Rajbala: आदर्श हिन्दू नारी वीरांगना राजबाला की कहानी

Dr. Mulla Adam Ali
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वीरांगना राजबाला : वीरांगना राजबाला वैशलपुर के जागीरदार प्रतापसिंह की बेटी थी। वह बचपन से ही अत्यंत रूपवती और बुद्धिमती थी। उस समय लड़कियों का विवाह बहुत छोटी आयु में तय कर दिया जाता था। राजबाला आदर्श हिन्दू नारी थी। उसने अपनी आत्मा से अजीत सिंह को अपना पति मान लिया था। पढ़िए पूरी कहानी अजीत सिंह राजबाला कहानी संघर्ष की, वीर महिला राजबाला।

Kissa Ajit Singh Rajbala

महान वीर नारी राजबाला की कथा

भारतीय वीरांगनाओं में वीरांगना राजबाला का विशिष्ट स्थान है। वीरांगना राजबाला ने न तो किसी आततायी मुस्लिम शासक के विरुद्ध रणभूमि में युद्ध किया और न ही विदेशी अंग्रेज हुकूमत से टक्कर ली। राजबाला ने अपने पति का विषम परिस्थितियों में बड़ी हिम्मत और दृढ़ता से साथ दिया तथा बहादुरी के ऐसे रोमांचक कार्य किए कि उसका नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया।

वीरांगना राजबाला वैशलपुर के जागीरदार प्रतापसिंह की बेटी थी। वह बचपन से ही अत्यंत रूपवती और बुद्धिमती थी। उस समय लड़कियों का विवाह बहुत छोटी आयु में तय कर दिया जाता था। राजबाला का विवाह भी ठाकुर अनारसिंह के बेटे अजीतसिंह के साथ तय कर दिया गया। जिस समय राजबाला और अजीतसिंह का रिश्ता तय हुआ उस समय ठाकुर अनारसिंह की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। किंतु धीरे-धीरे अनारसिंह की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी और कुछ ही समय में उनकी सारी शानो-शौकत समाप्त हो गयी।

जागीरदार प्रतापसिंह को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने राजबाला का विवाह अन्यत्र करने का निश्चय किया। उन्होंने राजबाला को बुलाया और इस संबंध में उसकी इच्छा जानना चाही।

राजबाला आदर्श हिन्दू नारी थी। उसने अपनी आत्मा से अजीत सिंह को अपना पति मान लिया था। राजबाला ने जागीरदार प्रतापसिंह को भी अपने विचारों से अवगत करा दिया।

राजबाला के विचार जानने के बाद जागीरदार प्रतापसिंह ने एक नयी चाल चली। उन्होंने अपने भावी दामाद अजीतसिंह को खबर भेजी कि वह राजबाला का विवाह उसके साथ करने के लिए सहर्ष तैयार हैं।

 किंतु इसके लिए बीस हजार रुपये आवश्यक हैं। यदि शीघ्र ही वह बीस हजार रुपयों की व्यवस्था नहीं कर पाता तो राजबाला का विवाह अन्यत्र किया जा सकता है।

अजीतसिंह को जब यह समाचार मिला तो वह परेशान हो उठा। उसमें राजबाला को सभी प्रकार से सुख देने की तो क्षमता थी। किंतु वह इतनी जल्दी बीस हजार रुपयों की व्यवस्था नहीं कर सकता था।

अजीतसिंह भी राजपूत था। वह चाहता था कि जिस लड़की के साथ उसका विवाह तय हुआ है उसी लड़की के साथ विवाह संपन्न हो। यह रिश्ता टूटने पर उसकी बदनामी निश्चित थी। अतः उसने बीस हजार रुपये कर्ज पर लेने का निश्चय किया।

अजीत सिंह एक साहूकार के पास पहुँचा और उसने उसे अपनी पूरी व्यथा कथा सुनायी। साहूकार सज्जन व्यक्ति था। वह अजीत सिंह से भलीभाँति परिचित था, अतः उसने अजीतसिंह को बीस हजार रुपये दे दिए। किंतु इस शर्त के साथ कि वह कर्ज अदा करने के बाद ही राजबाला के साथ पति-पत्नी का संबंध बनाएगा। जब तक कर्ज अदा नहीं हो जाता, तब तक वह ब्रह्मचर्य से रहेगा।

अजीतसिंह के पास कोई दूसरा रास्ता न था, अतः उसने साहूकार की बात मान ली।

अजीतसिंह ने प्रतापसिंह की शर्त पूरी कर दी थी। अतः उसने बीस हजार रुपये अपने पास रखे और राजबाला का विवाह अजीतसिंह के साथ कर दिया।

राजबाला दुल्हन बनकर अजीतसिंह के घर आ गयी। यहाँ आते ही अजीतसिंह ने उसे अनोखी शर्त की बात बतायी।

राजबाला बड़ी साहसी और बुद्धिमान थी। वह पहले से ही अपने पिता की लालची प्रवृत्ति से परिचित थी। विवाह की शर्त की बात भी उसकी समझ में आ गयी। अंत में पति-पत्नी दोनों ने आपस में विचारविमर्श किया और कर्ज का बोझ उतारने के लिए चाकरी करने का निश्चय किया।

अजीतसिंह अपने गृहनगर में चाकरी नहीं कर सकता था, अतः वह राजबाला सहित उदयपुर आ गया। राजबाला इस समय पुरुष वेश में थी और उसने अपना नाम गुलाब सिंह रख लिया था।

अजीतसिंह और गुलाबसिंह दोनों महाराणा उदयसिंह के पास पहुँचे। उन्होंने राजपूत सैनिकों के रूप में अपना परिचय दिया और चाकर रखने के लिए विनती की।

महाराणा उदयसिंह को दोनों राजपूत युवक बहुत अच्छे लगे। एक युवक गठे हुए बदन का लंबे-चौड़े मजबूत शरीर वाला था तो दूसरे के चेहरे पर गजब का आकर्षण और सुंदरता थी। उन्होंने दोनों को अपनी सेवा में रख लिया और उन्हें राजमहल में ही सुरक्षा सैनिकों का काम दे दिया।

अजीतसिंह और राजबाला को आश्रय मिल गया, किंतु महाराणा उदयसिंह ने उनका वेतन इतना कम निर्धारित किया था कि वे जीवन भर चाकरी करने के बाद भी बीस हजार रुपये नहीं एकत्रित कर सकते थे। फिर भी दोनों मजबूर थे। अतः बड़े मनोयोग से अपने-अपने काम पर लग गये। अजीत सिंह दिन के समय काम करता था और राजबाला रात को।

इस प्रकार दोनों शर्त का पालन भी सरलता से कर लेते थे। धीरे-धीरे दो माह व्यतीत हो गये।

एक दिन महाराणा उदयसिंह ने शिकार का कार्यक्रम बनाया। उन्होंने अपने कुछ विश्वासपत्र सैनिकों को अपने साथ लिया और जंगल की ओर निकल गये। उदयसिंह के साथ अजीतसिंह और गुलाबसिंह भी थे।

महाराणा उदयसिंह हाथी पर सवार थे और बड़ी शान से आगे बढ़ रहे थे। अचानक उनके सामने एक कद्दावर शेर आ गया। शेर बड़ा भूखा था। उसने उछल कर हाथी पर वार किया। हाथी इस आक्रमण से घबरा गया। वह हौदा पटक कर एक ओर भागा।

महावत ने हाथी को संभालने का बहुत प्रयास किया, किंतु वह रुका नहीं और महावत को भी गिरा कर भाग निकला।

इधर शेर ने हाथी को छोड़ा और महाराजा उदयसिंह पर झपटा। अजीतसिंह और गुलाबसिंह महाराणा उदयसिंह के निकट थे। उन्होंने महाराणा उदयसिंह की ओर बढ़ते हुए कद्दावर शेर पर अपने-अपने भाले एक साथ फेंके। अजीतसिंह का निशाना चूक गया, किंतु गुलाब सिंह का भाला सीधा शेर के मस्तक पर लगा।

भाला लगते ही शेर एक ओर गिर गया। इसी समय गुलाब सिंह आगे बढ़ा और उसने अपनी तलवार के एक ही वार से शेर का सर उसने धड़ से अलग कर दिया।

महाराणा उदयसिंह ने अपने प्राणरक्षक की ओर कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा और राजमहल आकर उसे ढेरों पुरस्कार दिए। इतना ही नहीं महाराणा उदयसिंह ने गुलाब सिंह को 'प्राणरक्षक' की उपाधि प्रदान की और उसे अपना अंगरक्षक बना लिया।

धीरे-धीरे एक वर्ष व्यतीत हो गया। गुलाबसिंह बनी राजबाला अब बड़ी उदास और दुखी रहने लगी थी। उसका रूप और सौन्दर्य भी फीका पड़ने लगा था।

एक दिन अर्धरात्रि का समय था। गुलाब सिंह राजमहल में पहरा दे रहा था। अचानक बादल गरजने लगे और वर्षा होने लगी। गुलाबसिंह बनी राजबाला दुखी तो थी। इसी दुख में उसके होंठों पर विरह का गीत आ गया। इस गीत में इतनी वेदना थी कि महाराणा की नींद टूट गयी।

महाराणा उदयसिंह उठे और आवाज की ओर खिंचे चले आये। उन्होंने पूरा गीत सुना तो भाव-विभोर हो उठे।

अचानक महाराणा उदयसिंह की दृष्टि कुछ दूरी पर खड़े गुलाब सिंह पर पड़ी। गुलाब सिंह का चेहरा आँसुओं से भीगा हुआ था।

उदयसिंह सब कुछ समझ गये। वह गुलाबसिंह ने कुछ नहीं बोले और वापस आकर लेट गये।

महाराणा उदयसिंह को रातभर नींद नहीं आयी। प्रातःकाल होते ही उन्होंने अजीतसिंह को बुलाया और वास्तविकता स्पष्ट करने को कहा। अजीतसिंह भी बड़ा दुखी था। उसने महाराणा उदयसिंह को शर्त सहित सभी बातें साफ-साफ बता दीं।

महाराणा उदयसिंह बड़े सरल और उदार हृदय के थे। उन्होंने तुरंत साहूकार के पास ब्याज सहित बीस हजार रुपये भेजने की व्यवस्था की तथा अजीतसिंह और राजबाला को शर्तमुक्त कर दिया। इसके साथ ही महाराणा उदयसिंह ने राजबाला को अपनी बेटी बना लिया और सदैव उसकी वीरता एवं स्वामिभक्ति का सम्मान किया।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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