Saphalata Ka Rahasya Hindi Story Collection Book by Parshuram Shukla, Hindi Children's Stories, Moral Stories for kids in Hindi.
Bal Kahani in Hindi : Sachhe Saput
बाल कहानी सच्चे सपूत : सच्चे सपूत कहानी का मुख्य उद्देश्य अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण के महत्व को स्पष्ट करना है। बाल कहानी संग्रह सफलता का रहस्य से परशुराम शुक्ल की शिक्षाप्रद बाल कहानी सच्चे सपूत पढ़िए और शेयर कीजिए।
Hindi Moral Story
सच्चे सपूत
ठाकुर गजेन्द्र सिंह आन-बार-शान के धनी व्यक्ति थे। जमींदारी प्रथा समाप्त हो जाने के बाद भी नब्बे बीघा जमीन और दो बीघे बगीचे उनके पास थे। इसके साथ ही पहले का नकद धन तो था ही। यही कारण था कि जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी उनकी सम्पन्नता में कोई विशेष कमी नहीं आयी। वह जिस शान-शौकत से पहले रहते थे, उसी शान-शौकत से अभी भी रह रहे थे। ठाकुर गजेन्द्र सिंह बड़े नेक, ईमानदार और धार्मिक विचारों के थे। अतः आसपास के गावों के लोग भी उनका बहुत सम्मान करते थे।
ठाकुर साहब अपनी हवेली में प्रायः तरह-तरह के आयोजन करते रहते थे। कभी अखण्ड रामायण का पाठ तो कभी भगवत् गीता पर प्रवचन। होली और दीवाली के अवसर पर तो उनकी हवेली पर विशेष रौनक होती थी। उस समय ऐसा लगता था मानो सारे गाँव की खुशियाँ ठाकुर साहब की हवेली में सिमट कर आ गयी हों। ठाकुर गजेन्द्र सिंह जैसा व्यक्ति आसपास के गाँवों में नहीं था।
ठाकुर गजेन्द्र सिंह में बस एक ही कमी थी। वह कट्टर परम्परावादी थे। बदलते हुए समय के अनुसार बदलना उनकी शान के विरुद्ध था। नये जमाने का फैशन और छोटे लोगों के साथ उठना बैठना उनको बिल्कुल पसन्द नहीं था। वह सीमित परिवार की हमेशा आलोचना करते रहते थे। उनका कहना था कि सरकार सबको रोजी-रोटी नहीं दे पा रही है, इसलिए सीमित परिवार का प्रचार कर रही है। ठाकुर साहब का मत था कि बच्चे तो ईश्वर की देन हैं और ईश्वर के काम में रुकावट डालना पाप है।
ठाकुर गजेन्द्र सिंह की पत्नी शीतला शहर की थी। उसने हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त की थी। वह धर्मपरायण होने के साथ ही आधुनिकता की भी समर्थक थी, किन्तु ठाकुर साहब के सामने उसकी एक न चल पाती थी। यही कारण था कि विवाह के आठ वर्षों के भीतर उसे तीन लड़कियाँ और पाँच लड़कों की माँ बनना पड़ा, लेकिन ठाकुर साहब इससे बहुत प्रसन्न थे। वह कभी बच्चों के साथ खेलते तो कभी उन्हें बाहर चौपाल पर बैठा कर अपने पूर्वजों की शौर्यपूर्ण गाथाएँ सुनाते ।
ठाकुर गजेन्द्र सिंह का जीवन बड़ी शान से व्यतीत हो रहा था। रहने के लिए शानदार हवेली, काम करने के लिये नौकर-चाकर। बुजुर्गों की धन संपत्ति के साथ ही उनके खेतों में इतना अनाज होता था कि पूरे वर्ष का खर्च बड़े ऐशो-आराम के साथ चल जाता था। ठाकुर साहब का परिवार भी बड़ा नहीं था।
बस उनके अपने बच्चे ही कुछ अधिक हो गये थे, किन्तु ठाकुर साहब इससे बिल्कुल परेशान नहीं थे।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। समय बदला और समय के साथ समाज बदला, समाज के लोग बदले, लेकिन ठाकुर साहब नहीं बदले।
ठाकुर गजेन्द्र सिंह पुराने जमींदार थे, अतः अपने हाथ से खेती करना उनकी शान के विरुद्ध था। इधर गाँव में शिक्षा का प्रसार हो रहा था एवं पास ही एक बहुत बड़ी फैक्टरी खुल गयी थी, अतः अब खेती के लिए मजदूर बड़ी कठिनाई से मिलते थे। जो मिलते भी थे, वे ज्यादा मजदूरी मांगते थे और अधिक दिन नहीं टिकते थे। पुराने किसानों ने बटाई पर भी ठाकुर साहब के खेतों में काम करने से इंकार कर दिया था।
ठाकुर साहब के सभी बच्चे अब बड़े हो गये थे। सबसे बड़ा रमेश था, उससे छोटा राजेश। इसके बाद तीन बेटियाँ थीं-अर्चना, नीरजा और अलका । अंतिम तीन संतानें भी बेटे ही थे-धीरज, राजीव और अभिषेक । राकेश और राजेश शहर में रहते थे और कमाने लगे थे। धीरज, राजीव और अभिषेक उन्हीं के साथ रहते थे और पढ़ रहे थे। अभिषेक हाईस्कूल में था तथा धीरज और राजीव दोनों इंटरमीडिएट में पहुँच गये थे। ठाकुर साहब के प्रयास से गाँव में लड़कियों का एक कॉलेज खुल गया था। उसी कॉलेज में अर्चना, नीरजा और अलका की पढ़ाई चल रही थी। ठाकुर साहब लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे, किन्तु लड़कियों को शहर में भेजकर पढ़ाना अथवा लड़कों के साथ कॉलेज में पढ़ाना, वह अच्छा नहीं समझते थे।
ठाकुर साहब ने सोचा था कि उनके पाँच लड़के लड़के हैं हैं और और तीन लड़कियाँ। वे लड़कों की शादी में इतना दहेज लेंगे कि तीनों लड़कियों का विवाह धूमधाम से हो जायेगा। दोनों बड़े लड़कों को बैंक में नौकरी मिल गयी थी, अतः उनके विवाह में काफी दहेज मिलने की आशा थी।
अचानक ठाकुर साहब पर वज्रपात हुआ। एक दिन दोनों बड़े बेटों- राकेश और राजेश ने बैंक में ही काम करने वाली गैर जाति की लड़कियों से कोर्ट मैरिज कर ली और घर से नाता तोड़ लिया।
तीनों छोटे बेटे-धीरज, राजीव और अभिषेक भी उन्हीं के पास शहर में रहकर पढाई कर रहे थे। राजेश और राकेश ने कुछ समय तक अपने छोटे भाईयों को साथ में रखा, इसके बाद उन्हें गाँव में भेज दिया। दानों भाईयों का कहना था कि अब शहर में उनके रहने की जगह कम पड़ती है और साथ ही खर्च की भी परेशानी होने लगी है।
ठाकुर गजेन्द्र सिंह टूट गये। उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे। ठाकुर साहब ने कभी कोई काम नहीं किया था। अभी तक वह जमीन बेच-बेचकर घर का काम चला रहे थे। उनकी सारी जमींन बिक चुकी थी एवं बेटों का सहारा खत्म हो चुका था, केवल दो बाग बचे थे, जो उनके पिता ठाकुर वीरभद्र सिंह जी अपनी बहू शीतला के नाम कर गये थे।
ठाकुर गजेन्द्र इस सदमे को सहन नहीं कर सके और उन्होंने चारपाई पकड़ ली। उनके सामने तीन-तीन बेटियों के विवाह की समस्या थी और आय का कोई साधन नहीं था।
वह अपनी जमीन और बेटों के गर्व में इतने चूर रहते थे कि अपनी पत्नी शीतला को भी समय नहीं दे पाते थे। आज वही शीतला इस समय उनके पैरों के पास बैठी उन्हें सान्त्वना दे रही थी, जिसकी उन्होंने जीवन भर उपेक्षा की थी।
"शीतला ! मैंने तुम्हें बहुत दुख दिये हैं।
मैं अपने बेटों और जमीन के गर्व में तुम्हें भूला रहा।" ठाकुर साहब की आवाज में दर्द था।
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं ! आप ठीक हो जाइये, सब ठीक हो जायेगा।" शीतला उन्हें धैर्य बँधा रही थी।
"शीतला ! मुझे बहुत कुछ कहना है। आज मैं अपने मन का बोझ हल्का करना चाहता हूँ। काश! मैंने तुम्हारी बात मान ली होती और हमारे केवल एक ही संतान होती। हम उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा देते और भरपूर प्यार करते, तो वह अवश्य हमारे बुढ़ापे का सहारा बनती। आठ-आठ बच्चों को हम ठीक से कुछ भी न दे सके। उन्हें माँ-बाप का पूरा प्यार भी न मिल सका। इसलिए वे भी अपने मन के हो गये। शायद सब भूल मेरी ही थी। मुझे माफ कर दो शीतला। अब तो हमारे भूखों मरने के दिन आ गये। अब क्या होगा ? कहते-कहते ठाकुर साहब रो पड़े। "अरे-अरे! आप रो रहे हैं ?" धैर्य से काम लीजिये। हम जैसे रहते थे वैसे ही रहेंगे। हमारे पाँच बेटे नालयक निकल गये तो क्या, पाँच हजार बेटे तो लायक हो गये हैं।" शीतला की आँखों में प्रेम के आंसू उमड़ पड़े।
"क्या कह रही हो शीतला ? पाँच हजार बेटे ? कहीं तुम पागल तो नहीं हो गयी हो ?" ठाकुर साहब उठकर खड़े हो गये।
"हाँ ठाकुर साहब ! पाँच हजार बेटे ! आइये ! आपको भी आपके सपूतों से मिलवा दूँ।" शीतला ने ठाकुर साहब को सहारा दिया और खेतों की तरफ चल दी।
अचानक ठाकुर साहब की दृष्टि अपने बागों पर पड़ी। हमेशा उजड़े रहने वाले बागों में पन्द्रह वर्ष पूर्व शीतला द्वारा लगाये गये पाँच हजार फलदार वृक्ष लहरा रहे थे।
"ये सब हमारे हैं?” ठाकुर साहब का गला खुशी से भर गया।
“हाँ ठाकुर साहब! ये हमारे ही सपूत हैं। इनसे प्रतिवर्ष लाखों रुपयों के फल प्राप्त होंगे। इन्हीं से हम अपनी तीनों बेटियों का विवाह करेंगे। ये ही हमारी वृद्धावस्था का सहारा बनेंगे।" शीतला को अपने सपूतों पर गर्व हो रहा था।
ठाकुर साहब भी अपने सपूतों को देखकर अपनी बीमारी भूल चुके थे और अब अपने को पहले से भी अधिक स्वस्थ एवं प्रसन्न अनुभव कर रहे थे।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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