कहावतों-मुहावरों में अभिव्यक्ति का लोकतंत्र

Dr. Mulla Adam Ali
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democracy of expression in proverbs and idioms

Democracy of expression in proverbs and idioms

कितनी ज्योतिषीय आकाश-दृष्टि रही होगी, जब 'वक्र चंद्रमा ग्रसै न राहु' कहा गया होगा। सीधा आदमी जब टेढ़ा हो जाए तो राहु टेढ़े को भी सीधा कर देता है। सामाजिक मनोविज्ञान की कितनी गहरी लोकदृष्टि है। यह कोई सौ-दो सौ नहीं, बल्कि बोलचाल के प्रवाह में जीवंत है।

कहावतों-मुहावरों में अभिव्यक्ति का लोकतंत्र

- बी. एल. आच्छा

   बात पुरानी है। स्टेशन की बैंच पर बैठे ट्रेन का इंतजार कर रहा था।इस बीच एक साधारण सा मुसाफिर ने पास में बैठकर पूछा- "तीन घंटी हो गयी क्या?" मैंने हां कह दिया। उसने सवाल किया - "बाबूजी,आप जानते हैं, यह नौ दो ग्यारह कैसे बना?" मैंने कहा-" हाँ, पुलिस को देखकर चोर नौ दो ग्यारह हो गया।" वह बोला- "पर यह आठ-तीन ग्यारह क्यों नहीं हुआ?" मेरी चुप्पी पर वह बोला- "बाबूजी, ट्रेन जब दो स्टेशन पहले से चलती है तो पांच घंटी। एक स्टेशन पहले से चलती है तो तीन घंटी। सिग्नल से प्लेटफार्म पर आती है तो एक घंटी। यानी कुल नौ। स्टेशन से रवाना होती है तो दो घंटी। और ट्रेन नौ-दो ग्यारह। किसी को नहीं मालूम यह मुहावरा किसने गढ़ा। कोई साधारण अनपढ़ था या शास्त्री- डिग्रीधारी। इतना जरूर है कि यह लोक की जबान है, जो भाषा के चमत्कार में मजे लेती है। पर लक्षणा- व्यंजना नहीं जानती। पर है तो लोकमानस की चमत्कारिक प्रतिभा। आखिर ये न तो सुर्खियाँ हैं, न मंत्र-पाठ।न फार्मूले, न सूत्र- वाक्य। कितनी सहजता से लोक की पकड़ है, जो रेलवे के परिचालन में ऐसा मुहावरा गढ़ लेती है और उसे समाजव्यापी बना देती है। घटना तो खो जाती है, पर उसका चमत्कारिक सत्य विश्वविद्यालयों के पाठ्‌यक्रम और परीक्षाओं का हिस्सा बन जाता है।

   और शास्त्र तो सत्य की एक खूंटी से बंधे रहते हैं। प्रज्ञा का आलोक उनकी परिभाषाओं- सूत्रों में सीमित रहता है। पर कहावतों - मुहावरों में युग सत्य होता है, समाजशास्त्र होता है। विषयों का असीमित क्षेत्रफल होता है। सामाजिक आचारों की रीति-नीति और उनकी जड़ता पर प्रहार होते हैं। उनमें सामाजिक मनोविज्ञान होता है। नैतिक पक्ष होते हैं। और शास्त्रीय सूत्रों की तरह ये लोक-सूत्र भी वाणी के लोकतंत्र के मुखर अक्षर- ट्यूब बने रहते हैं।

    कितनी ज्योतिषीय आकाश-दृष्टि रही होगी, जब" वक्र चन्द्रमा ग्रसै न राहू "कहा गया होगा। सीधा आदमी जब टेढ़ा हो जाए, तो टेढ़े को भी सीधा कर देता है। सामाजिक मनोविज्ञान की कितनी गहरी लोकदृष्टि है। और ये कोई सौ-दो सौ नहीं ,न केवल किताबों के कोश में। बल्कि बोलचाल के प्रवाह में जीवंत हैं।न नारे लगाते हैं अभिव्यक्ति के लोकतंत्र का। न धर्म समुदाय से डरते हैं। न गुरुजनों- सत्ताओं से। यह भी नहीं कि पुराने कहावत -मुहावरे ही चलते रहते हैं। नये भी बनते हैं- अक्ल से पैदल, पेटी और खोखे (लाखों-करोड़ों), ट्यूबलाइट देर से जलना, डीपी में फोटो रहे बढ़ेगा आदरभाव। अब ये तो प्रौद्योगिकी के जमाने ‌‌के कहावत -मुहावरे हैं न? बस यही कि हमारे जमाने में लोक व्यवहार को इतनी गहराई से देखने समझने की अपेक्षा सिने- दृश्यों में रुचि ज्यादा है।

     कभी कभी देखकर आश्चर्य होता है। यही कि कैमरा बॉडी लैंग्वेज को पकड़‌ता है। लोग भी सज- संवरकर बॉडी लैंग्वेज पर ध्यान देते हैं।ये मुहावरे बॉडी लैंग्वेज पर कितने खरे हैं।आंखों पर ही कितने मुहावरे हैं।इन्हें सुनकर हीआंखें चार होने का रोमांस समझ में आ जाता है।और आंखों- आंखों मे सारा मनोविज्ञान ही विडियोग्राफी करता रहता है। हाथ पीले में तो विवाह ही संपन्न होजाता है। अब आँख बिछाए या मटकाए या लड़ाए या आँखें खुली की खुली रह जाए। कितने दृश्यचित्र श्रोताओं- दर्शको में उभर आते हैं।

    अंगुलियों से अंगूठे तक आते-आते कितने मुहावरे दृश्यमान हो जाते हैं।आज की इमोजी भाषा भी इसीतरह अंगूठा दिखा जाती है। अलबत्ता इमोजी के अंगूठे की शक्ल से अलग-अलग अर्थ निकलते हैं। एक तरह से ये मुहावरे आज की इमोजी भाषा के दादाजी हैं। लोग प्रयोग कम करते हैं। क्योंकि इनके मायने रटे-रटाए हैं। लोग पोस्ट आफिस के लाल डिब्बे को ही ईमेल के दादा जी कह देते हैं।और कान के मुहावरों तक आते- आते तो इस लोकतंत्र को कहा-सुनी से लेकर कान खाने या कान पकड़ने तक ही सीमित नहीं रहने देते हैं।क्या जंगल और जंगली जानवर, आदमी के साथ वे भी मुहावरों कहावतों में लिपटे पड़े हैं। बंदर भले अदरक का स्वाद न जाने पर आदमी चाय की चुस्कियों में अदरक को भूलता नहीं है। हाथी अपने खाने-दिखाने के दांतों से और अपराधी के तोते अपनी उड़ान से।कितना- कुछ जाते हैं।

    आंधी के आम में बाजार का सेन्सेक्स ही गोते लगा जाता है। आंखों में चर्बी छा जाए तो सत्ता का गुरुर इठला जाता है। आसन जमाने- डिगाने के खेल बाबाओं तक सीमित नहीं रह जाते। एड़ी से चोटी तक,ऊंट के मुँह में जीरे से लेकर ऊँट के करवट लेने तक कितनी उठा-पटक दिख जाती है। पर कोई बात कलेजे पर आ जाए तो.. धक्- धक्, धुकधुकी, फटना, मसोस कर रह जाना, दिल जलाना, आग, टूक- टूक, ठंडा होना, पत्थर होना, छुरी चलना, हिम्मत दिखाना जैसी कितनी -दिशाएं खुल जाती हैं। और पूरी वर्णमाला को ले लें, तो हर ध्वनि से बनने वाले शब्द से अनेकानेक मुहावरे भीतर- बाहर के व्यक्ति और स‌माज के मनोविज्ञान को बाहर ले आते हैं।

  कहावतें-लोकोक्तियाँ भी शास्त्र, सत्ता, अहंता रुढ़िवाद, प्रदर्शन पर कितनी खुली चुनौती देते हैं। अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर खुद देय सत्ता -पकड़ का खेल है।पर आज यह रेवड़ी तंत्र का चुनावी व्यंग्य बन गया है।तो क्या यह आज के लोकतंत्र की खुली जबान नहीं है? दिल्ली अभी दूर है, यह चुनाव प्रक्रिया से लेकर एक्जिट पोल तक पसरी व्यंजना है। 'उगले तो आग निगले तो कोढ़ी' इसमे व्यक्तिगत जीवन से लेकर बड़े बड़े गठवन्धनों के पेंच मुश्किलों को जतलाते है। नीम चढ़े करेले तो और भी उलझा देते हैं। पर बात चट्टों-बट्टों की आए तो जनता के बीच सच्चाइयों का खुलासा बिन गाली के ही हो जाता है। किस खेत की मूली और आकाश की चिड़िया से ही आदमी को औकात दिखा दी जाती है।खेत की मूली शाकाहारी होकर भी दुश्मन की भीतरी नसों पर मांसाहारी प्रहार कर जाती है। 

  यही नहीं, गरीब और अमीर के बीच का समाजशास्त्र लोकसत्य को दो टूक कहा जाता है- "गरीब तेरे तीन नाम झूठा पाजी बेईमान।" और गाँव हो या शहराती रौशनी विवशता कितना खूंटे से बंधे रहने को मजबूर कर देती है-"ऊंट बिलैया ले गई हाँजी हांजी करनो।" और लाख कोशिश करने पर भी व्यवस्थाओं में बदलाव न आए तो कहना ही विवशता होती है- जैसे सांपनाथ- वैसे नागनाथ। और सामाजिक न्याय की आँख यह समझने में चूकती नहीं है- "नाचे कूदे बांदरी माल मदारी खाय "। पर अंतरतर में लोकमानस का यह विश्वास शताब्दियों की आस्था बना हुआ है- "भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है।" 

  शास्त्रीय प्रतिभाएं जिन सूत्रों को गढ़ती हैं, परिभाषाओं मे बांधती है, उसी तरह लोक मानस की प्रतिभा भी सामाजिक व्यवहार में देखे हुए लोकसत्यों को कहावत- मुहावरे के सूत्रों को गढ़ती है। निहायत बोलचाल की शब्दावली में। इनमें तुक और लय भी होती है। विराट अनुभव का खुला संकेत। कभी जमाने के चलन पर मारक चोट। ये कहावतें न तो सत्ता शिखरों को बख्शती हैं, न घरेलू व्यापार को। लोकभाषा में लोकसत्य के ये केप्सूल कितने गहरे प्रहार करते हैं साधारण सी भाषा उपरली सतह पर ।राई-रत्ती का हिसाब, व्यंग्य की धार ,नैतिक प्रतिमान या लोक नीति से कर देते हैं। इसलिए लोकप्रज्ञा को शास्त्र की सूत्र-प्रज्ञा से कमतर नहीं समझा जा सकता। इनमें हर परिदृश्य में लोकतंत्र मुखर है। यू ट्यूब की सरस्वती तकनीक में सिमटकर लम्बे संबोधन को समेट लेती है। पर कहावत-मुहावरे मौखिक अक्षर-ट्यूब से बिन-तकनीक के अधूरे- पूरे वाक्य से पाठक को बींध देते हैं। सीधे संवाद में सीधी मार करते हुए कान में पड़े तैल वाले कान भी खोल देते हैं।

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