मैत्रेयी पुष्पा के कथा-साहित्य में आधुनिकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Maitreyi Pushpa Ke Katha Sahitya Me Aadhunikta

मैत्रेयी पुष्पा के हिन्दी कथा-साहित्य में आधुनिकता

समकालीन कहानिकारों की कहानियों का अध्यायन करने पर यह पता चलता है कि अनेक महिला लेखिकाएँ कहानी की क्षेत्र में तीव्र गति से आगे बढ़ रही है। ये लेखिकाएँ समाज में स्थित समस्याओं से जूझती हुई नारियों को उजागर करने के लिए कथा साहित्य को चुना।

आधुनिकता के बोध की संकल्पना को हम शब्दों में नहीं बाँध सकते क्योंकि अमूर्त और अविश्लेषनीय संकल्पना है। आधुनिकता को स्वीकार करने की तर्क की आवश्यकता है इसे आँख मूँद कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ इसलिए हमें अत्यधिक आकर्षित करती है क्योंकि इसके नारी पात्र भाग्य और भगवान भरोसे न रहकर पहली बार तर्क के आधार पर विचार करते हैं। आधुनिकता बोध के संदर्भ में लेखिका के कथा साहित्य को जब हम देखते हैं एक नयी सोच नया विचार, नया उत्साह, नये भावों के साथ ही व्यक्तित्व में भी निखार आ जाता है।

मैत्रेयी ने आधुनिकता को एक विचार के रूप में एक जीवन दृष्टि के रूप में देखा है। आधुनिकता का संबंध अतीत से न होकर हमारे अपने वर्तमान से है। मैत्रेयी का मानना है कि नारी अपनी बात बिना भय के सामने रखें। धर्म दर्शन, कला, साहित्य, संगीत, भाषा और संवेदना आदि में आधुनिकता का अर्थ परंपरागत मान्यताओं विश्वासों, रूढ़ियों को अस्वीकार कर, निषेद कर नये व्यक्तिगत प्रयोंगों और रुझानों भंगिमाओं और संवेदनाओं को स्वीकार करना है। इस तरह आधुनिकता मात्र समकालिन नहीं। आधुनिकता ही एक खास और विशिष्ट पहचान है। एक नया एहसास है।

मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य में पग-पग पर आधुनिकता दिखाई देता है। नारी को स्वयं को महत्व देना सीखना है। स्त्री के लिए पति का आदेश ईश्वर के समान है। उससे अपने बारे में कुछ नहीं करती जो कुछ किया, सोचा सब पति के पक्ष में करती है। नारी अपने बारे में निर्णय लेती है तो आदर्शों के टूटने की संभावना होती है। इसलिए वह निर्णय लेने से भयभीत हो जाती है। आधुनिकता यही है कि व्यक्ति का विकास स्वयं निर्णय क्षमता पर निर्भर रहता है। जब तक वह अपने लिए निर्णय नहीं ले पायेंगी तब तक उसका विकास असंभव ही है।

मैत्रेयी पुष्पा ने अपने "कस्तूरी कुंडल बसै", उपन्यास में इस तरह बताया कि जब बाड़े की औरतें उन्हें तकलीफ दे रही थी तो उनसे पंगा लेने का निर्णय स्वयं लिया था। बाड़े में रहकर ही उन औरतों से झगड़ा मोल लेना मैत्रीयी के लिए एक चुनौती थी जिसे उसने स्वीकार किया।

आल्मा कबूतरी में अल्मा शास्त्री के बाद राज पाढ स्वीकार ने का निर्णय लेती है। अल्मा ने अपने जीवन में बहुत उतार-चढाव देखे थे। उसका जीवन दूसरों के निर्णयों पर चल रहा था। जीवन के प्रवाह में वह बहती चल रही थी। अपने जीने के बारे में उसने निर्णय नहीं लिया था। आधुनिकता की दृष्टि से स्वयं निर्णय क्षमता महत्वपूर्ण होती है जो अपने बारे में निर्णय ले सकता है वह औरों के बारे में भी निर्णय ले सकता है।

मैत्रेयी पुष्पा की कहानी 'फैसला' में वसुमति का निर्णय स्त्री के पक्ष में न्याय देगा ऐसी आशा सब स्त्रियों को लगती है। ओ 'बसुमतियाँ। तू रनवीरा की तरह अन्याय तो नहीं करेगी। कागद दाब तो नही लेगी। सलिमा ने हमारे हाथ-पाँव तोडे, तो हमने लीला के लड़का से तुरंत कागज लिखवाया था कि सरकार दरबार हमारी गुहार सुनें।"¹

लौटकर नरवीरा ने खूब समझाया था, "पंचायती चबूतरे पर बैठती तुम शोभा देती हो। बात-लिहाज मत उतारो। कुल परंपरा का ख्याल भी नहीं रहा तुम्हें। औरत की गरिमा आढ़ मर्यादा से ही है। फिर तुम क्या जानों गाँव में कैसे-कैसे दूर्थ हैं"²। स्त्री निर्णय ले सकती है पर उसे संभ्रमित अवस्था में डालने का काम पुरुष द्वारा किया गया है। हरदेई ने जान देदी तो इसकी जिम्मेदार प्रधानिन वसुमती ही है क्यों कि उसका निर्णय महत्वपूर्ण समझा गया है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में शिक्षा को महत्व दिया है।

शिक्षा मनुष्य की तीसरी आँख है। अशिक्षित व्यक्ति को आज जीना मुश्किल होता जा रहा है। एक लड़के की शिक्षा एक व्यक्ति की शिक्षा जबकि एक लड़की की शिक्षा एक परिवार की शिक्षा मानी जाती है। वैदिक काल में अनेक नारियों ने वेद मंत्रों की रचनाएँ की एवं ऋषियों से शास्त्रार्थ किए लेकिन उत्तर वैदिक काल से स्त्री शिक्षा को महत्वहीन माना गया और स्त्री घर के भीतर कैद हो गई।

आधुनिक काल में स्त्री शिक्षा के महत्व को समझा गया। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि के प्रयत्नों के कारण स्त्री-शिक्षा को बल मिला। विभिन्न स्तर पर स्त्री शिक्षा के प्रयत्न न होते रहे। "महिला शिक्षा के लिए किए गए प्रयत्नों के फलस्वरूप आज लगभग सभी क्षेत्रों में स्त्रियाँ अपनी प्रतिभा का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन कर रही हैं और इस धारणा का खंडन करने में सफल हुई हैं कि स्त्रियाँ बुद्धि या प्रतिभा में कुछ कम नही है।"³ स्त्री को शिक्षा से वंचित रखा गया था। उसे शिक्षित होने का मौका नहीं दिया था। इसलिए उसे अनपढ़, गँवार समझा जाता था। जब उसे मौका दिया गया तब वह पुरुषों से अधिक प्रखर दिखाई देती हैं। भारतीय समाज में स्त्री शिक्षा की उपेक्षा का एक बड़ा कारण उनका अशिक्षित होना है। पुरुष ने स्त्री को भय दिखाकर उसे घर की दीवारों में बंद रखा गया और एक परंपरागत कहावत सुनाई जाती है कि - "एक बार उसकी डोली आई है, अब अर्थी ही घर से बाहर जाएगी।"

स्त्री को जन्म से ही नकारा गया है। भ्रूण हत्या के कारण स्त्री की संख्या कम होती हुई नजर आ रही है। सामाजिक रुढ़ि-परंपराओं का परिणाम माता-पिता पर भी होता है। उनकी सोच यह है कि लड़का बुढ़ापे का सहारा है। लड़की विवाह करके ससुराल चली जायेगी ससुराल वालों के यहाँ की कोई संपत्ति माता-पिता के उपयोग की नहीं होती है। लड़का वंश का दिया होता है। मृत्यु के पश्चात वही मुखाग्नि देता है। महादेवी वर्मा का कथन है... "स्त्री शून्य के समान पुरुष की इकाई के साथ सब कुछ है परंतु उससे रहित कुछ नहीं।"⁴ महादेवी वर्मा ने यहाँ पर स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित होने की ओर निर्देश किया है।

आधुनिक दृष्टि से विचार करने पर स्त्री-पुरुष को समान अधिकार दिये गये हैं। मतदान का अधिकार भी स्त्री - पुरुष के लिए समान रखा गया है। स्त्री को संविधान में व्यक्ति के रूप में देखा गया है और इसलिए उसके लिए स्वतंत्र रूप से कानून में व्यवस्था की है-दहेज प्रथा के संबंध में, पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार के संबंध में, उसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न प्रावधान किये गये हैं।

आधुनिक दृष्टि से सोचकर स्त्री को अपनी शिशु को जन्म देने का निर्णय लेना चाहिए क्योंकि प्रसव की पीड़ा तो स्त्री को ही सहनी पड़ती है। स्त्री को स्त्री के पक्ष में रहकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी।

मैत्रेयी पुष्पा ने नारी को समाज में एक व्यक्ति रूप में देखना चाहा है। गाँव की नारी को सामाजिक स्तर नहीं मिलता है। वह केवल उपयोग में लायी जाने वाली वस्तु की तरह मानी जाती है।

आधुनिकता बोध के अनुसार नर-नारी समानता की बात चलती है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा है जहाँ स्त्री ने अपनी भागीदारी न दी हो। स्त्री की समाज ओर एक विशिष्ट पद्धति से देखता है जहाँ से बुद्ध नाम की कोई चीज है ही नहीं ऐसा माना जाता है। स्त्री को अपने क्षमता के अनुसार माना जाना चाहिए। उसके भावनाओं को आदर करना होगा तब ही जाकर नर-नारी समानता आ सकेगी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मैत्रेयी पुष्पा आधुनिक बोध के संदर्भ में अपने रचनाओं में नारी अपनी अस्थित्व का निर्माण स्वयं कर रही है। जन्म लेते ही समाज, परिवार द्वारा अस्वीकृत नारी अपना स्वतंत्र अस्तित्व चाहती है। मैत्रैयी ने नारी जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष में देखा है। उन्होंने अपने कथा साहित्य में वर्तमान से जूझती हुई नारी का चित्रण हर क्षेत्र में किया है। धर्म, दर्शन अर्थ-संस्कृति राजनीति, साहित्य आदि क्षेत्रों में नारी के स्थान को अपने कथा साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

संदर्भ;

  1. फैसला - ललमनियाँ - मैत्रेयी पुष्पा पृ.सं. 8
  2. फैसला - ललमनियाँ मैत्रेयी पुष्पा पृ.सं. 11
  3. भारतीय नारी दशा, दिशा, आशारानी व्होरा - पृ.सं.27
  4. श्रृंखला की कड़ियाँ - महादेवी वर्मा - पृ.सं.113

- एस. विजया

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