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Our Culture
हमारी संस्कृति हमारी पहचान है : भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार धर्म का माना गया है। भारतीय संस्कृति (bharatiya sanskriti) धर्म से जुडी है। भारतीय लोगों ने संसार के हर एक वस्तु को प्रकृति का उपहार मानकर उसकी पूजा की है। श्रद्धा और आहार का यह भाव ही आगे चलकर साहित्य, मूर्ति, चित्र, वास्तु निर्माण संगीत एवं नृत्य आदि में दिखायी पड़ती है। धर्म के साथ साथ मानव जीवन में साहित्य तथा संस्कृति का असाधारण एवं अपरिहार्य स्थान है।
Hamari Sanskriti
हमारी संस्कृति किस-किस से जुड़ी है
सामान्य रूप से हम सोचते हैं कि संस्कृति है क्या ? उसे जानने का प्रयास अकसर हम करते हैं। संस्कृति एक व्यक्ति से जुडी नहीं बल्कि धर्म, समाज एवं साहित्य से जुडी होती है। हम जानना चाहते हैं कि संस्कृति है क्या ? परन्तु संस्कृति की परिभाषा करना उतना ही कठिन है कि जितना दूध से पानी को अलग करना। अभी तक किसने भी संस्कृति की परिभाषा वैज्ञानिक रूप से नहीं किया हैं। परन्तु अपने-अपने तरीके से संस्कृति परिभाषा देने की कोशिश की है।
संस्कृति शब्द का सम्बंध संस्कार से है। जिसका अर्थ है संशोधन करना, परिष्कार करना या उत्तम बनाना। संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्तित्त्व को समृद्ध और परिष्कृत बनाते हैं। उन जीवन के इन मूल्यों का विवरण सही ही विविध रूपों में हमारे सामने आते हैं। सामान्य व्यवहार में संस्कृति और सभ्यता शब्दों का बहुधा समान अर्थ में प्रयोग करते हैं। परन्तु स्थिति ऐसी नहीं है। सभ्यता में उन आविष्कारों उत्पादनों के साधनों सामाजिक राजनीतिक संस्थानों आदि की गणना होती है। जिनके द्वारा मनुष्य की जीवन यात्रा चलती है। हम ऐसा कह सकते हैं कि संस्कृति मनुष्य का व्यवहार है और सभ्यता उसके क्रिया कलाप।
सभ्यता और संस्कृति को हम समानार्थी शब्दों के रूप में देखते हैं। वास्तव में इनमें भिन्नता है। मानव अपने-अपने जीवन को संस्कारित रूप से जीने की प्रविधि है-संस्कृति।
रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के बारे में लिखते हैं-असल में संस्कृति जीवन का एक तरीका है जिस में हम जन्म लेते हैं। अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ-साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी सन्तानों के लिए छोड़ जाते हैं इसलिए संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन में व्याप्त रचना तथा जिसकी रचना एवं विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। इतना ही नहीं बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तरों तक करती है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है।
भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार धर्म का माना गया है। भारतीय संस्कृति धर्म से जुडी है। भारतीय लोगों ने संसार के हर एक वस्तु को प्रकृति का उपहार मानकर उसकी पूजा की है। श्रद्धा और आहार का यह भाव ही आगे चलकर साहित्य, मूर्ति, चित्र, वास्तु निर्माण संगीत एवं नृत्य आदि में दिखायी पड़ती है। धर्म के साथ साथ मानव जीवन में साहित्य तथा संस्कृति का असाधारण एवं अपरिहार्य स्थान है।
साहित्य के सुंदरता को आविष्कार योग्य, रसपूर्ण बनाया जाता है। साहित्य और संस्कृति सदैव ही चिंतन योग्य एवं विचार योग्य बन जाते हैं। हमें प्रश्न उठता है कि साहित्य किसे माना जाये। शब्द तथा अर्थ के साहचर्य तथा सहभाग को ही साहित्य माना जाता है। शब्द, अर्थ और भाव शिव-पार्वती की समान एकरूप जाना जाता है। साहित्य से हमें जीवन दर्शन होता है। इससे हमें वास्तविक स्थिति की जानकारी मिलती है। अपने सुख को बढ़ाना तथा दुःख को बाँटना यही संस्कृति है। साहित्य प्रकट तब होता है जब गतिशील, व्यापक, तथा सर्वजनसंपन्न को लेकर चलता है। रामचरितमानस, रामायण, भगवत गीता आदि साहित्य हमारी धरोहर है और प्रतिष्ठा है। नित्यता और परिवर्तन शीलता ही संस्कृति की विशेषता मानी जाती है। संस्कृति के अंशों में भूमि, भाषा और साहित्य को ले सकते हैं। साहित्य का संबंध संस्कृति से तो है ही संस्कृति समाज से अलग नहीं रह सकती है। मानव एक समाजशील प्राणी है। वह समाज के बिना अपना जीवन यापन नहीं कर सकता। जिस समाज ने हमें जन्म दिया उस समाज को लेकर हम जी रहे हैं। उसकी स्मृति हमारी संस्कृति है। अपने जीवन में व्याप्त अपने परिवार से जो संस्कार हमें मिलते हैं। वह संस्कार हमारे जीवन संस्कृति का अंग बन जाता है। जन्म से या जन्म लेने से पहले जो संस्कार हमारे ऊपर होते है, वह मृत्यु के बाद ही समाप्त होते हैं।
इसलिए संस्कृति वह चीज है जो सन्तानों के लिए छोड़ जाते है और हमारे जीवन में व्याप्त है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक साहित्यों के अनुभवों का हाथ है। समाज और संस्कृति का अटूट संबंध है। समाज ही संस्कृति का जन्मदाता कहा जाता है। और आगे चलते-चलते संस्कृति ही समाज को दिशा दिखाती है। प्राकृतिक और भौगोलिक कारणों से विभिन्न प्रदेशों की संस्कृतियाँ अलग-अलग पायी जाती है। परन्तु जीवन के शाश्वत मूल्यों की दृष्टि से संपूर्ण मनुष्य जाति की संस्कृति एक ही है यह प्रतीत होता है। सत्य अहिंसा और प्यार आदि मूल्य ही समाज को मजबूत बनाकर सही दिशा देते हैं।
संस्कृति वह सत्ता है जो कि उसमें भाग लेने वाले सब लोगों को सिर्फ मिलाती ही नहीं, उनमें यह बोध भी जगाती है कि हम एक है। संस्कृति और व्यक्ति स्वातंत्र्य का गहरा और अनिवार्य संबंध है। सांस्कृतिक विकास से मानव स्वातंत्र्य का विकास होता है। हम ऐसा भी कह सकते हैं, व्यक्ति स्वातंत्र्य का विकास ही सांस्कृतिक विकास का कारण हो सकता है।
संस्कृति और इतिहास भी एक दूसरे से जुडे हुए है। प्रत्येक संस्कृति का अपना एक इतिहास होता है। अगर इतिहास अपनी संस्कृति खो देती है तो वह अपना अस्तित्व खोने के बराबर हो जाता है। संस्कृति से समाज को स्थायित्व प्राप्त होती है। अज्ञेय के अनुसार संस्कृति एक कब्र नहीं है वह जो जमीन है जिस पर पैर टेके बिना प्रगति हो ही नहीं सकती। बल्कि जो अगर नहीं है जो उस पर खड़ा होने वाला जन ही नहीं है। केवल एक छाया है। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो सिर्फ जीवित रहने के लिए नहीं जीता, बल्कि जो कि जीने के लिए कुछ आधार चाहता है कि मैं इन मूल्यों के लिए भी जीता हूँ। भाषा एक संस्कृति का सर्वाधिक शक्तिशाली उपकरण है। भाषा का अच्छा उपयोग करने से ही भाषा समृद्ध होती है। अगर किसी समाज की भाषा किसी ने छीन ली जाय तो उसकी आस्मिता हो खंडित हो जाती है। संस्कृति की बुनियाद है यथार्थ की पहचान अस्मिता की पहचान, मूल्यों का बोध।
भारतीय संस्कृति ने अपने राष्ट्र की एकता को एक सूत्र में बांधने के लिए वसुधैव कुटुम्बकम् जैसे सिद्धान्तों को समाहित किया है। भारतीय संस्कृति अपने प्रारंभ से ही सार्वभौमिकता की अवधारणा पर विश्वास करती है। सार्वभौमिकता व्यक्ति की सोच है। इस सोच के आधार पर विश्व की कल्याण की कामना करती है।
असतो मा सद्गमया
तमसो मा ज्योतिर्गमया
मृत्योर्मा अमृतंगमया
हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि विश्व को असत् से सत् की ओर ले चले, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चले तथा नश्वरता से अमरता की ओर अग्रसर करे।
संदर्भ ग्रंथ;
- भारतीय संस्कृति - संतोष कुमार चतुर्वेदी
- अज्ञेय के निबंध - सच्चिदानंद चतुर्वेदी
- साहित्य और संस्कृति-प्रो. सुधा जैन
- संस्कृति के चार अध्याय - दिनकर जी
- जी. संगीता
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