Rakesh Kumar Singh Ke Upanyas Mein Bharar Ki Nyayik Vyavastha Ke Darshan, Hindi Upanyas Samiksha, Novels in Hindi.
Rakesh Kumar Singh Novels
Philosophy of India's judicial system in Rakesh Kumar Singh's novel
राकेश कुमार सिंह के उपन्यास में भारत की न्यायिक व्यवस्था के दर्शन
राकेश कुमार सिंह एक सच्चे, ईमानदार, साहसी और सफल साहित्यकार हैं। कथारस और जन-पक्षधरता का यौगिक ही उनकी रचनाओं के सरोकार की जमानत है।
उनके उपन्यास 'साधो, यह मुर्दों का गांव' में विचाराधीन कैदियों की नारकीय जीवन स्थितियों और जटिल, मनोविज्ञान को प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने गहन शोध करते हुए लगभग बारह हज़ार भारतीय जेलों में न्यायिक अभिरक्षा के नाम पर बंद लगभग दो करोड़ चालीस लाख मामले पाये हैं। इनमें तकरीबन तीन लाख ऐसे प्राणी समाज शास्त्रीय अध्ययन, चिकित्सा मनोविज्ञान, शोध ग्रंथों या आंकड़ों के 'सर्वे सैंपल' मात्र बने जिये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के उच्च मानदंडों के प्रति आस्थावान एक प्रतिबद्ध खोजी पत्रकार की डायरी के विरल शिल्प में यह उपन्यास लिखा गया है। लगभग अछूते विषय पर लिखा गया यह उपन्यास मात्र एक मामूली कैदी अवनी बाबू की वैयक्तिक त्रासदी और मनःस्थितियों का बयान भर नहीं है, बल्कि पुलिस तंत्र की संदेहास्पद भूमिका, प्रशासनिक अत्यवस्था, भारतीय कारागारों की अमानवीय स्थितियों, न्याय प्रणाली की विडंबनाओं तथा अपराध और दंड की मारक विसंगतियों की गैर मामूली पड़ताल भी है।
अवनीश चन्द्र बत्रा, नामक एक विचाराधीन कैदी 'दो हज़ार एक' पर पत्रकार दीपांकर शोध करते हैं। यहाँ पर उन्हें भारत की न्यायिक व्यवस्था का घृणित रुप दिखाई देता है। अपने शोध के दौरान वे देखते हैं कि लगभग तीन लाख विचाराधीन कैदी केवल भारत वर्ष की विशिष्ट प्रजाति के रूप में विद्यमान है। आजीवन कारावास का कलंक न चैन से जीने देता है, न शांति से मरने ही देता है।
'दो हज़ार एक' न्यायिक अभिरक्षा के नाम पर लगभग पूरी उम्र जेल में बंद रहा, किंतु अभी तक उस पर कोई मुकद्दमा नहीं चला। दीपांकर, भारतीय न्याय व्यवस्था पर प्रश्न, क्रोध और घृणा का भाव रखते हुए कहते हैं, देश की बारह हज़ार जेलों में बंद लगभग ढाई- तीन लाख विचाराधीन कैदी। इनमें से आधे तो सिर्फ उत्तर प्रदेश और बिहार की जेलों में बंद हैं। कोई बड़ा नेता या मंत्री जेल में घुसता है और अदालतों में फौरन सुनवायी शुरु हो जाती है।... साधारण आदमी न्याय की प्रतीक्षा में तिल-तिल गलता, वर्षों गुज़ार देता है और मुकद्दमा खुलता तक नहीं। दीपांकर, षड़यंत्रकारी भ्रष्ट हो चुकी न्यायिक जाँच की धीमी गति को बताते हुए कहते हैं- "बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री ललित नारायण मिश्र की बम विस्फोटक में हत्या से लेकर, भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या तक की न्यायिक जाँच किस गति से चली यह चुटकुलों का विषय है।"
अवनीश चन्द्र बत्रा (जो एक प्रतिष्ठित शिक्षक थे) अपनी गुमशुदा पत्नी की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज कराने आते हैं। किंतु पुलिस ने उल्टा उनपर ही अपनी पत्नी का हत्यारा होने का आरोप लगा दिया। उनके घर में नक्सली साहित्य को रखा गया। और नक्सलवादी सिद्ध कर दिया गया। अवनी बाबू के साथ होता हुआ यह अत्याचार उनकी मानसिक दशा को विचलित कर देता है। वे असहनीय होकर पुलिस तंत्र पर घूसखोरी का आरोप लगा देते हैं। दरोगा, इस गुस्ताखी को बर्दाश्त नहीं कर पाता है और अवनी को आजीवन कारावास की सज़ा दिलाकर ही, अपना प्रतिशोध लेता है।
जेल अधिकारियों के इशारे पर अवनी बाबू को विक्षिप्त घोषित करके मुकद्दमे के अयोग्य सिद्ध कर दिया गया।
अवनी बाबू का सच सुनने के बाद पत्रकार दीपांकर को भी उन न्यायाधीशों के नाम याद आने लगे जो अवनी बाबू के सच को वैधता प्रदान कर सके।
वे कहते हैं- "मुंबई के एक जज साहब के संबंध दुबई, कराची से गैर कानूनी धंधा संचालित करने वाले एक डॉन से जुड़ते हैं और जज महोदय चालीस लाख के लाभ के बदले डॉन के गुंडों को ज़मानतें प्रदान करते जाते हैं। इलाहबाद के एक न्यायमूर्ति के रिश्ते जम्मू कश्मीर के उग्रवादियों से जुड़ते हैं और न्यायमूर्ति महोदय गृहमंत्री की पुत्री के अपहरण कांड में बिचौलिये की भूमिका निभाते हैं। कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति अपने छत्तीस हज़ार के विदेशी चश्मे की कीमत का भुगतान सरकारी कोष से कराने के लिए छत्तीस पैंतरे इस्तेमाल करते हैं।"
अंततः भारत की न्याय व्यवस्था का कटु यथार्थ बताते हुए लेखक राकेश कुमार सिंह कहते हैं- "अनेकानेक मुर्दों का गांव है" यह भारत महान। 'अंडरट्रॉयल प्रिज़नर्स का जनक' और पोषक है, यह प्रगतिशील हिन्दुस्तान। कितने कितने अवनी बाबूओं, प्रगतिशील कितने बाबूओं, कितनी कितनी ज़िंदा लाशों का कब्रिस्तान है यह आर्यावर्त का कारागार। जिंदा 'ममियों के ये पिरामिड़।'
- डॉ. जी. एच. नीता
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