मानवतावादी संघर्ष की कथा : लज्जा

Dr. Mulla Adam Ali
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Lajja : Novel by Taslima Nasrin

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लज्जा उपन्यास : लज्जा उपन्यास बाँग्ला भाषा में विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीन द्वारा लिखा गया है। यह उपन्यास Lajja (meaning 'shame') पहली बार १९९३ प्रकाशित हुआ, बंगला सरकार ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध लगाया था मुसलमानों के विरोध पर ,परंतु छह महीने में इस उपन्यास की पचास हजार से ज्यादा प्रतियाँ बिक चुकी थी। दुनियाभर में सबसे ज्यादा बिकने वाले किताबों में तसलीमा नसरीन का उपन्यास लज्जा (best seller novel) भी एक है।

Taslima Nasrin Ka Upanyas : Lajja

मानवतावादी संघर्ष की कथा : लज्जा

तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की प्रसिद्ध लेखिका है। वे सबसे अधिक चर्चित रही। उन्हें मारने के फतवे को लेकर एक बहुत बड़े समुदाय के विरुद्ध इतनी लंबी लड़ाई लड़ना निश्चित ही आसान बात नहीं है। खास कर तब जब अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की दुहाई देनेवाली सार्वभौम सरकारें भी पीछे हटती है। शांति के लिए यह किया जा रहा है; यह स्पष्टीकरण भी दिया जाता है, लेकिन किसी समूह की ज्यादती से अत्याचार सह रहे लोगों की स्थिति को लेकर कुछ नहीं कहा जाता। तसलीमा नसरीन ने यह काम बड़े डंके की चोट पर पूरा किया है।

लज्जा उपन्यास के संदर्भ में जो चर्चित मत बने हैं वे यही है कि यह उपन्यास विशिष्ट धर्म के विरोध में है। बांग्लादेश के और बांग्लादेश के ही क्यों भारत के भी अधिकतर मुसलमान उसे मुस्लिम विरोधी मानते है क्योंकि बांग्लादेश में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर हुए अत्याचार को उस में चित्रित किया गया है। यह सत्य है कि हिंदुओं पर हुए अत्याचार का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है, और उसके आर्थिक तथा राजनीतिक कारणों की चर्चा भी की गई है। लेखिका ने इस उपन्यास की हद तक कहीं भी मुसलमान धर्म के ग्रंथों या तत्वों पर कहीं कोई आलोचनात्मक मत नहीं दिया है।

बांग्लादेश में हिंदू नागरिकों पर हुए अत्याचार के विविध कारण बताए गए और कई व्यक्तियों या घटनाओं को दोषी माना गया। किसी गंभीर हादसे के बाद यह होना सहज संभव है। कोई मुसलमानों को तो कोई हिंदूओं को भी दोषी मानते हैं। इनमें से कई मत केवल तात्कालिक कारणों को महत्त्व देनेवाले अधूरे मत है। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अनुवाद की पुस्तक के मुलपृष्ठ पर एक मत दिया गया है, वह यह की, 'लज्जा की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिंदू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैंकडों धर्मस्थानों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्त्याचार, लूट, बलात्कार, और मंदिर ध्वंस के लिए जिम्मेदार कौन है ? कहना न होगा कि भारत के वे हिंदूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर प्रतिशोध की राजनीति का खूंखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक है, उसी तरह पाकिस्तान और बांगलादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक है।' इस समस्या के समाधान में उन्होंने लेखिका के एक जगह आए मत का आधार देकर स्पष्टीकरण भी दिया है। वे लिखते है 'लेखिका ने ठीक ही पहचाना। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है।' लेकिन वास्तविक बात यह है कि इस उपन्यास में लेखिका केवल यही नहीं कहना चाहती।

उपर्युक्त विचार तो बहुत नियमित है और हिंदू कट्टरता के विरोध में लिखते हुए लेखिका ने यह मत दिया भी है। लेखिका का उद्देश केवल घृणा की तुलना में प्रेम की संक्रामकता दिखानी होती तो यह एक सामान्य उपन्यास बन जाता क्योंकि विषय या शैली की दृष्टि से भी कोई नया प्रयोग या ऐसी कोई नाटकीयता जो इस विषय पर लिखे गए पहले उपन्यास में न हो ऐसी कोई विशेष बात इस उपन्यास में नहीं है, जिसके बल पर यह उपन्यास इतना प्रसिद्ध बन जाता। यह उपन्यास लेखिका द्वारा दंगों के कारण और उद्देश्य के विश्लेषण को लेकर नया और विशेष है। भले ही यह उपन्यास तसलीमा नसरीन के मारने के फतवे के कारण बहुत अधिक प्रसिद्ध हुओ हो, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि इस समस्या के संदर्भ में जितने उपन्यास लिखे गए है उनमें इस समस्या के मूल कारणों तक जाने की सबसे अधिक ताकत रखनेवाला उपन्यास होने के कारण यह उपन्यास चर्चित रहता, इसका महत्व कम न होता।

भारतीय साहित्य में इस समस्या के विभिन्न कारण दिए गए है। झूठा सच में हिंदू मुस्लिम दंगों का कारण विभाजन की राजनीति, तमस में अंग्रेजों की कूटनीति और अमृता प्रीतम के पिंजर में पुश्तैनी झगडे और कट्टरता दिखाई गयी है। हिंदू मुस्लिम विवादों के ये विभिन्न कारण हैं लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है सांप्रदायिकता विरोधी जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का गैरजिम्मेदार होना, अशक्त होना या इनमें से कुछ लोगों का अपना स्वार्थ देखकर सांप्रदायिकता की ओर आकर्षित हो जाना। तसलीमा नसरीन ने यह कारण पहचाना है और बडे सटीक शब्दों में उसे अभिव्यक्त किया है। वे कहती हैं, "लोकतांत्रिक ताकतें तेजी से कार्यक्रम लेकर सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए आगे नहीं आ पायी। उनकी तुलना में सांप्रदायिक ताकतें ज्यादा संगठित रुप में तेजीसे अपना काम कर गयीं। एक हप्ते बाद 'सर्वदलीय सदभावना कमेटी' का गठन करके लोकतांत्रिक राजनीतिक दलों एवं संगठनों की आत्मतुष्टि का कोई कारण नहीं है।"¹

सांप्रदायिकता विरोधी मानवतावादी ताकतों की हार दुनिया के किसी भी देश में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दंगों का मुख्य कारण है। इससे ही अल्पसंख्यकों को अपनी जमीन जायदाद और मानवीय अधिकारों से दूर रखा जाता है। प्रस्तुत उपन्यास में इन्हीं कारणों की दृष्टि से हिंदू मुसलमान विवादों की समस्या को चित्रित किया गया है।

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Taslima Nasrin Quotes in Hindi (Lajja Novel)

इस उपन्यास का अध्ययन चार कालखंडों में बाँटकर किया जा सकता है। प्रथम है परतंत्रता काल से 1947 तक, दूसरा काल है 1947 से 1971 तक, तीसरा काल है 1971 से 1992 तक और चौथा काल है 1992 से लेकर बाद में कुछ दिन तक। प्रथम काल में स्वतंत्रता के पहले से स्वतंत्रता तक के हिंदू मुसलमान संबंधों का वर्णन किया गया है। स्वतंत्रता के ठीक समय कुछ लोगों ने बांग्लादेश छोडकर भारत में अपने परिवार स्थलांतरित किए। तब 1947 में इस उपन्यास के मुख्य पात्र सुरंजन के दादाजी ने भारत जानेवाले हिंदूओं को कोसा।

1947 से 1971 तक का समय सुरंजन के पिता सुधामय का यह समय है जब वे राष्ट्रीय विचारधारा- वाले अपने मुसलमान साथियों के साथ पाकिस्तानी सैनिकों के विरोध में लड़े। ये जिंदगी भर मानवतावाद के पक्ष में रहे। 1971 के बाद 1992 तक इन्हीं सुधामय को मुस्लिम सांप्रदायिकता का भयावह रूप देखना पडा जिसके आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक कारण हैं। इन घटनाओं से सुधामय मानवतावादी और राष्ट्रीय विचारधारा के प्रति निराश होने लगे, लेकिन ये बांग्लादेश को अपना देश ही समझते रहे। 1992 के बाद के कुछ दिनों तक का जो चित्रण है वह अमानवी अत्त्याचारों का चरम समय है। उन यातनाओं के कारण सुरंजन जैसा संवेदनशील युवक टूट जाता है और वह अपने पूरे परिवार के साथ देश छोड़कर भारत जाने का निर्णय करता है। केवल धर्म के कारण अपना देश छोड़कर दूसरे देश में जो जो स्थलांतर हुए उनमें से ही यह भी एक है। लेखिका की दृष्टि से इस प्रकार का स्थलांतर किसी भी देश के लिए या किसी मानवतावादी समाज के लिए लज्जास्पद है।

प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका ने मात्र यह नहीं लिखा है कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार हुए हैं। लेखिका ने उस स्वर्णिम युग को भी याद किया है जब हिंदू-मुसलमान दोनों समाज राष्ट्रीयता को आधार बनाकर अन्यायियों के विरुद्ध लडे थे। वह चित्रण इस प्रकार है "सन 1947 से 1971 तक बंगाली जाति को अनंत रक्तपात और कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं थी, जिसकी चरम परिणति 1971 का मुक्ति युद्ध था। तीस लाख बंगालियों के खून के बदले में प्राप्त आजादी इस बात को प्रमाणित करती है कि धर्म कभी जाति सत्ता की नींव पर नहीं रह सकता। जाति सत्ता की नींव भाषा-संस्कृति, इतिहास आदि है। यह सच है कि पंजाबी मुसलमान के साथ बंगाली मुसलमान की 'एक जातीयता' एक दिन पाकिस्तान द्वारा ही लायी गयी थी। लेकिन हिंदू-मुसलमान की द्विजातीयोत्तर धारणा को तोड़कर इस देश के बंगालियों ने सिद्ध कर दिया है कि उन्होंने पाकिस्तान के मुसलमानों के साथ सुलह नहीं की।"²

बंगालियों का यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन था। यह आंदोलन भाषा के लिए, शिक्षा के लिए, सैनिक सत्ता के विरुद्ध किया गया, जनतंत्र वादी आंदोलन था। इस आंदोलन का मुख्य आधार लेखिका ने व्यक्त किया है। "1952 का भाषा आंदोलन, 1954 का संयुक्त फ्रंट निर्वाचन, 1962 का शिक्षा आंदोलन, 1964 का फौजी शासन विरोधी आंदोलन, 1966 में छह दफा आंदोलन, 1968 का अगरतल्ला षड्यंत्र मामला विरोधी आंदोलन, 1970 का आम चुनाव और 1971 का मुक्तियुद्ध इस बात को प्रमाणित करते हैं कि द्विजातीय आधार पर देश विभाजन का सिद्धांत सरासर गलत था।"³

यह आंदोलन और युद्ध हिंदूओं और मुसलमानों ने मिलकर किये थे। एक दूसरे की जान बचाने के लिए हिंदू-मुसलमानों ने अपनी जान दी थी। एक दूसरे के लिए इससे बढकर समर्पण क्या हो सकता है? इस आंदोलन में सुधामय की भूमिका कुछ इस तरह थी। "1952 में वे चौबीस वर्षीय गरम खून के युवक थे। ढाका के रास्ते में जब 'राष्ट्र भाषा बांग्ला होनी चाहिए' का नारा लगाया जा रहा था तब सारे देश में उत्तेजना की लहर दौड गई। 'उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा होगी' मुहम्मद अली जिन्ना के इस सिद्धांत को सुनकर साहसी और प्रबुद्ध बंगाली युवक उत्तेजित हो गए थे। बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग को लेकर पाकिस्तानी शासन दल के सामने वे झुकी हुई रीढ़ की हड्डी को अब सीधा कर, तन कर खड़े हो गये। विरोध किया, पुलिस की गोली खाकर मौत को अपनाया, खून से लथपथ हो गये। लेकिन किसी ने राष्ट्रभाषा बांग्ला होने की माँग नहीं छोड़ी।"⁴

बांग्लादेश का यह उज्ज्वल इतिहास है। इस इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि बांग्लादेश के नागरिक एक होकर नागरी समाज के रुप में लड़े। उन्होंने दंगे किए तो उसका कारण भी था। "पचास के बाद चौंसठ में जो दंगा हुआ था उसका सबसे बड़ा पक्ष था सांप्रदायिकता का स्पॉनटेनियस प्रतिरोध । जिस दिन दंगा शुरु हुआ, उस दिन माणिक मियाँ, - जहर हुसैन चौधरी और अब्दुल सलीम के प्रोत्साहन से हर अखबार के पहले पेज की बैनर हेडिंग थी- 'पूर्व पाकिस्तान रुखे दाड़ाओं' (पूर्व पाकिस्तान डटकर खडे रहो)। पड़ोसी के एक हिंदू परिवार की रक्षा करते हुए पचपन वर्षीय अमीर हुसैन चौधरी ने अपनी जान दी थी।"⁵

बांग्लादेशी नागरिकों के त्याग बलिदान और एकता की इतनी उज्ज्वल परंपरा थी। लेकिन 1971 के बाद यह बदलने लगा। सन 1971 में बांग्लादेश मुक्त हुआ और वे धर्मनिरपेक्ष ताकतें जो मुक्ति के लिए लड़ी थी वे अशक्त होने लगीं। 1947 से लेकर 1971 तक जिन लोगों ने बांग्ला मुक्ति की लड़ाई लड़ी थी वे सत्ता से दूर होने लगे। सांप्रदायिक ताकतें बढने लगी। सुधामय जैसे हिंदू जिन्होंने अपने परिवार को निरंतर 'आदमी बनो, हिंदू मत बनो' की शिक्षा दी थी, अत्त्याचार के सबसे अधिक शिकार हो गए। स्कूल, कॉलेजों के अलावा मदरसों की संख्या बढने लगी। जो कॉलेज हिंदू नामों के थे उनके नाम या तो बदल दिए गए या फिर संक्षिप्त रुप में उच्चारित होने लगे।

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Lajja Novel Quotes in English (Taslima Nasrin)

लोकतंत्र में सत्ता पर बने रहना कभी कभी बहुत मुश्किल हो जाता है। सत्ता की लालसा राजनीतिज्ञों को किसी सीमा तक गिरा सकती है। बांग्लादेश की राजनीति में भी यही हुआ। मुस्लिम सांप्रदायिकता को भड़काने की राजनीति करनेवाला और उसे नजरंदाज करनेवाला दल इनकी राजनीति में अल्पसंख्यक लोग पिसते रहे। इस उपन्यास में सांप्रदायिक शक्तियों के विरोध में समाजवादी विचारों की हार कुछ उसी तरह होती हुई दिखाई देती है जैसे किसी आदिम जनजातियों में किसी टोली ने दूसरी टोली को किसी भूभाग से खदेड़ दिया हो।

सुधामय दत्त ने बांग्ला मुक्ति संघर्ष में सक्रीय योगदान दिया था। पाकिस्तानी सैनिकों ने उनका पुरुषांग काट दिया, लेकिन वे मन से नहीं हारे। वे देश की लड़ाई लड़ते रहे। मानवता की लड़ाई लड़ते रहे।

लेकिन 1971 के बाद वे भी हिंदू होने के कारण मुस्लिम सांप्रदायिकता के शिकार हो गए। वैसे सुधामय हिंदू भी नहीं थे। दादा, बाप और पोता मानव बनने के तत्त्व पर जीते रहे। उनका इस तरह जीना केवल भाषणबाजी तक सीमित नहीं है। जब बेटे को फँसाकर कुछ मुसलमान लड़के उसे गाय का कबाब खिलाते हैं और बेटा बड़ा ही निराश होता है, पछताता है, तब सुधामय अपने घर पर गाय का मांस लाकर पकाते हैं और बेटे को खिलाते हैं। वे इन परंपराओं की निरर्थकता दिखाते हैं, बेटे को मानव बनने की सीख देते हैं। आखिर उन्हीं सुधामय पर बुरा वक्त आया। अपने ही गाँव में "रात-रात भर घर पर पथराव होने लगा। बेनामी चिट्ठियाँ आने लगीं कि वे माया का अपहरण करेंगे। जिन्दा रहने के लिए रुपया देना होगा। सुधामय शिकायत दर्ज करने के लिए थाने में भी गये थे। थाने में पुलिस ने सिर्फ नाम धाम, पता आदि लिख लिया था, बस इतना ही हुआ और कुछ नहीं। वे लड़के घर में घुसकर बगीचे से फल तोड लेते, सब्जी बागान को पैरों से कुचल देते, इतना ही नहीं, फूलों को भी नष्ट कर देते थे। कोई कुछ बोल नहीं सकता। मुहल्ले के लोगों के सामने भी इस समस्या को रखा गया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उनका कहना था हम लोग क्या कर सकते हैं?"⁶

इसमें सबसे बडा घात करनेवाली बात है, वह भावना जो कहती है "हम क्या कर सकते हैं ?" यह अॅरिस्टॉटल के 'मनुष्य समाजशील प्राणी है' इस निरीक्षण को नकारती है। आक्रमणकारियों आतताईयों के बारे में यह भाव रखा तो उनकी हिम्मत बढ़ जाती है और यही बात बांग्लादेश में हुई।

सांप्रदायिक ताकतों के सामने गैरजिम्मेदार वर्तन करनेवाले लोग धीरे धीरे धार्मिक होने लगे। एक जमाने में केवल मानवता की बात करनेवाले बदलने लगे। यही परिवर्तन बांग्लादेश के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ। इसमें सुधामय जैसे लोग जो मानवता को लेकर जीवन जी रहे थे, अकेले हो गए और यही बात बांग्लादेश की राष्ट्रीयता के लिए खतरनाक साबित हुई।

इस बात को लेकर वामपंथियों पर व्यंग्य कसते हुए तसलीमा नसरीन ने लिखा है। "सुधामय से धीरे-धीरे जतीन, देवनाथ, तुषारकर, खगेश, किरण सभी दूर होने लगे। वे उनसे दिल खोलकर बातें नहीं करते। सुधामय अपने ही शहर में बड़े अकेले हो गये। उनके मुसलमान दोस्त शकुर, फैसल, माजिद, गफ्फार के साथ भी दूरियाँ बढने लगीं। यदि उनके घर गये तो वे कहते 'तुम जरा बैठक में बैठो सुधामय, मैं नमाज पढ़कर आता हूँ।' वामपंथियों की उम्र बढ़ने के साथ साथ उनकी धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ती है।"⁷

वामपंथियों के या मानवतावादी लोगों के इस रुख के कारण बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार होने लगे। उन्हें अपनी जमीन जायदाद से भगाया जाने लगा। उनकी जमीन मुस्लिम लोगों के कब्जे में जाने लगी। मदरसों की संख्या बढने लगी। पुराने पाकिस्तान में रहे शत्रु सम्पत्ति कानून के जैसा अर्पित सम्पत्ति कानून बना जिसका प्रयोग हिंदूओं की जमीन हथियाने के लिए किया जाने लगा। किसी मुसलमान दंगाईयों के विरोध में पुलिस थाने में अर्जी दी तो नाम-पता लिखने से आगे कोई कारवाई नहीं होने लगी। इतना ही नहीं जो जो राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष था, उस राष्ट्र ने अपना राष्ट्रीय धर्म चुना। आठवें संशोधन में यह जोडा गया। "The State religion of the republic is Islam but other religion may be practiced in peace and harmony in the republic." यह संशोधन बांग्लादेशी संविधान में 1988 में हुआ। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सरकार भी सांप्रदायिकता के पक्ष में कार्य करने लगी। तसलीमा नसरीन इस उपन्यास के माध्यम से संविधान से स्थापित सरकार की सांप्रदायिक नीति और वामपंथियों, समाजवादियों की तटस्थता की आलोचना करना चाहती है। (शेष आलेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें मानवतावादी संघर्ष की कथा : तस्लीमा नसरीन का उपन्यास लज्जा - 2

- डॉ. गोविंद बुरसे

संदर्भ;

1. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ. 146

2. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.10

3. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.10

4. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.09

5. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.30

6. जीवन का अरण्यबोध -शुभवंदा पांडे-पृष्ठ-15

7. लज्जा, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2010, पृ.19

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