Antelope and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Gavay in Hindi.
Antelope : Indian Wildlife
Wildlife of India : Gavay is a wild animal of the Bovidae family (Alcelaphinae-वैज्ञानिक नाम). This family includes hoofed mammals like cow, sheep, goat etc. Gavay is the Ancient wild animal among them. Biologists believe that the ancestor of cow, sheep, goat etc. was a creature similar to Gavay, which became extinct about one crore years ago.
Antelope in hindi
गवय : वन्यजीव
गवय बोवीडाइ परिवार का वन्य जीव है। इस परिवार के अन्तर्गत गाय, भेड़, बकरी आदि खुर वाले स्तनपायी जीव आते हैं। इनमें गवय सबसे प्राचीन वन्य जीव है। जीव वैज्ञानिकों का मत है कि गाय, भेड़, बकरी आदि का पूर्वज गवय जैसा ही एक जीव था, जो लगभग एक करोड़ वर्ष पूर्व विलुप्त हो गया।
गवय एक शानदार वन्यजीव है। यह दूर से देखने पर हिरन की तरह दिखाई देता है, किन्तु यह हिरन से पूरी तरह भिन्न है। इसकी बहुत-सी आदतें तथा गुण गाय तथा भेड़ से मिलते-जुलते हैं। सम्भवतः यही कारण है कि गवय की सभी जातियों और उपजातियों के स्वरूप तथा आकार में अन्तर होता है।
विश्व में गवय की अनेक जातियां तथा उपजातियां पायी जाती हैं। इनमें प्रमुख हैं-ईलैण्ड, एडेक्स, कृष्णमृग, बांगो, चिरू, सेबल, डाइकर, ड्वार्फ एन्टीलोप, रोन, चौसिंघा, गजेल, चिंकारा, नीलगाय, नू, हार्टबीस्ट, इम्पाला, रीडबक, वाटरबक, ब्लावबोक, डिबाटेग, कुडु, ओरिक्स, सेइगा, रॉयल तथा बेट्सपिगमी। जैसा कि अभी बताया जा चुका है कि विभिन्न जातियों के गवयों के आकार में काफी अन्तर होता है। कुछ जातियों के गवय गाय के समान बड़े आकार के होते हैं तो कुछ का आकार भेड़ के नवजात बच्चे के बराबर होता है। विश्व का सबसे बड़ा गवय अफ्रीका में पाया जाने वाला ईलैण्ड है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 1.8 मीटर तथा वजन 1000 किलोग्राम तक होता है। बड़े आकार के गवयों की आयु लम्बी होती है तथा ये सामान्यतया 18 से 25 वर्ष तक जीवित रहते हैं। विश्व का सबसे छोटा गवय रॉयल एण्ड बेट्सपिगमी हैं। इसकी कंधे तक की ऊंचाई 30 सेन्टीमीटर तक तथा अधिकतम वजन साढ़े तीन किलोग्राम तक होता है। छोटे आकार के गवयों की आयु भी कम होती है। ये 8 से 10 वर्ष तक जीवित रहते हैं।
गवय झुण्ड में रहने वाला सुन्दर वन्यजीव है। इसके प्रतिवर्ष गिरने वाले मृगशृंग नहीं होते, बल्कि जीवनभर स्थायी रूप से रहने वाले शानदार सींग होते हैं। गवय के सींग सीधे, चिकने, नोंकदार तथा भीतर से खोखले होते हैं। इसके सींग प्रायः पेंचदार अथवा ऐंठे हुए होते हैं। मादा हिरनों के कभी भी सींग नहीं होते, किन्तु कुछ जातियों में मादाओं के भी सींग होते हैं। हिरनों के ऊपरी जबड़े में कैनाइन दांत होते हैं। कस्तूरी मृग के कैनाइन दांत इतने विकसित होते हैं कि मुंह के बाहर कांपों के समान निकले हुए होते हैं तथा अन्य जीवों से लड़ते समय शस्त्र का काम करते हैं। गवय में इस प्रकार के कैनाइन दांत नहीं होते।
हिरन के समान गवय की आंखों के नीचे की दरारों में ग्रन्थियां पायी जाती हैं। गवय हिरन के समान ही जुगाली करते हैं। कुछ गवय समागम-काल में हिरनों के समान सीमाक्षेत्र बनाते हैं तथा सीमाक्षेत्र की सुरक्षा एवं मादाओं की प्राप्ति के लिए आपस में हिंसक लड़ाई करते हैं। गवय के सींगों की संरचना इस प्रकार की होती है कि लड़ते समय दोनों नर गवयों के सींग एक दूसरे में फंस जाते हैं। अतः ये शक्ति प्रदर्शन के लिए एक दूसरे को पीछे धकेलने और गिराने का प्रयास करते हैं। इनमें मादाओं की प्राप्ति अथवा मादाओं की सुरक्षा के लिए नर गवयों के मध्य होने वाली लड़ाई अधिक हिंसक नहीं होती तथा इसमें किसी के सींग आदि भी प्रायः नहीं टूटते।
गवय झुण्ड में रहने वाला वन्यजीव है। समागम-काल में झुण्ड में नर के साथ मादाएं तथा उनके बच्चे भी रहते हैं। समागम के बाद नर झुण्ड से अलग हो जाता है और अन्य नरों के साथ मिल कर झुण्ड बनाता है जिसमें नव वयस्क नर भी होते हैं। समागम के बाद 6 से 8 माह के मध्य मादा गवय एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी जुड़वां बच्चे होते हुए भी देखे गये हैं। गवय का बच्चा जन्म के कुछ मिनटों बाद ही उठ कर खड़ा हो जाता है। इसका विकास भी बड़ी तेजी से होता है तथा शीघ्र ही यह अपनी आयु के बच्चों और मादाओं के झुण्ड के साथ विचरण करने लगता है।
भारत में चार प्रकार के गवय पाये जाते हैं। नीलगाय, कृष्णमृग, चौसिंघा और चिंकारा। इनके विषय में हम इसी पुस्तक में आगे विस्तार से पढ़ेंगे।
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Facts about Antelope in Hindi |
आइये! अब उन हिरनों और गवयों की चर्चा की जाये, जिन्हें हम भविष्य में कभी नहीं देख सकेंगे। ये जीव हमारी धरती से पूरी तरह विलुप्त हो चुके हैं। जीव वैज्ञानिकों की जानकारी में विश्व का पहला विलुप्त होने वाला हिरन अमरीका का ईस्टर्न एल्क (वापिती) था। यह एक सुन्दर हिरन था और इसके मृगश्रृंग बड़े शानदार थे। ईस्टर्न एल्क की समाप्ति के प्रमुख कारण जंगलों की कटाई, बस्तियों का विकास एवं शिकार आदि थे। विश्व के अन्तिम ईस्टर्न एल्क को कुख्यात शिकारी जिम जैकबसन ने 1 सितम्बर 1877 को पेनसलवानिया में मारा था। इसी तरह न्यू मैक्सिको और आरीजोना के जंगलों में बहुतायत से पाया जाने वाला हिरन अमरीका का मेरियम एल्क बीसवीं सदी के पहले दशक में समाप्त हो गया था। ईस्टर्न एल्क के समान सुन्दर, हल्की लाली लिये हुए बादामी रंग के इस हिरन के मृगशृंग बड़े आकर्षक थे। भारतीय सांभर के समान बड़े आकार का यह हिरन उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक मैक्सिको के सीमावर्ती जंगलों में हजारों की संख्या में पाया जाता था। यहां इसके दो-दो-हजार तक के झुण्ड बहुतायत से देखे जा सकते थे। अमरीका के भौतिक विकास के साथ ही साथ सन् 1860 में इसका पतन आरम्भ हो गया था और सन् 1906 तक यह धरती से पूरी तरह समाप्त हो गया। इस तरह बीसवीं सदी में वापिती की 11 जातियों में से दो जातियां विश्व से पूरी तरह समाप्त हो गयीं।
तीसरा विलुप्त होने वाला हिरन है डाबसन्स कैरिबू। यह ब्रिटिश कोलम्बिया (कनाड़ा) के क्वीन कारलोट आइलैण्ड्स में पाया जाता था। छोटे आकार के पीलापन लिये बादामी रंग के इस हिरन की खोज 1878 में जी. एम. डाबसन ने की थी। अतः इसका नाम उन्हीं के नाम पर रख दिया गया था। सन् 1900 में अर्नेस्ट थामसन ने इसका जीव वैज्ञानिक अध्ययन करके इसे लैटिन नाम दिया था। इसके बाद ही डाबसन्स कैरिबू का पतन आरम्भ हो गया। 1 नवम्बर 1908 को दो शिकारियों ने विरागो साउन्ड नामक स्थान से 5 किलोमीटर की दूरी पर चार हिरन देखे। इनमें से दो नर एक मादा और एक बच्चा था। शिकारियों ने देखते ही इनमें से तीन हिरनों को अपनी बन्दूक का निशाना बना लिया। बच्चा डाबसन्स कैरिबू भागने में सफल रहा, किन्तु कुछ ही दिनों में उसकी भी मौत हो गयी। इस तरह सन् 1908 में यह सुन्दर हिरन भी इस धरती से पूरी तरह समाप्त हो गया।
विश्व का चौथा विलुप्त होने वाला हिरन पूर्वी स्याम (थाईलैण्ड) का स्कोमबर्कस हिरन है। दलदल में रहने वाले इस हिरन के मृगशृंग बड़े सुन्दर थे। इनकी सुन्दरता ही इसके लिए अभिशाप बन गयी। इस हिरन के मृगशृंगों का उपयोग चीन में जादू-टोने तथा देशी दवाएं बनाने में किया जाता था। इसके साथ ही इसकी खालें यूरोप भेजी जाती थीं। इन सबके लिए इसका बड़ी संख्या में शिकार किया गया। थाईलैण्ड के औद्योगिक विकास के आरम्भिक काल में वहां रेलों और सड़कों का जाल बिछाया गया। इससे इन हिरनों का स्थान बदल कर इन्हें नये स्थान पर ले जाया गया। नया क्षेत्र कृषि प्रधान था तथा यहां के कृषकों के पास बन्दूकें भी थीं। इन कृषकों ने हिरनों को बसाने का विरोध किया तथा शिकारी कुत्तों और बन्दूकों की सहायता से इन्हें मारना आरम्भ किया। अन्तिम स्कोमबर्कस हिरन की हत्या सितम्बर 1932 में की गयी। इसे सायेक के वन क्षेत्र में एक पुलिसकर्मी द्वारा गोली से मारा गया था। इसी तरह ग्रीनलैण्ड में पायी जाने वाली रेनडियर की एक उपजाति ग्रीनलैण्ड टुन्ड्रा रेनडियर सन् 1950 में धरती से विलुप्त हुई। इस जाति का अन्तिम हिरन 1950 के अन्तिम समय में पूर्वी ग्रीनलैण्ड में देखा गया था।
भारत के मणिपुर राज्य में तैरते हुए भूखण्डों पर पाये जाने वाले संगाई को भी मणिपुर शासन ने सन् 1952 में विलुप्त घोषित कर दिया था, किन्तु इस घोषणा के कुछ समय बाद स्थानीय लोगों ने 3-4 संगाई देखे और उन्होंने इसकी सूचना मणिपुर शासन को दी। इसके बाद मणिपुर सरकार ने भारत सरकार के सहयोग से संगाई को संरक्षण प्रदान करने एवं इनके विकास के प्रयास आरम्भ किये। ये प्रयास काफी सफल रहे और संगाई विलुप्त होने से बच गया।
हिरनों के समान ही गवयों की विलुप्ति का इतिहास भी अत्यन्त दुखद और मार्मिक है। विश्व का पहला विलुप्त होने वाला गवय 'ब्लूबक' है। कृष्णमृग की तरह के इस गवय को स्थानीय लोग नीली बकरी के नाम से पुकारते थे। इसका रंग नीली आभा लिये हुए हल्का बादामी था तथा सींग ऐंठे हुए थे। 'ब्लूबक' के सम्बन्ध में अंग्रेज लेखक पेनेन्ट ने सन् 1871 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'द हिस्ट्री ऑफ क्वाडूपेड्स' में विस्तार से लिखा है। 'ब्लूबक' को सींगों अथवा मांस के लिए नहीं मारा गया बल्कि इसे इसकी सुन्दर खाल के लिए मारा गया। विख्यात जर्मन लेखक कोल्बे ने 1731 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि-'ब्लूबक' की सैंकड़ों खालें प्रतिवर्ष यूरोप भेजी जाती थीं। ब्लूबक को अन्तिम बार दक्षिणी अफ्रीका के कैप कॉलोनी में देखा गया था।
बूबल हार्टबीस्ट नामक गवय उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक मोरक्को से मिस्र तक तथा पैलेस्टाइन से अरब तक लाखों की संख्या में पाया जाता था, किन्तु फ्रांसीसी शिकारियों ने इसका इतना अधिक शिकार किया कि यह 1923 में इस धरती से पूरी तरह विलुप्त हो गया। इसके सम्बन्ध में विख्यात लेखक हेनरी बर्थ ने सन् 1857 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है। बूबल एक सुन्दर गवय था इसकी ऊंचाई 120 सेन्टीमीटर से 125 सेन्टीमीटर के मध्य थी तथा सींग बड़े आकर्षक थे। यह मध्य सहारा की पहाड़ियों, अल्जीरिया और मोरक्को के एटलस पर्वत पर बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक काफी संख्या में था। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह रेगिस्तानी क्षेत्रों के साथ ही घास के समतल मैदानों व जंगलों में भी सरलता से रह सकता था। इसमें ऊंची-नीची पहाड़ियों पर भी तेजी से चढ़ने-उतरने की क्षमता थी। बूबल को सरलता से पालतू बनाया जा सकता था और चिड़ियाघरों में रखा जा सकता था। इसका एक बच्चा पेरिस के चिड़ियाघर में 18 वर्ष तक जीवित रहा। इसी चिड़ियाघर में विश्व की अन्तिम मादा बूबल ने दम तोड़ा।
अल्जीरिया तथा नामीबिया (अफ्रीका) में हार्टबीस्ट की एक अन्य उपजाति पायी जाती थी-केपरेड हार्टबीस्ट। यह बूबल से कुछ छोटा था तथा इसके सींग भी बूबल से छोटे थे। ब्रूसेल्स के इन्टरनेशनल ऑफिस के अनुसार सन् 1833 में जब अंग्रेज दक्षिण और दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका में बसे तभी इनके द्वारा अत्यधिक शिकार किये जाने के कारण हार्टबीस्ट की दोनों जातियों का तेजी से पतन आरम्भ हो गया था। इस गवय को लगभग एक शताब्दी तक बचाये रखने का श्रेय एम. मोब्रास नामक एक कृषक और उसके परिवार को जाता है। इस परिवार ने 25 केपरेड हार्टबीस्ट पाले और उनकी सुरक्षा की। मोब्रास के पड़ोसियों ने इन्हें मारने के बहुत प्रयास किये। उन्होंने इन पर कुत्तों से आक्रमण तक कराये, किन्तु मोब्रास ने साहस से काम लिया। सन् 1938 तक इस परिवार में केपरेड की संख्या 55 तक हो गयी, किन्तु कुछ कारणों से मोब्रास के परिवारवालों ने 1938 में अपनी जमीनें बेंच दीं। इसके दो वर्ष बाद ही अर्थात् सन् 1940 में यह हिरन धरती से विलुप्त हो गया।
सन् 1940 में ही अल्जीरिया (अफ्रीका) के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला छल्लेदार सींग वाला एक गवय रूफस गजेल भी समाप्त हो गया। यह एक सुन्दर गवय था। इसकी कंधों तक की ऊंचाई लगभग 1.50 सेन्टीमीटर तथा सींगों की लम्बाई 30 सेन्टीमीटर से 35 सेन्टीमीटर के मध्य थी।
भारत में भी हिरनों और गवयों की वर्तमान स्थिति अच्छी नहीं है। इसके प्रमुख कारण हैं-इनके निवास स्थानों की कमी तथा अवैध शिकार । जिन स्थानों पर बीसवीं सदी के आरम्भ में घने जंगल और घास के मैदान थे, वहां आज खेती हो रही है। इससे इनके निवास स्थानों की कमी होती जा रही है। प्रायः खेतों के निकट के वनों में रहने वाले हिरन और गवय खेतों में भी पहुंच जाते हैं, अतः किसान इन्हें अपना शत्रु समझते हैं और अवसर मिलते ही मार डालते हैं। इसके साथ ही सींगों और खाल के लिए इनका बहुत बड़ी संख्या में अवैध शिकार भी किया जा रहा है। कस्तूरी मृगों से कस्तूरी प्राप्त करने के लिए इस हिरन का इतना शिकार किया गया कि यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है। तैरते हुए भूखण्ड पर रहने वाले विश्व के एक मात्र हिरन संगाई की स्थिति तो कस्तूरी मृग से भी अधिक दुखद है। भारत में हिरन और गवय दोनों ही सामान्य वनों से पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। अब तो इन्हें केवल राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और चिड़ियाघरों में ही देखा जा सकता है।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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