मेवाड़ की वीरांगना का बलिदान : राजकुमारी कृष्णा

Dr. Mulla Adam Ali
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Bharat Ki Mahan Virangana Krishna

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वीरांगना रानी कृष्णा का बलिदान

वीरांगना कृष्णा

पन्द्रहवीं शताब्दी की बात है। इस काल में राजपूताना अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था एवं इन राज्यों के राजपूत शासक अपनी झूठी आन-बान-शान के लिये परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते थे। इन झगड़ों का मुख्य कारण था-सुंदर स्त्रियाँ।

राजपूत राजा अनेक पत्नियों के होते हुए भी, जहाँ कहीं भी किसी सुंदर राजकुमारी के होने की खबर पाते, विवाह का प्रस्ताव भेज देते थे। यदि लड़की का पिता उनका विवाह प्रस्ताव अस्वीकार कर देता तो वे तुरंत उस पर आक्रमण कर देते, जिससे हजारों राजपूत अकारण मारे जाते। राजपूतों का इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा है।

मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह बड़े वीर, साहसी और बुद्धिमान शासक थे। वे अकारण युद्ध करने के स्थान पर अपनी प्रजा के हित में कार्य करना अधिक श्रेष्ठ समझते थे। इसलिये उनके शासन काल में मेवाड़ की प्रजा बड़ी सुखी एवं सम्पन्न थी।

महाराणा भीमसिंह के एक बेटी थी-कृष्णा। राजकुमारी कृष्णा बचपन से ही अत्यंत सुंदर थी। उसे जो भी एक बार देख लेता, उस पर मोहित हो जाता। राजकुमारी कृष्णा जैसे-जैसे बड़ी होती गयी, उसके सौन्दर्य में निखार आता गया। धीरे-धीरे उस अनिंद्य सुंदरी के रूप की चर्चा सम्पूर्ण राजपूताने में फैल गयी।

महाराणा भीमसिंह राजकुमारी कृष्णा के विवाह को लेकर बहुत चिंतित थे। उनके पास अनेक राजपूत राजाओं की ओर से विवाह प्रस्ताव आ रहे थे, किन्तु वह अपनी कन्या को किसी योग्य व्यक्ति के हाथों सौंपना चाहते थे। अन्त में बहुत सोच-विचार करके उन्होंने जोधपुर नरेश के साथ राजकुमारी कृष्णा की सगाई कर दी।

इसी समय एक घटना घटित हो गयी। जयपुर नरेश मेवाड़ के जंगल से शिकार खेल कर वापस लौट रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि कृष्णा पर पड़ी। कृष्णा अपनी सखियों के साथ वनदेवी की पूजा करने गयी थी।

जयपुर नरेश ने कृष्णा को देखा तो देखते ही रह गये। कृष्णा उन्हें स्वर्ग की अप्सरा सी लगी। उन्होंने कृष्णा के वंश का पता लगाने के लिए एक दूत भेजा।

जयपुर नरेश को जब यह मालूम हुआ कि कृष्णा राजपूत है और महाराणा भीमसिंह की पुत्री है तो उनकी आँखों में चमक आ गयी। बस फिर क्या था, उन्होंने जयपुर पहुँचते ही महाराणा भीमसिंह के पास कृष्णा के विवाह का प्रस्ताव भेज दिया।

महाराणा भीमसिंह जयपुर नरेश के इस प्रस्ताव से असमंजस में पड़ गये। वह जोधपुर नरेश को वचन दे चुके थे और राजपूत होने के नाते अपना वचन नहीं तोड़ सकते थे। दूसरी ओर जयपुर नरेश अत्यंत शक्तिशाली थे। उनकी विशाल सेना का सामना करने की क्षमता न मेवाड़ में थी और न ही जोधपुर में।

कई दिन बीत गये। अंत में उन्होंने राजपूती शान का निर्वाह करते हुए कृष्णा का विवाह जोधपुर नरेश से करने का निश्चय किया और अपने निर्णय से जयपुर नरेश को अवगत करा दिया।

किसी तरह यह खबर जोधपुर नरेश को भी मिल गयी। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और युद्ध की तैयारी आरम्भ कर दी।

जयपुर और जोधपुर की राजपूत सेनाओं में भयानक युद्ध हुआ। जोधपुर की सेना छोटी थी एवं पूरी तरह युद्ध के लिये तैयार नहीं थी। अतः जयपुर नरेश की विजय हुई।

जयपुर नरेश को यह विश्वास हो गया था कि महाराणा भीमसिंह बिना युद्ध के कृष्णा का विवाह नहीं करेंगे। अतः उन्होंने अपनी सेनाओं का रुख चित्तौड़ की तरफ मोड़ दिया और शीघ्र ही उनकी सेनाओं ने चित्तौड़ के किले की घेराबंदी कर ली।

महाराणा भीमसिंह तो पहले से ही युद्ध के लिये तैयार थे। कृष्णा अपने कुमारीगृह के एक कोने में बेचैनी से टहल रही थी। जोधपुर नरेश की हार से उसका हृदय टूट चुका था। वह जानती थी कि मेवाड़ की छोटी सी सेना जयपुर नरेश की सेना का मुकाबला अधिक समय तक नहीं कर सकती। इस युद्ध में भी सैकड़ों राजपूतों की मृत्यु निश्चित थी।

कृष्णा युद्ध नहीं चाहती थी। वह असमंजस में पड़ गयी। यदि वह जयपुर नरेश के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती तो यह उसके पिता का अपमान था और यदि ठुकरा देती तो मेवाड़ का सर्वनाश निश्चित था।

वह बहुत समय तक सोच-विचार करती रही और अंत में उसने एक साहसिक निर्णय ले लिया।

विषपान का निर्णय ।

मेवाड़ की रक्षा के लिये उसका बलिदान आवश्यक हो गया था। इस साहसी निर्णय के साथ ही कृष्णा का चेहरा अलौकिक तेज से चमक उठा। उसने पवित्र सरोवर में स्नान किया, दुल्हन की तरह श्रृंगार किया और पूजा की थाली लेकर भगवान शंकर के मंदिर में पहुँची।

भगवान नीलकंठ ने भी विश्व को विनाश से बचाने के लिये विषपान किया था।

कृष्णा ने बड़ी श्रद्धा से भगवान शिव का पूजन किया और विष से भरा प्याला एक ही सांस में पी गयी।

महाराणा भीमसिंह कृष्णा के विषपान का समाचार सुनते ही शिव मंदिर की ओर भागे, किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

कृष्णा का शरीर विष के प्रभाव से नीला पड़ चुका था।

इधर जयपुर नरेश बड़ी बेचैनी से महाराणा भीमसिंह के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी दृष्टि किले के मुख्य द्वार पर लगी थी।

अचानक किले का द्वार खुला।

जयपुर नरेश आगे बढ़े, किन्तु उनके कदम ठिठक कर रहे गये। किले से महाराणा भीमसिंह उदास, आँखों में आंसू भरे, सर झुकाये निकल रहे थे और उनके पीछे कृष्णा की अर्थी थी।

जयपुर नरेश ने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। वह कृष्णा के बलिदान से हतप्रभ रह गये। उनका सर वीरांगना कृष्णा के त्याग के सम्मुख श्रद्धा से झुक गया।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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