सड़क संस्कृति का समाजशास्त्र : हिन्दी व्यंग्य

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Satire Sociology of street culture by B. L. Achha ji, Hindi Vyangya Aalekh, Sadak Sanskruti aur SamajShastr.

Sadak Sanskruti aur SamajShastr

sociology of street culture

Sociology of Street Culture

सड़क संस्कृति का समाजशास्त्र

- बी. एल. आच्छा

सड़क और लोकतंत्र? आप कहेंगे कि सड़क बेजान है और लोकतंत्र जानदार। मगर सड़कें बेहद सामाजिक और लोकतांत्रिक होती हैं। पंचायतीराज की पगडंडी राम- राम, दुआ- सलाम करती हुई सड़क में बदल जाती है। सड़क से राजमार्ग के फोरलेन या सिक्सलेन पर। राजमार्ग से शिखर तक चली जाती हैं। सड़क की खूबी ही यह है कि वे शिखर तक ले जाती हैं और शिखर से सड़क पर ला भी देती हैं। सड़क बन जाए तो झंडे गाड़ देती है। पर गाँव-मोहल्ले में सड़क न बने तो नोटा की पट्टी गाड़ देती है। सड़कें जिंदा हैं। लोग यों ही नहीं कहते कि सड़क रात दिन चलती है।

सड़क लोकतांत्रिक समाज की संजीवनी है। बाजार तो सड़क से है। विज्ञापनों के हार्डिंग्स इनकी प्रदर्शन पूँजी है। विज्ञापन वाहनों के डिजिटल जुलूस सड़क को संगीतमय बना देते हैं।बिजली के खंभों पर झंडियाँ इनका परचम है। सड़क ही हर जोर- जुल्म की टक्कर की जुझारू अभिव्यक्ति है। सड़क जीत के नगाड़ों की थिरकती जमीन है। सड़कें ही लोकतांत्रिक प्रदर्शनों का रण क्षेत्र हैं। ये भीड़ जुटाती हैं। नारों का शोर मचाती है। आंदोलनों में लोहे के बैरिकेट लगवा देती हैं। पानी की बौछारों से रोकती हैं। अश्रु गैस से भगाती है। पर लोकतांत्रिक प्रदर्शनों को रोकती नहीं हैं। देखा जाए तो सड़‌कें ही अभिव्यक्ति के सभागार में जनसमूह का एनीकट है। कुछ देशों में आंदोलन के मैदान तय होते हैं। पर हमारे यहां धमनियों में बहते खून की तरह सड़कें लोकतांत्रिक आंदोलन का प्रवाह है।-

सड़कें विवाहों का चल समारोह हैं। थिरकते डीजे की सड़क-ताल और बारातियों की कदमताल है। घोड़ा- नृत्य से लेकर सड़क- नृत्य का वैवाहिक प्रोमो है। दूल्हे की ठसक- मुद्रा का युवराजी प्रदर्शन है। नोटों को ऊपर किये हाथों से बैण्ड- संगीत का शिखर सम्मान है।

सड़कें बेहद सामाजिक और संवेदन‌शील होती हैं। मोहल्ले में विवाह का सड़क-भोज हो या पूजा-भण्डारे। सड़कें कभी मनाही नहीं करतीं। कनातें और पांडाल रोक देते हैं आवागमन को । पर कोई टूं-टां नहीं करता। सड़कें त्यौहारों में जितनी सजती हैं, रौशनियों में उतनी ही नहाती हैं। मृत्यु की शोकान्तिका में अनासक्त होकर करुणा का जुलूस बन जाती हैं। फूल बरसाती हुई सड़क चलते- फिरते लोगों से मुक्ति प्रार्थना करवा लेती हैं ।

कचरा फेंक संस्कृति का आश्रय स्थल हैं सड़कें। यों वाहनों में बजते स्वच्छता राग का असर पड़ा है। फिर भी अपना कचरा दूसरे के घर की ओर सरकाने या सड़क तक बुहारकर छोड़ देने का संस्कार अभी बीते जमाने की बात नहीं है। हर कोई यही चाहता है कि कचरा और बदरंग कचरादान पराये घर के पास ही रहे।

सड़कें हमेशा ही अतिक्रमण से गोद भराई करती हैं। दुकान की सरहद के आगे लटका पसरा सामान उसका एक्सटेंशन है। उसके कंगूरे सीमा नहीं पहचानते। शोरूम की डमी प्रतिमाएं कांच से लुभाती रहें।।सब्जियाँ दुकानों के बजाए सड़कासन में ही बिकना जानती हैं। फलों के ठेले सड़‌क पर ही चलित पट्टा कायम किये रहते हैं। फुटपाथ भी सड़क का आउटलेट है। जगह मिली तो मिनी दुकान जम गई। न हो तो बरसों पुराना ऑटो-स्कूटर ही देश की तरक्की की एंटीक प्रदर्शनी बना रहेगा। पुराने टूटे फर्नीचर की आरामगाह या कबाड़ का बिखरा शिल्प। यों भी भारतीय मानस इतना पोचा नहीं है कि रोजगार के लिए तरसती करुणा को सुखाकर इन सबको सफाचट कर दे। सड़कें पेट और रोजी- रोटी का ख्याल रखती हैं । सिक्कों का दान पाने के लिए हाथ फैलाती कतारें दिख जाती हैं। चाय की गुमटियाँ तो नुक्कड़ सभा- सी बन जाती हैं। कभी अच्छी सी गुमटियाँ कस्बाई साहित्यकारों का रोजमर्रा स्टेन्डिंग- विमर्श।

सड़क और गड्‌ढों का जन्मजात संबंध है। सड़क बनी नहीं कि कहीं से गड्ढ़ा झाँकने लगता है। जैसे बिना प्रेम के रिश्ते टूटने लगते हैं, वैसे ही कम डामर से कंक्रीट का परिवार बिखरने लगता है। सड़कें मरम्मत उद्योग की रोजगार संभावना हैं । उखड़ती सड़कें और भरते गढ्ढ़े थेगली सौंदर्य में चौकन्ना किए रहते हैं। गड्ढ़े ही ड्राइविंग लायसेंस के परीक्षक हैं। बरसात में सड़क और सीवरेज को मिलाते छेद जब मिट्टी स्नान करने लगते हैं ,तो सड़‌कें पोखर बन जाती हैं। कुछ महानगरों में सड़कें झील बन जाती हैं। बहती सड़कें जलमार्ग- सी नजर आती हैं । हाईराइज कॉलोनियों की सड़‌क का टिपटॉप रुतबा होता है । मीडियम बस्तियों का जरा उखड़ा- संकड़ा। नदी-नाले की सड़कों पर वाहनों से कीचड़ स्नान का खतरा चौकन्ना किये रहता है।

चौराहों की बत्तियाँ वाहनों को बहाती हैं। पीली बत्ती होने से पहले एक्सिलरेटर मुस्तैद। हरी होते ही आगे के वाहनों को पैं- पैं के हॉर्न से कर्णभेदी बना देती हैं। क्षण- क्षण की जल्दी में वाहन इंच- इच सरकने लगते हैं। कभी वाहनों के बीच बहते पानी की तरह रास्ता बनाते वाहन अपना कट- पराक्रम दिखा जाते हैं।जैसे एलओसी पर सेनाएँ इंच- इंच सरकती हैं, वैसे ही चौराहे पर गाड़ियां सरकती हैं। पर बुल्लेट साहसवाले जरा- सा खालीपन पाकर ही लाल बत्ती को धता बताते पार हो जाते हैं।

सड़कें सबकी हैं। कस्बाई सड़‌कों के बीच में कभी पशु जुगाली के साथ मौन-विमर्श करते रहते हैं। सड़क पर दो पशुओं की सींग -धंसाई चौकन्ना कर देती है। गंवई सड़कों पर वाह सड़कों की गोबर-लिपाई कर जाते हैं। यों कस्बाई चौराहे पालतू पशुओं के आरामगाह बने रहती हैं।

सड़क बनना जनता की पुकार है और खुदते रहना उनकी नियति।वाहन टकराएं तो डिवाइडर खुद डिवाइड हो जाता है।सभा हुई नहीं कि बल्लियां गड्ढ़े बना जाती हैं। नयी सड़क बनी नहीं कि नया नल कनेक्शन गड्ढे बना जाता है।टेलीफोन लाइन के लिए लंबी पट्टी खोदकर सीमेंट लीप दी जाती है । कभी सीवरेज के गड्ढे लाल झंडियां लगवा देते हैं। कभी खंभे की बिजली अंडरग्राउंड होती है तो सड़क का ऑपरेशन हो जाता है।अब पूछ भी लें कि नयी सड़क बनाने से पहले विभागों के बीच लिखा-पढ़ी की कागजी मुनादी क्यों नहीं करते? उत्तर क्या दें? हर विभाग का अपना बजट, अपनी स्वायत्तता।और सड़कों का कितना ही चौड़ीकरण करो, मगर उनका संकड़ीकरण होते देर नहीं लगती। वाहनों की चिल्ल-पों सड़क संगीत का आठवां सुर बना रहता है।

सड़कों ने हिंदी के मुहावरे को भी फेल कर दिया है। नाच न जाने आंगन टेढ़ा सड़क- नृत्य के आगे बेमानी है। उखड़ती सड़क पर भी कितने वाहन नृत्य वक्रता करते अपने कौशल का प्रमाणपत्र पा जाते हैं। कितने वाहन जलभराव में छींटा- नृत्य से पैदलियों को स्नान करवा देते हैं। कितने वाहन पुल पर बहते पानी में दौड़ लगा जाते हैं। कितने अटक कर लंबी देर का समाधि नृत्य किए रहते हैं। कितने वाहन सड़क पर ही स्टैपनी परिवर्तन से दर्शकों का झुंड लगवा देते हैं।

नये राजमार्गों ने सड़कछाप जैसे मुहावरे की धुलाई कर दी हैं।नदी संस्कृति अब सड़क संस्कृति बन गयी हैं।लोग कहते थे कि मिट्टी के मोल बिक रही हैं चीजें। पर सड़कों ने मिट्टी के साथ अपना जमीनों के मोल में उछाल ला दिया है।राजमार्ग कितने ही सुंदर हों पर वाहन दुर्घटना में वे विडियो और सेल्फी में ही करुणा बरसाती हैं। पर कस्बाई सड़कें सदय होकर उपचार तक ले जाती हैं।

सड़कों की अपनी संस्कृति है, अपनी अपनी छाप। कभी गंवई, कभी कस्बाई, कभी महानगरी। अपने अपने देश में अपनी छाप। अलबत्ता दुपहिया को फाइन वसूली के साथ हेलमेट पहनाकर जिंदगी को बचा लेती हैं।

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