Scholars who spread Hindi in South India, Former Member of Rajya Sabha Moturi Satyanarayana Biography in Hindi, Hindi Sevi Moturi Satyanarayana Jivan Parichay.
Padma Bhushan Dr. Moturi Satyanarayana
Suprasiddh Hindi Sevi : दक्षिण भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक, हिन्दी के प्रचार-प्रसार-विकास के युग-पुरुष, दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार आन्दोलन के संगठक पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण जीवन और लेखन। मोटूरि सत्यनारायण जी जब संसद सदस्य थे तब वे केंद्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल, आगराके अध्यक्ष रहे एवं उनके अध्यक्ष काल में केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा ने प्रारंभिक दौर का सफल सफल तय किया। केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा की शैक्षिक गतिविधियों ने अखिल भारतीय ख्याति अर्जित की। पढ़िए पूरा लेख और शेयर कीजिए।
Dr. Moturi Satyanarayana Ka Vyaktitv Aur Krititv
पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
व्यक्तित्व : पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अवलोकन से ज्ञात होता है कि वे एक मौलिक एवं प्रतिभा सम्पन्न सर्जक चिंतक थे। वे दक्षिण भारत और उत्तर भारत को जोडने वाले सांस्कृतिक सेतु थे और उनका सेतु हिन्दी की मिट्टी से निर्मित था। समूची भारतीय भाषाओं के प्रति उनके मन में अगाध सम्मान था तथा वे राष्ट्रभाषा हिन्दी को भारत राष्ट्र के शरीर का हृदय मानते थे। वे कोरे राजनैतिक नेता ही नहीं एक भविष्यद्रष्टा चिंतक थे जो हिन्दी भाषा के भावी भविष्य की सार्थक परिकल्पना अपने मन-मस्तिष्क में संजोते रहते थे। वे इस बात को भलिभाँति जानते और समझते थे कि समूची भारतीय भाषाओं को एक साथ लेकर चलने की क्षमता मात्र हिन्दी भाषा में है। मोटूरि सत्यनारायण लोक जीवन में हिन्दी भाषा की बढ़ती साख को अच्छी प्रकार से पहचानने की तीव्र दृष्टि रखने वाले सजग व्यक्ति थे।
उनके समूचे जीवन काल का परिचय देखने और जानने पर ज्ञात होता है कि उनका व्यक्तित्व विविध आयामों से भरा हुआ है। प्रत्येक आयाम में झाँकने पर राष्ट्र के प्रति समर्पण भाव की खुशबू आती है। वे विराट व्यक्तित्व के धनी थे। उनके व्यक्तित्व को देखने पर ज्ञात होता है कि वे समाज सेवी, कुशल और सचेत राजनैतिक कार्यकर्ता, राजनैतिक नेता, हिन्दी प्रचार, संगठनकर्ता, शिक्षा शास्त्री, भाषाविद्, चिंतक रचनाकार एवं संविधान सभा के सक्रिय सदस्य थे। देश की कई स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं से उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष संबंध रहा है। वे लम्बे समय तक दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास के प्रधान सचिव रहे। उन्होंने इतनी निष्ठा से दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का कार्य देखा कि वे अपने जीवन काल में ही उसके पर्याय बन गए।
मोटूरि सत्यनारायण जी जब संसद सदस्य थे तब वे केंद्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल, आगराके अध्यक्ष रहे एवं उनके अध्यक्ष काल में केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा ने प्रारंभिक दौर का सफल सफल तय किया। केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा की शैक्षिक गतिविधियों ने अखिल भारतीय ख्याति अर्जित की।
मोटूरि सत्यनारायण का व्यक्तित्व निराडंबर था। वे शैक्षिक चेतना के जागरूक सिपाही थे उन्हें इसीलिए असाधारण कर्म-प्रतिभा का स्मारक माना जाता हैं। राष्ट्रपिता महात्मागांधी हिन्दी भाषा विषयक स्वप्न को जिन-जिन व्यक्तियों ने साकार किया उनमें मोटूरि सत्यनारायण का नाम भी सर्व प्रमुख है। समूचे हिन्दी तर राज्यों में और विशेष रूप से दक्षिण भारत के चारों राज्यों में उन्हें हिन्दी का मसीहा माना जाता है।
ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ दिवंगत हिन्दी सेवी विद्वान का जन्म 2 फरवरी, 1902 में आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के दोंडपाडु नामक गाँव में हुआ था। वे बहुभाषाविद् विद्वान थे। उन्हें तेलुगु, संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, तमिल, मराठी, उर्दू और बंगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मछलीपट्टणम की आन्ध्र जातीय कलाशाला में हुई थी। मोटूरिजी ने 1921 में गाँधी जी के निमंत्रण पर हिन्दी प्रचार आंदोलन में भाग लिया। 1921 से 1923 तक नेल्लूर जिले के संगठक, 1923 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन की स्वागत समिति के मंत्री, 1924 से 1927 तक आंध्र प्रांतीय हिन्दी प्रचार सभा के मंत्री, 1927 से दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के विविध अंगों में परीक्षा मंत्री, संयुक्त मंत्री आदि पदों पर काम किया। 1938 में सभा के प्रधान मंत्री बने । महात्मा गाँधी जी के आदेश से 1936 से 1938 तक वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की तरफ से सिंध, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्कल, बंगाल और असम में हिन्दी प्रचार का संगठन किया। सभा के मुख पत्र 'हिन्दी प्रचार समाचार' और 'दक्षिण भारत' का संपादन कार्य सँभाला।
केन्द्रीय सरकार की कई समितियों के सम्मानित सदस्य के रूप में भी मोटूरि सत्यनारायण जी का योगदान रहा है। केन्द्रीय प्रसार व सूचना, कृषि, खाद्य, शिक्षा आदि की समितियों के सदस्य रहे तथा राजभाषा आयोग के सदस्य, आंध्र यूनिवर्सिटी के हिन्दी बोर्ड के अध्यक्ष, भारत सरकार की शिक्षा सलाहकार समिति के सदस्य, केन्द्रीय हिन्दी शिक्षा समिति के सदस्य तथा केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मंडल, आगरा के अध्यक्ष पद पर भी रहे। वे अपने जीवन काल में कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं से भी जुड़े रहे। तेलुगु भाषा समिति के संगठक और मंत्री भी वे रहे तथा भारतीय सांस्कृतिक संघ के सदस्य भी।
1948 में वे भारतीय संविधान सभा के सदस्य चुने गए तथा बाद में भारतीय संसद के सदस्य। हिन्दी के प्रमाणिक प्रचारकों में उनका क्रमांक एक था। मोटूरि सत्यनारायण जी दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण के एक महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में आजीवन बने रहें। हिन्दी ही उनके जीवन दर्शन का अंग बन चुकी थी।
स्वराज प्राप्ति के आंदोलन के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता के आंदोलन में भी मोटूरि सत्यनारायण अपना सक्रिय योगदान जीवन पर्यंत करते रहे। हिन्दी प्रचार-प्रसार के कार्य से वे लगभग सात दशकों तक जुडे रहे तथा उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों हिन्दी प्रचारकों की एक सुयोग्य सेना तैयार की। उन्होंने हिन्दी प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में नई परंपरा का सूत्रपात किया। एक दीक्षांत भाषण में स्वयं उन्होंने स्वीकार किया था कि - "सत्तर वर्ष से ज्यादा समय हुआ मैं राष्ट्रभाषा के इस महत्वपूर्ण आंदोलन का अभिन्न अंग रहा और हजारों साथियों को जोड़ा तथा उनका सहयोग पाया।"³
बापूजी की सत्यनारायणजी पर अपार कृपा थी इसलिए "दूरदर्शी राष्ट्रपिता गांधीजी ने उनको दक्षिण के अलावा उत्तर के अन्य अहिन्दी प्रांतों में हिन्दी प्रचार का संचालन करने के लिए नियुक्त किया, और जो व्यक्ति गांधी जी की कसौटी पर खरा उतरा हो किसी और कसौटी पर खोटा नहीं हो सकता ।"⁵
गांधीजी के अलावा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरु, राजाजी, सरदार पटेल आदि देश के सभी गणमान्य राजपुरुषों तथा जननायकों का स्नेह उन्हें प्राप्त था। इतने सारे राष्ट्रनायकों का स्नेह उनके लिए परम सौभाग्य का प्रतीक था।
अधिक से अधिक भाषाएँ जानना उनकी विशेष अभिरुचि थी। वे जहाँ भी गये वहाँ उन्होंने नई भाषा सीखी। इस विषय में 'आरिगपूडि' लिखते हैं कि "सत्यनारायण जी तेलुगु भाषी है। हिन्दी उनकी मातृभाषा सी है। तमिल धड़ल्ले से बोलते हैं, कन्नड़ का ज्ञान रखते हैं, मलयालम समझते हैं। इनके अतिरिक्त मराठी, गुजराती, बंगला भी जानते हैं। अंग्रेजी के ज्ञाता तो हैं ही।"⁶
"दक्षिण भारत के महान् हिन्दी प्रचारक : श्री मोटूरि सत्यनारायणजी" नामक आलेक में श्री रामानंद शर्मा मोटूरिजी द्वारा अन्य भाषाओं के अभ्यास के विषय में लिखते हैं- "आन्ध्र से मद्रास आते ही आपने तमिल से पूरा परिचय प्राप्त कर लिया, वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री होते ही मराठी तथा बंगला की जानकारी बढ़ा ली। इस तरह सत्यनारायणजी कुछ ही दिनों में बहुभाषा-भाषी बन गये।"⁷
ज्ञान के प्रति उनके मन में पिपासा का भाव आजीवन बना रहा। देश के विभिन्न अंचलों की यात्रा करने एवं निरंतर बोलने के अभ्यास से वे एक कुशल वक्ता बन गये थे। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस विषय में कहा है-".
सत्यनारायणजी का उच्चारण इतना शुद्ध है और वे ऐसी धारा- प्रवाह हिन्दी बोलते हैं कि किसी हिन्दी भाषा-भाषी को यह शक भी नहीं हो सकता कि वे दक्षिण भारत के निवासी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे परमात्मा की भौगोलिक भूल है, उनका जन्म आन्ध्र के बजाय संयुक्त प्रांत में होना चाहिए था ।....."⁸
चिंतन एवं कृतित्व
मोटूरि सत्यनारायण का कृतित्व परिमाण की दृष्टि से बहुत अधिक नहीं है, किंतु जितना भी है वह ठोस है तथा नींव के पत्थर की भूमिका निभाने वाला रहा है। उन्होंने कम अवश्य लिखा है किंतु वह बहुविध है तथा नये सोच और नई दिशाओं की तलाश में आगे बढ़ाता है। मोटूरि सत्यनारायण के कृतित्व के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उनके चिंतन में संकुचित विचारों को कोई भी स्थान नहीं है। उन्होंने हिन्दी भाषा, राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संपर्कभाषा, नागरीलिपि, प्रयोजनमूलक हिन्दी, भारतीय संस्कृति और धर्म पर प्रगतिवादी दृष्टिकोण से सकारात्मक सोच के आधार पर मनन किया है। उनके कृतित्व से जो चिंतक व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब बनता है यह एक मानवतावादी गाँधीवादी विचारक के रूप में दिखाई पड़ता है। उन्होंने उदार हृदय से हर विषय पर विचार किया है। उनके विचारों में उत्तर-दक्षिण की विभेदक रेखा भी नजर नहीं आती। उनका कृतित्व उन्हें एक सच्चे राष्ट्रभक्त के रूप में प्रमाणित करता है।
मोटूरि सत्यनारायण स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् यह भली प्रकार से जान चुके थे कि यदि हिन्दी प्रचार के कार्य और हिन्दी प्रचार के आंदोलन को नई गति नहीं दी जाएगी तो हिन्दी पंगु भी हो सकती है। इसीलिए उन्होंने हिन्दी भाषा के सजग प्रहरी रूप में नई जरूरतों और जमाने की बदलती हवा का रुख पहचानकर हिन्दी के प्रयोजनमूलक स्वरूप की जोरदार वकालत की। उसके पक्ष में वातावरण निर्मित किया एवं उसे कार्यान्वित करने की दिशा में कुछ कदम भी उठाये। उनका वह सपना आज साकार हो गया है तथा तीव्र गति से एक सुव्यवस्थित आकार ग्रहण करता जा रहा है।
मोटूरि सत्यनारायण का एक रूप उनके लेखक का रूप है। तत्कालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन्होंने अपने लम्बे अनुभव के आधार पर कुछ कृतियों का निर्माण तथा संपादन किया। इस कार्य को उन्होंने स्वयं भी किया तथा अपने सहयोगियों के सहयोग से भी पूरा किया। "सभा के प्राणस्वरूप पंडित अवधनंदनजी के साथ बैठकर सत्यनारायणजी ने अंग्रेजी में 'स्वबोधिनी' रची,.....। उसके आधार पर दक्षिण की सभी भाषाओं में स्वबोधिनियाँ लिखी गयीं, जिनके कारण हिन्दी प्रचार में बड़ी प्रगति प्राप्त हुई। 'स्वबोधिनी' के अलावा सत्यनारायणजी ने अपने देश के महान चरित्रों के शब्द-चित्र भी हिन्दी में प्रस्तुत किये हैं। साथ ही मराठी, हिन्दी, गुजराती आदि से तेलुगु में आपने अनुवाद भी किया है। "दक्खिनी हिन्दी" मासिक में आपके कई ऐसे लेख प्रकाशित हुए हैं, जिनकी प्रशंसा बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे विश्रुत विद्वानों तक ने मुक्तकंठ से की है।"⁹ मोटूरि सत्यनारायण के चिंतन के पास विचारों का अटूट स्रोत था। उनके कितने ही विचार जो उन्होंने समय-समय पर अपने भाषणों में व्यक्त किये थे लिपि-बद्ध न होने के कारण अनुपलब्ध हैं।
मोटूरि सत्यनारायण के चिंतन के आलोक को जानने के लिए उनके कृतित्व का संक्षेप में परिचय जान लेना अत्यावश्यक है। 'हिन्दी प्रचार का इतिहास' नामक अभिनंदन ग्रंथ के द्वितीय भाग में उनके 18 आलेख प्रकाशित हैं। इन आलेखों का विस्तृत विवेचन तो यहाँ संभव नहीं है। किंतु शीर्षक मात्र पढ़कर यह ज्ञात किया जा सकता है कि उनके चिंतन का दायरा कितना विस्तृत और गहरा था।
आलेखों की अनुक्रमणिका निम्न प्रकार है -
(क) भाषावार राज्य
(1) प्रजातंत्र भारत में भाषावार राज्य,
आन्ध्र-अभ्युदय
(17) भारत के नक्शे पर आंध्र राज्य,
(18) आंध्र राज्य की जल-शक्ति ।
उपर्युक्त आलेखों में कुछ ऐसे हैं जिनमें श्री मोटूरि सत्यनारायण जी ने सप्रमाण ढंग से अपनी शोध परक पैनी दृष्टि से अपनी बात को समझाने का प्रयास किया है। हिन्दी और भारतीय भाषाओं पर उन्होंने व्यापक चिंतन मनन किया था। ये लेख उसके ठोस एवं आधारभूत प्रमाण हैं।
मोटूरि सत्यनारायण के उपर्युक्त आलेखों के अतिरिक्त ग्रंथों तथा आलेखों की सूची निम्न प्रकार है-
1. समन्वय का सूत्र हिन्दी : यह रचना भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद स्मारण व्याख्यान माला के अन्तर्गत सन् 1979 में इसे प्रकाशित किया गया था।
2. हिन्दी का भावी रूप (आकाशवाणी पुस्तक माला-2) आकाशवाणी द्वारा प्रसारित वार्ताओं में से एक वार्ता मोटूरिजी की इस कृति में संग्रहीत है। इसका प्रकाशन भी 1956 में सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा किया गया था।
3. भारतीय भाषाओं में विश्वकोश (आलेख)
- 'दक्षिण भारत' (त्रैमासिक) अंक 81 अक्तू. नव. दि., 1995
- 'दक्षिण भारत' हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास । अक्तू. नव. दि., 1995
4. गांधीजी ओर मैं : (आलेख)
- हिन्दी प्रचार समाचार, जुलाई, 1995,
- 'दक्षिण भारत' हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास ।
5. भाषा द्वारा भारत के साथ तादात्म्य : (आलेख)
- हिन्दी प्रचार समाचार, नव. 1995 मद्रास ।
6. भाषा संबंधी विचार (अनूदित आलेख)
- हिन्दी प्रचार समाचार, अगस्त, 1995, मद्रास ।
7. श्री मोटूरि सत्यनारायण का दीक्षांत भाषण : (आलेख)
- 10 जन. 1993 को 57 वें दीक्षांत समारोह के अवसर पर प्रकाशित ।
- 'दक्षिण भारत' हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास ।
उपर्युक्त ग्रंथों तथा आलेखों के अतिरिक्त कितनी ही रचनाएँ उनकी तेलुगु, तमिल तथा हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं।
हिन्दी की विविध भूमिकाओं पर एक नया विचार मोटूरिजी ने हिन्दी संसार के समक्ष प्रस्तुत किया "हिन्दी को संघराज्य की प्रशासनिक भाषाई भूमिका, सामाजिक संस्कृति के विकास की भूमिका तथा सातों राज्यों की प्रादेशिक भाषा की भूमिका के अलावा कितनी और भूमिकाएँ निभानी है।"¹⁰
"हिन्दी को सार्वदेशिक भाषा के रूप में विकसित करने के लिए उसे जो तरह-तरह की भूमिकाएँ निभानी हैं, इस पर विचार होना चाहिए। हिन्दी की भूमिकाएँ इस प्रकार हो सकती है : 1. प्रादेशिकता की भूमिका, 2. राष्ट्रीयता की भूमिका, 3. संघ राज्य प्रशासन की भूमिका, 4. सार्वदेशिकता की भूमिका, 5. जनपदीय भूमिका, 6. अंतप्रादेशिकता की भूमिका, 7. सांस्कृतिक-सामाजिकता की भूमिका, 8. अंतर्राष्ट्रीय भारतीयता की भूमिका, 9. भारतीय संस्कृति के प्रतीकत्व की भूमिका और 10. अंतर्राष्ट्रीय माध्यम की भूमिका"¹¹
प्रयोजन मूलक हिन्दी की आवश्यकता पर विशेष बल देते हुए उन्होंने स्वीकार किया है कि - "अब समय आ गया है कि यह सोचा जाये कि हिन्दी का कार्य संघ राज्य, प्रादेशिक राज्यों के बीच अंतर प्रादेशिक भूमिका कैसे निभाये और उसके लिए पाठ्य क्रम क्या बनाया जाये और सभी प्रयोजनों को साधने के लिए प्रयोजनमूलक हिन्दी का आयाम किस तरह प्रस्तुत किया जाये और उसके लिए क्या कार्यक्रम बनाया जाये।"
राष्ट्रभाषा परीक्षा के बाद समानांतर रूप से क्रमबद्धता को ध्यान में रखकर प्रयोजन मूलक हिन्दी का पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए।" भाषा को वे सांस्कृतिक माध्यम मानते थे। साथ ही संपर्क भाषा को राष्ट्र निर्माण का अनिवार्य हिस्सा मानते थे- "न्याय और अधिकार के अवसर प्राप्त करने के लिए एक संपर्क भाषा की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए देश की भाषाई विविधता को देखते हुए साम्प्रदायिक अनेकता, विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग में आने वाले शब्दों की बहुलता, विस्तार व्यापन और सुगमता को ध्यान में रखते हुए ओर साथ ही साथ इस देश को एक सुदृढ राष्ट्र बनाने हेतु एक सशक्त भाषा माध्यम के निर्माण करने के उद्देश्य से राष्ट्रभाषा का निर्माण करना होगा।"
- हेमराज मीणा 'दिनकर'
ये भी पढ़ें;