प्रेमचंद के साहित्य में दलित-नारी चित्रण

Dr. Mulla Adam Ali
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मुंशी प्रेमचंद और दलित साहित्य : हिंदी साहित्य में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में से एक उपन्यास सम्राट मुंशी मुंशी प्रेमचंद के कथा-साहित्य का नारी-विमर्श, प्रेमचन्द की कहानियों में दलित: एक विवेचनात्मक विश्लेषण, प्रेमचंद के उपन्यासों में नारी जीवन।

Munshi Premchand Sahitye Me Dalit Naari Chitran

प्रेमचंद के साहित्य में दलित-नारी चित्रण

हिन्दी में दलितों के सबसे बड़े पक्षधर महात्मा कबीर हैं। तत्पश्चात गाँधीवाद के प्रभाव से जो साहित्य लिखा गया, उसमें दलितों के शोषण उनकी दरिद्रता तथा अधिकार प्राप्ति के उनके संघर्ष पर जोर दिया गया। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान ने समानता के सिद्धान्त के आधार पर वर्णव्यवस्था को गैर कानूनी ही घोषित नहीं किया, वरन् दलित तथा पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था भी की। फिर भी डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर के कारण दलित नवजागरण भी लहलहाती हुई फसल महाराष्ट्र में दिखाई दी। मराठी साहित्य में 'दलित साहित्य आंदोलन' की प्रबल धारा के उदय का यही कारण है।

हिन्दी में प्रेमचन्द का नाम उन महान कलाकारों में लिया जाता है, जिन पर बहुत कुछ लिखा गया है। यह बात प्रेमचन्द की श्रेष्ठता का सबूत है। अब तक प्रेमचन्द पर इतना अधिक लिखा जाने पर भी उनके साहित्य का कोई-न-कोई पात्र पुनर्समीक्षण की अपेक्षा रखता है। प्रेमचन्द के साहित्य में जिन प्रधान पात्रों को स्थान दिया गया है, उन पर किसी पाठक या समीक्षक का दृष्टिपात होना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें मुख्य स्थान प्राप्त है परन्तु गौण पात्र अपने गौणत्व के कारण नजर से छूट जाते हैं, क्योंकि उनका अस्तित्व महान और प्रभावी पात्रों की आड़ में छिपा रहने से महसूस ही नहीं होता। लेकिन गौण पात्रों में भी निम्न जाति और अस्पृश्यता के कारण जो अति-गौण नारी हैं, दलित-नारी हैं। मूल्यांकन से उपेक्षित रह जाते हैं। अतः मैने प्रस्तुत 'लघु शोध परियोजना' के अन्तर्गत प्रेमचन्द के कथा साहित्य में शिक्षित उन सभी दलित नारी पात्रों को अपनी कलम से स्पर्श करने का प्रयत्न करूँगी।

प्रेमचन्द ने अपनी विचारधारा में विविध युगीन समस्याओं पर विचार मन्थन किया था और उनमें से दलित नारी समस्या भी उनके चिन्तन का विषय रही थी। राष्ट्रीय आंदोलन के प्रवाह में जिन नेताओं और संस्थाओं ने इस प्रश्न पर चर्चा की उससे प्रेमचन्द का प्रभावित होना स्वाभाविक था। लोकमान्य तिलक, गोखले की भाँति महात्मा गाँधी के चिन्तन का असर प्रेमचन्द पर हुआ था। समाज जीवन में अस्पृश्यता समाज का कोढ़ है, जिसे हटाने के लिए रीति परंपरा के जंजाल पर प्रेमचन्द ने वज्राघात किया था। उनका यह दृष्टिकोण उनके छोटे-बड़े लेखों, उपन्यासों और कहानियों में व्याप्त हुआ है और इससे उनके दलित-चिन्तन का स्वरूप प्रकट होता है। शक्ति और आर्थिक स्थिति से दुर्बल कमजोर दलित शक्तिशाली समाज का प्रतिरोध नहीं कर सकता। अतः उसके कुचले जाने के दृश्य - प्रेमचन्द के चिन्तन में स्वाभाविक रूप से आये हैं।

प्रेमचन्द की यह मान्यता थी कि हिन्दू समाज ने शूद्रों के साथ अन्याय किया है उन्हें कुचला है। प्रेमचन्द ने दलित बस्ती के ऐसे अनेक ग्राम देखे थे। अनेक दलित परिवारों और व्यक्तियों पर हुए अत्याचारों को जाना था। इससे उन्हें अकल्पित वेदना होती थी। ईश्वर की सृष्टि में सारे मानव बराबर हैं ऐसा उनका विचार था। इसलिए जाति, धर्म, पंथ व्यवसाय के आधार पर दलितों को तुच्छ समझना प्रेमचन्द को मंजूर नहीं था।

प्रेमचन्द के विशाल उपन्यास साहित्य में दलित विवेचन से सम्बन्धित 'प्रेमाश्रय', 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'कर्म भूमि' और 'गोदान' उपन्यासों के दलित पात्र स्वाधीनता पूर्व जमाने के शोषित, अपमानित और परित्यक्त जीव हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों के दलित नारी पात्र सामाजिक बन्दीवास की वेदना से उत्तेजित होकर अपने मालिकों से विद्रोह करते हैं। इससे अन्यायी सामाजिक व्यवस्था के किले में भूकम्प सा हुए बिना नहीं रह सका। प्रेमचन्द के उपन्यासों के दलित-पात्रों की एक-एक उग्र प्रतिक्रिया एक-एक तोप के समान है।

'रंगभूमि' का सूरदास संघर्षशील जीवन का प्रतीक है। सुभागी एक ऐसी नारी पात्र है जिसकी लज्जा की रक्षा के लिए युद्ध में वह अपना अस्तित्व ही नहीं मिटा देता, बल्कि नैतिकता पूर्ण विरोध से अपना मस्तक ऊँचा कर पाता है।

'कर्म भूमि' के 'सलोनी' में विद्रोह भाव अधिक है। सलीम की सख्तियों से तंग आकर उसके मुँह पर थूकने में सलोनी की धृष्टता विद्यमान है। स्वाधीनता पूर्ण के जमाने में शोषितों में सामाजिक क्रान्ति की चेतना उत्पन्न करने में सलोनी का असंतोष संघर्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। 'गोदान' उपन्यास में 'सिलिया' का आदर्श प्रेम अनेक संकटों से टकराकर भी सुरक्षित रहता है। उसकी सहनशीलता उसे अच्छा परिणाम देती है। 'सिलिया' की अपेक्षा 'गोदान' के अन्य चमारों में विद्रोह की तीव्रता ज्यादा है। उसमें सहनशीलता नहीं, उद्दण्डता है।

प्रेमचन्द के उपन्यासों में दलित-पक्ष 'गोदान' तक आते-आते अधिक असंतुष्ट और विद्रोह बन गए हैं। उनका संयम छूट गया है। अत्याचार के प्रति उनका खून खोल उठता है और वे इज्जत की रक्षा में संघर्ष के लिए तैयार होते हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों के दलित-नारी पात्रों के विचारों में जहाँ बेबसी और लाचारी है, वहाँ उग्रता भी है। कहीं-कहीं उनकी उग्रता और क्रोध आँसू बनकर पिघल गया है।

प्रेमचन्द की लगभग 300 कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में विभक्त हैं। जिनमें से केवल पन्द्रह कहानियों में दलित-विवेचन आया है। 'ठाकुर का कुआँ', 'गुल्ली डंडा', 'घास वाली', 'दूध का दाम', 'शूद्रा', 'सौभाग्य' के कोड़े, 'मुक्ति मार्ग', 'सदगति', 'आगा-पीछा', 'कफन', 'मंदिर', 'मूठ', 'मंत्रन', 'लांछन' और 'विध्वंस' में कहानियाँ ऐसी हैं, जो स्त्री-पुरुष, बूढ़े, बूढ़ी और बालक जैसे दलित-पात्रों दशा की झाँकियाँ प्रस्तुत करती हैं।

प्रेमचन्द ने अपनी कहानी साहित्य में जिन दलित-पात्रों को जन्म दिया है, वे सभी अज्ञानी, अशिक्षित तथा अन्धश्रद्ध और परम्परा के बोझ को उठानेवाले दरिद्री-जन हैं। उनमें सहनशीलता है, लेकिन पीड़ा की अतिवेदना अन्ततः उन्हें मुखर बनाती है।

प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में सभी दलित-नारी-पात्र एक ही किस्म के नहीं हैं। गंगी, मुलिया, सुखिया और भुनगी ये नारियाँ अपने हृदय दल में उमड़ी वेदना से विद्रोही बनी हैं। इनके द्वारा किया गया प्रतिरोध, दबाव को फेंककर न्याय हासिल करने का सूचक है। प्रेमचन्द के ये सभी दलित पात्र चमार, मेहतर, भंगी, गोंड और भील जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें चमार जाति के पात्र अधिक हैं।

प्रेमचन्द के कथा-साहित्य के ये पात्र भले ही परिस्थितियों के दास जैसे क्यों न हों, फिर भी दबाव, अन्याय अत्याचार को हटा देने की दिशा में उनमें धैर्य-क्षोभ और असन्तोष पनप रहा है। शोषण के युगीन प्रभावों को एकदम तोड़ पाना संभव नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र के बन्धन की श्रृंखलाएँ उनसे नहीं तोड़ी गयी हैं, अपितु उन्हें तोड़ने के प्रयास में वे स्वयं टूट गये हैं। फिर भी उनके मन की वेदनामिश्रित जलन सामाजिक क्रान्ति की चिनगारी जलाने के लिए निःसंदेह बड़े काम की है।

साहित्य में कला की अपेक्षा चोट करने की क्षमता यदि अधिक हो तो यह अधिक सार्थक होता है। दलित साहित्य आनंद के लिए नहीं बल्कि परिवर्तन के लिए लिखा जाता है। सार्थक कहानी के लिए कलात्मकता की बजाए हकीकत, दृष्टि, दिशा एवं वर्तमान व्यवस्था के प्रति घृणा आवश्यक है। तभी उसमें एक ऐसी सृजनात्मक शक्ति उत्पन्न होती है। जिससे एक नई संस्कृति और नई दुनिया की पृष्ठभूमि तैयार होगी। पुरानी लकीरों को पीटने से संतुलन भले ही हिलडुल जाए, पर परिवर्तन नहीं होगा।

- आर. उमारानी

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