजात्यों का धन्धा होता जा रहा है। महानगरीय जीवन इतना संवेदनाहीन एवं विकृत हो चुका है कि यहाँ शब्द व्यापार प्रमुख हो गया है और भावनायें गौण। कोई भी मिल मलकानी आदमी नहीं रह गया है, वह तो सिर्फ थैली है। पैसे से मुटाकर आदमी जानवर से भी बदतर हो गया है। वह बोलता कहाँ है, बस लीद करता है। व्यवहार करने के नाम पर वह मात्र जुगाली करता है।
महानगरीय जीवन की विभिषिका का दृश्य लेखक के ही शब्दों में- 'ये तुम्हारे बच्चे है। तुम थके हुये हो। बीवी अपना मन नहीं खोल सकती। बच्चे तुम्हें पहचानते भर है, क्योंकि रोज रात को इस घर में आते हो तुम। उनकी माँ से बातें करते हो। अन्यथा, भावात्मक स्तर पर एक दूरी-एक बेगानापन। घर से ऑफिस, ऑफिस से घर तक सब जगह फैला हुआ है'। काँचघर में लेखक ने पूरे परिवेश का नग्न एवं व्यंग्यात्मक चित्र खींचा है। सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। सामाजिक भ्रष्टाचार इस हद तक पहुंच गया है कि अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वकील बेशर्मी के साथ अन्तराष्ट्रीय तस्करों के पैरवीकर बने हुए है।
संवेदनहीन समाज में किसी गरीब के बेटे का इंतकाल हो जाता है, चार आदमी तक श्मशान जाने के लिये नहीं मिलते। किसी सेठानी का कुत्ता मर जाता है तो जैसे वह विधवा ही हो जाती है। हफ्तों 'सोग' मनाया जाता है। 'बाप से बेटा यह कहने में थोडी भी शर्म नहीं महसूस करता कि-डैडी डॉट इंसल्ट माई बर्थ। मैंने आपसे नहीं कहा था कि पैदा करो'।
राजनीतिक नेता चाहते है कि उनकी लाश तक को कुर्सी पर बिठाकर श्मशान तक ले जाया जाय और कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उनका दाह-संस्कार सम्पन्न हो। धर्म केंद्रों पर ही सबसे अधिक पाखंड और पाप पनप रहा है। त्याग की भूमि पर ही सबसे अधिक जमाखोरी हो रही है। मन्दिरों के आस-पास की नाली ही ज्यादा बदबू मारती है क्योंकि पत्रम्-पुष्पम वहीं सबसे ज्यादा सड़ते हैं।
यह घटियापन राजनीतिक-सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी - यही स्थिति है। आयाराम-गयाराम और दलबदलू राजनीति में ही नहीं, बल्कि साहित्य में भी है। थोड़ी सी दाढी बढा लो और बम्बई के अज्ञेय बन जाओ, वाली प्रवृति फैलती जा रही है। राजनीति के खिलाडी राजनीति में सफलता प्राप्त करने के बाद साहित्य में भी घुसपैठ करने लगे हैं। मुखौटेबाज साहित्यकारों पर कटाक्ष करते हुये 'कांचघर' का यह अंश द्रष्टव्य है- "कैपिटल का कवर भर देखा है और काफी हाउसों की मेज पर ऐसे मुक्के पटक-पटककर और चिल्लाकर बहस करेंगे कि जैसे मारे डर के मार्क्सवाद उनके चरणों के पास भागा चला आयेगा-और कहेगा हे मार्क्स के रक्तबीजों, मैं उपस्थित हूँ। मुझे अपनी धरती पर शरण दे दो। लेकिन काफी हाउस की पुरानी मेजों को मत तोड़ो और अपना गला मत फाडो"।
'भ्रमभंग' में मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं एवं पैसे पर खड़े सम्बंधों की अभिव्यक्ति दी गई है तो 'कांचघर' में महानगरीय जीवन की भावना शून्य जिंदगी के विविध-चित्र कटाक्ष करते हुये अंकित किये गये हैं। 'प्रिय शबनम' और 'इसीलिए' में भी मध्यवर्गीय व्यक्ति की विडम्बनाओं के साथ-साथ भ्रष्ट एवं दृषित व्यवस्था को उकेरा गया है।
देवेश ठाकुर व्यवस्था में व्याप्त विषमताओं और उसके लिये जिम्मेदार व्यक्तियों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित करके सार्थक विद्रोह का स्वर उठाने के समर्थक रहे हैं। इसी कारण उनकी दृष्टि अनायास ही अपने परिवेश में व्याप्त विसंगतियों की ओर जाती रही है। भ्रष्ट व्यवस्था, महानगरीय जीवन की विडम्बनाओं, धर्म, राजनीति, शिक्षा एवं व्यापार के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर किये गये उनके प्रहार उनकी इसी दृष्टि के परिचायक है।
डा. ठाकुर मानव समाज के उन्नयन के पक्षधर है। रचनाकार को अपने युग धर्म के अनुकूल रचना करने की आजादी हो, क्योंकि यह उसका अधिकार है। आज के मानववादी आदर्श के युग में देवताओं और भगवानों की अपेक्षा मानव की प्रतिष्ठा पर बल दिया जाये। नवनिर्माण के लिए पुरातन को खंडित होना ही पड़ता है। पुरातनता और पौराणिकता का यह खंडन मात्र खंडन के लिए न होकर मनुष्य के समाज में मनुष्य की प्रतिष्ठा को स्थापित करने का प्रयत्न है।
डा. ठाकुर लेखक को समाज का विशिष्ट व्यक्ति मानते हैं। साहित्यकार समाज का सबसे अधिक संवेदनशील और गंभीर रुप से सामाजिक यथार्थ का अवलोकनकर्ता होता है। वह समाज की सच्चाइयों को उनके तल में जाकर खोजता और चिंतन मनन करता है। उसकी दृष्टि प्रखर होती है। अपनी इस योग्यता और उपलब्धि के बल पर अपने समाज को जानने-समझने की जितनी सामर्थ्य और ऊर्जा उसमें होती है, वैसी सम्भवतः अन्य सामाजिकों में नहीं होती। साहित्यकार अपनी इस विशिष्ट प्रतिभा का उपयोग अपने परिवेश को उन्नत बनाने के लिये करता है। वह अपने लेखन से जनसामान्य को सही दिशा दिखाता है। किसी भी लेखक का लेखन व जीवन तभी सार्थक होता है जब उसकी दृष्टि सामाजिक असंगतियों का विश्लेषण कर उनके समाहार और इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था के उन्नयन पर हो।
लेखक अपने लेखन में अपनी निजी अनुभूति, निजी विचारों और निजी मानसिकता को ही विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्ति देता है। सामाजिक परिवेश के बीच ही निजी मानसिकता विकसित होती है। जिस प्रकार के समाज में व्यक्ति जीता है, उसी प्रकार के उसके विचार बनते हैं और उसके सामाजिक दर्शन को उसी प्रकार ढ़ालते हैं। बड़े समाज के बीच अनेक छोटे-छोटे समाज होते हैं जिनमें विभिन्न वर्ग के साहित्यकार भी अपना जीवन यापन करते हैं। उनका अपना एक परिवेश होता है और यह परिवेश ही उनमें खास किस्म के संस्कार पैदा करता है। एक ही काल खण्ड में अनेक प्रकार की रचनाएं प्रकाश में आती है क्योंकि अलग प्रकार के सामाजिक वर्गों में रहने वाले साहित्यकारों ने उन्हें रचा होता है।
- डॉ. के. संगीता
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