Old age and financial problems in Hindi Stories, Hindi Kahaniyon Mein Vriddh, Bujurg Log aur Arthik Samasyayen. Hindi Katha Sahitya Me Vrudh Vimarsh.
Old age: financial problems
हिन्दी कहानियों में वृद्ध संघर्ष : आज की संतान का व्यवहार से वृद्ध माता-पिताओं को दुर्बल जीवन बिताना पड़ता है। आज कल व्यक्ति धन को ही सर्वोपरि मानने के कारण संस्कारों से हीन होकर पशु के समान व्यवहार कर रहा है। यह आधुनिक युग की दुर्दशा है। पढ़िए पूरा लेख समकालीन हिन्दी कहानियों में वर्णित वृद्ध विमर्श। हिन्दी कथा-साहित्य में वृद्ध विमर्श।
Hindi Me Vrudh Vimarsh
वृद्धमन : आर्थिक समस्याएँ
आज समाज में विशेष रूप से भारत देश में भोग वादी जीवन अधिक हो गया है। यह पश्चिम देशों के कारण भारत देश में भी भौतिकवाद बढ़ता जा रहा है। परिणाम स्वरूप समाज में, देश में, परिवार में, आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है।
प्रकृति में अनेक प्रकार के जीव जंतु जन्म लेते हैं, मर जाते हैं। उनमें न माता-पिता का संबंध होता है, न भाई-बहन का, न रिश्तेदारों का, न मूल्यों का महत्व होता है। क्योंकि वे जीव-जंतु पशु है, उनमें सोचने की क्षमता नहीं होती हैं और बुद्धि भी नहीं होती है। इसीलिए उसे जीव-जंतु कहते हैं।
सृष्टि की सर्वोत्कृष्टि रचना मानव कहलाता है। आज वह मानव सृष्टि की प्रतिसृष्टि करने की कोशिश में लगा हुआ हैं। सृष्टि को मुठ्ठी में भर लेने की कोशिश, कर रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति कर रहा हैं। लेकिन वह सब क्यों ? किसके लिए कर रहा है ? उनको मालूम नहीं है। शोषण ही जीवन का लक्ष्य बन गया है। आज के मानव के सामने जीवन क्या हैं ? क्यों जीना ? किसके लिए जीना? इन प्रश्नों का उत्तर के रूप में शोषण को ही स्वीकार करता हैं। इसलिए वह प्रकृति का शोषण, परिवार का शोषण, माता-पिता का शोषण करने में तुला हुआ है।
वैज्ञानिक उन्नति हो रही हैं। प्राकृतिक उन्नति घट रही हैं। मानव मूल्य, आपसी सम्बन्ध अनुराग, आत्मीयता, सहायता की भावना घट रही हैं। सारे मानव सम्बन्ध आर्थिक धरातल पर निर्भर है। परिणाम स्वरूप एक ही परिवार के सदस्य का आपसी शोषण हो रहा है। एक दूसरे का शोषण कर रहे हैं। वैज्ञानिक, आर्थिक हो रहा है, जंगली जीवन बढ़ रहा है। प्राकृतिक जीवन घट रहा हैं।
"ईशा वास्चमिदँ सर्व याक्तिञ्च जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः खिद्धनम्" ।।¹
व्याख्या :-
मनुष्यों के प्रति वेद् भगवान् का पवित्र आदेश हैं कि अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगततुम्हारे देखने-सुनने में आ रहा है, सब का सब सर्वाधार सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, कल्याण, गुणस्वरूप, परमेश्वर से व्याप्त है, सदा-सर्वत्र उन्होंने पारिपूर्ण है (गीता 1-4)
इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है (गीता 10-3142)। इसे समझकर उन ईश्वर को निस्तर अपने साथ रखते हुए-सदा सर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत में ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल कर्तव्य पालन के लिये ही विषयों का यथा विधि उपभोग करो। अर्थात्-विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिये ही कर्मों का आचरण करो। विषयों में मन को मत फँसने दो, इसी में तुम्हारा निञ्चित कल्याण है (गीता 21, 64, 319, 18-46)। वस्तुतः ये भोग्य-पदार्थ किसी के भी नहीं है। मनुष्य भूल से ही इनमें ममता और आसक्ति कर बैठता हैं। ये सब परमेश्वर के हैं और उन्हीं की प्रसन्नता के लिये इनका उपयोग होना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में आदमी के पास कुछ दायित्व होते हैं, उनमें सेवा अति प्रधान माना जाता है। सेवा माता पिता के प्रति भाई-बहन के प्रति, सास-ससुर के प्रति, वृद्धों के प्रति, समाज के प्रति देश के प्रति या विश्व के प्रति। लेकिन भारतीय संस्कृति धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। आर्थिक समस्यों को सेवा के स्थान में उत्पन्न कर रहे है। वृद्धों की सेवा को महत्व न देकर अपने वैयक्तिक सुख को प्रमुख मानने के कारण वृद्धों के स्थिति दयनीय एवं निर्मम बरती जा रही है।
हमारे पवित्र ग्रंथों में वृद्धों के सेवा के बारे में इस प्रकार कहा गया है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विध्या यशो बलम् ।।²
जो नम्र सुशील विद्वान और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि नहीं बढ़ते हैं।
'वृद्धमन की कहानियाँ' नामक संकलन में वृद्ध मन की अनेक प्रकार की आर्थिक समस्यायें व्यक्त हुए है। आज की संतान का व्यवहार से वृद्ध माता-पिताओं को दुर्बल जीवन बिताना पड़ता है।
"अपने घरौंदे से दूर” नामक कहानी में एक वृद्ध पिता अधिक जाड़े के कारण साँस की तकलीफ और आस्थमा से तड़प रहा हैं। ऐसे स्थिति में पिता की सेवा करना बेटे का कर्तव्य होता है। लेकिन बड़ा बेटा "गणेशी ने उसे कुत्ता कहकर लतियाते हुए, जिस दिन बाहर ला पटका था। निकल जा समझे बहुत बक बक सह ली है तुम्हारी।" इस देश में गणेशी जैसे कुपुत्र जन्म ले रहे है। जन्मदाता पिता को कुत्ता कहना गणेशी का पागलपन है।
आज कल व्यक्ति धन को ही सर्वोपरि मानने के कारण संस्कारों से हीन होकर पशु के समान व्यवहार कर रहा है। यह आधुनिक युग की दुर्दशा है। पढ़े-लिखे लोगों में भी धन-लिप्सा बढ़ती जा रही हैं। इसलिए अपने माता-पिता की सेवा करने का समय कमाने में लगाने से धन कमा सकते हैं। इसलिए वृद्ध लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं।
परिवार में दो लड़के रहकर भी पिता को उपेक्षित करते हैं। इसलिए उस वृद्ध पिता को वृद्धाश्रम में जाना पड़ता है। वहाँ एक फॉर्म भरना पढ़ता है, उसे भरते समय उसमें लिखना पड़ता है कि 'कोई नहीं'' संतान होने पर भी कोई नहीं कहना पड़ा अर्थात् संतान नहीं के बराबर हो गयी है।
'पंडित मनीमाधव' कहानी में बेटा आलसी होकर अपने बूढ़े पिता की सेवा करने के बजाय, खिलाने-पिलाने के बजाय धमकी देता है कि बापू कुछ पैसा चहिए। "मैं कुछ नहीं जानता हूँ। मुझे रूपया चाहिए। मैं ने निर्णय कर लिया है तो कर लिया है आप नहीं देंगे तो मैं बैंक से लोन लूँगा"1
इससे मालूम होता है कि बूढों की सेवा करनी चाहिए। लेकिन पंडित मनीमाधव के छोटे बेटे का इस प्रकार धमकी देना गिरे हुए मानव का उदाहरण है।
"अपंग” नामक कहानी में पिता अपनी इकलौती बेटी की शादी कर देता है, पिता बूढ़ा हो जाता हैं। लेकिन दामाद पैसों के लिए 'यह मकान बेचकर'" मुझे पैसे दीजिए कहता हैं। हर दिन पैसों के लिए ससुर को सताते हैं। इकलौती बेटी हैं, ससुर को देखभाल करने के लिए कोई नहीं हैं। अब उनके पास एक मात्र घरौंदे है, अतः उसे भी वह दामाद दूर करने के लिए देखता है। वृद्धावस्था में ससुर को सहारा न देकर, निराश्रय करने के लिए देखता है, इन घटनाओं को देखकर वृद्ध मन तड़पता रहता है।
'दरकते सपने' नामक कहानी में पिता किशोरीलाल ने अपने बेटे को अपनी ताकत से भी अधिक कष्ट करके पढ़ाया, अब वह इंजनीयर बनकर शहर में नौकरी करता हैं। फिर भी किशोरी लाल जी का कष्ट दूर नही होता है। इसलिए अड़ोस-पड़ोस के लोग कहते है कि बेटा पास जाओ, उससे अच्छा सेवा कराओ। ये बातें सुनकर किशोरीलाल शहर में बेटे के घर पहुँचता है। बहू अंदर भी नहीं आनी देती है। "भूख के मारे आते अकुलाने लगीं थी। संध्या समय तक बाहर ही बैठा रहता है, तब बेटा आता है, वह अंदर जा के पत्नी से बातचीत करके बाहर आता है और पूछता है- बापू जी चाय पिओगे ? कहता है, बात यह है कि बापू जी हमें बाहर डिनर पर जाना है घर में तो खाना बना नहीं है। तब पिता कोई बात नहीं बेटा ... पानी पीकर मैं जहाँ कहोगे वहाँ लेटा रहूँगा।" वह बहुत निर्वेद होता जाता है, वहाँ पानी पीने की भी इच्छा नहीं हुई। इस घटना से वृद्ध मन का भूख अंदर ही मर जाता है।
"प्यासी रेत" नामक कहानी में एक वृद्ध माँ को अपने संतान एक अनावश्यक चीज की तरह एक कमरे में रखते हैं। सब लोग उसे मौसी कहते हैं। पडौस वाली लड़की जब तब मौसी जी से बातचीत करने चले जाती थी। एक दिन वह लड़की साँझ के समय में मौसी के घर आयी, पूरा कमरा निबिड़ अंधकार था। वह देखकर लड़की पूछती है- क्या बात हैं मौसी आज बत्ती भी नहीं जलाई कहने पर "बेटी, बत्ती से क्या होता है ? जब मेरेमन में अंदर तक अँधेरा ही अँधेरा है।" मौसा जी के रहते समय मौसी महाराणी के जैसा जीवन जी रही थी। अब अपने संतान के राज्य में अंधकार भरा जीवन बिताना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म और कर्तव्य परिपूर्ण करना है। हम जिस मार्ग में चलते हैं, उसी मार्ग में ही हमारे संतान चलते हैं। इसके बारे में हमारे पवित्र ग्रंथों में इस प्रकार हैं।
येनास्य पितरो याता येन माता पितामहाः।
तेन यायात्सता मार्ग तेन गच्छन्न रिष्यते ।। - मनु (4-175)
हर परिवार में भी वृद्ध माता पिताओं को आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से तृप्त करना है। यह संतान का कर्तव्य है। हमारे वेदों में माता-पिताओं के सेवा के बारे में इस प्रकार बताया हैं।
"पितृयज्ञः पितृयज्ञ आर्यजनों के नित्य कर्म का एक अविभाज्य अंग है। 1. श्रद्धा 2. तर्पण"
श्रद्धा का अर्थ है प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक माता पिता एवं गुरूजनों के चरणों में श्रद्धा पूर्वक नमन तथा उनकी सेवा शुश्रूषा और तर्पण का अर्थ है अपने कार्य कलाप और यशस्वी जीवन व्यवहार से उन्हें तृप्त (सन्तुष्ट) करना। श्री राम पितृयज्ञ के इन दोनों रूपों को प्रतिदिन निष्ठा पूर्वक निभाते हैं।
- यस. वरलक्ष्मी
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