Problems of new writings of young writers in modern Hindi literature, Hindi Nav Lekhan Ki Samasyayen, Hindi Sahitya Me Yuva Peedi Ki Bhumika Kya Hai, 10 Problems Young Writers Face, Biggest Challenges Writers Face and Their Solutions.
Problems of News Writing
साहित्य और युवा वर्ग : हिंदी नवलेखन की समस्याएं, हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की समस्याएँ, हिंदी साहित्य में युवा पीढ़ी की भूमिकाः एक अध्ययन, समकालीन युवा लेखकों के सामने सबसे बड़ी समस्या क्या है पढ़िए और शेयर कीजिए।
Adhunik Hindi Sahitya aur Yuva Lekhan
आधुनिक हिंदी साहित्य में युवा लेखन की नयी रचनाओं की समस्याएँ
हम साहित्य के समकालीन परिदृश्य पर आ पहुँचते है जिसे सामान्यतः 'युवा लेखन' के नाम से पुकारा गया है। यह नामकरण ऐसा संविधाजनक है कि इसके अंतर्गत विविध प्रकार की रचनात्मक बेचैनी और रचना प्रक्रिया-जिनमें कई की दिशाएँ परस्पर विरोधी भी है-
"आधुनिक भाव-बोध के समग्र साहित्य की एक प्रमुख विशेषता उसका स्वचेतना होना है।"¹
परिवर्तन और विकास के बीच प्रधान अंतर चेतनता का है। परिवर्तन सहज है, विकास प्रयत्न साध्य है और आधुनिकता विकास का स्वचेतन प्रयत्न है। मार्क्सवादियों ने इसी से कहा है कि इतिहास के चक्र को तेजी से चलना। द्वन्दात्मकता के सिद्धांत में से निकलता है कि विकास तो संघर्ष की प्रक्रिया से अपने-आप होता चलता है, पर उस पर प्रक्रिया को द्रुततर करना यह आधुनिकता का लक्षण है। पश्चिम में आधुनिकता का उपकरण यांत्रिकी है, साम्यवादी देशों में इतिहास । युवालेखन में नयी कविता या नवलेखन की इस स्वचेतनता के प्रति विरोधी प्रतिक्रिया हुई है।
भाषिक प्रक्रिया में नये कवियों द्वारा कई प्रयोग हुए। “सूक्ष्म अनुभव की पकड़ के लिए मितकथन हमेशा सहायक रहा है। मितकथन से आगे अधिकतर आधुनिक चित्रकला के साक्ष्य पर अमूर्तन और विरुपण की प्रतिक्रयाएँ नये साहित्य में शुरू हुई।"³
भाषा के ऐसे प्रयोग कम रचनाकारों ने किए है। उदाहरण के लिए रघुवीर सहाय, लक्ष्मीकांत वर्मा, विपिन अग्रवाल के नाम लिए जा सकते है। भाषा के इस रूपांतरण ने नयी कविता और नवलेखन की संवेदना को क्रमशः रूपांतरित किया है। युवालेखन में इस प्रवृत्ति की भी प्रतिक्रिया हुई है।
समकालीन साहित्य में नयी कविता के बाद कई प्रकार के रचना-आंदोलन उभर कर आए दिखाई देते हैं- भूखी, विद्रोही पीढी, अन्यथावाद, अनर्थक अभिव्यक्ति के विभिन्न प्रकार तथा अकहानी और अकविता। इन सभी आंदोलनों के बीच हमारे युग की युवा पीढ़ी का विक्षोभ, आक्रोश और विद्रोह भाव मूल प्रेरक शक्ति के रूप में देखा जा सकता है। पर ऐसा लगता है कि यह विक्षोभ, आक्रोश और विद्रोह का भाव तथा उसकी दिशा ठीक-ठीक परिभाषित नहीं किया जा सका है, समीक्षा के क्षेत्र में नहीं स्वयं रचना के क्षेत्र में ही।
विद्रोह को परिभाषित करते रहने की प्रक्रिया इसीलिए महत्वपूर्ण है। नयी कविता के अन्यतम कवि रघुवीर सहाय ने विद्रोह के इस ठंढ़े ढंग को और उसकी शक्ति को बखूबी पहिचाना था। जब उन्होंने कहा-
"यानी की आप ही देखें कि जो कवि नहीं है। अपनी एक मूर्ति बनाता हूँ और ढहाता हूँ और आप कहते हैं कि कविता की है क्या मुझे दूसरों की तोड़ने की फुरसत है ?"⁴ युवालेखन की एक मुख्य धारा अकविता का कोई अर्थ नहीं सिवा इसके कि वह कविता होने का परंपरागत ढंग से बिलकुल अलग एक नया प्रकार है। जगदीश चतुर्वेदी की 'प्रारंभ' शीर्षक चौदह कवियों का संकलन 1963 में प्रकाशित भूमिका में कहा गया।
"इस अभिनव काव्य के संकलन में कदाचित प्रथम बार हिंदी की क्षुब्ध पीढ़ी के कवि नए स्थान पर संग्रहित है।"⁵
अकविता की तीव्र और तुच्छ दृष्टि की इस प्रसंग में दो बडी सीमाएँ हैं। एक का तो उल्लेख पहले किया जा चुका है-यानी अकविता के संसार में उसके विद्रोह का आलंबन, सेक्स या यौन जीवन ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व हो गया है। यौन जीवन से आक्रांत अकविता के इस रूप को देख कर पुराण कथाओं में वर्णित गौतम द्वारा अभिशप्त इन्द्र का रूप स्मरण हो आता है। स्पष्ट ही मानव और यथार्थ का यह सर्वथा अतिरंजित था कि विकृत रूप है।
दूसरी कठिनाई को समझने के लिए माध्यमों की प्रकृति के सूक्ष्म अंतर की ओर ध्यान देना होगा। यौन जीवन के अनुभव अपने विविध आकारों और गतिशीलता में सीधी तथा प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति दृश्य कलाओं में अधिक संगति और सफलता के साथ पाते है। "खजुराहो का स्थापन, ग्रीक मूर्तियाँ और फ्रेंच चित्रकला की निर्वसनाएँ इसका प्रमाण है, जहाँ मानव शरीर को उत्सव और कभी-कभी विभीषिका के रूप में भी अंकित किया गया है।"⁶
पर मौन जीवन के संदर्भ में सीधा शब्द प्रयोग अश्लीलता को जन्म देता है, क्योंकि वह अनुभव को सतह पर उभारता है, संप्रेषित नहीं करता। अकविता के लेखक सिद्धांत रूप में और व्यवहार में इस सीधी अभिव्यक्ति को ही महत्व देते है।
आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य पर सीधी अभिव्यक्ति को कला-मूल्य मानने वाले कई प्रकार के रचनाकार है। अकविता के कवि जिनका मानना है कि- "सातवें दशक की कविता को नयी सभ्यता विरासत में मिली है इसलिए उसके प्रति विमोह की स्थिति अकविता में नही है। उसकी अभिव्यक्ति सीधी तथा प्रभावपूर्ण है...." (अकविता -5)
युवालेखन के विविध रूपों में क्या-कुछ सार्थक भाव से रचा जा सका है, इसके बारे में अभी कुछ ठीक- ठीक कह पाना कठिन है। फिर भी धूमिल तथा राजकमल चौधरी का उल्लेख किया जा सकता है, जिन्होंने कविता तथा विविध माध्यमों में अपनी बात को सशक्त ढंग से कहने की कोशिश की है। दोनों की असामयिक मृत्यु ने उनकी संभावनाओं को बीच में ही अवरुद्ध कर दिया।
"आधुनिक आलोचना और कविता के समानांतर विकास क्रम का विवेचन करते हुए हमने परिलक्षित किया था कि कैसे खड़ीबोली काव्यभाषा हरिऔध के सीधे - सीधे इतिवृत्त कथन से आगे सुमित्रानंदन पंत के अप्रस्तुत विधान में बदलती हुई शमशेर की संश्लिष्ट काव्यानुभूति तक पहुँचती है।"⁷ समकालीन कविता की एक दूसरी मुद्रा है व्यंग्य की। यह व्यंग्य या कि 'आयरनी' का रूप नयी कविता में था, एक उपकरण के रूप में, पर बाद में चल कर उसे पूरे विधान के केन्द्र में रख दिया गया।
काव्यभाषा के स्तर पर समकालीन कविता की ये कुछ समस्याएँ है तो कथा-भाषा के स्तर पर उपन्यास की भी समस्याएँ है। समीक्षक - इतिहासकार उनकी ओर संकेत कर सकता है। उनके हल करने का उपाय तो रचनाकार ही निकाल लेगा। कविता का नाटक में भाषा को तोड़ना अपेक्षया सुगम है, क्योंकि उनका भाषा- प्रयोग सांकेतिक अधिक है। पर उपन्यास में चाहे जितना संक्षिप्त हो, वर्णन चाहिए। और यह वर्णन आधुनिक कविता के अमूर्त तथा विरूप होते विधान द्वारा संभव नहीं क्योंकि ये प्रक्रियाएँ व्यंजना की हैं' वर्णन की नहीं। तब समस्या यह है कि उपन्यास में भाषिक प्रयोग के इन दो स्तरों को मिलाया कैसे जाए।
"अंग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार सॉल बैलो ने कथा-भाषा के इस आंतरिक वैषम्य को शामिल करने का एक उपाय निकाला है। अपनी कृति 'हरजौग' में उन्होंने कथा-प्रवाह को दो स्तरों पर एक साथ अंकित किया है। एक स्तर पर कथा स्थूल प्रसंगों में घटित होती रहती है, एक दूसरे स्तर पर इन प्रसंगों को लेकर चरित्रों की मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया चलती है। एक कथा-स्तर का वर्णन एक प्रवाह की टाइप-व्यवस्था में है, और दूसरे स्तर पर मानसिक जगत के द्वन्दों का अंकन एक भिन्न प्रकार की टाइप व्यवस्था में चलता है।"⁸
अज्ञेय ने काल चिंतन संबंधी अपनी कृति 'संवत्सर' में इस रचना समस्या के कई पहलुओं को उकेरा है। "संप्रेषण का काल : भाषा का क्रम" शीर्षक अध्याय में विवेचन को समेटते हुए वे लिखते है।
"वास्तव में उपन्यास की समूचे साहित्य की समस्या केवल यथार्थ को प्रस्तुत करने की समस्या नहीं है बल्कि यथार्थ को रचने की समस्या है। यथार्थ को रचने की ओर फिर उस रचे हुए यथार्थ मे संप्रेषण की।"⁹
हिंदी में नाटक और रंगमंच के अभाव की चर्चा बार-बार होती है, पर यहाँ बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में रिश्ता कम रहा, इस कारण की ओर ध्यान नहीं दिया गया। आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या अनामिका या प्रसंग रंगमंच के माध्यम से हिंदी रंगमंच में नयी जागृति आई है तो अन्य कारणों के अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह हुई है कि "अब लेखकों और रंगकर्मियों के संदर्भ में बोलने की भाषा और नाट्य भाषा में अंतर कम से कम की स्थिति में आ गया है। इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि हिंदी रंगमंच के क्षेत्र में इस समय ऐसी अनेक प्रतिभाएँ आ रही हैं जिनकी मातृभाषा हिंदी न होकर कश्मीरी, गुजराती, कन्नड या मराठी है।"¹⁰ उनके उच्चरण और सुर में स्वभावतः उनकी अपनी मातृभाषाओं का संस्कार हैं, जो उनके द्वारा प्रयुक्त हिन्दी ध्वनि समूह को एक प्रतिकार विस्तार देता है। जैसे हिन्दी फिल्मों के अभिनेता पंजाबी, बंगाली, गुजराती, मराठी और अब तो दक्षिण भाषाई क्षेत्रों के भी है। पृथ्वीराज कपूर, अशोक कुमार, शांताराम और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय तथा सरल संगीत की थी- जहाँ सुरों की विशेष महिमा है-वैसी ही स्थिति है- (ओंकारनाथ ठाकुर, पटवर्धन, बडे गुलाम अली, भीमसेन जोशी तथा लता मंगेशकर, जूथिका रे, सुब्बलक्ष्मी) उसी प्रकार से हिंदी नाटक और रंगमंच का व्यापक विकास विविध भाषा क्षेत्रों की प्रतिभा के सामूहिक योग-दान से अधिक शक्ति संपन्न होगा।
"समकालीन साहित्य में रचना प्रक्रिया की इन विविध समस्याओं के अतिरिक्त लेखन के लिए व्यवहारिक स्तर पर कुछ विचलक तत्व भी है। इनमें मुख्य दो भाग है- एक तो संचार साधन और दूसरे पुरस्कार सुविधाएँ।" भारतीय संस्कृति अभी तक अनेक आक्रामक संस्कृतियों को झेलती और समरस करती आई है। इस यांत्रिक सभ्यता (संस्कृति नही) से वह कैसे निपटेगी, यह देखने की बात है। संस्कृति की चुनौती उसने आंतरिक स्तर पर स्वीकार की, सभ्यता के संघात को भी वह उसी स्तर पर झेले, यह कठिन है।
"भाषा, धर्म, संस्कृति इन सभी संदर्भों में हिन्दी क्षेत्र के रामचन्द्र शुक्ल की शब्दावली में, 'विरुद्धों का सामंजस्य' करता आया है।"¹² लोकमंगल की सिद्धावस्था और साधनावस्था की तरह ही यहाँ भी उच्चतर भूमि विरुद्धों के सामंजस्य की है। संस्कृतियों केसंघर्ष में, जिसका नवीनतम उदाहरण 19वीं शती का पुनर्जागरण है, उसने विरुद्धों का सामंजस्य किया।
जयशंकर प्रसाद की कामयनी में इसलिए स्पृहणीय दिखाते है कि मनुष्य की संस्कृति अपनी प्रकृति से सर्जनात्मक है। स्थूल स्तर पर मनुष्य की सृष्टि उसकी संतान है और सूक्ष्म स्तर पर उसकी रचना। मृत्यु की चुनौती से जूझने के लिए मनुष्य ने इन दोनों प्रकार की क्षमताओं का अविष्कार किया। दर्शन सर्ग में मनु श्रद्धा की पहिचान इस रूप में करते है-
"मनु ने देखा कितना विचित्र।
वह मातृ-मूर्ति थी विश्व मित्र।।"¹³
संदर्भ ग्रंथ;
- काव्य और कला का अन्य निबंध : जय शंकर प्रसाद, भारती भंडार, इलाहाबाद पंचम संस्करण 1958
- हिन्दी साहित्य का इतिहास-शुक्ल-नागरी प्रचारिणी सभा-काशी-1945
- दूसरी परंपरा का खोज: नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली-1982
- उर्दू कविता पर बातचीत : रघुवीर सहाय, 'फिराक' तरुण कार्यालय-इलाहाबाद-1945
- भारतेन्दु युग और हिंदी भाषा का परंपरा : रामविलास शर्मा, राजकमल नई दिल्ली-1975 प्रकाशन,
- आधुनिक कवि-रामनरेश त्रिपाठी-हिन्दी साहित्य सम्मेलन - इलाहाबाद-1962
- आधुनिक साहित्यः नंददुलारे वाजपेयी – भारती भंडार, इलाहाबाद-1950
- कामायनी की अलोचना-प्रक्रियाः गिरिजा राय - लोकभारती प्रकाशन-इलाहाबाद-1983
- हिन्दी नाटय साहित्य (ग्रंथपुटी) : (सं.) कृष्णाचार्य अनामिका, कलकत्ता - 1966
- हिन्दी अलोचना बीसवी शताब्दीः निर्मला जैन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली-1975
- कवि दृष्टि : अज्ञेय-लोक भारतीय प्रकाशन- इलाहाबाद-1983
- जय शंकर प्रसाद- नंददुलारे वाजपेयी -भारती भंडार, इलाहाबाद-1958
- आधुनिक साहित्य-नंद दुलारे वाजपेयी- भारती भंडार, इलाहाबाद-1950
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास की रचना प्रक्रिया : समीक्षा ठाकुर, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद-1996
- साहित्य का उद्देश्य : प्रेमचंद, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद-1954
- हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास रामस्वरूप चतुर्वेदी - 25वीं संस्करण - 2011
- आदिनारायण बादावत
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