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Kamta Prasad Guru
हिंदी व्याकरण कामता प्रसाद गुरु : हिंदी व्याकरण पुस्तक के लेखक पं. कामताप्रसाद गुरु हिंदी भाषा के व्याकरण के विशेषज्ञ थे, उनकी व्याकरण पुस्तक का अनुवाद विदेश की कई भाषाओं में हुआ है। पं. कामताप्रसाद गुरु जी ने काव्य, निबंध, नाटक, उपन्यास तथा अनुवाद के सृजन के साथ ही हिन्दी भाषा के स्तरीय व्याकरण की रचना कर भाषा-शास्त्री के रूप में स्थायी कीर्ति अर्जित की।
हिंदी व्याकरण के रचयिता
व्याकरणाचार्य पंडित कामताप्रसाद गुरु
हिन्दी की खड़ी बोली के गद्य-पद्य के विकास और संवर्धन का कार्य द्विवेदीयुग में सम्पन्न हुआ। साहित्यकाश पर ध्रुव तारे की भाँति पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का उदय एक ऐतिहासिक महत्व का प्रसंग है।
मध्यप्रदेश के जिन रचनाधर्मियों ने साहित्य के विविध पक्षों को सबल और पुष्ट करने में सक्रिय योगदान दिया है उनमें पंडित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, पंडित लोचन प्रसाद पांडेय और पंडित कामता प्रसाद गुरु आदि का महत्वपूर्ण स्थान है।
इनमें पंडित काता प्रसाद गुरु का वैशिष्ठय इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने काव्य, निबंध, नाटक, उपन्यास तथा अनुवाद के सृजन के साथ ही हिन्दी भाषा के स्तरीय व्याकरण की रचना कर भाषा-शास्त्री के रूप में स्थायी कीर्ति अर्जित की।
गुरुजी शास्त्रज्ञ तो थे ही द्विवेदी युगीन कविताधारा के मान्य काव्यकृतियों में उनका अपना एक स्थान था। खड़ी बोली हिन्दी पद्य का पहला काव्य संकलन 'कविता-कलाप' सन् 1909 ई. में पंडित महावीर प्रसाद द्वारा संपादित किया गया था।
'कविता-कलाप' में गुरुजी की और स्वयं द्विवेदी जी की दो-दो कविताएँ ही रखी गई हैं। इसमें गुरुजी की 'परशुराम' और 'अहल्या' नामक कविताएँ है। गुरुजी की काव्यवृत्ति युग सापेक्ष थी इसलिए उन्होंने पौराणिक युग के आदर्श चरित्रों को अपनी भावभिव्यक्ति का आधार बनाया।
सन् 1910 ई. में पंडित लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा सम्पादित 'कविता-कुसुम-माला' नामक दूसरा काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। उसमें भी गुरुजी की कविताएं सम्मिलित थीं।
उनकी 'गद्य-पुष्पावली' का प्रकाशन बहुत बाद में हुआ जिसमें 'सरस्वती' आदि में प्रकाशित उनकी तीस कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं में उनकी काव्य-प्रकृति, प्रखर अनुभूति, गहन संवेदना और जाग्रत समाजबोध का परिचय मिलता है। नव जागरण के उस आरंभ काल में ही नारी की दीन दशा पर गुरुजी की करुणा और चिंता इस रूप में व्यक्त हुई है।
उनके काव्य विषयों में समाज-सुधार, नैतिकतापूर्ण आदर्शवादिता, सरल और सुचितापूर्ण जीवन, सदाचार पूरित व्यवहार आदि की प्रमुखता है। उन्होंने अपने विचारों को सरल- सुबोध भाषा में सूत्ररूप में पिरोया है। उनकी सभी कविताएं सरल, सुबोध शब्दावली में हैं। और उपदेशात्मक प्रवाह की संवाहिका हैं। उनकी 'बेटी की विदा' और 'बहू की अगवानी' शीर्षक कविताएं बहुत सराही गई। इनमें करूणा और प्रेम मानों मूर्तिमंत हो उठते हैं।
30 दिसम्बर 1935 को कटनी में म.प्र. हिन्दी- साहित्य-सम्मेलन द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में प्रदत्त भाषण से ज्ञात होता हैं 'कविता कल्पनाओं और मनोवेगो के रूप में जीवन की व्याख्या है इसलिए उसका महत्व आनंद देने के साथ-साथ जीवन के व्यवहारों को प्रभावित करने में भी है। इस प्रकार कविता में उपयोगिता का तत्व भी सम्मिलित है।'
गुरुजी ने कविता के साथ निबंधों की भी रचना की हैं कुछ तो भाषा और व्याकरण संबंधी हैं और कुछ सामाजिक विषयों पर। समर्पित जीवन, चरित्र संगठन, आत्म-त्याग आदि उच्चादर्शों की प्रेरणाओं से परिपूर्ति उनके निबंधों की मूल भावना देशानुराग से युक्त है। गुरुजी द्वारा बोलचाल की सरल शब्द- युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग विशेष रूप से रखांकित किए जानेवाला तथ्य है। उनके कुछ निबंध 'देशोद्धार', नामक संकलन में संग्रहीत है। गुरुजी ने हिन्दुस्तानी शिष्टाचार नामक पुस्तक की भी रचना की है।
उन्होंने 'सत्यप्रेम' नामक एक मौलिक उपन्यास भी लिखा था। जिसका दृष्टिकोण आदर्शपूर्ण सुधारवादी ही था। पीछे उड़िया भाषा के 'मालती ओ भाग्यवती' नामक उपन्यास का हिन्दी अनुवाद 'पार्वती और यशोदा' नाम से प्रस्तुत किया। 'सुदर्शन' नामक एक नाटक की भी उन्होंने रचना की, किंतु इन सब विविध विधागत प्रयोगों के चलते वे मूलतः व्याकरण रचना के लक्ष्य में रमे रहे। सन् 1900 ई. में 'भाषा-वाक्य पृथक्करण' आदि कृतियाँ सामने आई।
पंडित माधवराव सप्रे के सुझाव पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'हिन्दी व्याकरण' की रचना हेतु यह कार्य गुरुजी को सन् 1913 ई. में सौंपा। सात वर्षों के सतत् परिश्रम से गुरुजी ने हिन्दी व्याकरण की रचना का कार्यपूर्ण किया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की व्याकरण संशोधन समिति में सर्वश्री पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथदास रत्नाकर, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामचंद्र शुक्ल, पं. रामनारायण मिश्र, पं. लज्जाशंकर झा और पं. कामताप्रसाद गुरु थे। उक्त समित ने 14 अक्टूबर 1920 ई. को सर्वसम्मति से उक्त कृति को स्वीकार करते हुए गुरुजी के इस अप्रतिम रचनाकर्म को सफल बनाया। उन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, बंगला, उड़िया आदि भाषाएं सीख कर उनके व्याकरणों का भी अध्ययन किया।
साहित्य में अन्वेषी और निर्मात्री प्रतिभा के वशीभूत होकर ही वे सन् 1908 ई. में पं. माधवराव सप्रे द्वारा आरंभ की गई हिन्दी-ग्रंथ-माला के सम्पादन में सहयोग देने के लिए उन्होंने शासकीय सेवा से अवकाश लिया और नागपुर आ गये। वहाँ उन्होंने सप्रेजी के प्रसिद्ध पत्र 'हिन्दी-केसरी' को भी अपना सक्रिय सहयोग दिया। सन् 1918 ई. में अवकाश लेकर मासिक 'सरस्वती' के सम्पादन कार्य हेतु वे प्रयाग गए।
वे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 'साहित्य-वाचस्पति' की उपाधि से विभूषित किये गये। सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, मध्यप्रदेश हिन्दी- साहित्य-सम्मेलन पुस्तकालय, जबलपुर से वे यावज्जीवन सम्बद्ध रहे।
गुरुजी का जन्म सागर के परकोटा मुहल्ले में पौष वदी 2 वि.सं. 1932 तदनुसार 24 दिसम्बर 1875 को पंडित गंगाप्रसाद गुरु के यहाँ हुआ था। कोई तीन सौ वर्ष पूर्व पंडित देवताराम पांडेय कानपुर जिले के पुरवा नामक स्थान से आकर सागर जिले में गढ़पहरा ग्राम में बस गए थे। वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। किंतु तत्कालीन दांगी राजाओं की रानियों के दीक्षागुरु होने के कारण उनकी उपाधि 'गुरु' हो गई। तब से वही कुलोपाधि के रूप में प्रचलित हो गई। इन्हीं पं. देवताराम पांडेय की पाँचवी पीढ़ी में पंडित गंगाप्रसाद गुरु थे।
गुरुजी की प्रारंभिक शिक्षा सागर में ही हुई। वहीं के हाईस्कूल से ऐंट्रेंस की परीक्षा सन् 1892 उतीर्ण की। माता- पिता की एक मात्र संतान होने के कारण उच्च शिक्षा के लिए बाहर नहीं भेजे जा सके, अतः शिक्षा समाप्त कर बंदोबस्त विभाग में कुछ समय काम करने के उपरांत सागर हाई स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए। कुछ समय बाद रायपुर स्थानांतरण हुआ फिर वहां से नार्मल स्कूल में चले गए। कुछ समय कालाहांडी रियासत में उप शिक्षा निरीक्षक के रूप में कार्य किया। वहां से
लौटने पर जबलपुर नार्मल स्कूल में आ गए। जबलपुर में गुरुजी पहले गढ़ाफाटक मुहल्ले में रहते थे। सन् 1926 ई. के लगभग दीक्षितपुरा में निजी मकान लेकर स्थायी रूप से बस गये । सन् 1928 ई. में 34 वर्षीय शासकीय सेवा से अवकाश ग्रहण किया और साहित्य-चिंतन और मनन में अंतिम समय तक लगे रहे। औसत कद, एकहरा बदन, गेहुआ वर्ण, तेजस्वी नेत्र और उन्नत नासिका युक्त लमछर मुखाकृति के साथ धोती, कमीज, बंद गले का कोट, सिर पर टोपी और पैरों में केनवास के बंददार जूते उनकी वेशभूषा को सौम्य आकार देते थे। वे शांत और गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे।
34 वर्ष तक अनवरत सेवा करने के पश्चात् गुरुजी सेवामुक्त होकर स्थाईरूप से जबलपुर में बस गये थे। मैं उन दिनों माडल हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहा था। और मेरी रचनाएं भी 'बाल सखा', 'बांसुरी', 'शेर बच्चा' आदि में छपा करती थी। मैट्रिक में हुए मैंने 'बाल-मित्र' मासिक पत्रिका निकाली थी और कविता संग्रह 'बालनाद' भी प्रकाशित हो गया था। गुरुजी के पुत्र श्री रामेश्वर प्रसाद गुरु भी शिक्षक कवि और पत्रकार थे। वे पंडित भवानी प्रसाद तिवारी के साथ साप्ताहिक 'प्रहरी' का सम्पादन करते थे। मेरे एक अन्य शिक्षक श्री हरिशंकर परसाई थे, व्यंग्य करते थे जो मुझे हिन्दी निबन्ध पढ़ाते थे। उन्हीं दिनों मेरी एक बाल कहानी 'मकड़ी और मक्खी' नागपुर आकाशवाणी से प्रसारित हुई थी। एक शिक्षक ने मेरा उपनाम 'आदर्श' कर दिया था जो आगे चलकर मेरा सरनेम बन गया।
इसके प्रेरणा स्रोत पंडित कामता प्रसाद गुरु ही थे। उन दिनों जवाहरगंज स्थित भार्गव भवन में लखनऊ के श्री दुलारेलाल भार्गव का 'एजकेशनल बुक डिपो' नाम का एक पुस्तक विक्रय केन्द्र था। उसका संचालन 'माधुरी' के पूर्व सम्पादक पंडित मातादीन शुक्ल किया करते थे। वहां पंडित गंगाविष्णु पांडेय, पं. प्रेमनारायण तिवारी 'प्रेम', पं. रामभद्र गर्ग 'मल्ल कवि' आदि साहित्यानुरागियों के साथ गुरुजी की बैठक जमती थी।
- ब्रजभूषण सिंह आदर्श
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