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वीरांगना दुर्गावती : पढ़िए गोंडवाना साम्राज्य का गौरवशाली इतिहास और रानी दुर्गावती का समर्पण की कहानी, गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्णिम युग और विश्व की श्रेष्ठतम वीरांगना रानी दुर्गावती की कहानी पढ़िए किस्से क्रांतिकारियों के...
History of Rani Durgawati in Hindi
वीरांगना रानी दुर्गावती की बहादुरी
मध्यभारत के गोंडवाना क्षेत्र में रानी दुर्गावती का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। रानी दुर्गावती उन भारतीय वीरांगनाओं में से थी, जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करना अधिक श्रेष्ठ समझा।
वीरांगना दुर्गावती का जन्म उत्तर प्रदेश के राठ (महोबा) नामक स्थान पर हुआ था। उस समय राठ कालिंजर राज्य के अंतर्गत आता था। दुर्गावती कालिंजर के अंतिम शासक महाराज कीर्तिसिंह चन्देल की इकलौती संतान थी। दुर्गावती की माता का देहांत दुर्गावती के बचपन में ही हो गया था। अतः महाराज कीर्तिसिंह ने बेटी का पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार से राजकुमारों की तरह किया।
दुर्गावती को बाल्यावस्था से अस्त्र-शस्त्रों और घुड़सवारी में बड़ी रुचि थी। उसने राजकुमारों के समान इन सबका प्रशिक्षण लिया और बड़ी होने पर अकेली ही शिकार खेलने जाने लगी। दुर्गावती वीर और गुणवती होने के साथ अनिंद्य सुंदरी भी थी, अतः कुछ ही समय में उसके रूप और गुणों की चर्चा आसपास के क्षेत्रों में फैल गयी।
एक बार मनिया देवी के मेले में दुर्गावती की भेंट गोंडवाना नरेश राजा दलपतिशाह से हो गयी। राजा दलपतिशाह बड़े वीर, दानी और न्यायप्रिय शासक थे। दुर्गावती उनसे बहुत प्रभावित हुई और दोनों ने एक साथ विन्ध्याचल के जंगलों में शिकार खेलने का निश्चय किया। इस शिकार अभियान में सर्वप्रथम दुर्गावती ने एक शेरनी को मार गिराया। किंतु जैसे ही दुर्गावती शेरनी के निकट पहुँची वैसे ही झाड़ियों में छिपे हुए शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया। इस अवसर पर राजा दलपतिशाह ने बड़ी वीरता का परिचय दिया और उन्होंने अपनी तलवार से शेर को मार गिराया।
दुर्गावती राजा दलपतिशाह की इस बहादुरी पर आसक्त हो गयी और उसने उन्हें अपहरण विवाह का सुझाव दिया। उस काल में वीर राजा अपहरण द्वारा ही विवाह करते थे। ये अपहरण कभी राजकुमारियों की सहमति से किए जाते थे तो कभी असहमति से।
राजा दलपतिशाह ने इस चुनौती को स्वीकार किया और दुर्गावती का अपहरण करके गोंडवाना की राजधानी सिंगोर गढ़ ले आये। सिंगोरगढ़ में दोनों का वैदिक रीतिरिवाज के अनुसार बड़ी धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ।
दुर्गावती अब गोंडवाने की महारानी बन गयी। उसका और दलपतिशाह का जीवन बड़ी सुख-शांति से बीतने लगा। इसी मध्य रानी दुर्गावती ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारायण रखा गया। एक बार रानी दुगार्वती अपने पति और बेटे के साथ दक्षिण भारत की यात्रा पर गयी थी कि उचित अवसर समझ कर दिल्ली के शासक शेरशाह सूरी ने कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। कालिंजर के बुन्देले सैनिकों ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया, किंतु वे कालिंजर को न बचा सके और कालिंजर के दुर्ग पर शेरशाह का अधिकार हो गया।
रानी दुर्गावती को जब यह समाचार मिला तो उसे बड़ा क्रोध आया किंतु उस समय उसके पति दलपतिशाह एक घातक बीमारी से पीड़ित थे। अतः वह कालिंजर की कोई सहायता न कर सकी।
राजा दलपतिशाह की मृत्यु के बाद रानी दुर्गावती को राजसिंहासन पर बैठना पड़ा। उसका बेटा राजकुमार नारायण अभी पांच वर्ष का भी नहीं हुआ था। गोंडवाना राज्य चारों तरफ से शत्रुओं से घिरा हुआ था और अकेली रानी को पाकर कोई भी शत्रु कभी भी उस पर आक्रमण कर सकता था। अतः रानी दुर्गावती ने राजकाज सँभालने के साथ ही सर्वप्रथम सेना को नये ढंग से संगठित किया। उसने नारी सेना बनायी और शत्रु राज्यों में गुप्तचरों का जाल बिछाया। इससे राज्य की शासन व्यवस्था में काफी सुधार आया और राज्य की शक्ति भी बढ़ी।
रानी दुर्गावती ने सोलह वर्षों तक कुशलता पूर्वक शासन किया। उसके शासन काल में प्रजा सुखी थी, सबको न्याय मिलता था और राजकोष भी भरा था। रानी ने अपने राज्य के भीतर अनेक इमारतें, कुएँ, तालाब, बावड़ी आदि भी बनवाये। उसके शासनकाल को गोंडवाने का स्वर्णयुग कहा जाता है।
रानी दुर्गावती के शासन और गोंडवाने की समृद्धि से जहाँ एक ओर राज्य की प्रजा खुश थी, वहीं उसके अनेक शत्रु उसे और गोंडवाने को मिटाने की योजना भी बना रहे थे। इन शत्रुओं में एक था- माण्डवगढ़ का सुल्तान बाज बहादुर । एक अवसर देखकर बाजबहादुर ने गोंडवाने पर आक्रमण कर दिया। रानी दुर्गावती पहले से ही सावधान थी। अतः उसने बाजबहादुर और उसकी सेना को ऐसा सबक सिखाया कि उसे भागते ही बना।
रानी दुर्गावती ने जीत की इस खुशी में विजयपर्व का आयोजन किया। इस अवसर पर नृत्य, गीत तथा विभिन्न प्रकार के मनोरंजक कार्यक्रम रखे गये। राज्य के सभी सैनिक, सेना नायक और गणमान्य व्यक्ति रानी दुर्गावती के साथ खुशियाँ मना रहे थे, तभी कुछ मुगल सैनिकों ने उसके राज्य में लूटपाट आरम्भ कर दी। रानी को जब यह समाचार मिला तो उसने मुगलों की शक्ति की चिंता न करते हुए मुगल सैनिकों को ऐसा सबक सिखाया कि वे सर पर पैर रखकर भागे।
रानी दुर्गावती के इस व्यवहार से मुगल बादशाह अकबर बौखला उठा। उसने सर्वप्रथम एक सन्देशवाहक भेजकर रानी दुर्गावती को यह पैगाम भेजा कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, किंतु रानी दुर्गावती के इंकार कर देने पर उसने सूबेदार आसफखाँ को एक बड़ी सेना के साथ रानी को सबक सिखाने के लिए भेजा।
आसफखाँ एक क्रूर और निर्दयी सेनापति था। उसने अपनी छलपूर्ण राजनीति से रानी दुर्गावती की सेना को अनेक स्थानों पर परास्त किया और अंत में दुर्गावती के दुर्ग सिंगोरगढ़ पर कब्जा कर लिया।
मुगलों की सेना बहुत विशाल और शक्तिशाली थी। फिर भी रानी दुर्गावती ने अपनी हार नहीं मानी और अपनी सेनाओं को बिछिया घाटी के मैदान में एकत्रित किया। बिछिया घाटी के मैदान में आसफखाँ और दुर्गावती की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में रानी दुर्गावती और उसके सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। एक बार तो ऐसा समय भी आ गया, जब आसफखाँ की सेनाओं के पैर उखड़ गये और उन्हें पीछे हटना पड़ा, किंतु अचानक एक घातक तीर रानी दुर्गावती की कनपटी पर और दूसरा गले के पास लगा। इससे रानी बुरी तरह आहत होकर गिर पड़ी।
आसफखाँ ने रानी दुर्गावती को जीवित पकड़ने की कसम खायी थी। उसके गिरते ही मुगल सैनिक कुत्तों की तरह रानी पर झपटे, किंतु तभी रानी दुर्गावती ने अपने महावत की कटार लेकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। इस तरह रानी दुर्गावती अपने देश की आन-बान-शान पर मिट कर अमर हो गयी।
आज भी गोंडवाने के लोग रानी दुर्गावती की वीरता के गीत गाते हैं और उसे देवी के समान पूजते हैं।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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