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Bharati Ki Mahan Virangana
वीरांगना पद्मिनी : सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी चित्तौड़ आकर महारानी पद्मिनी बन गयी। राजा रत्नसेन सभी प्रकार से पद्मिनी का ध्यान रखते थे। रानी पद्मिनी भी उन्हें हृदय से प्रेम करती थी। दोनों का जीवन बड़े सुख और आनंद से भरा हुआ था। किंतु उनका सुख और आनंद अधिक समय तक न रह सका। पढ़िए पूरी कहानी सिंहल द्वीप की पद्मिनी की।
Rani Padmini Ki Kahani
Rani of Singhal Dweep Padmini
हमारे देश में जिन वीर बालाओं ने अपने प्राणों की आहूति देकर अपने मान-सम्मान की रक्षा की, उनमें वीरांगना पद्मिनी का नाम सर्वोपरि है।
राजकुमारी पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा की पुत्री थी। वह बचपन से ही बड़ी सुंदर और बुद्धिमान थी। पद्मिनी जब बड़ी हुई तो उसकी बुद्धिमानी के साथ ही उसके सौन्दर्य के भी चर्चे चारों तरफ होने लगे। पद्मिनी का लंबा इकहरा शरीर, झील-सी गहरी आँखें और परियों सा सुंदर रंग-रूप सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। सिंहल द्वीप के अनेक राजपुरुष और आसपास के राजा-राजकुमार आदि पद्मिनी से विवाह करने के लिए लालायित थे। किंतु सिंहल नरेश राजकुमारी पद्मिनी का विवाह किसी ऐसे व्यक्ति के साथ करना चाहते थे, जो उसकी आन-बान और शान की रक्षा करने में सक्षम हो।
सिंहल नरेश ने राजकुमारी पद्मिनी के लिए उसके युवा होते ही वर की खोज आरम्भ कर दी। उन्होंने अनेक राजाओं राजकुमारों तथा राजपुरुषों के संबंध में जानकारियाँ एकत्रित कीं, किंतु उन्हें कोई भी राजकुमार पद्मिनी के योग्य नहीं मिला। इसी समय सिंहल नरेश के एक विश्वासपात्र सेवक ने चित्तौड़ के शासक राजा रत्नसेन के विषय में उन्हें बताया। राजा रत्नसेन बड़े वीर, साहसी और बुद्धिमान शासक थे। अतः सिंहल नरेश ने पद्मिनी का विवाह रत्नसेन के साथ कर दिया।
सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मिनी चित्तौड़ आकर महारानी पद्मिनी बन गयी। राजा रत्नसेन सभी प्रकार से पद्मिनी का ध्यान रखते थे। रानी पद्मिनी भी उन्हें हृदय से प्रेम करती थी। दोनों का जीवन बड़े सुख और आनंद से भरा हुआ था। किंतु उनका सुख और आनंद अधिक समय तक न रह सका।
रानी पद्मिनी के रूप और सौन्दर्य के चर्चे उसके विवाह के बाद भी हो रहे थे। चित्तौड़वासी अपनी महारानी के रूप की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
उस समय दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी का शासन था। अलाउद्दीन खिलजी एक क्रूर और चरित्रहीन शासक था। उसने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या करके दिल्ली का साम्राज्य प्राप्त किया था। अलाउद्दीन सुंदर स्त्रियों का दीवाना था। उसने जब रानी पद्मिनी के सौन्दर्य के विषय में सुना तो उसे पाने के लिए मचल उठा। अलाउद्दीन ने पहले राजा रत्नसेन के पास दूत भेजकर संदेश दिया कि वह अपनी रानी को उसे सौंप दे। लेकिन जब रत्नसेन ने ऐसा करने से इंकार किया तो अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी।
चित्तौड़ के बहादुर राजपूत सैनिकों के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। एक ओर अलाउद्दीन की विशाल सेना और दूसरी ओर रत्नसेन के मुट्ठीभरसैनिक। दोनों ओर से घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। अलाउद्दीन के लड़ाकू सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। किंतु चित्तौड़ के लिए यह उसकी रानी की अस्मिता का प्रश्न था, अतः चित्तौड़ के सैनिक जान हथेली पर लेकर युद्ध कर रहे थे।
धीरे-धीरे कई दिन बीत गये।
चित्तौड़ के वीरों का साहस देखकर अलाउद्दीन को लगा कि वह यह युद्ध नहीं जीत सकता। अतः उसने छलकपट की नीति अपनाने का निश्चय किया। अलाउद्दीन ने युद्ध रोक दिया और अपना एक दूत राजा रत्नसेन के पास भेजा। उसने राजा रत्नसेन से कहा कि अलाउद्दीन रानी पद्मिनी के दर्शन करना चाहता है। वह पद्मिनी के केवल दर्शन करके लौट जाएगा। यदि रानी पद्मिनी पर्दा करती है और सामने नहीं आना चाहती तो वह दर्पण में ही रानी के दर्शन कर लेगा।
राजा रत्नसेन ने रानी पद्मिनी से विचार विमर्श किया। वह अलाउद्दीन की चाल नहीं समझ सके। उन्हें लगा कि रानी पद्मिनी के अलाउद्दीन को दर्शन कराने में कोई अपमान नहीं। अतः उन्होंने दूत को अपनी स्वीकृति दे दी।
अलाउद्दीन अपनी चाल की सफलता पर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह अपने कुछ सैनिकों के साथ रानी पद्मिनी के महल में पहुँचा और एक आसन पर बैठ गया। उसके सामने एक विशाल दर्पण रखा था। इसी समय रानी पद्मिनी दर्पण के सामने से गुजरी। अलाउद्दीन ने दर्पण में रानी का प्रतिबिंब देखा। रानी वास्तव में अद्वितीय सुंदरी थी। अलाउद्दीन ने उस अद्वितीय सुंदरी को देखा तो उसके भीतर उसे पाने की इच्छा और बलवती हो उठी।
रानी पद्मिनी को देखने के बाद अलाउद्दीन किले के बाहर आ गया। राजा रत्नसेन भारतीय परंपरा का निर्वाह करते हुए उसे भेजने के लिए उसके साथ बाहर तक आये। यही उनकी भूल थी। अलाउद्दीन के सैनिक किले के बाहर छिपे थे। उन्होंने रत्नसेन को अकेला पाकर कैद कर लिया।
रानी पद्मिनी को जब यह दुखद समाचार मिला तो उसने अपने भाई और चाचा को बुलाकर मंत्रणा की तथा छल का बदला छल से लेने का निश्चय किया।
रानी पद्मिनी ने अलाउद्दीन को समाचार भेजा कि वह अपनी सात सौ सहेलियों के साथ उसके पास आने के लिए तैयार है। किंतु इसके लिए शर्त यह है कि अलाउद्दीन अपनी सेनाएँ किले से दूर ले जाये तथा उसे राजा रत्नसेन से मिलने दिया जाये।
अलाउद्दीन ने रानी पद्मिनी की दोनों शर्तें मान लीं और अपनी सेनाओं को किले से दूर एक खुले स्थान पर ले गया।
इधर रानी पद्मिनी के निर्देश पर सात सौ पालकियों में सात सौ राजपूत सैनिक स्त्रियों की वेशभूषा में बैठे और रानी पद्मिनी स्वयं एक पालकी में बैठकर अलाउद्दीन के डेरों की ओर चल पड़ी। इन पालकियों को ढोने वाले भी सैनिक थे तथा उन्होंने अपने हथियार अपने कपड़ों के
भीतर छिपा रखे थे। रानी पद्मिनी की पालकी उसी स्थान पर रुकी जहाँ रत्नसेन बंदी थे। रानी पद्मिनी राजा रत्नसेन से मिली और उसने अपनी योजना राजा
को बता दी। इसी मध्य अलाउद्दीन के सैनिकों और चित्तौड़ के रणबाकुरों के बीच भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। रानी पद्मिनी और राजा रत्नसेन ने इस अवसर का लाभ उठायां और दो घोड़ों पर सवार होकर भाग निकले।
अलाउद्दीन को जब यह समाचार मिला तो वह अपना सर पकड़ कर बैठ गया। उसकी सारी योजना व्यर्थ गयी। जान-माल के भारी नुकसान के बाद भी वह रानी पद्मिनी को नहीं पा सका।
अलाउद्दीन कुछ समय तक शांत रहा। इसके बाद सन् 1330 में उसने पुनः चित्तौड़ पर आक्रमण किया। इस बार वह विशाल सेना लेकर पूरी तैयारी के साथ आया था।
राजा रत्नसेन अलाउद्दीन की शक्ति से परिचित थे। फिर भी उन्होंने अपने रणबांकुरों को तैयार किया और युद्ध के मैदान में डट गये। कुछ ही समय में दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ पहुँची और उनमें भयंकर मारकाट आंरभ हो गयी।
रानी पद्मिनी भी इस युद्ध का परिणाम जानती थी। वह जीते जी क्रूर शासक अलाउद्दीन के हाथों नहीं पड़ना चाहती थी। अतः उसने अन्य राजपूत बालाओं के साथ जौहर करने का निर्णय लिया।
चित्तौड़ के किले के भीतर ही एक स्थान पर लकड़ियों का एक विशाल ढेर बना कर हवनकुण्ड सा तैयार किया गया और उसमें आग लगा दी गयी। सर्वप्रथम रानी ने हवनकुण्ड में प्रवेश कर अपने प्राणों की आहूति दी। इसके बाद अन्य क्षत्राणियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया।
राजा रत्नसेन और उनके बहादुर सैनिकों को जब रानी पद्मिनी के जौहर की सूचना मिली तो वे क्रोध से भर उठे और भूखे भेड़ियों के समान अलाउद्दीन की सेना पर टूट पड़े, किंतु अलाउद्दीन की विशाल सेना के समक्ष अधिक समय तक न टिक सके।
इस प्रकार अलाउद्दीन की विजय हुई। किंतु वह जीत कर भी हार गया। अलाउद्दीन जब चित्तौड़ के किले के भीतर पहुँचा तो वहाँ उसे रानी पद्मिनी के स्थान पर उसकी अस्थियाँ मिलीं। रानी पद्मिनी का जौहर देख कर अलाउद्दीन का क्रूर हृदय भी द्रवित हो उठा और उसका मस्तक इस वीरांगना के लिए श्रद्धा से झुक गया।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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