स्वतंत्रता संग्राम में भोगेश्वरी फुकानानी का योगदान : Bhogeswari Phukanani

Dr. Mulla Adam Ali
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वीरांगना भोगेश्वरी : उत्तर पूर्व भारत के गुमनाम शहीद भोगेश्वरी फुकानानी, भारत की महान वीरांगना भोगेश्वरी फुकानानी की कहानी, जानिए स्वतंत्रता संग्राम में भोगेश्वरी फुकानानी के योगदान की कहानी, (Bhogeswari Phukanani Freedom Fighter) आजादी का अमृत महोत्सव।

Bhogeswari Phukanani : Woman Freedom Martyrs of Assam

भोगेश्वरी फुकानानी

भारत में अंग्रेजी शासन काल में जिन लोगों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का बीड़ा उठाया, उनमें स्त्री-पुरुष, युवा वृद्ध सभी थे। इनमें से कुछ लोग इतिहासकारों और लेखकों की दृष्टि में आ गये और अमर हो गये। किंतु भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले अनेक लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने देशभक्ति और कुर्बानी के अभिनव कार्य किए, किंतु इतिहासकारों और लेखकों की दृष्टि में न आ पाने के कारण उनके नाम अतीत के अंधेरे में विलीन हो गये। ऐसी ही एक महिला क्रान्तिकारी का नाम है-भोगेश्वरी।

वीरांगना भोगेश्वरी का पूरा नाम भोगेश्वरी फुकनानी था। उसका जन्म आसाम के नवगाँव जिले के काहुआ टोली नामक ग्राम में हुआ था। भोगेश्वरी जिस दिन पैदा हुई उसी दिन आसाम का प्रसिद्ध उत्सव भोगाली बिहू आरम्भ हो रहा था। अतः उसका नाम भोगेश्वरी पड़ा। भोगेश्वरी के पिता श्री आत्माराम बोरा गोहाई तथा माता श्रीमती मोलेश्वरी देवी बड़े धार्मिक विचारों के थे। उनका भोगेश्वरी पर जीवन भर प्रभाव रहा।

भोगेश्वरी के माता-पिता बड़े निर्धन थे। अतः वे अपनी बेटी को स्कूल की शिक्षा नहीं दे सके और शीघ्र ही उन्होंने अपनी बेटी का विवाह नवगाँव शहर के निकट ही भेरमेरी ग्राम के निवासी श्री भूपति फुकान के बेटे भोगेश्वर के साथ कर दिया। भोगेश्वर बड़े प्रगतिशील विचारों के राष्ट्रवादी व्यक्ति थे।

भोगेश्वरी और भोगेश्वर एक दूसरे को बहुत चाहते थे और एक दूसरे का सम्मान करते थे। भोगेश्वरी ने छः पुत्रों और दो पुत्रियों को जन्म दिया। वह स्वयं तो अशिक्षित थी, किंतु उसने अपने बच्चों की शिक्षा का पूरा ध्यान रखा।

भोगेश्वरी का पूरा परिवार महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित था। उसके घर के सभी लोग स्वदेशी व्रत का पालन करते थे। भोगेश्वरी के खेतों में कपास की फसल होती थी। कपास से वह सूत कातती और कपड़ा बुनती थी। उसने विदेशी सामान का पूरा-पूरा बहिष्कार किया हुआ था। भोगेश्वरी में नेतृत्व की विलक्षण क्षमता थी। उसने महात्मा गाँधी के आदर्शों का प्रचार-प्रसार करने के लिए एक शांति सेना गठित की थी, जिसमें लगभग 1200 पुरुष और 500 महिलाएँ थी। बरहमपुर में इस शांति सेना का मुख्यालय था।

सन 1942 में महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया। इससे पूरे भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध एक लहर पैदा हो गयी।

आसाम में महात्मा गाँधी के 'भारत छोड़ो आंदोलन' का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि जगह-जगह पर रैलियां और प्रदर्शन आरम्भ हो गये। लोग महात्मा गाँधी की जय और 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के नारे लगा रहे थे। पूरे आसाम के स्त्री-पुरुषों, बच्चों-बूढ़ों सभी में इतना जोश दिखायी दे रहा था कि उसे देख कर ऐसा लगता था कि अब भारत में अंग्रेज टिक नहीं सकेंगे और उन्हें इंग्लैण्ड वापस जाना पड़ेगा।

भोगेश्वरी ऐसे ही अवसर की तलाश में थी। उसने अपनी शांतिसेना के सदस्यों को एकत्रित किया और बरहमपुर में एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया। इस रैली में आसपास के क्षेत्रों से भी हजारों लोग आये थे। बरहमपुर रैली का उद्घाटन जिला कांग्रेस अध्यक्ष श्री हलाधार भूयां ने किया तथा उन्होंने लोगों को आंदोलन की जानकारी दी। सभी लोगों ने मिलकर यह निश्चय किया कि रैली के सदस्य छोटे-छोटे समूहों में बँट जाएँगे और वे पुलिस चौकियों, थानों, रेलवे स्टेशनों, तारघरों तथा इसी प्रकार के अन्य सरकारी भवनों के सामने प्रदर्शन करेंगे और तिरंगा फहराएंगे। कार्यक्रम के आयोजकों ने लोगों को यह भी समझाया कि इन आंदोलनों में हिंसा का कोई स्थान नहीं होगा, अर्थात् सभी आंदोलन पूरी तरह अहिंसक आंदोलन होंगे।

अगले दिन ही पूरे आसाम में अहिंसक आंदोलन आरम्भ हो गये। इसके साथ ही अंग्रेजों का दमनचक्र भी शुरू हो गया। जगह-जगह निहत्थे क्रान्तिकारियों पर डंडे बरसाये गये और गोलियाँ चलीं, जिसमें बहुत से लोग शहीद हुए। इन शहीदों में श्री कोलाई कोच, हेमा राम बोरा, तिलक डेका और गुणाभिराम बार दोलाई आदि प्रमुख थे। ये सभी गाँधीवादी आंदोलनकारी पुलिस की गोली से मारे गये थे।

भोगेश्वरी को जब इन बीर आंदोलनकारियों की मृत्यु का समाचार मिला तो उसने अपने साथियों की स्मृति में प्रभात फेरी निकाली और प्रार्थना सभा करने का निश्चय किया। इसके लिए उसने 16 सितंबर, 1942 का दिन तय किया।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 16 सितंबर, 1942 को भोगेश्वरी और उसकी शांतिसेना के सदस्यों ने एक विशाल प्रभातफेरी निकाली तथा दिवंगत आंदोलनकारी साथियों की आत्माओं की शांति हेतु प्रार्थना सभा की। ये दोनों ही कार्यक्रम पूरी तरह सफल रहे। अतः अंग्रेज सरकार बौखला उठी और उसने स्थानीय पुलिस को आदेश दिया कि वह आंदोलनकारियों को बुरी तरह कुचल दे। उच्चाधिकारियों का आदेश आते ही नवगाँव की पुलिस ने भोगेश्वरी की शांति सेना पर कहर ढाना आरम्भ कर दिया। पुलिस ने शांति सेना के सभी शिविर नष्ट कर डाले और आंदोलनकारियों को शिविरों से बाहर निकालकर शिविरों पर कब्जा कर लिया।

भोगेश्वरी को जब इसका पता चला तो उसने शांति सेना के सदस्यों को बुला कर उनसे विचार-विमर्श किया और अंग्रेजों के इस अत्याचार एवं दमन का बदला अहिंसक ढंग से लेने का निश्चय किया। इसके लिए 18 सितंबर, 1942 का दिन तय हुआ।

18 सितंबर, 1942।

भोगेश्वरी और उसकी शांतिसेना के सदस्यों द्वारा पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार सर्वप्रथम प्रातः 9 बजे प्रभात फेरी निकाली गयी और इसके बाद ठीक साढ़े नौ बजे शिविरों पर धावा बोल कर शांतिसेना ने उन्हें पुनः अपने अधिकार में ले लिया। इस समय आंदोलनकारियों का नेतृत्व श्री प्रतापशर्मा और श्री निमाई चन्द्र अधिकारी कर रहे थे। भोगेश्वरी भी उनके साथ थी।

अभी आंदोलनकारियों ने शांतिसेना के शिविरों पर पूरी तरह अधिकार भी नहीं किया था कि अंग्रेजी सेना के सिपाही आ धमके और आते ही आंदोलनकारियों पर टूट पड़े। उन्होंने शांतिसेना के शिविरों का पूरा सामान तोड़-फोड़ डाला तथा प्रताप शर्मा सहित बहुत से आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया।

इसी समय भोगेश्वरी का बेटा देवेनफुकुन आगे बढ़ा और उसने आंदोलनकारियों का नेतृत्व संभाला। देवेन ने तिरंगा अपने हाथों में लिया और आंदोलनकारियों को पुनः शिविरों पर अधिकार करने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। देवेन के साथ ही उसकी 13 वर्षीय छोटी बहन रत्ना भी थी। रत्ना के हाथों में भी तिरंगा था। भोगेश्वरी इन सभी के साथ रहते हुए व्यवस्था संबंधी कार्यों में लगी थी।

देवेन के जोशीले भाषण का आंदोलनकारियों पर सीधा प्रभाव पड़ा और कुछ ही समय में वे पुनः संगठित होकर शांतिसेना के शिविरों की ओर आगे बढ़े।

इसी समय एक अंग्रेज सिपाही तिरंगा छीनने के लिए रत्ना की ओर बढ़ा। भोगेश्वरी तिरंगे का अपमान होते नहीं देख सकती थी, अतः उसने आगे बढ़कर अपने तिरंगे के डंडे से अंग्रेज सैनिक के सर पर प्रहार कर दिया। इससे उसका टोप जमीन पर गिर पड़ा।

अंग्रेज सैनिक ने इसे अपना अपमान समझा और उसने भोगेश्वरी को गोली मार दी। गोली भोगेश्वरी के मस्तक पर लगी और वह वहीं गिर पड़ी।

इसी समय कांग्रेस के विख्यात नेता श्री महेन्द्र हजारिका वहाँ आ पहुँचे। सबने मिलकर भोगेश्वरी को अस्पताल पहुँचाया। किंतु गोली भोगेश्वरी के मस्तिष्क तक पहुँच गयी थी, अतः दो दिन कोमा में रहने के बाद 20 सितंबर को उसकी मृत्यु हो गयी। इसी दिन वीरांगना कनकलता भी पुलिस चौकी पर तिरंगा फहराते समय शहीद हुई थी।

वीरांगना भोगेश्वरी एक आदर्श नारी थी। उसने अपना पूरा जीवन अभाव और संघर्षों में व्यतीत किया। भोगेश्वरी अशिक्षित होते हुए भी शिक्षा के महत्त्व को समझती थी। उसमें निस्वार्थ देशभक्ति की भावना थी। इसी देशभक्ति के लिए उसने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। आज की नारियाँ भोगेश्वरी जैसी वीरांगनाओं से सीख ले सकती हैं और शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध एकजुट होकर आवाज उठा सकती हैं।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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