Turning Points in Modern Poetry, Literature, Sahitya Ka Badalta Roop, Adhunik Sahitya Me Parivartan, Kavita In Hindi.
History: A Turning Point
इतिहास ने जब करवट बदली : वर्तमान की सबसे बडी त्रासदी यही है कि अब हमने सोचना ही बंद किया है। बापू के तीन बंदर है जो कहते हैं, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। इस तर्जपर हमने कहना, सुनना और देखना तीनों पर रोक लगाई है और उन बंदरों से भी हम अधिक निष्क्रिय बन चुके हैं। मानों हम यह भी भूल गए है कि बुराई देखने के बाद हमें कुछ कहना है।
Karvat Badal Raha Hai : Itihas
इतिहास : करवट बदलता हुआ
पं. गिरिमोहन गुरु 'नगरश्री' की 'दोहे-देहरी-द्वार' काव्यकृति प्राप्त हुई और एक ही बैठक में पढ़कर मन को असीम आनंद प्राप्त हुआ।
आज कविता के नाम पर जो भी कुछ लिखा जाता है जिसे पढ़कर मन को संतोष नहीं बल्कि संत्रास ही अधिक मिलता है। आधुनिक मानव के पास आज सब कुछ है जैसे सुख के साधन एवं सुविधाएँ किंतु उसके पास सुख नहीं और चैन से जीने के लिए साजोसामान नहीं है। ऐसी स्थिति में छंदबद्ध रचना का निर्वाह करने वाली कोई काव्यकृति हाथ आती है तो मन प्रसन्न हो जाता है। इस संकलन के सभी दोहे शास्त्रीय रीति एवं परंपरा का उचित निर्वाह करते हैं इस कथन में हम जरा-सी भी आपत्ति नहीं है। जीवन के विविध विषयों से संबंध रखनेवाले यह दोहे एक ओर विवेच्य कवि की रचनाधर्मिता का परिचय देते हैं तो दूसरी ओर इन दोहों के माध्यम से जीवन की गहराई का भी पता चलता है।
बड़े-बड़े छंदो को स्वीकृत करके अपनी बात आसानी से कही जा सकती है किंतु लघु छंद में अपने मन की अभिव्यक्ति करना निश्चित ही जद्दोजहद का काम होता है। दोहा छंद लघु है और इसलिए इस संकलन की अहमियत और भी बढ जाती है। जीवन के सबसे नजदीकी एवं कोमल रिश्तों से संबद्ध बात कहना इतना आसान नहीं होता किंतु विवेच्य कवि ने यह कमाल कर दिखाया है इसलिए डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा की बात से हम सहमत हैं क्योंकि-'कवि में अदम्य रचनात्मकता हिलोरें लेती रहती है, यह दोहा-संग्रह उसी का प्रतीक हैं।' दोहा मूल रूप से अपभ्रंश का अपना छंद है इसलिए उसकी पुरातनता पर सवाल उठाना उचित नहीं है। हिंदुस्तानी काव्यधारा की विरासत काफी समृद्ध है और प्राचीन काल से आज तक अनेक कवियों ने दोहा छंद के माध्यम से अभिव्यक्ति की है जिसकी चर्चा करना व्यर्थ होगा इसलिए इस संदर्भ में हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि कवि गुरु जी ने प्राचीन दोहा छंद को आज इक्कीसवीं सदी में भी प्रासंगिक रूप में प्रयुक्त किया है। एक बात का पता नहीं चला यह पुस्तक प्रकाशित करते समय कवि ने इसे चौपाई की तरह क्यों छपवाया हैं अगर पुरानी परिपाटी के अनुसार इन्हें दो पंक्तियों में प्रस्तुत करते तो प्रभाव अन्विती बढ़ जाती खैर यह तो अलग बात है किंतु अगर इसे दो पंक्तियों में जोड़कर छाप देते तो इस पुस्तक का आकर्षणमूल्य और भी बढ जाता! अस्तु।
भगवान शिव और भगवान राम युगों-युगों से भारतीयों के श्रद्धा स्थान पर रहे हैं। कवि ने इनके माध्यम से सांप्रदायिक एकता पर बल दिया है। शिव के संदर्भ में हमें इक बात कहनी है, हमारी दृष्टि में शिव सर्वसाधारण मानव के प्रतीक हैं। समुद्र मंथन के समय वे चुपचाप आगे आते हैं और हलाहल पी जाते हैं। सर्वसाधारण मानव की भी यही नियति है, क्योंकि उसे दिनरात चुपचाप जहर पीना पड़ता ही है और इसके सामने कोई और विकल्प भी नहीं होता। इसलिए शिव केवल शिव नहीं अपितु वे जगत का मंगल करनेवाले 'शिव' हैं और इसलिए उन्हें 'महादेव' भी कहा जाता है।
माँ से हम संस्कार ग्रहण करते हैं और पिता से संरक्षण। माँ नदी के समान होती है जब कि पिता सागर होता है। वेदव्यास ने महाभारत में इस संदर्भ में एक सुंदर बात कही है, उनके अनुसार- 'माँ का हृदय धरती से अधिक क्षमाशील होता है जब कि पिता का हद्य आकाश से भी अधिक विशाल होता है।' हमें लगता है इन पंक्तियों का स्मरण कराने वाली यह पंक्तियाँ हैं।
घर में नई बहू आने से क्या परिवर्तन आते हैं जिसे विवेच्य कवि ने व्यंग्योक्ति के द्वारा स्पष्ट किया है किंतु हमारी निजी किंतु नम्र अवधारणा यही है कि हर घर में ऐसा नहीं होता। यह तो परिवार के सदस्यों पर निर्भर होता है कि नई बहू के साथ हम किस प्रकार से आचरण करते हैं और उससे कौन-कौन सी उम्मीदें रखते हैं।
आजकल साहित्यिक परिवेश में 'उत्तर आधुनिकता' की चर्चा बडी जोरों पर हैं। हमारे मतानुसार इस देश में उत्तर आधुनिकता प्रासंगिक नहीं थीं और आज भी नहीं है। हिंदी के कुछ स्वनामधन्य समीक्षक तो अब 'पराधुनिकता' के संदर्भ में अपनी बात रखते हैं। किंतु एक बात निश्चित सत्य है, कि हम अभी भी 'आधुनिक' नहीं हुए, इसलिए उत्तर आधुनिकता की बात करना लगभग बेमानी है। किंतु फिर भी इसके कुछ लक्षण और चिह्न दिखाई दे रहे हैं जिससे हमारी अपनी आस्थाओं का दोहन दिखाई देने लगा है। जिस दिन हिंदुस्तान में 'वृद्धाश्रम' खोले गए, जिस दिन 'पालनाघर' खोले गए, जब से लीव-इन-रिलेशनशिप शुरु हुई उस दिन से हम भी डरने लगे हैं। इसी आशंका लेकर की क्या सचमुच हम उत्तर आधुनिक हुए हैं ? कवि ने रामकथा के संदर्भ में जो अपनी बात कही है वह अक्षरशः सत्य प्रतीत होती है-
"राम तुम्हारे देश का बदल गया इतिहास
मौज करे बेटा बहू, पितु भोगे वनवास ।।"
आज मीडिया का जादू सबके सरपर चढ़कर बोल रहा है। मीडिया को टी.आर.पी. के सिवा कुछ और सूझता नहीं है और मीडिया का टी.आर.पी. बढाने के लिए हर बार नए-नए तौर तरीके इजाद किए जाते हैं। दिनभर ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जाती है और शाम को यह पता चलता है कि वह खबर गलत थी। जो हाल इलेक्ट्रानिक मीडिया का है वही हाल प्रिंट मीडिया का भी है और इसलिए अखबारों के पन्ने अर्धनग्न तस्वीरों से अब व्याप्त रहते हैं जिसे कवि ने स्पष्ट किया है।
वैश्वीकरण की लहर ने अब प्रकृति को भी नहीं छोड़ा। विवेच्य कवि का 'मुझे नर्मदा कहो' काव्य संकलन भी प्रदूषण की ही चर्चा करता है। प्रदूषण के कारण वातावरण कितना जहरिला हुआ है इसका जिक्र विवेच्य कृति में कई स्थानों पर मिलता है। ऐसा ही हाल रहा तो यह वातावरण श्मशान में बदल जाएगा यह कवि का डर बिलकुल सही है। मशीन का इस्तेमाल करते-करते मनुष्य खुद 'मशीन' बन गया है यह सत्य भी सामने आता है।
आज कविता के नाम पर जो भी कुछ परोसा जाता है उसे समझने की, ग्रहण करने की क्षमता हम जैसे अज्ञानियों के पास नहीं है किंतु छंद मुक्त कविता में छंद अक्सर गायब रहते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि एक परिच्छेद को काटकर एक पंक्ति के नीचे दूसरी, दूसरी के नीचे तीसरी रखी जाए तो कविता बन जाती है इसलिए कवि का यह सवाल मन को बेचैन करता है- 'छल छंद की जगह पर कब आएँगे छंद?'
वर्तमान संस्कृति की सबसे बडी विडंबना यह है कि जो फल का उपभोक्ता होता है उसे वह सम्मान नहीं मिलता, उल्टे उसे वह सम्मान मिलता है जिसका वह कतई हकदार नहीं है। भ्रष्ट व्यवस्था ने जीवन के सभी मानदंडों को बदल दिया है और इसलिए जहाँ भी देखिए ऐसे लोग मिलते हैं जिन्हें कतई वह अधिकार नहीं मिलना चाहिए। राजनीति जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों को व्याप्त कर चुकी है और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था उसी का नतीजा है। गाय को हम माता कहते थे किंतु अब माता को भी हम गाय समझने लगे हैं और इसकारण उसकी जगह अब घर में नहीं बल्कि सड़क पर है इसी सच्चाई को कवि ने शब्दबद्ध किया है।
आज का दस्तूर भी बडा अजीब-ओ-गरीब है। गुंडे या मवाली की इज्जत की जाती है और सज्जन मनुष्य को यातनाएँ दी जाती हैं। इसलिए शरीफ आदमी के हिस्से में भगवान शिव की तरह दुख ही आता है और सुख उससे दूर भागता रहता है।
आज का आदमी इतना तन्हा और बेचैन है कि यह 'आत्मसंवाद' करना भी भूल गया है। बात करने के लिए वह तरसता रहता है किंतु सामने किसी के न होने के कारण वह ब्लॉग लिखता है, ट्विट करता है, फेसबुक की शरण में जाता है। कृत्रिम उपायों का सहारा लेकर आत्माभिव्यक्ति करता है किंतु फिर भी उसे अपेक्षित शांति नहीं मिलती। कृत्रिम जलसे एवं जुलूस उसे कब तक सहारा देंगे ? इसकारण शायद हमने एक स्थान पर लिखा था 'फेसबुक तेरे, कितने चेहरे ?' वही बात
विवेच्य कवि की भी है इसलिए कवि सोचता हुआ दिखाई देता है कि अब जीवन में रस नहीं मिलता, उसे अनुभूत करना तो और भी दूर की बात है।
समकालीन परिवेश में अच्छी किताबें सामने नहीं आती और अपठनीयता की समस्या से सारा साहित्य विश्व आक्रांत एवं आतंकित है। बाजार में जो किताबे हैं उन्हें पाठक नहीं मिलते और पाठकों को जिस किताब की प्रतीक्षा है वह बाजार में नहीं आती। इसलिए अपठनीयता की समस्या पर बहसें होती हैं किंतु उसे दूर करने का कोई उपाय किया नहीं जाता अथवा केवल तर्क दिए जाते हैं। पुस्तकों के कारण ही मानवी जीवन समृद्ध होता है। उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता, यही यथार्थ है जिसे कवि ने स्पष्ट करते हुए यह उम्मीद जगाई है कि पुस्तक जीवन की सबसे बडी अनमोल देन है।
वर्तमान की सबसे बडी त्रासदी यही है कि अब हमने सोचना ही बंद किया है। बापू के तीन बंदर है जो कहते हैं, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। इस तर्जपर हमने कहना, सुनना और देखना तीनों पर रोक लगाई है और उन बंदरों से भी हम अधिक निष्क्रिय बन चुके हैं। मानों हम यह भी भूल गए है कि बुराई देखने के बाद हमें कुछ कहना है। इसलिए कवि की यह पंक्तियाँ निश्चित ही प्रासंगिक प्रतीत होती है-
"आँखे निर्वसना हुई, दृष्टि हुई बेशर्म
जीवन केवल रह गया, चाय उबलती गर्म।"
चाय में उबाल आती रहती है किंतु वह अपने बरतन से बाहर नहीं आती, मानवजाति का भी वही हाल है ऐसा हम मानते हैं।
'न कर्मफले स्पृहाः' भगवान ने गीता में कहा है। किंतु इस तरह से कोई भी नहीं सोचता। जो हाथ में आता है उसपर निर्वाह करने की, क्षमता अब शायद ही किसी में बची है। भगवान बुद्ध ने दो तृष्णाओं का उल्लेख किया है, पहली है भवतृष्णा और दूसरी है विभव तृष्णा। भव तृष्णा याने जीवन की, समृद्धि की तृष्णा जब कि विभव तृष्णा अर्थात मृत्यु की आकांक्षा। वर्तमान मानव श्रम नहीं
करता ऐसी हमारी अवधारणा नहीं है किंतु अपने श्रम का मूल्य उसे फौरन मिलना चाहिए। अपने अधिकारों के लिए वह लड़ता है किंतु अपने कर्तव्यों के प्रति वह उदासीन रहता है इस यथार्थ को भी कवि यहाँ अभिव्यक्त करता है।
कवि के सपनों का यथार्थ कब प्रत्यक्ष रूप में साकार होगा इसकी केवल प्रतीक्षा करना ही हमारे हाथ है। इसलिए कवि का 'युरोपियन रोमाँटिसिजम' वर्तमान परिप्रेक्ष्य में केवल कल्पना प्रतीत होती है किंतु कहते हैं कि दुनिया उम्मीद पर कायम है और इसलिए कवि के शब्दों में-
"मधुर शब्द बाती बने, तेल हद्य का प्यार
लेकर दीपक देह का, बार देहरी द्वार।"
पं. गिरिमोहन गुरु के दोहे देहरी से द्वार तक आए हैं, सवाल यह है कि हम उन्हें अपने दिल में कब स्थान दे पाएँगे ? इसलिए इस कृति का अंतिम दोहा हमारी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिसे यहाँ उधृत करना अनुचित नहीं होगा। कवि ने इस दोहे के माध्यम से अपनी चिंता, चिंतन को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है-
"कीचड पत्थर गुफाएँ, अंधकार की गर्द
प्रगतिशील कविता लिए, आई चेहरा जर्द।"
एक पुरानी, विस्तृत विधा दोहे को पं. गिरिमोहन गुरु जी ने इस कृति के माध्यम से फिर एक बार जीवित करने का प्रयास किया है और निःसंदेह वे उसमें कामयाब भी हुए हैं। वैसे पं. गुरु का रचना संसार काफी विस्तृत है इसलिए उन्हें बधाई देने का हमको अधिकार नहीं है। फिर भी उनके इस प्रयास की सराहना करते हुए हम अपनी बात को यहाँ विराम देते हैं और उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी पं. गुरु के द्वारा ऐसी कृतियों का निर्माण होगा और जिन्हें पढ़ने का हमें सौभाग्य मिलेगा।
- डॉ. विजय महादेव गाड़े
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