दृष्टिकोण का भेद : व्यक्तित्व विकास के महत्वपूर्ण चरण

Dr. Mulla Adam Ali
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Motivational Story in Hindi, The Science of Personality Development, Role of attitude in personality development, Positive Nazariya.

Distinction of Approaches

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Point of View - Definition and Examples : दृष्टिभेद को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है :- 1) इन्द्रिय दृष्टि, 2) विचार दृष्टि और 3) विवेक दृष्टि। इन्द्रिय से हम संसार को देखते हैं। विचार से इस निर्णय पर आते हैं कि संसार परिवर्तन शील है। यह परिवर्तन हर क्षण होता है, भले ही क्षण-क्षण के परिवर्तन से अनभिज्ञ रहें किन्तु समय का अन्तराल परिवर्तन को स्पष्ट कर देता है। व्यक्तित्व विकास (Drishtikon ka Arth) के महत्वपूर्ण चरण हिंदी में।

व्यक्तित्व विकास में दृष्टिकोण की भूमिका

दृष्टिकोण का भेद

एक ही वस्तु विभिन्न व्यक्तियों द्वारा देखी जाने पर एक जैसी नहीं दिखाई देती। सीता स्वयंवर में श्रीराम को संत, दुष्ट, युवक, युवती वृद्ध-वृद्धाएँ सब अपनी- अपनी नज़र से देखते हैं। गोस्वामी जी लिखते हैं- जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।

तंजोर का वृहदीश्वर मंदिर चोल नरेश के द्वारा बनवाया गया है। यह अत्यन्त सुन्दर व भव्य मंदिर है। इस मंदिर के विषय में एक कथा प्रसिद्ध है। कहते हैं कि एक दिन तंजोर नरेश मंदिर के निर्माण कार्य की प्रगति देखने की इच्छा से मंदिर परिसर में पहुँचे। वहाँ कुछ कारीगर पत्थर काटने में लगे थे। राजा ने एक कारीगर से पूछा- क्या कर रहे हो? कारीगर ने उत्तर दिया-महाराज, मैं पत्थर काट रहा हूँ। राजा थोडे आगे बढ़ गए और पत्थर काटने वाले दूसरे कारीगर से भी प्रश्न किया। दूसरे कारीगर ने उत्तर दिया-महाराज, मैं रोटी कमा रहा हूँ। राजा ने कुछ आगे बढ़कर वही प्रश्न पत्थर काटने वाले तीसरे व्यक्ति से पूछा। तीसरे कारीगर का उत्तर था- महाराज मैं एक विराट मंदिर बना रहा हूँ।

तीनों का कार्य समान है, अन्तर केवल सोच का है, चिन्तन का है, दृष्टि कोण का है। अथवा दृष्टि के विस्तार का है। पहले की दृष्टि बहुत सीमित है, वह केवल पत्थर काटने का यंत्र है। मजदूरी तीनों की समान है। दूसरे की सोच में पहले की अपेक्षा विस्तार है। वह परिवार जैसी बड़ी संस्था के भरण-पोषण का दायित्व अपने ऊपर लेता है। उसके द्वारा पत्थर काटना परिवार की रोटियों का जुगाड़ है। तीसरा व्यक्ति ळह पत्थर काट रहा है, वह भी प्राप्त मजदूरी से अपने परिवार का भरण- पोषण करेगा किन्तु उसकी दृष्टि में विशालता है। उसे इस बात का अहसास है कि मेरा यह श्रम एक उत्तम कार्य में लग रहा है। आशय यह है कि काम चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके प्रति यदि आन्तरिक श्रद्धा व समर्पण का भाव होगा, तो वह कार्य महान हो जाएगा। कर्म का यही सिद्धान्त है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सोच सकारात्मक हो, चिन्तन में व्यापकता हो और दृष्टि में विस्तार हो।

एक अन्य उदाहरण से इस तथ्य को और स्पष्ट किया जा सकता है। जंगल में एकान्त स्थान पर एक भवन को देखकर तीन व्यक्तियों के मन में तीन प्रकार के विचार आए। उस भवन को देखकर एक चोर ने सोचा, यहाँ कोई देखने वाला नहीं है। अतः यहाँ चोरी करना बहुत सरल होगा। समय निकालकर किसी दिन यहाँ आऊँगा। एक दुराचारी कामी ने भवन को देखकर निर्णय लिया कि अवैध यौन सम्बन्धों अर्थात दुराचार के लिए यह स्थान बहुत उपयुक्त है। यहाँ देखने वाला कोई नहीं है। अतः निश्चित होकर कामाचार किया जा सकता है। एक भगवद्भक्त ने इस भवन को देखकर, सोचा- 'भोजन भवन इकन्त'। इससे अच्छा एकान्त कहाँ मिलेगा? ईश्वर-चिन्तन के लिए यहाँ का शान्त वातावरण अपने लिए बहुत उपयुक्त रहेगा। भवन वही है, केवल चिन्तन की भिन्नता से उसके उपयोग में भिन्नता आ जाएगी।

इस दृष्टिभेद को तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है :- 1) इन्द्रिय दृष्टि, 2) विचार दृष्टि और 3) विवेक दृष्टि। इन्द्रिय से हम संसार को देखते हैं। विचार से इस निर्णय पर आते हैं कि संसार परिवर्तन शील है। यह परिवर्तन हर क्षण होता है, भले ही क्षण-क्षण के परिवर्तन से अनभिज्ञ रहें किन्तु समय का अन्तराल परिवर्तन को स्पष्ट कर देता है। बालक, किशोर, युवक, प्रौढ़ व वृद्ध का अन्तर समय के द्वारा ही बताया जाता है। व्यक्ति के पास विवेक दृष्टि भी रहती है। उसी के आधार पर वह यह निर्णय लेता है कि इस संसार के मूल में भी कोई शक्ति है। व्यक्ति एक है किन्तु चिन्तन के भेद से वस्तु बदलती रहती है। आशय यह है कि दृष्टिकोण का भेद भिन्न व्यक्तियों में तो होता ही है, एक व्यक्ति में भी हो सकता है।

एक व्यक्ति ही समय-समय पर अपने दृष्टिकोण को बदलता रहता है। कुबेर सोने की लंका का स्वामी था, उसके पास पुष्पक विमान था। उसके सौतेले भाई रावण की अर्थदृष्टि उस ओर जाती है और वह कुबेर से सब कुछ छीन लेता है। दक्षिण से भागकर कुबेर उत्तर में अलकापुरी बसाता है। रावण वेदपाठी है, नीतिज्ञ है (नीति धर्म मैं जानत आहू) यज्ञ संस्कृति का विश्वासी है। अतः भगवान शंकर की स्तुति करके उनको प्रसन्न करता है। यह उसकी धर्मदृष्टि है। इसके बाद भी उसकी कामदृष्टि शान्त नहीं हुई है। अतः उसके भवन में अनेक सुन्दरियाँ हैं जिनको हनुमान ने देखा था। सुन्दरियों का यह समूह रावण की कामदृष्टि को शान्त करता है। इसके बाद भी वह संसार को नश्वर मानता है। वह मोक्ष का अभिलाषी है। वह भक्त है। अतः निर्णय लेता है-

सुर रंजन भंजन महि भारा। जो जगदीश लीन्ह अवतारा ।।

तो मैं जाय बैर हठ कर हूँ। प्रभु सर चाप हने भव तरहूँ।।

यह रावण की भक्त दृष्टि है। व्यक्ति एक है, रूप अनेक हैं। एक ऐतिहासिक उदाहरण भी पढ़ने को मिलता है। किसी मुगल सरदार की बेगम शिवाजी के सैनिकों ने सोचा अपने शासक को यह भेंट देकर बदले में पुरस्कार लेना चाहिए। बेगम अत्यधिक सुन्दर थी। जब वह शिवाजी के सम्मुख प्रस्तुत की गई थी तो उनके मुख से निकला- काश। मेरी माँ इतनी सुन्दर होती, तो मैं भी कितना सुन्दर होता ? शिवाजी ने बेगम को ससम्मान उसके पति के पास पहुँचा दिया। वस्तु एक है किन्तु सैनिकों व शिवाजी के दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का अन्तर है।

- डॉ. चंद्रपाल शर्मा

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