Reference to women's life in contemporary poetry
समकालीन कविता में नारी जीवन का संदर्भ
समकालीन कविता में पूर्ववर्ती कविता से परिमाणात्मक परिवर्तन के रूप में ही नहीं बल्कि गुणात्मक परिवर्तन में परिलक्षित किया जाता है। छायावादी कविता में नारी नायिका, प्रेमिका, चिर- विरहणी, तन्वंगी-बाला, रह सकती थी-मांसल व आध्यात्मिक प्रेम का प्रकृति-प्रतीक माध्यम रहा करती थी, वहाँ छायावादोत्तर काल में ही याथार्त जीवन के परिप्रेक्ष्य में नारी केवल प्रसाद के भाव वाली श्रद्दा के रजत नभ-नील में पीयूष स्त्रोत नहीं रही थी बल्कि निराला की "सरोजस्मृति" में काव्य प्रेरणा की स्मृति में वात्सल्य प्रेम की 'ध्योतक भी बनी जहाँ धन्य तेरा पिता मै निरर्थक' की भावना सामाजिक-आर्थिक दबावों के तले भी जाहिर हुई हैं।
सातवें दशक में भारत-चीन सीमा संघर्ष से मोहभंग की स्थिति एक ओर सर्व निषेध की 'अकवितावादी' भावना पनपी जिसके शब्दों के जघन्य विस्फोट द्वारा नारी के यौन प्रतीकों बनाम व्यवस्था को अनावृत करने का प्रयत्न किया पर इस निषेध का निषेध प्रगतिशील चेतना की 'जनवादी' समझ ली थी जो अकवितावादी जगदीश चतुर्वेदी, मोना गुलाटी, सौमित्र मोहन, कैलाश वाजपेयी की काव्य रचनाओं के बरक्स 'धूमिल', कुमार विकल, विजेंद्र, आलोक धन्वा आदि द्रष्टव्य रही है और आठ्वे दशक में तो अकवितावादी खेत रहे है; या चोला बदलने की फिराक में सबकी एक और नयी पीढ़ी रचनाकारों 'नारी जीवन' को सहयात्री के रूप में वर्णन किया है।
सौंदर्य रूपान्तरण में नारी के शोषण, शोषण- विरोध व रागात्मक-बोध के साथ-साथ संघर्षशील रूप को सृजनात्मक कलात्मक रूप में दर्शना ही श्रेयस्कर होगा। कविता 'नारी संदर्भों' में केवल 'आह-आह' या 'वाह-वाह' की पर्याय नहीं होनी चाहिए। मेहंदी, रोली, अलवार, कुँवारा प्यार, रागात्मकता यथार्थ चेतना विलगता का वर्णन ही सब कुछ नहीं है। समकालीन कविता में एक ओर 'क्लासिकी-प्रेम' की अभिव्यक्ति शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन के यहाँ नारी जीवन के संदर्भों में है तो दूसरी ओर नारी के यौन-प्रतीकों में सारा गुस्सा व्यवस्था के प्रति राजकमल चौधरी, जगदीश चतुर्वेदी में है। तीसरी ओर स्वस्थ, मांसल प्रेम व रागात्मक बोध के सात के साथ संघर्षशील जीवन की अभिव्यक्ति में 'नारी संदर्भ' विजेंद्र, आलोक धन्व, विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश की रचनाओं में है।
समकालीन कविता में नारी रचनाकारों ने भी महत्वपूर्ण रोल निभाया है महादेवी वर्मा की 'व्यक्तिगत-आध्यात्मिक' रचना-परंपरा के विपरीत संघर्षशील- गृहीक, रागात्मक जीवन की अभिव्यक्ति, शकुंतला माथुर, मणिका का मोहिणी, इंदुवशिष्ठ, सुमन वशिस्ठ, सुमन राजे, पुष्पलता कश्यप, कांतापली, शीरीन भारती डॉ. अहिल्या मिश्र आदि कई कवयित्रियों ने की है।
क्लासिक और रोमांटिक सौन्दर्य परंपरा के बीच नागार्जुन 'नारी जीवन चित्रण' में नागार्जुनी सौंदर्य की 'सर्वहारा वर्ग-बोध' की प्रतिबद्धता के साथ-साथ अनुपम सृष्टि रचते हैं, जहाँ न तो अज्ञेय अभिजात्य की कुछ चल पाती है न ही काल्पनिक आशीर्वाद वहाँ ठहर सकता है। 'सिंदूर तिलकित भाल' 'कालिदास' व 'बादल को गिरते देखा है' वे नारी संदर्भों की रागात्मकता, जीवन्तता, संघर्षशीलता को कहीं नहीं शोषण की मूर्ति-रूपा' विज्ञापन-सुंदरी' जैसी अवस्था को समग्रता दृष्टिकोण में ही दर्शाते है।
धूमिल की अनेक रचनाओं में 'नारी जीवन' के सार्थक सौन्दर्य उभरे हैं जहाँ लेनिन का सिर किसी नीग्रो औरत के सुपुष्ट स्तनों में; उन्नत रूप में नजर आता है प्रतीकात्मकता में; कल सुनना मुझे संग्रह में कम उम्र 'रोशन आरा' बेगम का वर्णन 'पाक-युद्ध' सन्दर्भ में कच्ची छातियों पर बू बाँधकर टैंक पर टूट पड़ना आदि नारी के आत्मोत्सर्ग व धूमिल की प्रतिबद्धता वाले रचनाकर्म का द्योतक है वैसे धूमिल की वर्ग चेतना 'नारी प्रतिकोण में स्पष्ट है कि-
"वह कौनसा प्रजातांत्रिक नुस्खा है की जिस उम्र में / मेरी माँ का / चेहरा। झुर्रियों की झोली बन गया है उसी उम्र की / मेरे पड़ोस की / महिला /के चेहरे पर मेरी प्रेमिका के चेहरे सा लोच है" ¹
समकालीन कविता में नारी जीवन, प्रेमिका, सहयात्री पत्नी, माँ, बेटी, बहन के रूप में ही अभिव्यक्त नहीं है, बल्कि चेतना के समाज-सापेक्ष संदर्भों में उनके शोषित स्वरूपों को भी उजागर किया है-ज्ञानेद्र पति के यहाँ 'पूछती है माँ' कविता में माँ के द्वारा अपने बेटे को प्रत्येक पल जानने, गाछ की शाख के समान-फूल को पहचानने का जिक्र है तो 'इंतेजार' कविता में उस लड़की का भी जिक्र हुआ है जो अपने शिकार के तलाश में दयनीय है'
"कलकत्ता/कर्जन पार्क / दिन के चार बजे / "घुटने मोड़कर बैठी हुई
यह लड़की / दिन के अपने पैरों तले आ जाने के इंतेजार में है।
उसके सपाट चेहरे पर जल उठेंगी उसकी आँखें। आ जयेगी उनमें
वह चमक जो केवल / बुरी स्त्रियों में होती है। और एक बार
फिर / किसी लोलुप व्याघ्र का शिकार होंगी। अपने विलाप को
मुस्कुराहट में बदलती हुई।"²
उदय प्रकाश की 'बहेलिए', 'गेम सेंचुरी' और सूअर आदि कविताओं के 'सुनो कारीगर' संग्रह में नारी के शोषण व उनके सामाजिक अभिशप्त जीवन का जिक्र हुआ है जो वर्ग चेतना से देखती है; माँ दूधिया वत्सल निगाहों से, गाय निगाहों से देखने का जिक्र 'हवाएँ चुप नहीं रहतीं' संग्रह में हुआ है। विनोद कुमार शुक्ल ने 'काम पर जाती हुई औरत' की त्रासदी को 'वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया' संग्रह में दर्शाया है।
समकालीन कविता में मातृबोध की रचनाएँ स्वाति नक्षत्र की नीर बूंदों के समान संभवतः कम ही हैं। विष्णु खरे व विजेंद्र की काव्य साक्षियाँ इस संबंद मे द्रष्टव्य होंगी
"उसकी एड़ियाँ फट गईं हैं। और हाथ राख़ से खुरदरे / शरीर पर कोई /उल्लेखनीय गहना नहीं है लेकिन कितनी खुश और संतुष्ट है वह /
जब अपने दसबरस पुराने लोहे के नीले बक्से में / अपना और अपने/बच्चों के समान सहेजती है।"³
विजेंद्र ने 'रेल्वे पोस्टर' कविता में भारत को विवेचित किया है। जिसमें जवान मछुआरिन का जिस्म, सुडौल नितंबों व लम्बे बालों वाला दर्शाया जाता है पर फटेहाल किसानों मजूर औरतों का जिक्र 'उपभोक्ता संस्कृति व पूंजीवादी शोषक नीति' के अंतर्गत नहीं दर्शाया जाता है। 'सामने' कविता एक अंश मातृबोध से द्रष्टव्य होगा।
"एक माँ / अपने बच्चे को / गोद मे डाले हुए खाना पका रही है /
बुखार से जलते माते को / इधर उधर हिलाता हुआ / बच्चा अब कुछ
देर से चुप सो गया है / नयोरों से / गरम साँस फेंक रहा है /
जो माँ के अधखुले सीने को छू रही है ..⁴
नारी जीवन के विभिन्न संदर्भों का वर्णन मार्मिक ढंग से किया गया है नारी के अनेक रूपों का चित्रण किया गया है।
संदर्भ ग्रंथ सूचीः
- धूमिल अकाल दर्शन - संसद से सड़क तक - पृष्ट सं ; 20
- ज्ञानेद्र पति - शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है पृष्ट सं ;75
- विष्णु खरे - खुद अपनी आँख से - पृष्ट सं ; 27
- विजेन्द्र - ये आकृतियाँ तुम्हारी हैं- पृष्ट सं ; 41
- जे. राजेंदर जी
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