Bhikaiji Cama, Indian Politician, Bharatiya Viranganayein, Madam Bhikaji Kama Story in Hindi, Independence Day Special, Republic Day Special, Azadi Ka Amrit Mahotsav.
Bharati Ki Mahan Virangana
वीरांगना भीकाजी कामा : विदेश में पहली बार भारत का झंडा फहराने वाली क्रांतिकारी महिला मैडम भीकाजी कामा, मैडम कामा अपना राष्ट्रीय ध्वज सदैव अपने साथ रखती थीं एवं भाषण देने के पूर्व भारत ध्वज फहराती थीं। उनके इस ध्वज की विश्व स्तर पर सराहना की गयी तथा सन 1916 तक देश-विदेश सभी स्थानों पर इसी ध्वज को भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों ने राष्ट्रीय ध्वज माना। पढ़िए पूरी कहानी हिन्दी में किस्से क्रांतिकारियों के...
Madam Bhikaji Kama Ki Kahani
मैडम भीकाजी कामा
भारत के बाहर रह कर भारत की स्वतंत्रता के लिए विश्व जनमत तैयार करने वाली वीरांगना भीका जी कामा मैडम कामा के नाम से विश्व विख्यात हैं। पारसी परिवार में जन्मी मैडम कामा ने लगभग 35 वर्षों तक इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में घूम-घूम कर वहां के लोगों को साम्राज्यवादी अंग्रेजी सरकार द्वारा भारतीय जनता के शोषण और अत्याचारों से परिचित कराया। वह जहाँ भी जाती थीं, ब्रिटिश साम्राज्य की धज्जियाँ उड़ा देती थीं। मैडम कामा की ओजपूर्ण वाणी में इतना आकर्षण था कि लोग मंत्रमुग्ध होकर उनके विचारों को सुनते थे। भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाली इस महान वीरांगना से पूरा विश्व प्रभावित था। उनकी लोकप्रियता और प्रभाव का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि रूसी क्रान्ति के महान क्रान्तिवीर लेनिन ने उन्हें अपने देश आने का निमंत्रण दिया था।
वीरांगना भीका जी कामा का जन्म 24 सितम्बर, 1861 को बंबई के एक धनी एवं सम्पन्न पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री सोहराब जी फ्राम जी पटेल की गणना बंबई के प्रतिष्ठित व्यापारियों में की जाती थी। बंबई के अन्य पारसी परिवारों के समान सोहराब जी के परिवार जनों का रहन-सहन भी पश्चिमी सभ्यता में रचा बसा था। उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी। अतः बालिका भीका जी का बचपन बड़े लाड़-प्यार और वैभव में बीता। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के लिए बंबई के विख्यात अलैक्जैन्ड्रिया गर्ल्स स्कूल में भेजा गया, जहाँ उन्होंने भारतीय छात्राओं के साथ अंग्रेजों के दुर्व्यवहार को बड़े निकट से देखा। इसने उनके हृदय में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की चिंगारी को जन्म दिया।
भीका जी बचपन से ही बड़ी साहसी, निडर, तेज और बुद्धिमान होने के साथ ही सरल और संवेदनशील थीं। उन्हें एक ओर अपनी माँ से धार्मिक सहिष्णुता और कर्त्तव्यपरायणता की शिक्षा मिली थी, तो दूसरी ओर पिता से उदारता और राष्ट्रप्रेम की। छात्र जीवन में बालिका भीका जी ने जब भारतीय छात्राओं के साथ अंग्रेजों द्वारा किया जाने वाला अपमानजनक व्यवहार और उनका शोषण देखा तो उसे गहरा आघात लगा और उसने जाति-धर्म एवं ऊँच-नीच के सभी भेदों को भुलाकर भारतीय नारियों को संगठित करने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने का निश्चय किया। यह उस समय की बात है जब भारतीय स्त्रियों के पास किसी प्रकार के अधिकार न थे। वे पर्दे में रहती थीं। उनकी जो शिक्षा घर पर हो जाती थी, वही पर्याप्त समझी जाती थी। स्कूली शिक्षा केवल उच्च वर्ग तक ही सीमित थी। अतः भीका जी के ये विचार किसी क्रान्ति से कम न थे।
भीका जी के पिता श्री सोहराबजी को जब भीका जी की क्रान्तिकारी योजनाओं और उसकी गतिविधियों की जानकारी मिली जो वह चिंतित हो उठे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी भोली-भाली दुबली-पतली बेटी अंग्रेज हुकूमत से टक्कर लेने का साहस कर सकती है। सोहराब जी अंग्रेज हुकूमत की ताकत से परिचित थे। अतः उन्होंने भीका जी को अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से समझाने का प्रयास किया। किंतु वह अपने प्रयासों में असफल रहे। उन्होंने भीका जी को अंग्रेजों की शक्ति और उनकी क्रूरता के उदाहरण देकर डराने का प्रयास भी किया, किन्तु भीका जी पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह अपने निश्चय पर अडिग रहीं। अंत में सोहराब जी ने भीका जी का विवाह एक विख्यात पारसी व्यापारी के. रुस्तम जी कामा के साथ कर दिया। उनका विश्वास था कि भीका जी विवाह के बंधन में बँधने के बाद अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए एक अच्छी गृहणी के समान जीवन व्यतीत करने लगेंगी और अंग्रेज हुकूमत से टकराव का रास्ता छोड़ देंगी।
सोहराब जी अपनी बेटी को समझ नहीं पाये थे। उन्होंने उसके विषय में जैसा सोचा था, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। भीका जी से मैडम भीका जी कामा बनने के बाद भी उनकी बेटी की विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत महिलाओं का संगठन बनाने, उनका उत्थान करने और अंग्रेज हुकूमत के विरुद्ध क्रान्तिकारी आन्दोलन करने की उसकी इच्छा और भी अधिक बलवती हो उठी, किंतु पति श्री रुस्तम जी कामा के साथ रहते हुए यह सब संभव न था। परिणाम स्वरूप मैडम कामा चिंतित रहने लगीं। उन पर विवाह के बाद नये परिवार का उत्तरदायित्व आ पड़ा था। अतः वह अस्वस्थ रहने लगीं।
भीका जी कामा के पिता सोहराब जी और उनके पति रुस्तम जी कामा दोनों यह भलीभाँति जानते थे कि मैडम कामा की बीमारी का प्रमुख कारण उनका देशप्रेम है। वह भारत की आजादी की लड़ाई में खुल कर भाग लेना चाहती हैं, किंतु ऐसा कर नहीं पा रही हैं। सोहराब जी और रुस्तम जी उन्हें ऐसा करने की अनुमति दे भी नहीं सकते थे। अतः दोनों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि मैडम कामा का कुछ समय बंबई में इलाज कराने के बाद उन्हें इलाज के बहाने यूरोप भेज दिया जाये। इस निर्णय के पीछे दोनों का उद्देश्य मैडम कामा को अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करने से रोकना था। उन्होंने यह समझा था कि यूरोप जाने के बाद कामा वहाँ की भौतिक वादी चकाचौंध से प्रभावित होकर क्रान्ति और आन्दोलन सब भूल जाएँगी तथा सामान्य गृहणियों की तरह अपना जीवन व्यतीत करने लगेंगी। किंतु यह उनकी भूल थी। मैडम कामा सामान्य नारी नहीं थीं।
सन 1902 में मैडम कामा इंग्लैण्ड आ गयीं। इस समय विख्यात स्वतंत्रता सेनानी दादाभाई नौरोजी इंग्लैण्ड में ही थे। मैडम कामा ने इंग्लैण्ड में कुछ समय अपना इलाज करवाया और स्वस्थ होते ही दादा भाई नौरोजी से मिलीं। दादाभाई नौरोजी मैडम कामा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। मैडम कामा ऐसे ही अवसर की तलाश में थीं। उन्होंने दादाभाई नौरोजी के साथ काम करते हुए विदेशों में रहने वाले भारत की आजादी में लगे हुए अनेक लोगों से सम्पर्क किया। इसी समय उनकी भेंट विख्यात क्रांतिकारी नेता श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई। मैडम कामा श्याम जी कृष्ण वर्मा से बहुत प्रभावित हुईं और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध किए जाने वाले संघर्ष में सक्रिय रूप से खुल कर भाग लेने लगीं। उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ इंग्लैण्ड के हाइड पार्क में अंग्रेज हुकूमत के विरुद्ध इतना ओजपूर्ण भाषण दिया कि भारत के साथ ही इंग्लैण्ड की अंग्रेज हुकूमत के भी कान खड़े हो गये। मैडम कामा यही चाहती थीं। अपनी इस आरंभिक सफलता के बाद उन्होंने यूरोप में रहकर भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले भारतीयों का एक संगठन बनाया और पूरी तरह से अपने काम में जुट गयीं। मैडम कामा की गतिविधियों को इंग्लैण्ड स्थित 'इंडिया हाउस' ने बड़ी गंभीरता से लिया और उन्हें अंग्रेज हुकूमत का विरोध करने वाली गतिविधियों से दूर रहने की चेतावनी दी किंतु इन सबका मैडम कामा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने मार्ग पर बढ़ती गयीं।
सन 1905 में बंगाल विभाजन से पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध एक लहर सी दौड़ गयी और पूरे देश में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी। अंग्रेज हुकूमत ने भी इसे कुचलने के लिए अपना दमन चक्र आरम्भ किया। बंगाल के अनेक क्रान्तिकारियों पर लाठियाँ बरसायी गयीं, बहुत से क्रान्तिकारी पुलिस की गोलियों का निशाना बने और अनेक युवा क्रान्तिकारियों को फाँसी पर लटका दिया गया। अंग्रेजों का दमनचक्र जैसे-जैसे बढ़ा, आंदोलन उग्र होता गया और कुछ ही समय में पूरे भारत में फैल गया। इस आंदोलन में बहुत बड़ी संख्या में लोग घायल हुए, जेल गये, कालापानी की सजा काटने अण्डमान भेजे गये और फाँसी पर चढ़ाये गये। मैडम कामा पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अंग्रेज हुकूमत की इस अमानवीय बर्बरता से अंग्रेजों का दोहरा व्यक्तित्व स्पष्ट हो गया। एक ओर तो भारत के विकास और भारतीयों के जीवन स्तर में सुधार के दावे और दूसरी ओर अन्याय का विरोध करने पर क्रूरतम ढंग से दमन । मैडम कामा ने अंग्रेज हुकूमत की इस घृणित नीति पर गंभीरता से विचार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि भारत की आजादी के लिए एक लड़ाई भारत के बाहर रह कर भी लड़ना अनिवार्य है। इससे संपूर्ण विश्व को अंग्रेज हुकूमत की असलियत का पता चलेगा और भारत की आजादी के लिए विश्व जनमत तैयार होगा। मैडम कामा ने भारत के बाहर रहते हुए भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने का निश्चय किया और इस कार्य में पूरे मनोयोग से जुट गयीं।
सन 1907 में जर्मनी के स्टूगार्ड नामक स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी पार्टी का सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में विश्व के विभिन्न देशों के लगभग एक हजार प्रतिनिधि भाग ले रहे थे। सम्मेलन के आयोजकों ने मैडम कामा को भी इसमें आमंत्रित किया। यहाँ मैडम कामा ने सभी के सामने अंग्रेज हुकूमत की तथाकथित उपलब्धियों की धज्जियाँ उड़ायीं और उसके द्वारा भारतीयों पर किए जाने वाले अत्याचारों का दिल दहला देने वाला चित्र प्रस्तुत किया। इसी समय मैडम कामा ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए एक ध्वज निकाला और उसे भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में फहरा दिया। यह ध्वज देखते ही उपस्थित लोगों ने जोरदार तालियाँ बजायीं और मैडम कामा के साहस की मुक्तकंठ से सराहना की। इसके पहले भारत और विदेशों में सभी स्थानों पर यूनियन जैक ही भारतीय ध्वज के रूप में फहराया जाता था। मैडम कामा आरम्भ से ही इसकी विरोधी थीं। इसीलिए उन्होंने एक तिरंगे ध्वज का निर्माण किया था। उनके ध्वज में लाल-पीली और हरी तीन रंगों की पट्टियाँ थीं।
मैडम कामा अपना राष्ट्रीय ध्वज सदैव अपने साथ रखती थीं एवं भाषण देने के पूर्व भारत ध्वज फहराती थीं। उनके इस ध्वज की विश्व स्तर पर सराहना की गयी तथा सन 1916 तक देश-विदेश सभी स्थानों पर इसी ध्वज को भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों ने राष्ट्रीय ध्वज माना।
मैडम कामा की क्रान्तिकारी गतिविधियों से अंग्रेज हुकूमत बड़ी परेशान थी। भारत में रहने वाले क्रान्तिकारियों का तो बड़ी आसानी से दमन कर सकती थी, किंतु यूरोप में यह सब आसान न था। फिर भी मैडम कामा को किसी न किसी तरह जाल में फँसाने और उन्हें कारागार में भेजने की आशंका बनी रहती थी। अंग्रेज हुकूमत के जासूस दिन-रात उनके पीछे लगे रहते थे और उन पर एवं उनके साथियों पर कड़ी नजर रखते थे। मैडम कामा के काम ही ऐसे थे कि वह कभी भी अंग्रेज हुकूमत के जाल में फँस सकती थीं। वह भारत और विदेशों में रहने वाले भारतीय क्रान्तिकारियों की सभी प्रकार से सहायता करती थीं। उनकी आर्थिक मदद करती थीं तथा उनके लिए खिलौनों की पेटियों में हथियार रखकर यूरोप से भारत भेजती थीं। इन अपराधों के लिए उन्हें मृत्युदंड तक दिया जा सकता था किंतु भारत की आजादी के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने की शपथ लेने वाली इस वीरांगना ने कभी भी अपने प्राणों का मोह नहीं किया। अंग्रेज हुकूमत मैडम कामा पर सीधे-सीधे कोई कार्यवाही नहीं कर सकती थी, अतः उसने मैडम कामा की गतिविधियों को अपराधी घोषित करते हुए उन्हें फरार अपराधी करार दे दिया और उनकी सारी सम्पत्ति अपने अधिकार में ले ली। इसके साथ उनके भारत आने पर प्रतिबंध भी लगा दिया।
मैडम कामा पर इन सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह पहले की तरह अपना काम करती रहीं। उन्होंने यूरोप के देशों के साथ ही अमरीका का भी भ्रमण किया और वहाँ भी उन्होंने लोगों को अंग्रेज हुकूमत और सामान्य भारतीयों की दयनीय स्थिति से परिचित कराया। इन सबका सम्पूर्ण विश्व पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे अंग्रेज हुकूमत की विश्व स्तर पर आलोचना होने लगी। इस समय मैडम कामा फ्रांस में रहकर क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन कर रही थीं। अतः अंग्रेज हुकूमत ने फ्रान्स की सरकार पर दबाव डाला कि वह मैडम कामा की क्रान्तिकारी गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाये। आरम्भ में फ्रान्स की सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। किंतु जब अंग्रेज हुकूमत ने सीधे सीधे यह आरोप लगाया कि मैडम कामा फ्रांस में रहकर भारत सरकार का तख्ता उलटने की योजना बना रही हैं तो फ्रांस की सरकार ने मैडम कामा की गतिविधियों पर रोक लगा दी।
फ्रांस की सरकार के आदेश के सम्मुख मैडम कामा को झुकना पड़ा तथा उनकी गतिविधियाँ सीमित हो गयीं। मैडम कामा समाजवाद से अत्यंत प्रभावित थीं। वह चाहती थीं कि भारत में भी रूस की तरह क्रान्ति हो तथा यहाँ भी समाजवाद की स्थापना हो। उन्होंने कुछ समय तक वन्देमातरम् नामक एक पत्र निकाला। इसकी कुछ प्रतियां चोरी छिपे भारत भी आती थीं। मैडम कामा क्रान्तिकारियों के साथ ही उन विद्यार्थियों की भी आर्थिक सहायता करती थीं, जो विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए जाते थे। इन सभी के कारण उनकी आर्थिक स्थिति दिन-प्रतिदिन कमजोर होती गयी तथा उनका स्वास्थ्य भी गिरता गया। मैडम कामा की स्थिति से भारतीय स्वतंत्रता सेनानी चिंतित हो उठे। उन्होंने मैडम कामा के भारत आने पर लगे हुए प्रतिबंध को हटाने के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाना आरम्भ किया। मैडम कामा भी अब भारत लौटना चाहती थीं। वह 74 वर्ष की हो रही थीं और उनका शरीर जर्जर हो चुका था। अतः अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें भारत आने की अनुमति दे दी। नवंबर, 1935 को मैडम कामा स्वदेश आ गयीं। किंतु उनकी स्थिति इतनी नाजुक थी कि उन्हें बंबई में स्ट्रेचर पर उतारना पड़ा और सीधे अस्पताल पहुँचाना पड़ा। यहीं पर मृत्यु के साथ एक लंबे संघर्ष के बाद अगस्त, 1936 में उनका देहावसान हो गया।
मैडम कामा बहुमुखी प्रतिभावान, विदुषी, क्रान्तिकारी वीरांगना थीं। उन्होंने लगभग 35 वर्षों तक विदेशों में रहकर भारतीय स्वतंत्रता की अलख जगायी। वह न कभी जेल गयीं और न ही कभी उन्हें दंडित किया गया। इसके बाद भी इस भारतीय वीरांगना के अभिनव त्याग और बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
ये भी पढ़ें; Bharat Ki Virangana : वीर बाल चंपा की कहानी