जानिए क्या है भारत की प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कित्तूर की रानी चेन्नम्मा की वीर गाथा

Dr. Mulla Adam Ali
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Bharati Ki Mahan Virangana

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वीरांगना चैन्नम्मा : पढ़िए कित्तूर रानी चेन्नम्मा का इतिहास, और उनकी बहादुर की कहानी जिन्हें कर्नाटक की 'लक्ष्मीबाई' कहते है, कित्तूर रानी चेन्नम्मा की जीवनी व इतिहास। संपूर्ण कित्तूर राज्य में रानी चैन्नम्मा के रूप और गुणों के चर्चे थे। कित्तूर के निवासी उसे रानी ही नहीं मानते थे, बल्कि एक देवी के रूप में उसकी पूजा करते थे। किस्से क्रांतिकारियों के पढ़िए हिंदी में भारतीय वीर गाथाएं।

Kittur Rani Chennamma in Hindi

कित्तूर रानी चेन्नम्मा

भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाली वीरांगनाओं में कित्तूर की रानी चैन्नम्मा का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। रानी चैन्नम्मा को दक्षिण भारत में वही स्थान मिला है, जो उत्तर भारत एवं मध्यभारत में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को।

सन 1857 के गदर के कुछ समय पूर्व की बात है। दक्षिण भारत में एक छोटा-सा राज्य था-कित्तूर । कित्तूर वर्तमान कर्नाटक के अंतर्गत आता है। कित्तूर का राजा मल्लसर्ज एक बहादुर और योग्य शासक था। उसके शासनकाल में प्रजा बड़ी सुखी और सम्पन्न थी। कित्तूर की रानी चैन्नम्मा बड़ी साहसी निडर और विदुषी महिला थी। उसे साहित्य में विशेष रुचि थी एवं उसे कन्नड़ के साथ ही संस्कृत, उर्दू तथा मराठी साहित्य का अच्छा ज्ञान था। रानी चैन्नम्मा ने बचपन में राजकुमारों के समान शिक्षा प्राप्त की थी। वह तलवार बाजी के साथ ही अनेक अस्त्र-शस्त्र चलाने की कला में भी निपुण थी। घुड़सवारी में तो उसका जवाब नहीं था। रानी चैन्नम्मा जब अपने घोड़े पर बैठकर उसकी लगाम संभालती तो उसका घोड़ा हवा से बातें करता था।

रानी चैन्नम्मा गुणवान होने के साथ ही साथ रूपवान भी थी। उसका चेहरा खूबसूरत और आकर्षक था एवं दैवी तेज से परिपूर्ण था। रानी चैन्नम्मा के व्यक्तित्व में इतना आकर्षण था कि कोई भी व्यक्ति उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। संपूर्ण कित्तूर राज्य में रानी चैन्नम्मा के रूप और गुणों के चर्चे थे। कित्तूर के निवासी उसे रानी ही नहीं मानते थे, बल्कि एक देवी के रूप में उसकी पूजा करते थे।

अंग्रेजों का भारत के बहुत बड़े भाग पर अधिकार हो जाने के बाद भी कित्तूर का राज-काज बड़े आराम से चल रहा था। राजा मल्लसर्ज और कित्तूर की प्रजा; सभी बड़े प्रसन्न और सुखी थे, किंतु अचानक उनकी खुशियों पर वज्रपात हुआ। राजा मल्लसर्ज बीमार पड़े और वैद्यों, हकीमों के बहुत प्रयास करने पर भी बच नहीं सके। राजा मल्लसर्ज के निधन से रानी चैन्नम्मा पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। इस समय वह गर्भवती थी, फिर भी पूरे राजसी ढंग से उसने राजा मल्लसर्ज का अंतिम संस्कार किया और कित्तूर की बागडोर संभाल ली।

रानी चैन्नम्मा साहसी और बुद्धिमान होने के साथ ही कित्तूर की प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थी। अतः उसे राज-काज संभालने में कोई परेशानी नहीं हुई। शीघ्र ही रानी चैन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया। किंतु संभवतः उसके बुरे दिन आरम्भ हो चुके थे। उसके पुत्र की बचपन में ही मृत्यु हो गयी और रानी चैन्नम्मा फिर अकेली रह गयी।

कित्तूर का राज-काज चलाने के लिए एक उत्तराधिकारी का होना आवश्यक था। अतः रानी चैन्नम्मा ने बड़ी रानी रुद्रम्मा के बेटे शिवलिंग रुद्रसर्ज को गोद ले लिया और राजकीय ढंग से उसका पालन पोषण करने लगी। कुछ ही दिन बीते थे कि रानी चैन्नम्मा के दुर्भाग्य ने पुनः जोर मारा। शिवलिंग रुद्रसर्ज गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गयी।

रानी चैन्नम्मा बड़ी साहसी थी। उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने एक निकट संबंधी के बेटे को गोद ले लिया। रानी चैन्नम्मा ने गोद लिए बच्चे का नाम गुरुलिंग मल्लसर्ज रखा और उसे कित्तूर का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

भारत में उस समय लार्ड डलहौजी की हड़पनीति बड़े जोर-शोर से चल रही थी। इस नीति के अंतर्गत कभी किसी राजा को अयोग्य घोषित कर दिया जाता तो कभी किसी शासक के राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाता अथवा राजा के दत्तक पुत्र को अवैध घोषित करके उसका राज्य हड़प लिया जाता। अंग्रेज जिस राज्य को हड़पने की योजना बनाते थे उस राजा के राज परिवार के किसी व्यक्ति अथवा राज्य के पदाधिकारी को लालच देकर अपनी ओर मिला लेते थे। कित्तूर राज्य को हड़पने के लिए अंग्रेजों ने कित्तूर के दीवान मल्लप्पा शेट्टी को चुना।

रानी चैन्नम्मा अंग्रेजों की हड़पनीति के प्रति पहले से ही सावधान थी। उसे मालूम था कि कित्तूर का उत्तराधिकारी एक दत्तक पुत्र होने के कारण अंग्रेज शीघ्र ही कोई न कोई षड्यंत्र रचेंगे। रानी चैन्नम्मा की आशंका ठीक ही थी। उसे शीघ्र ही घारवाड़ के कलेक्टर थैकरे के माध्यम से गवर्नर जनरल का एक पैगाम मिला, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि अंग्रेज सरकार किसी भी दत्तक पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी नहीं मानती। अतः गुरुलिंग मल्लसर्ज कित्तूर का भावी शासक नहीं बन सकता। इसके साथ ही रानी चैन्नम्मा को यह भी आदेश दिया गया था कि वह राज्य के सारे अधिकार दीवान मल्लप्पा शेट्टी को सौंप कर राज-काज से अलग हो जाये।

रानी चैन्नम्मा साहसी और बुद्धिमान होने के साथ ही बड़ी स्वाभिमानी भी थी। उसने कलेक्टर थैकरे की बात मानने से साफ इंकार कर दिया। इसके साथ ही उसने कलेक्टर थैकरे को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में यह बता दिया कि उसके राज्य के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप करने का अंग्रेजों को कोई अधिकार नहीं है।

कलेक्टर थैकरे ने रानी चैन्नम्मा को अंग्रेज सरकार की बात मनवाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद, सभी का सहारा लिया। उसने रानी चैन्नम्मा को तरह-तरह की धमकियाँ देकर भयभीत करने का भी प्रयास किया। किंतु रानी चैन्नम्मा ने उसकी बात नहीं मानी।

रानी चैन्नम्मा जानती थी कि अंग्रेज बड़े धूर्त और मक्कार हैं। वे छल अथवा शक्ति के बल पर उसका राज्य छीनने का प्रयास अवश्य करेंगे। छल के द्वारा वे रानी चैन्नम्मा पर कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर सकते थे, इसलिए यह लगभग निश्चित ही था कि वे रानी चैन्नम्मा को परास्त करने के लिए शक्ति का उपयोग करेंगे।

रानी चैन्नम्मा के पास अब एक ही रास्ता बचा था-अंग्रेजों के साथ युद्ध। अंग्रेजों के पास आधुनिक तोपें और विशाल सेना थी तथा रानी चैन्नम्मा के पास छोटी-सी सेना। इस सेना के द्वारा अंग्रेजों से टक्कर नहीं ली जा सकती थी, अतः रानी चैन्नम्मा ने अपनी प्रजा से सहयोग लेने का निश्चय किया। वह अपनी प्रजा में बड़ी लोकप्रिय थी, अतः उसे विश्वास था कि उसकी प्रजा संकट की इस घड़ी में अवश्य उसका साथ देगी। रानी चैन्नम्मा प्रतिदिन प्रातःकाल घोड़े पर सवार होकर अपने राजमहल से निकलती, प्रजा के मध्य जाती, उसे अंग्रेजों की काली करतूतों के बारे में बताती और कित्तूर की रक्षा के लिए मर मिटने का आह्वान करती। रानी चैन्नम्मा ने कित्तूर के गाँव-गाँव और गली-गली में जा कर लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार किया। उसकी बातों का कित्तूर के नवयुवकों पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए जगह-जगह लड़ाकू जत्थे तैयार कर लिए। रानी चैन्नम्मा की वाणी में न जाने कैसा आकर्षण था कि उसकी और कित्तूर की रक्षा के लिए राज्य का बच्चा-बच्चा अपने प्राणों की बलि देने के लिए

तैयार हो गया। कलेक्टर थैकरे को जब इस बात की जानकारी मिली तो वह बौखला गया और उसने अंग्रेजी फौजों को कित्तूर राज्य की घेराबंदी करने का हुक्म दे दिया। कुछ ही समय में दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने थीं। अंग्रेजी फौज में हुक्म के गुलाम थे तो रानी चैन्नम्मा की सेना में अपनी रानी और राज्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए तैयार रणबांकुरे।

25 सितंबर सन 1824। दोनों पक्षों में घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। अंग्रेज फौज की कमान कलेक्टर थैकरे के हाथों में थी और वह अपने किराये के सैनिकों को लालच एवं धमकियाँ दे-देकर युद्ध के लिए प्रोत्साहित कर रहा था। दूसरी ओर कित्तूर की सेना और प्रजा के साथ रानी चैन्नम्मा नंगी तलवार लिए घोड़े पर सवार भवानी माँ की तरह युद्ध संचालन कर रही थी। उसके सैनिकों की संख्या कम थी। लेकिन उनमें अपने राज्य की आजादी के लिए मर मिटने का जोश था। कित्तूर की प्रजा उनके साथ थी।

भयानक मारकाट हुई और युद्धभूमि लाशों से भर गयी। इस लड़ाई में रानी चैन्नम्मा की जीत हुई। उसने अंग्रेज अधिकारी इलियट और स्टीवेंशन को बंदी बना लिया। कलेक्टर थैकरे पहले ही युद्धभूमि में मारा जा चुका था। रानी चैन्नम्मा ने देशद्रोही दीवान मल्लप्पा शेट्टी और उसके साथी वेंकटराव को भी बंदी बना लिया। इन दोनों गद्दारों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया तथा मंत्रिपरिषद के निर्णय के आधार पर दोनों को मौत की सजा दे दी गयी। इस प्रकार रानी चैन्नम्मा ने अपने साहस, शौर्य और बुद्धि के बल पर अंग्रेजों को भारी शिकस्त दी और कित्तूर की रक्षा की।

रानी चैन्नम्मा अंग्रेजों की शक्ति से भलीभाँति परिचित थी। वह अकारण अंग्रेजों से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहती थी, अतः उसने बंदी बनाये गये दोनों अंग्रेज अधिकारियों को मुक्त कर दिया। रानी चैन्नम्मा को विश्वास था कि अंग्रेज सरकार उसके इस मानवतापूर्ण व्यवहार का सम्मान करेगी और भविष्य में उसे परेशान नहीं करेगी।

इधर अंग्रेज रानी चैन्नम्मा की जीत और उसकी लोकप्रियता को देखकर परेशान हो उठे। उन्होंने सोचा कि यदि इसी प्रकार प्रत्येक राज्य विद्रोह करने लगा तो शीघ्र ही सभी राज्य आजाद हो जाएंगे और उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा।

अंग्रेज अधिकारी किसी भी कीमत पर रानी चैन्नम्मा को बंदी बना कर कित्तूर पर अपना अधिकार जमाना चाहते थे, अतः उन्होंने आसपास के राज्यों में फैली हुई अंग्रेज सेना एकत्रित की और क्रूर जनरल डीकस के नेतृत्व में एक बार पुनः कित्तूर को आ घेरा।

रानी चैन्नम्मा के पास जिस प्रकार कित्तूर की रक्षा के लिए मर मिटने वाले बहादुर नवयुवकों की सेना थी, उसी प्रकार अपनी जान जोखिम में डालकर शत्रुओं का राज मालूम करने वाले गुप्तचरों का एक दल भी। उसके गुप्तचरों ने उसे कुछ समय पहले ही अंग्रेजों की इस योजना की जानकारी दे दी थी, अतः वह तैयार थी।

3 दिसंबर सन 1824! अंग्रेज जनरल डीकस ने अपनी पूरी शक्ति के साथ कित्तूर पर हमला बोल दिया। कित्तूर के सैनिकों ने दो माह पहले ही अंग्रेजी सेना को करारी मात दी थी तथा कलेक्टर थैकरे को मार गिराया था, अतः उनके हौसले बुलन्द थे। उन्होंने पुनः रानी चैन्नम्मा के नेतृत्व में मोर्चा संभाला। अंग्रेज सैनिकों का मनोवल गिरा हुआ था। अतः वे कित्तूर के बहादुर सैनिकों और देशभक्त प्रजाजनों के समक्ष अधिक देर तक नहीं टिक सके और शीघ्र ही उनके पैर उखड़ गये। रानी चैन्नम्मा को एक बार पुनः विजयश्री प्राप्त हुई।

अंग्रेज सरकार रोनी चैन्नम्मा द्वारा दूसरी बार पराजित होने के बाद घबरा उठी। उसे लगा कि रानी चैन्नम्मा और उसकी देशभक्त प्रजा को शक्ति के द्वारा नहीं जीता जा सकता, अतः उसने एक बार फिर अपनी कुटिल नीति का सहारा लिया। अंग्रेजों ने कित्तूर के किलेदार शिव वासप्पा को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और एक बार फिर कित्तूर पर आक्रमण कर दिया।

शिव वासप्पा बड़ा ही धूर्त व्यक्ति था। उसने थोड़े से धन के लालच में रानी चैन्नम्मा के साथ गद्दारी की और बारूद में गोबर मिला दिया। इससे कित्तूर की तोपें और बंदूकें बेकार हो गयीं और रानी को पराजित होना पड़ा।

अंग्रेजों ने तुरंत रानी चैन्नम्मा और उसके वफादार साथियों को गिरफ्तार कर लिया तथा कित्तूर पर कब्जा कर लिया। उन्होंने कित्तूर के बहादुर सेना नायकों को मौत की सजा दी और रानी को बैंगल होल के बन्दीगृह में डाल दिया।

रानी चैन्नम्मा ने अपना सम्पूर्ण जीवन बड़े मान-सम्मान के साथ व्यतीत किया था। उसे जब यह मालूम हुआ कि अंग्रेजों ने उसके वफादार सेनानायकों को फाँसी पर लटका दिया है तो वह बहुत दुखी हुई और इसी दुख में उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार वीरांगना रानी चैन्नम्मा ने अपने जीवन में दो बार अंग्रेज सरकार को भारी शिकस्त दी। उसने अंतिम समय तक अपने राज्य की स्वाधीनता को बनाये रखने के लिए संघर्ष किया और अंत में अपने प्राणों की आहुति देकर भारत के इतिहास में अमर हो गयी।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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