भारतीय हिरन : Deer of India

Dr. Mulla Adam Ali
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Indian Deer and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Hiran in Hindi.

Indian Deer : Indian Wildlife

indian deer history

Wildlife of India : Deer is usually an animal that lives in dense forests, mountain forests, swampy areas and grasslands. It is also found in the snowy parts of the tundra, but is not seen in desert regions...

Bharatiya Hiran

भारतीय हिरन

हिरन सर्वोडाई परिवार का एक सुन्दर स्तनपायी जीव है। इसे विश्व का सबसे प्राचीन जुगाली करने वाला वन्यप्राणी माना जाता है। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार लगभग दो करोड़ पचास लाख वर्ष पूर्व यूरोप और एशिया के वनों में छोटे आकार के हिरन जैसे जीव पाये जाते थे। इनमें से कुछ के सींग या मृगशृंग नहीं थे, किन्तु बाहर की ओर निकले हुए दो बड़े-बड़े कैनाइन दांत थे। आगे चल कर कुछ का आकार बढ़ गया। उत्तरी अमरीका का दैत्याकार मूस (जाइन्ट मूस) तथा आयरलैन्ड का दैत्याकार एल्क (जाइन्ट एल्क) ऐसे ही विशालकाय हिरन थे, जो कुछ लाख वर्ष पूर्व इस धरती से समाप्त हो गये। इनके मृगशृंग बहुत बड़े तथा भारी थे। इस समय विश्व में हिरनों की लगभग 40 जातियां तथा 190 उपजातियां पायी जाती हैं। इनमें उत्तरी अफ्रीका, एशिया और यूरोप का लाल हिरन, उत्तरी अमरीका का एल्क, जापान का वापिती तथा भारत का सांभर प्रमुख हैं।

हिरन प्रायः घने जंगलों, पर्वतीय वनों, दलदल वाले स्थानों एवं घास के मैदानों में रहने वाला जीव है। यह टुन्ड्रा के बर्फीले भागों में भी पाया जाता है, किन्तु रेगिस्तानी प्रदेशों में देखने को नहीं मिलता।

भारत में हिरनों की 9 जातियां पायी जाती हैं। ये हैं, सांभर, बारहसिंघा, हांगुल, संगाई, चीतल, सूकरमृग, कांकड़, कस्तूरीमृग तथा पिसूरी मृग। इनमें सांभर घने जंगलों में, चीतल जंगल के छोर के खुले स्थानों पर, बारहसिंघा दलदल वाले भागों में, कस्तूरीमृग तथा हांगुल पर्वतीय वनों में और संगाई तैरते हुए भूखण्ड़ों पर रहना पसन्द करता है। हिरनों में चीतल सबसे सरल और सीधा होता है। इसे बारहसिंघा, नीलगाय, कृष्णमृग आदि के साथ भी चरते हुए देखा जा सकता है। चीतल और लंगूरों की मित्रता तो बहुत प्रसिद्ध है। ये एक दूसरे को देखते ही आपस में घुल-मिल जाते हैं। मादा सांभर भी बारहसिंघा के झुण्ड में सम्मिलित हो जाती है, किन्तु नर सांभर हमेशा सबसे अलग रहता है। मैना तथा इसी प्रकार के दूसरे पक्षी तो हिरनों के साथ हमेशा ही रहते हैं। ये हिरनों के चलते समय जमीन से निकलने वाले कीड़े-मकोड़ों को बड़े शौक से खाते हैं। भारतीय हिरनों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी इसी पुस्तक में आगे दी गयी है।

हिरन की विभिन्न जातियों के आकार और संरचना में काफी अन्तर होता है। कुछ हिरन बैल के समान बड़े आकार के होते हैं तो कुछ कुत्ते से भी छोटे होते हैं। विश्व का सबसे बड़ा हिरन अलास्का का मूस है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 229 सेन्टीमीटर तक पायी गयी है। विश्व का सबसे छोटा हिरन दक्षिण अमरीका का पुडु है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 35 सेन्टीमीटर के आसपास होती है। हिरन के जबड़ों में 32 अथवा 34 दांत होते हैं। यह संख्या इस तथ्य पर निर्भर करती है कि हिरन के कैनाइन दांत हैं या नहीं। कस्तूरी मृग के कैनाइन दांत विकसित होकर कांपों की तरह मुंह के बाहर निकल आते हैं तथा लड़ते समय शस्त्र का काम करते हैं। हिरनों के पित्ताशय नहीं होता, किन्तु कस्तूरी मृग एकमात्र ऐसा हिरन है, जिसके पित्ताशय होता है। इसकी पेट के नीचे के भाग में एक थैली पायी जाती है, जिसे नाभा कहते हैं। इसी नाभि में कस्तूरी रहती है। प्रायः सभी नर हिरनों के मृगश्रृंग होते हैं, किन्तु कस्तूरी मृग के मृगश्रृंग नहीं होते। मृगश्रृंग एक प्रकार के प्रतिवर्ष गिरने वाले सींग होते हैं, जो केवल नर हिरनों में ही पाये जाते हैं, किन्तु उत्तरी टुन्ड्रा और शंकुधारी वनों में रहने वाले लाल हिरन में नर और मादा दोनों के मृगशृंग होते हैं। इसके अभी तक के सबसे भारी मृगशृगों का कीर्तिमान 29.6 किलोग्राम का है। भारत में पाया जाने वाला कांकड़ ऐसा हिरन है, जिसके मृगश्रृंगों के साथ ही कस्तूरीमृग के समान कांपें भी होती हैं। यह इन दोनों का उपयोग लड़ते समय शस्त्र के रूप में करता है। प्रांगबक एक ऐसा वन्यजीव है जो न तो पूरी तरह हिरन है और न ही गवय। मृगश्रृंगों के स्थान पर इसके सींग होते हैं, किन्तु ये प्रतिवर्ष मृगश्रृंगों के समान गिर जाते हैं।

हिरन के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करने के पहले मृगशृंग और सींग का अन्तर समझना आवश्यक है। सींग केवल एक बार निकलते हैं, जबकि मृगशृंग प्रतिवर्ष निकलते हैं। पारस्परिक युद्ध आदि के समय टूट जाने पर सींग दुबारा नहीं निकलते, जबकि मृगश्रृंग प्रतिवर्ष समागम काल के पूर्व निकलना आरम्भ हो जाते हैं और समागम काल की समाप्ति के बाद स्वतः गिर जाते हैं। सींग प्रायः नर और मादा दोनों के होते हैं, जबकि मृगश्रृंग केवल नर हिरनों के ही पाये जाते हैं। सींगों का निर्माण उन्हीं तत्वों से होता है जिनसे नाखून, खुर, पंख, शल्क आदि बनते हैं, अर्थात् ये निर्जीव होते हैं, जबकि मृगश्रृंगों में जीवन होता है। यदि अपरिपक्व मृगश्रृंग को काटा जाये तो उससे खून निकलता है। सींगों की शाखाएं नहीं होतीं, जबकि मृगशृंगों की 3 से 5 तक शाखाएं होती हैं। कभी-कभी इन शाखाओं की संख्या अधिक भी हो सकती है। प्रायः दोनों सींगों की संरचना एवं आकार समान होता है, किन्तु मृगशृंग आकार और संरचना में एक दूसरे से भिन्न होते हैं। सींगों का आयु से विशेष सम्बन्ध नहीं होता, जबकि मृगश्रृंगों का आयु से सीधा सम्बन्ध होता है। जैसे-जैसे हिरन की आयु बढ़ती है, उसके मृगशृंग भी बढ़ते जाते हैं और जब वह बूढ़ा होने लगता है तो मृगशृंग घटने लगते हैं।

indian deer and it's species
Bharatiya Hiran

हिरनों के मृगशृंगों का आकार और स्वरूप एक दूसरे से भिन्न होता है। कुछ हिरनों के मृगशृंग 10 सेन्टीमीटर से भी छोटे होते हैं तो कुछ का आकार एक मीटर से भी अधिक होता है। यही अन्तर इनकी शाखाओं में भी होता है। कुछ हिरनों के मृगशृंगों में मात्र 3-3 ही शाखाएं होती हैं, जबकि बारहसिंघा जैसे हिरन में इसकी संख्या 20 तक हो सकती हैं।

हिरन के मृगशृंगों का विकास उनके कपाल के ऊपरी भाग से आरम्भ होता है। सर्वप्रथम सर के ऊपर दो कोमल गांठें निकलती हैं, जिनके ऊपर मखमली त्वचा का आवरण होता है। इन गांठों का तेजी से ऊपर की ओर विकास होता है और ये शीघ्र ही शंकु के आकार में बदल जाती हैं। अल्पवयस्क हिरनों के केवल नुकीले शंकु ही होते हैं। हिरन की आयु में वृद्धि के साथ ही इसके मृगशृंगों का भी विकास होता है। उदाहरण के लिए नर सांभर के पहले वर्ष केवल नुकीले शंकु जैसे मृगशृंग निकलते हैं और परिपक्व होकर गिर जाते हैं। दूसरे वर्ष बड़े आकार के शंकु जैसे मृगश्रृंग निकलते हैं और इनमें आधार के पास से शाखाएं फूटती हैं। मृगश्रृंगों की शाखाओं के विकास के बाद इनका आकार बढ़ता है और पूर्ण विकसित होने के बाद ये प्रतिवर्ष गिर जाते हैं तथा पुनः नये मृगशृंग निकलते हैं। हिरने की आयु के विकास के साथ ही इसके मृगश्रृंगों का आकार भी बढ़ता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सर्वाधिक आयु के हिरन के सबसे बड़े मृगशृंग हों।

नवविकसित मृगश्रृंगों पर मखमल के समान कोमल बालों वाली मोटी त्वचा का आवरण होता है। इस त्वचा में बहुत-सी रक्त नलिकाएं होती हैं, जिनमें ताजा रक्त प्रवाहित होता रहता है। इस समय हिरन के मृगशृंग बड़े कमजोर तथा संवेदनशील होते हैं। इनकी सुरक्षा के लिए प्रायः घने जंगलों में रहने वाला हिरन भी मैदानी भागों में या खुले स्थानों पर आ जाता है तथा आक्रमण या सुरक्षा के लिए अपने मृगश्रृंगों का उपयोग नहीं करता है।

मृगशृंगों के परिपक्व हो जाने पर कपाल के ऊपरी भाग में इनके आधार के मध्य हड्डियों का एक छल्ला विकसित होता है, जो मृगश्रृंगों की मखमली त्वचा में खून का प्रवाह रोक देता है, जिससे कुछ ही समय में मखमली त्वचा सूख कर सिकुड़ जाती है। अब हिरन को हल्की-सी बेचैनी अनुभव होती है। अतः वह इसे अलग करना चाहता है। इसके लिए अधिकांश हिरन किसी वृक्ष के तने से अपने मृगश्रृंग रगड़ते हैं। सांभर की पसन्द का एक विशेष वृक्ष होता है, जिससे वह हमेशा अपने मृगशृंग रगड़ता है। बारहसिंघा अपने निवास के आस-पास की लम्बी और कठोर घास से मृगशृंग रगड़कर उनकी मखमली त्वचा अलग करता है। नये आवरणविहीन मृगशृंग बड़े सुन्दर, आकर्षक और मजबूत होते हैं। इस समय प्रत्येक हिरन को इनकी आवश्यकता होती है, क्योंकि यह उनका समागम-काल होता है। समागम-काल में अधिकांश हिरन अपनी क्षेत्रसीमा निर्धारित करते हैं तथा हरम बनाते हैं। इन्हें क्षेत्रसीमा की रक्षा के लिए तथा मादाओं की प्राप्ति के लिए प्रायः दूसरे नर हिरनों से लड़ाई करनी पड़ती है, जिसमें मृगश्रृंग शस्त्र का कार्य करते हैं। ये कभी एक दूसरे पर अपने मृगशृंगों से आक्रमण करते हैं तो कभी मृगश्रृंगों में मृगश्रृंग फंसा कर एक दूसरे को पीछे धकेलने या गिराने का प्रयास करते हैं। कभी-कभी तो लड़ते समय इनके मृगशृंग एक दूसरे से इतने अधिक उलझ जाते हैं कि अलग ही नहीं हो पाते। इस प्रकार की स्थिति में प्रायः दोनों हिरन मर जाते हैं। बॉम्बे नेचुरल सोसायटी के संग्रहालय में चीतल के मृगशृंगों का एक इस प्रकार का जोड़ा आज भी सुरक्षित है। यह मध्यप्रदेश के एक जंगल में पाया गया था। हिरन अपने मृगशृंगों का उपयोग एक शस्त्र की तरह सीमाक्षेत्र एवं हरम की सुरक्षा के लिए करता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है। स्कॉटलैण्ड का मृगशृंगविहीन लाल हिरन बड़ी सरलता से अपने हरम की रक्षा मृगशृंग वाले हिरनों से कर लेता है। लाल हिरन एक लड़ाकू हिरन है। मृगशृंग वाले प्रतिद्वन्द्वी की पसलियों पर कभी-कभी इसके सर की चोट इतनी घातक पड़ती है कि वह शीघ्र ही पराजित होकर भाग खड़ा होता है।

हिरनों में मृगशृंग समागम-काल के बाद स्वतः गिर जाते हैं। इनके गिरने की भी सीधा सम्बन्ध इनकी आयु से होता है। नव वयस्क हिरनों के मृगश्रृंग शीघ्र गिरते हैं, जबकि प्रौढ़ हिरनों के मृगशृंग देर से गिरते हैं। हिरन के मृगशृंगों के गिरने का सम्बन्ध मौसम और भोजन से भी होता है। जीव वैज्ञानिकों का मत है कि हिरनों का प्रमुख भोजन घास, झाड़ियां तथा विभिन्न प्रकार की जंगली वनस्पतियां होती हैं। इनमें कैल्सियम की मात्रा अधिक होती है। जिस स्थान पर हिरनों को पर्याप्त मात्रा में भोजन मिलता है, वहां इनके मृगश्रृंग तेजी से निकलते हैं और कैल्सियम की अधिकता के कारण जल्दी गिर जाते हैं। प्रायः बड़े आकार के हिरन अधिक भोजन करते हैं। अतः उनके शरीर में अधिक कैल्सियम पहुंचता है। इसलिए इनके मृगश्रृंग भी बड़े होते हैं। मादा हिरनों में यह कैल्सियम उनके पेट में पल रहे बच्चों के निर्माण में काम आता है। सामान्य वन्य जीवों की तरह हिरनों को भी कैल्सियम बहुत पसन्द है। जिन स्थानों की मिट्टी में लवण या कैल्सियम कम होता है, वहां के हिरन अपने ही गिरे हुए मृगशृंग तथा इनका उतरा हुआ मखमली आवरण खा कर अपने शरीर की कैल्सियम की कमी को पूरा करते हैं।

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Indian Deer : Indian Wildlife

हिरन की शारीरिक संरचना पर इसके आस-पास के पर्यावरण का पूरा प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत के तराई वाले भागों में पाया जाने वाला बारहसिंघा दलदल वाले क्षेत्रों में रहता है। अतः इसके पैरों की संरचना इस प्रकार की होती है कि यह दलदल वाली भूमि पर सरलता से विचरण कर सके। इसके विपरीत मध्य भारत के पहाड़ी और घास के समतल मैदानों में पाये जाने वाले बारहसिंघा के पैर छोटे, कठोर तथा इस प्रकार के होते हैं कि वह सूखी एवं कठोर जमीन पर सरलता से भाग सकता है। शारीरिक संरचना सम्बन्धी ऐसा ही अन्तर हिरन के कानों में भी देखा जा सकता है। सांभर घने जंगलों में रहता है और बारहसिंघा ऊंची-ऊंची घास वाले तराई प्रदेश में। इन दोनों ही स्थानों पर अधिक दूर तक नहीं देखा जा सकता। अतः केवल श्रवण-शक्ति के द्वारा ही शत्रु की उपस्थिति मालूम की जा सकती है। सम्भवतः यही कारण है कि सांभर और बारहसिंघा के कान बड़े होते हैं। इसके विपरीत चीतल को तीव्र श्रवण-शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि वह बहुत कम घने जंगलों अथवा जंगल से लगे हुए भागों में रहने वाला हिरन है, इसीलिए चीतल के कान छोटे होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि घने जंगलों में रहने वाले हिरनों की दृष्टि साधारण होती है, किन्तु घ्राण-शक्ति और श्रवण-शक्ति तीव्र होती है। जबकि खुले भागों में पाये जाने वाले हिरनों की दृष्टि तेज होती है और श्रवण-शक्ति तथा घ्राण-शक्ति घने जंगलों में पाये जाने वाले हिरनो की तुलना में सामान्य होती है।

हिरन जुगाली करने वाला शाकाहारी प्राणी है। इसका प्रमुख भोजन घास-फूस, फल-फूल, पत्तियां, झाड़ियां तथा विभिन्न प्रकार की जंगली वनस्पति आदि है। हिरन दिवाचर है, अर्थात् केवल दिन में विचरण करता है। इसके झुण्ड प्रातःकाल होते ही चरने के लिए निकलते हैं और दोपहर होने तक चरते हैं। इसके बाद तेज धूप होने पर ये छायादार वृक्षों या चट्टानों की ओट में आराम करते हैं। धूप की तेजी कम होने पर ये पुनः चरना आरम्भ कर देते हैं और सूर्यास्त तक चरते हैं। हिरनों के छोटे-छोटे झुण्ड चरते समय एक दूसरे से मिल जाते हैं और एक बड़ा झुण्ड बना लेते हैं। इनके झुण्ड में सदस्यों की संख्या भोजन पर निर्भर करती है। यदि अधिक भोजन उपलब्ध होता है तो झुण्ड बड़े हो जाते हैं और भोजन की कमी होने पर झुण्ड में सदस्यों की संख्या कम हो जाती है। इस समय केवल छोटे-छोटे झुण्ड ही देखने को मिलते हैं। कुछ हिरन सांभर के समान खेतों में खड़ी फसल खाते हैं। ये प्रायः रात्रि के समय निकलते हैं और खेतों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। कभी-कभी ये अन्य शाकाहारी वन्य जीवों के साथ उन वृक्षों के नीचे आकर खड़े हो जाते हैं, जिन पर बन्दर चढ़े हों। ये बन्दरों द्वारा गिराये गये फल तथा पत्तियां आदि भी बड़े शौक से खाते हैं। सामान्य वन्यजीवों की तरह हिरन भी अपने शरीर में कैल्सियम की कमी को पूरा करने के लिए नमकीन मिट्टी चाटता रहता है। जिन स्थानों की जमीन में कैल्सियम तथा अन्य लवण नहीं होते, वहां के हिरन गिरे हुए मृगशृंग तथा इनकी मखमली त्वचा खाकर कैल्सियम एवं अन्य लवणों की कमी को पूरा करते हैं। रेड डियर और कैरिवू इसके उदाहरण हैं।

हिरन के प्रमुख शत्रु हैं-शेर, तेंदुआ तथा जंगली कुत्ते। कभी-कभी इन पर मगरमच्छ भी आक्रमण कर देता है और इन्हें अपना आहार बना लेता है। भेड़िया, लोमड़ी तथा इसी प्रकार के छोटे मांसाहारी जीव इनके बच्चों का शिकार करते हैं। हिरन झुण्ड में प्रायः सुरक्षित रहता है, किन्तु अकेले या दो-तीन के छोटे से झुण्ड में इसका आसानी से शिकार किया जा सकता है।

प्रायः सभी हिरन अपने मुंह से विभिन्न प्रकार की आवाजें निकाल कर या विशिष्ट संकेतों द्वारा एक दूसरे को संदेश देने या एक दूसरे से सम्पर्क करने का कार्य करते हैं। ये खतरा होने पर या हिंसक जीव के निकट होने पर विशेष प्रकार की आवाजें निकाल कर अपने साथियों तथा जंगल के अन्य जीवों को सावधान करते हैं। खतरा निकट होने पर ये कभी-कभी अपने मुंह से आवाजें न निकाल कर अपने पैर पटकते हैं, जिससे इनके साथी सचेत हो जाते हैं। समागम-काल में नर हिरन मादाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए, अपने क्षेत्र पर अपना अधिकार प्रदर्शित करने के लिए तथा प्रतिद्वन्द्वी नर को चेतावनी देने के लिए अपने मुंह से विभिन्न प्रकार की शानदार आवाजें निकालता है। समागम-काल में चीतल द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वी को ललकारने की आवाज में इतना आकर्षण होता है कि मादा चीतल उसकी ओर खिंची चली आती है। हिरन के बच्चे भी अपनी मां से सम्पर्क स्थापित करने के लिए विशेष प्रकार की मिमियाने की आवाजें निकालते हैं तथा संकेत देते हैं।

हिरनों के शरीर में पायी जाने वाली ग्रन्थियां भी एक दूसरे के मध्य सम्पर्क और सन्देशों के आदान-प्रदान का कार्य करती हैं। प्रायः सभी हिरनों की आंखों के नीचे तथा दोनों खुरों के बीच में ग्रन्थियां होती हैं, जिनसे विशेष प्रकार की गन्ध निकलती है। ये ग्रन्थियां समागम-काल में अधिक सक्रिय हो जाती हैं। घने जंगलों में रहने वाले हिरनों की ग्रन्थियां अधिक विकसित होती हैं। प्रायः घने जंगलों में पास की चीजें भी सरलता से नहीं दिखाई देतीं। अतः नर और मादा एक-दूसरे की उपस्थिति इन्हीं ग्रन्थियों की सहायता से मालूम करते हैं।

हिरनों का सामाजिक संगठन बड़ा रोचक होता है। सामान्यतया बड़े आकार के सभी हिरन झुण्ड में रहते हैं। इनमें नर और मादा केवल समागम-काल में ही मिलते हैं। समागम-काल में नर हरम बनाता है, जिसमें अनेक मादाएं होती हैं। समागम-काल के बाद हरम टूट जाते हैं। अब नर अन्य नर हिरनों के साथ रहता है तथा मादाएं और बच्चे मिल कर अलग झुण्ड बनाते हैं। हिरन परिवार में मादा की प्रधानता होती है। मादा हिरन ही सदा झुण्ड का नेतृत्व करती है एवं अपने साथियों की देखभाल करती है। हिरन के बच्चे वयस्क होने तक मादा के साथ रहते हैं। मादा हिरन केवल बच्चों का पालन-पोषण एवं सुरक्षा ही नहीं करती, बल्कि उन्हें विभिन्न प्रकार का प्रशिक्षण भी देती है।

मादा हिरनों का झुण्ड एक प्रकार का हिरन परिवारों का समूह होता है, जिसमें विभिन्न आयु की मादाओं के साथ ही नवजात बच्चों से लेकर ढ़ाई-तीन वर्ष तक के हिरन रहते हैं। इनमें एक विशेष प्रकार की अनुशासन व्यवस्था होती है। कभी-कभी दो-तीन छोटे-छोटे झुण्ड आपस में मिलकर एक बड़ा झुण्ड बना लेते हैं, किन्तु बड़े झुण्ड में भी नेतृत्व का कार्य अनुभवी मादा ही करती है। वह विश्राम करते समय अपनी गर्दन ऊंची करके बैठती है और सदैव सतर्क रहती है। उसकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। झुण्ड का नेतृत्व करने वाली मादा की एक सहायक भी होती है, जो नेतृत्व करने वाली मादा की अनुपस्थिति में झुण्ड का नेतृत्व करती है। समागम-काल में भी झुण्ड पर मादा का नेतृत्व बना रहता है। मादा हिरन में नेतृत्व का गुण जन्म से ही होता है। प्रायः यह देखा गया है कि दो वर्ष की आयु तक नर अपनी सुरक्षा के लिए अधिक जागरूक नहीं होता, जबकि मादा एक वर्ष की आयु से ही केवल अपनी ही नहीं, अपने झुण्ड की सुरक्षा के प्रति भी जागरूक हो जाती है। मादा हिरन की इस जागरूकता को दोपहर में आराम करते समय तथा खतरे के समय सरलता से देखा जा सकता है।

हिरनों का समागम बड़ा रोचक होता है। जैसा कि अभी-अभी बताया जा चुका है कि प्रायः अधिकांश हिरन समागम-काल में अपनी क्षेत्रसीमा निर्धारित करते हैं तथा हरम बनाते हैं। पहले क्षेत्रसीमा निर्धारण करने वाले नर का सीमाक्षेत्र बड़ा होता है तथा उसके हरम में मादाओं की संख्या अधिक होती है। धीरे-धीरे सीमाक्षेत्र के स्वामी नर को चुनौती देने वाले नर आने लगते हैं। इस स्थिति में प्रायः दोनों नर आपस में लड़ते हैं और विजेता नर का मादाओं पर अधिकार हो जाता है तथा पराजित नर दूसरी मादा की खोज में चल देता है। यह लड़ाई हमेशा नहीं होती। सामान्यतया नवागन्तुक नर कुछ मादाओं तथा सीमाक्षेत्र को लेकर संतुष्ट हो जाता है। इस प्रकार जैसे-जैसे हिरनों में समागम की उत्तेजना बढ़ती जाती है, नर का सीमाक्षेत्र छोटा होता जाता है और इसके साथ ही उसके हरम में मादाओं की संख्या भी कम होती जाती है। समागम-काल के अन्तिम समय में वयस्क नर मादाओं को छोड़ कर अलग हो जाते हैं। इस समय तक अधिकांश मादाएं गर्भधारण कर चुकी होती हैं। अब सीमाक्षेत्र के बाहर रहने वाले नव वयस्क नर मादाओं के निकट आते हैं। इन्हें न तो सीमाक्षेत्र बनाने में कोई रुचि होती है और न ही हरम बनाने में। ये प्रायः उन मादाओं के साथ समागम करते हैं जो अभी तक समागम से बची होती हैं या दो अथवा तीन वर्ष पूर्व समागम के योग्य हुई होती हैं। इस प्रकार की मादाओं में अधिक समय तक समागम की क्षमता होती है।

भारतीय हिरनों के सामाजिक संगठन एवं समागम आदि पर अभी तक शोधपूर्ण ढंग से सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन नहीं किया गया है तथा हिरनों के सामान्य अध्ययन के आधार पर इनके खान-पान, प्रजनन, जीवनचक्र आदि का वर्णन किया गया है। अभी तक हिरनों का सर्वश्रेष्ठ एवं वैज्ञानिक अध्ययन यूरोप के लाल हिरन का किया गया है। इसकी एक उपजाति हांगुल भारत में भी पायी जाती है। हांगुल की बहुत-सी आदतें लाल हिरन से मिलती-जुलती हैं। हांगुल का भी लाल हिरन के समान निश्चित समागम-काल होता है। समागम काल में पहले वयस्क नर मादाओं के साथ समागम करते हैं और इसके बाद उनसे अलग हो जाते हैं। अब नव वयस्क नर मादाओं के पास पहुंचते हैं और समागम करते हैं। भारतीय बारहसिंघा का समागम-काल अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग होता है। इनमें शक्ति के आधार पर नर बारहसिंघा मादाएं प्राप्त करता है। अधिक शक्ति शाली नर अधिक मादाओं के साथ समागम करता है तथा कम शक्तिशाली नर कम मादाएं प्राप्त कर पाता है। घने जंगलों में रहने वाले सांभर समागम-काल में हरम बनाने के लिए या किसी विशेष मादा के लिए आपस में नहीं लड़ते, बल्कि ये अधिक चारे वाली भूमि पर सीमाक्षेत्र बनाने, उस सीमाक्षेत्र की सुरक्षा करने तथा सीमाक्षेत्र की मादाओं पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिए लड़ते हैं। इनमें भी हांगुल के समान, नव वयस्कों के साथ लम्बे समय तक मादाएं देखने को मिल जाती हैं। हांगुल और सांभर के विपरीत जंगलों के छोर पर खुले मैदानों में रहने वाला चीतल कोई सीमाक्षेत्र नहीं बनाता । समागम-काल में नर चीतल वयस्क मादा की खोज में मादाओं के झुण्ड तलाश करता है तथा समागम की इच्छुक मादा के मिल जाने पर उसकी अन्य नर हिरनों से सुरक्षा करते हुए उसके साथ समागम करता है।

भारत में पाये जाने वाले छोटे आकार के हिरन-सूकर मृग, कांकड़, कस्तूरी मृग आदि बड़े झुण्ड बना कर नहीं रहते। नर और मादा सूकर मृग प्रायः अकेले ही रहते हैं। इनमें दो या तीन के झुण्ड कम ही देखने को मिलते हैं। इसी तरह कांकड़ भी एकान्त में रहता है या छोटे से परिवार के साथ रहता है जिसमें नर-मादा और उसके अल्प वयस्क बच्चे ही रहते हैं। इनके बच्चे एक वर्ष में वयस्क अर्थात् प्रजनन योग्य हो जाते हैं। ये प्रजनन के योग्य होते ही झुण्ड से अलग हो जाते हैं या इन्हें जबरदस्ती झुण्ड से अलग कर दिया जाता है। कांकड़ के एक झुण्ड में दो वयस्क नर नहीं रह सकते। इनमें झुण्ड का नेतृत्व नर करता है तथा उसी की सत्ता होती है।

भारतीय हिरनों के समागम के समान ही प्रजनन के सम्बन्ध में भी जानकारी बड़ी सीमित है। प्रायः मादा हिरन बच्चे को जन्म देते समय अपने झुण्ड से अलग हो जाती है और गर्भधारण के 6 से 8 माह के मध्य किसी सुरक्षित स्थान पर एकान्त में एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी जुड़वां बच्चे होते हुए भी देखे गये हैं। यह अपने बच्चे को इस प्रकार छिपा कर रखती है कि उसे ढूंढ़ना असम्भव सा हो जाता है। मादा हिरन नियम से बच्चे को दूध पिलाती है और उसकी सुरक्षा करती है।

कुछ बड़ा हो जाने पर बच्चा पिछले वर्ष उत्पन्न हुए बच्चों एवं मादाओं के झुण्ड के साथ चरना आरम्भ कर देता है और वयस्क होने तक इसी झुण्ड के साथ रहता है।

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