Hindi Diwas Vishesh : विदेशी मानसिकता का शिकार हिन्दी

Dr. Mulla Adam Ali
0

World Hindi Day and National Hindi Diwas Special Story Videshi Mansikta Ka Shikar Hindi, International Hindi Divas 10 January and Rastriya Hindi Divas 14 September Special, Hindi Language Day.

Hindi is a Victim Of Foreign Mentality

hindi diwas special story

Hindi Day Special : सितंबर 14 राष्ट्रीय हिंदी दिवस और जनवरी 10 विश्व हिंदी दिवस पर विशेष विदेशी मानसिकता का शिकार हिन्दी, वैश्वीकरण के इस युग में देश के कुछ लोग यह मानते हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम चलेगा ही नहीं और हमारी उन्नति होगी ही नहीं। उन्हें गंभीरता से सोचना होगा कि क्या फ़्रांस और जापान जैसे राष्ट्र कभी अपनी भाषाओं की उपेक्षा कर, अंग्रेजी को अपनाते हैं? पढ़िए पूरा लेख विदेशी मानसिकता का शिकार हिन्दी।

Videshi Mansikta Ka Shikar Hindi

विदेशी मानसिकता का शिकार हिन्दी

"जो भरा नहीं है भावों में, जिसमें बहती रसाधार नहीं।

वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वभाषा का प्यार नहीं ॥"

हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. कामिल बुल्के का किसी भारतीय ने फ्लोमिश-भाषी (बेल्जियम की भाषा) के रूप में परिचय दिया तो उन्होंने कहा- "मैं आपसे अधिक भारतीय हूँ और आपसे अधिक हिन्दी भाषी हूँ।" वास्तव में हिन्दी प्रेमियों को ऐसी निष्ठा एवम् ऐसी सोच होनी चाहिए।

आजादी के बाद न जाने कैसी हवा चली कि हिन्दी अंग्रेजी की साज़िश का शिकार बन गई। आश्चर्य तो तब होता है कि हिन्दी का विरोध और अंग्रेजी का समर्थन अपने ही देशवासी कर रहे हैं और वह भी अंग्रेजों के जाने के पश्चात्। यह कैसी मानसिकता है? धिक्कार है इस गुलामी मानसिकता को।

हमारे यहाँ सरकार की नीतियाँ स्पष्ट नहीं हैं। इसके लिए हम स्वमं दोषी हैं। वास्तव में हिन्दी बहुत ही मनोवैज्ञानिक भाषा है, जिसे बेझिझक अपना लेना चाहिए। चाहिए प्रबल इच्छाशक्ति । विडम्बना इस बात की है कि आजादी के साठ वर्षों के पश्चात् भी आज इस देश की जनता अंग्रेजी प्रभाव की मानसिकता से ग्रसित है। यदि हम प्रतिदिन हिन्दी का ही प्रयोग करेंगे तो निश्चित ही हमारी विदेशी मानसिकता मिट जायेगी।

विदेशी नेता भारतीयों से हिन्दी में बात करना चाहते हैं, लेकिन भारतीय नेता व अधिकारी हमेशा उनसे अंग्रेजी में बात करना पसंद करते हैं। वास्तव में इससे बड़ी लज्जा और क्या हो सकती है? इस गुलामी मानसिकता का प्रभाव हिन्दी भाषा क्षेत्रों पर कुछ अधिक ही पड़ा है। यही कारण है कि वे अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए मम्मी, डैडी, अंटी, अंकल आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। हिन्दी भाषी पढ़े-लिखे बाबू लोग अपने निजी कार्यों में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग करने में शर्म महसूस करते हैं। यह देश के हित में नहीं है।

वैश्वीकरण के इस युग में देश के कुछ लोग यह मानते हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम चलेगा ही नहीं और हमारी उन्नति होगी ही नहीं। उन्हें गंभीरता से सोचना होगा कि क्या फ्रान्स और जापान जैसे राष्ट्र कभी अपनी भाषाओं की उपेक्षा कर, अंग्रेजी को अपनाते हैं? क्या रूस तथा चीन में अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ा? तो फिर भारत के ये अंग्रेजों के मानसपुत्र अंग्रेजी के पीछे क्यों पागल हो रहे हैं? लगता है, ये लोग स्वाभिमान शून्य हो गये हैं। इनकी दास-मनोवृत्ति अभी मिटी नहीं है।

यदि हम भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करते रहेंगे और अंग्रेजी के पिछलग्गू बनते जायेंगे; तो वह दिन दूर नहीं होगा, जब भारतीय भाषाओं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायगा। देशवासियों को सोचना होगा कि भारतीय भाषाओं में राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी समावेश है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी इत्यादि का भी अधिकाधिक प्रयोग करें।

अंग्रेजी जानना या सीखना कोई बुरा नहीं है, किन्तु इस बहाने राष्ट्रभाषा हिन्दी का पद छीनना, भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करना कदापि उचित नहीं होगा। अंग्रेजी के बहाने विदेशी संस्कृति को अपनाना किसी भी हालत में स्वीकार नहीं होगा। क्योंकि यह तो गुलामी मानसिकता ही होगी। परायी संस्कृति को अपनाना देश के लिए घातक है। आजादी से पूर्व जो स्वाभिमान की भावना थी, जो देशभक्ति की ज्वाला हृदय में धधकती थी, वही राष्ट्रीय भावना की आज सख्त जरूरी है। स्वभाषा प्रेम भी उतना ही प्रबल होना चाहिए, जितनी स्वदेश भक्ति। राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्र के संविधान से कोई कम नहीं है राष्ट्रभाषा हिन्दी

बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आज भारतीय बाजार में अपनी पैठ जमाने के लिए हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं का सहारा ले रही है और इधर हमारे ही देश में कई संस्थान ऐसे हैं, जो अंग्रेजी में ही अपना व्यवहार करते हैं। हिन्दी को गरीब तबके की भाषा मानते हैं। क्या यह उनकी गुलामी मानसिकता नहीं है? यह सही है कि हम अंग्रेजी को पूर्णरूपेण छोड़ नहीं रहे हैं, परंतु इसका मतलब कदापि यह तो नहीं हो सकता कि हम हिन्दी की उपेक्षा करें। यह मानसिकता जानी चाहिए, अन्यथा देश की प्रगति नहीं होगी। गाँधीजी ने तथा तत्कालीन देशभक्तों ने देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ दिया था। वैसे ही हमें चाहिए कि हम गुलामी मानसिकता को तोड़ देने का संकल्प करें। हमें विश्वास है कि एक दिन हिन्दी को उसका योग्य स्थान जरूर मिलेगा। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा अवश्य होगी। जय हिन्दी ! जय नागरी !!

- श्रीनिवास पंचारिया गुरुजी

ये भी पढ़ें; हिन्दी डे स्पेशल : दक्षिण भारत के प्रथम हिन्दी प्रचारक देवदास गाँधी

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top